अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 1, अंक : 10, जून 2012
।।कथा प्रवाह।।
सामग्री : डॉ. सतीश दुबे, डॉ. रामकुमार घोटड़, दिनेश चन्द्र दुबे , ऊषा अग्रवाल, पंकज शर्मा, मोह. मुइनुद्दीन ‘अतहर’, किशन लाल शर्मा एवं बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’
की लघुकथाएं।
डॉ. सतीश दुबे
सुहाग के निशान
गाँव से आई दादी झाड़ू-पोंछा लगा रही प्रेमा के हाथ-पैरों की ओर गौर से देखते रहने के बाद कुछ जानकारी प्राप्त करने के लिए अंदर गई तथा लौटकर उससे सवाल किया-
‘‘प्रेमा, तुम्हारे पैरों में न तो बिछुड़ी, पायजेब है न हाथों में चूड़ियाँ। ये सब सधवा के निशान तेने क्यों छोड़ रखे हैं। घरों में कामकाज करते-करते आजकल की नई बहुओं को देखकर तू भी इसे फैशन समझती है क्या...?’’
दादी के कटाक्ष को संयम से निगल कर प्रेमा ने पोंछा बाल्टी में निचोड़ा तथा खड़ी होकर प्रत्युत्तर देते हुए बोली-
‘‘दादीजी, बर्तन-कपड़े-पोंछा में काम आने वाले तेज पावडर का घोल दिन-रात काम करने के कारण, इनमें घुस जाता है और ऐसी जलन और खुजली करता है कि मैं तुमको केह नहीं सकती। अब तुमज बताओ, घर में बैठी खसम की दी चार छोरा-छोरी निशानी का पेट भरने के लिए ये काम करूँ कि उसके सोहाग का ढोल बजाने के लिए ये खोटे-ठीकरे पहनूं’’ कर्कश स्वरों में कैफियत देते हुए प्रेमा, दादी को घूरते हुए अंदर चली गई।
उसके इस खुद्दारी-व्यवहार से किसी कीड़े के गहरे दंश सी पीड़ा महसूस करते हुए प्रेमा की पीठ को आँखें चौड़ी कर दादी ने देखा तथा धीमें से फुसफुसाई- ये छोटे लोग होते ही ऐसे हैं, कहो सीधा और समझे उल्टा...।
अगला पड़ाव
अपने बच्चों की अब तक की जीवन-यात्रा से सम्बन्धित विभिन्न अनुभवों, प्रसंगों, उम्रानुकूल चर्चा-चुहुल, बलात खोखले हंसी-ठट्ठों के बावजूद दिल-दिमांग के खालीपन की यथावत ऊब से निजात पाने के लिए कुर्सियाँ लगाकर दोनों आँगन में बैठ गए।
इधर-उधर निगाह घुमाते हुए अचानक बापू की निगाह बाउन्ड्री-वॉल के समतल भाग पर बीच में पड़े दानों को एक-दूसरे की चोंच में खिलाते हुए चिड़ा-चिड़िया की गतिविधियों पर जाकर ठहर गई। उन्होंने बा को हरकत में लाने के लिए इशारा करते हुए पूछा- ‘‘इन परिंदों को पहचाना, नहीं ना...? मैं बताता हूँ, यह वही युगल-जोड़ी है, जिन्होंने दरवाजे के साइड में लगे वुडन-बोर्ड की खाली जगह पर तिनका-तिनका चुनकर घोंसला बनाने से चूजों के पंखों में फुर्र होने की शक्ति आने तक की प्रक्रिया को अंजाम दिया था। ये वे ही तो हैं जो आज भी यदाकदा दरवाजे की चौखट पर मौन बैठे रहते हैं और तुम कमेन्ट्स करती हुई कहती हो- ‘‘देखो बेचारों की सूनी आँखें बच्चों का इंतजार कर रही हैं....।’’
‘‘आप भी ना, कुछ तो भी बातें करते हो। अच्छा ये बताओ, आपने इन्हें कैसे पहचाना?’’
‘‘अरे, जो हमारे आसपास प्रायः दिखते हैं, उन्हें कौन नहीं पहचान लेगा? वैसे भी परिन्दों के संसार का यह नियम है कि वे बसेरा बनाने के लिए चुना गया वृक्ष और घर, विशेष परिस्थितियों तक छोड़ते नहीं हैं...।’’
बापू ने महसूस किया बा का ध्यान उनकी बातों की ओर कम, चिड़ा-चिड़िया की गतिविधियों पर अधिक केन्द्रित था। अपने ध्यान से उपजी सोच को बापू के साथ बाँटते हुए वह बोली, ‘‘लगता है अपने फर्ज से निपटकर इन्होंने अपनी नई जिन्दगी शुरू कर दी है।’’
बापू ने महसूस किया यह कहते हुए बा के चेहरे पर उत्साह और प्रशन्नता के भाव तरल बदलियों की तरह घुमड़ रहे हैं।
{डॉक्टर दुबे साहब की नवीनतम एव चर्चित पुस्तक ‘बूँद से समुद्र तक’ से साभार}
- 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)
डॉ. रामकुमार घोटड़
{लघुकथा के चर्चित एवं वरिष्ठ साहित्कार डॉ. रामकुमार घोटड़ जी का लघुकथा संगह ‘संसारनामा’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से उनकी दो प्रतिनिधि लघुकथाएँ।}
दीप-दान
दुर्घटना के समय मेरे सिर पर चोट लगने से मैं बेहोश हो गया था। होश आने पर पता चला कि मेरी आँखों की रोशनी चली गई।
आज मेरी आँखों की पट्टी खोली जानी है। डॉक्टरों ने अपने हुनर से मेरी नेत्र-ज्योति लौटाने की कोशिश की है।
पट्टी हटते ही सर्वप्रथम मैंने उस डॉक्टर के दर्शन किये, जिन्होंने मेरी आँखों का ऑपरेशन किया है। उसमें मुझे भगवान का रूप दिखाई दिया और श्रद्धावत् मेरे हाथ स्वतः ही उनके सामने करबद्ध हो गये।
‘‘बधाई हो श्रीमान्....। आपका ऑपरेशन सफल रहा है और मैनेजर साहब, यह उस शख्स का चित्र व जीवन परिचय....’’, डॉक्टर साहब ने एक कागज मेरे सामने रखते हुए कहा... ‘‘ जिन्होंने मृत्युपूर्व ही अपनी आँखें दान कर दी थी, वही आँखें आपके ऐसे सैट हो गई हैं कि जैसे आपकी स्वयं की आँखें हों। ऑपरेशन में हमें किसी भी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा और न ही कोई ज्यादा मशक्कत...।’’
मैंने कागज को हाथ में लेकर देखा, ‘‘यह...?’’ मैं उस फोटो को देखकर अवाक् रह गया। यह... यह तो मेरे चाचाजी का फोटो है.... मेरे माँ-बाप बचपन में ही गुजर गये थे। चाचाजी के कोई औलाद नहीं हुई। मुझे ही अपनी संतान की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया और पढ़ा-लिखाकर इस बैंक मैनेजर पद के योग्य बनाया। और कुछ वर्ष पूर्व हृदय-गति रुक जाने से चाचीजी कर देहान्त हो गया और चाचाजी एक अकेले, एकान्त में रहने लगे। उस एकांकी जीवन ने ही शायद उन्हें शराब का आदी बना दिया। शराब के सेवन ने उन्हें इतना अव्यवहारिक बना दिया कि मेरे बच्चे उन्हें देखकर सहमे-सहमे से रहते। मेरी बीवी-बच्चों पर उनके चाल-चलन से बुरा असर न पड़े, इसी कारण मैंने एक दिन चाचाजी पर गुस्सा कर डाला और मेरे मुँह से उनके लिए असंस्कारित शब्द निकल गये। वे प्रत्युत्तर में कुछ नहीं बोले। शायद उन्होंने अपना अपमान समझा और उसी समय घर छोड़कर चले गये, फिर लौटकर वापिस नहीं आये।
और फोटो के सामने श्रद्धावत स्वतः ही मेरा शीश झुक गया।
पेशेवर व्यस्तता
एक चिकित्सक होने के नाते मैं अपने पेशे में इतना व्यस्त हो जाता हूँ कि पारिवारिक गतिविधियों से कट-सा जाता हूँ। दिन भर क्लीनिक में मरीजों का स्वास्थय परीक्षण एवं परामर्श करते-करते जब मैं घर लौटता हूँ तब बुरी तरह थक चुका होता हूँ, तब मैं आरामपरस्ती, फुर्सत के क्षण व एकान्त पसन्द करता हूँ। इस दौरान परिवार के सदस्य जब अपनी स्वास्थ्य संबधित परेशानी मेरे सामने रखते हैं तब मुझमें चिड़चिड़ापन व झुँझलाहट आ जाता है। तब मैं उन्हें हल्की-फुल्की दवा व परामर्श देकर औपचारिकता पूरी कर लिया करता हूँ।
एक दिन जब मैं अपनी क्लीनिक में बीमारों से घिरा बैठा था तब बुर्का पहने एक औरत पास आकर स्टूल पर बैठ गई और कहने लगी, ‘‘डाक्टर साहब! पन्द्रह वर्ष पहले जब मेरे दूसरी संतान हुई तभी से नाभी से दाँयीं ओर दर्द रहता है। कभी-कभी तो तेज चीस भरा दर्द होता है और जब नहीं होता तब कई दिनों तक स्वस्थ रहती हूँ.....।’’
‘‘इतने दिनों से परेशान हो, इलाज लेना चाहिए था, क्या करते हैं आपके पति.....?’’
‘‘वे अपने पेशे में व्यस्त रहते हैं.....।’’
‘‘इतनी भी क्या व्यस्तता कि परिवार के सदस्यों का भी ध्यान न रख सकें....।’’
‘‘यह लो पचास रुपये आपकी फीस, और आवश्यकतानुसार जाँच करवाकर मेरा इलाज करें....।’’
मैंने पचास रुपये लेकर टेबिल की ड्रावर में रख लिये और जीभ, गला और आँख देखने के उद्देश्य से मैंने उसे मुँह पर से पर्दा हटाने को कहा।
उसने ज्यों ही पर्दा हटाया, मैं अवाक् रह गया। उसे देखकर और बनावटी क्रोध में कहा....‘‘तुम्हें यहाँ आने की क्यों जरूरत पड़ी और वो भी इस भेष में, मुझे घर पर ही सब कुछ बता दिया होता....।’’
‘‘घर पर भी आपको फुर्सत कहाँ होती है, सोचा क्लीनिक पर शायद अच्छी तरह चैकअप कर लेंगे...।’’
‘‘घर चलो, मैं शर्मिन्दा हूँ, अब आपका जरूरती जाँच करवाकर निश्चित तौर से इलाज करूँगा....।’’
मैंने अपने हाथ से उनके मुँह पर पर्दा डाल दिया ताकि बीमार व कोई परिचित पहचान न ले कि यह मेरी बीवी है।
- सादुलपुर (राजगढ़), जिला-चूरू-331023 (राजस्थान)
दिनेश चन्द्र दुबे
राष्ट्रसेवा
लम्बे समय तक शिक्षा दान द्वारा राष्ट्रसेवा करते-करते आखिर वे रिटायर हुये। उन्होंने फैसला किया कि शरीर में जब तक अन्तिम साँस रहेगी तब तक वे निःशुल्क शिक्षा दान करेंगे।
जल्दी ही उनकी ख्याति इस शहर के कौने-कौने तक फैलकर आखिर मुझ तक आ ही गई। मैंने भी उन्हें अपने बच्चों को आखिर उनके शिष्यों में शामिल करने के लिए आमन्त्रित किया। वे तुरन्त हाजिर होकर गद्-गद् कण्ठ से बोले-
‘धन्य भाग हमारे। आपके बच्चों को पढ़ाने की लालसा वर्षों से थी। बच्चे ही ऐसे हैं कि .....’।
पूरे साल वे तन्मयता से बच्चों को पढ़ाते रहे। उन्होंने कई बार शुल्क भेजने पर साफ इनकार कर दिया तो मेरे मन में श्रद्धा का भाव जन्मना स्वाभाविक था। वे मेरे लिए अब बच्चों के मात्र अध्यापक से बढ़कर बुजुर्ग बन गये थे। एक दिन बच्चों को पढ़ाकर जाने वाले थे कि मुझे देखकर रुक गये।
‘कहिये पंडित जी, कोई दुःख तकलीफ हो तो निसंकोच हम से कह सकते हैं। अपना ही घर समझें।
और तब वे आखिर संकोच त्यागने पर बाध्य हो गये थे- ‘क्षमा करें श्रीमान्।
बात यह है कि आपके यहाँ आता हूँ, यह तो सभी देखते ही हैं। मैंने उन लोगों से कहा भी। लेकिन.....। यूँ अब आदमी तो हम और आप भी हैं ही। फिर पेट भरने के लिए जरूरी है कि.....।’ फिर मेरे कान के पास फुसफुसाते हुए वे बोले, ‘इस शहर में आपने मेरी प्रतिष्ठा तो देख ही ली होगी? आप कहें तो तय कर लूँ। पार्टी तगड़ी है। विश्वास की है। जितना आप कहेंगे, उतनी रकम.... और बात भी केवल आप और मुझ तक भर सीमित रहेगी। आपके यहाँ ट्यूशन शुरू करते वक्त मैंने सोचा भी यही था कि आप जैसे ईमानदार आदमी से पैसे लेने के बदले तो कुछ मुकदमों के फैसलों में आपकी मदद मांग लूँगा। बस.....’।
- 68, विनय नगर-1, ग्वालियर-12 (म.प्र.)
ऊषा अग्रवाल
शहर का बच्चा
गाँव में रोज गाय और कुत्ते को रोटी देने की आदत थी। बच्चों की आगे की पढ़ाई के लिए गाँव छोड़कर शहर आना पड़ा। शहर में भी घर एकदम पॉश इलाके में, जहाँ ईंट-सीमेन्द से बने बड़े घर, धुआँ उड़ाती मोटर-बाईक और कारें ही नज़र आतीं। कुत्ता तो रात में कभी दिख जाता पर गाय को रोटी खिलाने को मैं तरस जाती।
सुबह-सुबह बालकनी में बैठी अखबार के पन्ने पलट रही थी कि घर के सामने दो गाय बैठी दिखाई दी। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैंने अपनी किशोर बेटी को आवाज लगाई और कहा कि नीचे जाकर गाय को रोटी खिला आए।
सामने की इमारत में एक बच्चा स्कूल के लिए ऑटो का इंतजार कर रहा था। उसकी मम्मी ने भी गाय को देख झट अंदर जा दो-तीन राटियाँ न्यूज-पेपर पर रख उसे गाय को खिला आने को कहा। उस बच्चे ने न्यूज-पेपर सहित रोटी गाय के सामने कुछ दूरी पर डरते-डरते ले जाकर रख दी और अपनी बालकनी में जाकर खड़ा हो गया।
कुछ देर बाद मेरी बेटी अपने हाथ से सस्नेह गाय को रोटी खिलाने लगी, जिसे देखकर वो बच्चा आश्चर्य से अपने मुँह पर हाथ रखकर जोर से चिल्लाकर कहने लगा, ‘‘मम्मी देखो, दीदी गाय को कैसे अपने हाथ से रोटी खिला रही है!’’
मैं खुशी और रोमांच स,े आश्चर्यचकित हुए उस बच्चे को तो कभी आराम से रोटी खाती गाय और उसे दुलारती अपनी बेटी को देखती अनायास कह बैठी- ‘‘शहर का बच्चा!’’
- मृणमयी अपार्टमेन्ट, 108 बी/1, खरे टाउन, धरमपेठ, नागपुर-440010 (महा.)
पंकज शर्मा
अंतर
सरकारी वर्कशाप में गाड़ियों की मरम्मत का काम नित्य की तरह चल रहा था। एक अधेड़ उम्र के मिस्त्री (टैक्नीशियन) ने अपने हैल्पर से, जिसे भर्ती हुए साल भर ही हुआ था, कुछ सामान स्टोर से लाने को कहा। ‘‘अभी आया जनाब‘‘ कहकर वह लड़का वहाँ से चला गया। जब कुछ देर तक वह वापिस नहीं आया और मिस्त्री को अपना हाथ काम पर से रोकना पड़ा तो उसे थोड़ी खीज सी उठी।
मिस्त्री ने अपने हमउम्र साथी, जो पास ही काम कर रहा था, को बोला, ‘‘देख ले भाई सतविन्दर, कब का गया अब तक नहीं आया। जरा सा सामान उठा कर लाना था और इतनी देर लगा दी है। इनकी उम्र में हम थे तो दौड़-दौड़ कर और चुस्ती-फुर्ती से काम किया करते थे। और इन्हें देखो, अभी से यह हाल है तो आगे क्या होगा इनका? पता नहीं नौकरी भी पूरी कर पाएंगे या नहीं?’’
तभी वह हैल्पर लड़का सामान लेकर आ गया। उसने अपने मिस्त्री की बात सुन ली थी, इसलिए हंसकर बोला, ‘‘मिस्त्री जी, आपके समय में जमाना अच्छा और सस्ता था। नौकरी आसानी से मिल जाती थी और खाने-पीने को भी खूब खुल्ला और खालिस मिलता था। इसलिए इतनी दौड़-धूप और चुस्ती-फुर्ती से काम कर लेते थे। आज के हालात तो आप देख ही रहे हो, क्या हाल हो रहा है- न तो खाने-पीने की चीजें शुद्ध मिलती हैं और न ही सस्ती। ऐसे में शरीर में जान कहां से आएगी? और रहा सवाल दौड़-धूप और चुस्ती-फुर्ती का तो वह तो हमारे घुटनों की ग्रीस पहले ही नौकरी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते और उसे पाने की जद्दोजहद में खत्म हो चुकी है तो आएगी कहां से? अब रहा नौकरी करने का सवाल तो जब तक शरीर चलेगा, चलाएंगे वर्ना तो राम-नाम सत्य हो जाएंगे।’’ और वह खिलखिला कर हंस दिया।
उसकी हंसी में तीखा व्यंग्य और सच्चाई थी, जिसे सुनकर मिस्त्री के मुंह से स्वतः ही निकल गया, ‘‘हां काके, तू ठीक कहता है।’’
- प्लाट नं. 19, सैनिक विहार, सामने विकास पब्लिक स्कूल, जण्डली, अम्बाला शहर (हरियाणा)
मोह. मुइनुद्दीन ‘अतहर’
{अतहर जी का लघुकथा संग्रह ‘फूल और काँटे इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है उनक इस संग्रह से दो लघुकथाएँ।}
बहू का व्यवहार
सास कमरे का पोंछा लगा रही थी और पास ही सोफे पर बैठी बहू, निश्चिंत स्वेटर बुन रही थी। थोड़ी-थोड़ी देर में वह सासु जी को हिदायत भी करती जा रही थी, ‘‘सासु जी! जरा जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ, अभी बहुत काम बाकी है।’’
तभी उनका चौदह वर्षीय पुत्र कमरे के अन्दर आते हुए मां से बोला, ‘‘मेरे कपड़ों में प्रेस हो गया? दस बज रहे हैं, मुझे स्कूल जाना है।’’
स्वेटर की तीलियों को चलाते हुए मां ने बुरा सा मुँह बनाकर कहा, ‘‘अपनी दादी से पूछो। सुबह से उठकर न जाने क्या कर रही हैं। अभी तो कमरों में पोंछा ही नहीं लग पाया, प्रेस कब होगा। दोनों समय खाने को मिल रहा है पेट भर कर, तो काम की किसे परवाह है। देखो न हाथ ऐसे चल रहे हैं जैसे महीनों से बीमार हों।
बेटे को दादी मां के प्रति मां का व्यवहार ठीक नहीं लगा। वह कुछ क्षण शांत खड़ा रहा, फिर बोला, ‘‘मां! मेरी शादी के बाद अगर मेरी पत्नी आपके साथ यही बर्ताव करे तो मुझसे शिकायत मत करना।’’
सबसे बड़ा भिखारी
सर्वेक्षक ने एक भिखारी से पूछा, ‘‘भारत में सबसे बड़ा भिखारी कौन है?’’
भिखारी कुछ देर मौन रहा, फिर सर खुजाते हुउ बोला, ‘‘साब! सबसे बड़ा भिखारी पुलिस वाला है।’’
सर्वेक्षक - ‘‘वह कैसे? पुलिस तो जनता की सेवक है।’’
भिखारी - ‘‘सर! आप तो पढ़े-लिखे हैं। मैं भी पढ़ा-लिखा हूं। ग्रेजुएट हूं। मुझे भिखारी इन पुलिस वालों ने ही बनाया है। ये पुलिस वाले सबसे बड़े भिखारी हैं क्योंकि ये भिखारियों से भी भीख मांगने के पैसे वसूल करते हैं।’’
सर्वेक्षक के चेहरे के भाव बदलने लगे। आंखें लाल सुर्ख अंगारे के समान दहकने लगीं। वह जोर से दहाड़ा- ‘‘चुप.... पुलिस को बदनाम करता है। मैं सिविल ड्रेस में हूं तो तू कुछ भी बकबास करेगा और मैं मान लूंगा। तू यहां पर एक घंटे से खड़ा भिक्षा मांग रहा है, मैंने तुझसे कुछ मांगा क्या? नहीं न? चल निकाल पांच रुपये।’’
दोनों एक साथ बड़बड़ाए, ‘‘साला, भिखारी कहीं का।’’
- 1308, अज़ीज़गंज, पसियाना, शास्त्री वार्ड, जबलपुर-2 (म.प्र.)
किशन लाल शर्मा
रोटी
दो कुत्तों की नजर एक रोटी पर पड़ी। दोनों रोटी की तरफ लपके। वे एक-दूसरे को रोटी लेने देना नहीं चाहते थे। इसलिए झगड़ने लगे।
वे झगड़ रहे थे, तभी एक बंदर वहाँ आ गया। बंदर को देखते ही दोनों कुत्तों को रोटी की बंदरबांट की कहानी याद आ गई। कुत्तों ने सोचा अगर वे झगड़ते रहे तो रोटी बंदर ले जायेगा। समझदारी से काम लेते हुए आधी-आधी रोटी बांटने का आँखों ही आँखो में फैसला करके वे बंदर को भगाने को दौड़ पड़े।
- 103, रामस्वरूप कॉलोनी, आगरा-282010 (उ.प्र.)
बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’
सबूत
एक महिला अपने बच्चे को लेकर एक महात्मा जी के पास पहुंची। वह बच्चे का भविष्य जानना चाहती थी।
‘महाराज, मेरे बच्चे का भविष्य बताइए।’
‘पहले तुम बच्चे का कोई ऐसा काम बताओ, जो सामान्य से अलग लगता हो?’
‘रात को सोते-सोते यह चिल्लाने लगता है- ‘आगे बढ़ो, आगे बढ़ो।’
‘उस समय यह खुद क्या करता है?’
‘पलंग से उतरकर नीचे छिप जाता है।’
‘तुम्हारा बेटा नेता बनेगा।’ महात्मा जी ने भविष्यवाणी की।
‘इन्हें प्रणाम कर बेटा।’ महिला ने महात्मा जी की ओर इशारा करते हुए पुत्र से कहा।
महात्मा जी के पैरों में झुकते बच्चे ने आसन पर रखे चढ़ावे के पैसों में से एक नोट चुपके से उठा लिया।
महात्मा जी ने देखकर भी अनदेखा करते हुए सोचा- ‘अब तो पक्का हो गया कि मेरी भविष्यवाणी गलत नहीं होगी।
- डॉ. बख्शी मार्ग, खैरागढ़-491881, जिला- राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
katha pravah me lagbhag sabhi laghu kathayen achchi hai .Dubeji ki suhag ke nishan,Atahar ji ki Sab se Bada bhikhari aChchi hai . Ghotar ji ki Peshevar yogyata rochak bhi hai.shubh kamanaye.
जवाब देंहटाएंhttp://laghu-katha.blogspot.com/