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शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 01-02,  सितम्बर-अक्टूबर  2014


प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल: 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।


रेखा चित्र : स्व.पारस दासोत 
(यह चित्र अभिशक्ति को असीम
स्नेह के साथ दासोत जी नेभेंट किया था,
जब जयपुर की एक यात्रा के दौरान
अभि उनके आवास पर उनके दर्शन
करने गया था।)
।।सामग्री।।

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सम्पादकीय पृष्ठ { सम्पादकीय पृष्ठ }:  नई पोस्ट नहीं। 

अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} :  इस अंक में महावीर रवांल्टा, डॉ. नलिन, डॉ. सुरेश उजाला, शिरोमणि महतो, सुरेश कुमार शुक्ल सन्देश,  महेन्द्र सिंह महलान सम्पादित कविता संकलन 'नदियाँ और सागर' से  शिव सागर शर्मा ‘भावुक’, महेन्द्र सिंह महलान व  बलबीर सिंह ‘करुण’, अशोक दर्द  सम्पादित  कविता संकलनसे 'मेरे पहाड़ में' से  डॉ. दीपक वर्मा, बलदेव राज खोसला, देवराज डढवाल, अशोक दर्द, जगजीत आजाद की कविताएँ। 

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} :   इस अंक में स्व. पारस दासोत, मधुदीप द्वारा संयोजित-सम्पादित संकलन श्रंखला 'पड़ाव और पड़ताल' के  खण्ड-3 से  प्रवोध कुमार गोविल, मधुदीप, रमेश बत्तरा, रूप देवगुण, डॉ. सतीश दुबे व सूर्यकान्त नागर एवं  अन्य लघुकथाओं में बालकृष्ण गुप्ता ’गुरु’, डॉ. प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’ व  मोह. मुइनुद्दीन ‘अतहर’ की लघुकथाएँ। 

कहानी {कथा कहानी} : नई पोस्ट नहीं।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ} :  इस अंक में श्री नरेश कुमार ‘उदास’ की क्षणिकाएँ। 

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में श्रीमती उषा अग्रवाल 'पारस'  द्वारा सम्पादित हाइकु संकलन 'हाइकु व्योम' से कुछ हाइकुकारों ( डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. सतीश दुबे, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, उषा अग्रवाल ‘पारस’, दिलीप भाटिया, पुष्पा जमुआर, कमलेश चौरसिया, केशव शरण, नरेन्द्र परिहार, मृणालिनी घुले, डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’, डॉ. रघुनन्दन चिले, वंदना सहाय,  आशीष कंधवे, डॉ. भावना कुंवर, अनिता ललित, डॉ. रेखा कक्कड़, विभा रश्मि, सनत कुमार जैन, डॉ. सुषमा सिंह, कान्ता देवांगन, प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, माधुरी राऊलकर व  रवीन्द्र देवधरे ‘शलभ’) तथा श्री देशपाल सिंह सेंगर  हाइकु। 

जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} : इस अंक में श्री मुखराम माकड़ ‘माहिर’ के जनक छंद। 

माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  नई पोस्ट नहीं।

बाल अविराम {बाल अविराम} :   नई पोस्ट नहीं।

हमारे सरोकार (सरोकार) :  नई पोस्ट नहीं।

व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  नई पोस्ट नहीं।

संभावना {संभावना} :  नई पोस्ट नहीं।

स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} :  नई पोस्ट नहीं।

क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : नई पोस्ट नहीं।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :   नई पोस्ट नहीं।

किताबें {किताबें} :   नई पोस्ट नहीं।


लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ} : नई पोस्ट नहीं।

हमारे युवा {हमारे युवा} :  नई पोस्ट नहीं।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} :  पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम की समीक्षा (अविराम की समीक्षा) :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम के अंक {अविराम के अंक} :   नई पोस्ट नहीं।

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के  30 सितम्बर 2014 तक अद्यतन आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार} :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 01-02,   सितम्बर-अक्टूबर  2014



।।कविता अनवरत।।

सामग्री : इस अंक में महावीर रवांल्टा, डॉ. नलिन, डॉ. सुरेश उजाला, शिरोमणि महतो, सुरेश कुमार शुक्ल सन्देश,  महेन्द्र सिंह महलान सम्पादित कविता संकलन 'नदियाँ और सागर' से  शिव सागर शर्मा ‘भावुक’, महेन्द्र सिंह महलान व  बलबीर सिंह ‘करुण’, अशोक दर्द  सम्पादित  कविता संकलनसे 'मेरे पहाड़ में' से  डॉ. दीपक वर्मा, बलदेव राज खोसला, देवराज डढवाल, अशोक दर्द, जगजीत आजाद की कविताएँ। 



महावीर रवांल्टा




{जाने-पहचाने कवि-कथाकार महावीर रंवाल्टा का कविता संग्रह ‘सपनों के साथ चेहरे’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था। उनके इस संग्रह से प्रस्तुत हैं कुछ कविताएं।}

समय कुछ नहीं भूलता

(21 मार्च 1996 को परेड ग्राउंड, देहरादून में पत्रकारों व जनता पर हुए लाठी चार्ज के बाद)

आखिर कब रुकेगा

हिंसा का तांडव
कितने निशाने और होंगे इसके
कितने औरों को देनी होंगी शहादत
सहनी पडेगी कितनों को मार
कौन सी सीमा होगी
इसके समापन की?

राजनीतिक रोटियां

कौन कौन लोग कब तक सेकेंगे
पहाड़ की तपती जमीन पर 
और किसके लिए
तुम्हारे स्वार्थी चेहरे
वैसे भी बेनकाब होने लगे हैं।

स्वार्थ की राजनीति के बहाने

कोई हल्ला बोलते हैं
अखबार जलते हैं
और पिटते हैं पत्रकार
प्रजातंत्र के चौथे स्तम्भ पर
लाठियां बरसाते लोग
कितने अच्छे लगते हैं तुम्हें

फिर ओढ़ लेते हो
अपनी तरह की चुप्पी।

अमानवीय

बर्बर और वीभत्स होने के बावजूद
रेखा चित्र : राजेंद्र परदेसी 

कितने निष्प्राण हो जाते हो तुम
लोकतंत्र के स्तम्भों पर आक्रमण होते देख
बहता रक्त देख
पिटते, कराहते लोग देख
कितने खुश होते हो तुम

अपने जय घोष के साथ

कितना भूल जाते हो
सब कुछ
लेकिन
समय कुछ नहीं भूलता
तुम्हें भी नहीं भूलता
तब तुम्हें अपनी कब्र खुद मिल जाएगी।

बेटी के जाने के बाद पिता की दुनियां

मेरी बच्ची!

ऐसे ही रखे हैं 
तुम्हारे खिलौने
जिन्हें तुमने
ठीक से छुआ भी न था
और पापा चाहते थे कि
तुम जल्दी ही बड़ी हो जाओ
इनसे खेलो
इनमें से कुछ फेंको
कुछ तोड़ो
और वे तुम्हें नए लाकर दे सकें।
मेरी बच्ची!
न छू सकी तुम 
इन खिलौनों को
न जाने कैसा झंझावात था
जिसने तुम्हें
खिलौने छूने से पहले
उनसे दूर कर दिया।
वैसे तुम भी तो
कोई खिलौना सी थी पापा के लिए
जिसके साथ खेलते हुए
सब कुछ भूल जाते थे पापा
रेखा चित्र : के.रविन्द्र 
नौकरी की थकान
घरेलू समस्याएं
दुनिया भर की उलझनें
और चिंताएं।
याद रहता था
सिर्फ इतना कि-
समय से घर पहुँचना
तुम्हारे साथ खेलना
बोलना-बतियाना।
तुम्हारे जाने के बाद
पापा की दुनिया
सिमट गई है- एक ही जगह
उस संदूक में
जिसमें तुम्हार खिलौने
नन्हें कपड़े
और तुमसे जुड़ी 
तमाम चीजें बंद हैं।
उनका स्पर्श करते हुए
उन्हें लगता है
वे तुम्हें छू रहे हैं
सुषुप्त सपने फड़फड़ाते हैं
वे जागते हैं
और फिर रो पड़ते हैं।

गीत

ठहरा हुआ समय

दिन-रात सुस्ताता हुआ
हो गया है रेत
नदी के तट बराबर बढ़ रहे हैं
और इससे उपजे गीत
जिन्दगी के समानान्तर
बेहद कर्कश
मुझे दोहरा रहे हैं।

  • ‘संभावना‘, महरगाँव, पत्रालय: मोल्टाड़ी, पुरोला, उत्तरकाशी-249185 (उत्तराखण्ड) / मोबाइल : 09411834007 


डॉ. नलिन




{गीत व ग़ज़ल के सुपरिचित हस्ताक्षर डॉ. नलिन ने कुण्डलिया छन्द के सृजन में भी प्रभावशाली हस्तक्षेप किया है। उनकी कुंडलियों का संग्रह ‘कुण्डलिया कौमुदी’ हाल ही में हमें पढ़ने को मिला। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से डॉ. नलिन की पांच प्रतिनिधि कुण्डलियाँ। }

कुण्डलियां


01.
नदियाँ मैली शुष्क हैं, कर्णधार हैं मौन।
पुनः जन्म लेंगे यहीं, करे सदिच्छा  कौन।।
करे सदिच्छा कौन, नर्क के दृश्य दिखे हैं।
और समय ने आज, श्याम ये पृष्ठ लिखे हैं।

छाया चित्र : उमेश महादोषी 
कहे नलिन कविराय, हवा भी हुई विषैली।
कौन बचाए देश, अगर हैं नदियाँ मैली।।

02.
अंधकार की ओर से, कभी चमकती भोर।
रस्ता दिखता ही नहीं, पकड़ें जा किस ओर।।
पकड़ें जा किस ओर, थके हैं दौड़ भाग कर।
कोई सोये मस्त, किन्तु हम रहे जागकर।
कहे नलिन कविराय, अर्गला लगी द्वार की।
उस पर भी तो परत, जमी है अंधकार की।।

03.
भूख बराबर रोटियाँ, प्यास बराबर नीर।
समीकरण सीधा दिखे, गणित बड़ा गम्भीर।।
गणित बड़ा गम्भीर, समझ कोई कब पाया।
बैठा नहीं हिसाब, कहें सब उसकी माया।
कहें नलिन कविराय, गलत है प्रश्न सरासर।
मिला कभी क्या इधर, प्यास औ‘ भूख बराबर।।

04.
एक हँसी है आज यह, मनवा डर-डर जाय।
एक हँसी थी वो कभी, जियरा दिया जुड़ाय।।
जियरा दिया जुड़ाय, हँसी में अन्तर आया।
कैसा दिखता मनुज, हृदय में भय आ छाया।
कहे नलिन कविराय, जाल में जान फँसी है।
दे दे कोई तनिक, शुद्ध जो एक हँसी है।।

05.
चाहा जिसको टूट कर, हमने प्राण समान।
हर कर ले जाता वही, आज हमारे प्राण।।
आज हमारे प्राण, नैन रोते ही जाते।
धारें कब तक धीर, विवश अपने को पाते।
कहे नलिन कविराय, हुआ कब है मनचाहा।
हो जाता है दूर, टूटकर जिसको चाहा।।

  • 4-ई-6, तलवंडी, कोटा (राजस्थान) / मोबाइल : 09413987457




डॉ. सुरेश उजाला




दो ग़ज़लें

01.
जब भी मैंने देखा दरपन।
याद आ गया मुझको बचपन।

भरे पात्र कुछ नहीं बोलते

बजने लगते खाली बरतन।

खाली पेट माँगता राशन

किन्तु मिला भाषण पर भाषण।

सबलों का उत्पीड़न देखा

निबलों की देखी है तड़पन।

मिश्र व्यवस्था की ये खूबी

सज्जन दुर्जन, दुर्जन सज्जन।

कैसी उल्टी रीति-नीति है

दांत में अंजन, आँख में मंजन।
रेखा चित्र : शशिभूषण बडोनी 


जनता का दुःख-दर्द न समझे

कैसी सत्ता, कैसा शासन।

02.
भूख-गरीबी चतुर शिकारी।
इससे जंग रहेगी जारी।

धरती माँ ने दिये ख़जाने-

धत् तेरी काला-बाजारी।

और न कोई अपना दुश्मन

घोर अविद्या शत्रु हमारी।

उसके पास बचा अब क्या है-

खेत खा गया सब पटवारी।

छेड़-छाड़ से कुपित आज वो-

कल थी भू भोली-भण्डारी।

जग को तहस-नहस कर सकती-

छोटी से छोटी चिन्गारी।

श्रम-पूरित निज हस्त-कटोरे-

अपना धन अपनी खुद्दारी।

कर्तव्यों का बोध नहीं है-

कहलाते लेकिन अधिकारी।

आयेंगे बरसाती मेढ़क-

होने दो बरसात करारी।

  • 108-तकरोही, पं. दीनदयालपुरम मार्ग, इन्दिरा नगर, लखनऊ (उ.प्र.) / मोबाइल : 09451144480




शिरोमणि महतो





नानी

अस्सी के चौखट पे

खड़ी होकर मेरी नानी
दस्तक दे रही है-
अपने पुरखों को
कि कोई तो दरवाजा खोले!

अब वह थकने लगी 

अपने शरीर को ढोने से
कभी पाँच-पाँच नातियों
और दसों छरनातियों को
ढोने में समर्थ था- उसका शरीर

अब वह सुना पहीं पाती 

राजा-रानी की कहानियाँ
उसके दाँतों ने छोड़ दिया 
उसकी जिह्वा का साथ

और मांस छोड़ने लगा है


हड्डियों से अपनी पकड़
रेखा चित्र : महावीर रंवाल्टा 

झूलने लगी है चमड़ी
जिसमें जीवन झूल रहा झूला!

यह एक ऐसा पड़ाव है

जहाँ पहुँचकर आदमी को
आनन्द का अनुभव होता है-
आठ दशक पीछे का आनन्द
और आनन्द 
पुरखों के आगोश में समाने का!

  • नवाडीह, बोकारो-829144 (झारखण्ड) / मोबाइल : 09931552982



सुरेश कुमार शुक्ल सन्देश


प्रेम-पण्डित

प्रेम-पण्डित प्रवर हैं तुम्हारे नयन।

मौन हैं पर मुखर हैं तुम्हारे नयन।

यदि कहीं चाह पंछी दिखायी पड़े-

मारते शर प्रखर हैं तुम्हारे नयन।
छाया चित्र : अभिशक्ति 


क्या कहें बात मन की, नयन से गये,

प्राण में ही उतर, है तुम्हारे नयन।

हैं लगे ये छलकते सुधाघट कभी,

जिन्दगी का जहर हैं तुम्हारे नयन।

शान्ति का मैं पुजारी सदा से रहा,

क्रान्ति के पक्षधर हैं तुम्हारे नयन।

रात-दिन रात-दिन रात-दिन ढा रहे-

अब कहर पर कहर तुम्हारे नयन।

  • श्री हनुमान मन्दिर, लखीमपुर रोड, गोला, गोला गोकर्णनाथ-खीरी-262802 (उ.प्र.)


नदियाँ और सागर :  कविता संकलन / संपादन :महेंद्र सिंह महलान 

{सुपरिचित साहित्यकार महेन्द्र सिंह महलान के सम्पादन में राजस्थान के पांच कवियों (शिव सागर शर्मा ‘भावुक’, ठाकुर सिंह पालीवाल, रमेश शायर, महेन्द्र सिंह महलान व  बलबीर सिंह ‘करुण’ )  की  कविताओं का  संकलन ‘नदियाँ और सागर’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं संकलन के कुछ कवियों की एक-एक कविता।}

शिव सागर शर्मा ‘भावुक’


लिखें किस तरह?

कोई पहचान अपनों की मिलती नहीं

पत्र हम प्यार के अब लिखें किस तरह?
वक्त की बाँसुरी नित्य बजती रही
बस मधुर कल्पना नृत्य करती रही।
मन आँगन में यादों के तरु के तले
पीर बन नीर नयनों से झरती रही।
बन के मकरन्द लुटता रहा उम्र भर
छाया चित्र : अभिशक्ति 
Add captio
छन्द मनुहार के हम लिखें किस तरह?
लाख दीपक जलाये मगर क्या हुआ
रोशनी भी हुई एक पल के लिए।
दर्द की देहरी अन्ध में खो रही
मन का सूरज उगा एक पल के लिए।
तन डिगा भी नहीं मन लगा भी नहीं
गीत हम प्यार के अब लिखें किस तरह?
प्रीति की लालिमा अब न अधरों पे है
अब न कलियों की मुस्कान मन को छुए।
अब न केशों में टेसू की खुशबू रही
अब बहारों की रंगत न तन को छुए।
लुप्त मुस्कान ‘भावुक’ विमुख बाँकपन
  गीत श्रृंगार के हम लिखें किस तरह?

  • डी-145, भगतसिंह कॉलोनी, भिवाड़ी, जिला अलवर, राज. / मोबाइल : 08003194214



महेन्द्र सिंह महलान






नियति

कई मर्तबा 

मैं न जाने क्या सोचता हूँ 
शायद गुज़रे लम्हों का 
बुत-तराश बनना चाहता हूँ 
या फिर नई पेन्टिंग का 
कैनवास बनने से इंकार करता हूँ

न जाने क्या कुछ था

उन पुराने रंगों में
मैं विवश पाता हूँ खुद को
फिर वही कलर-कॉम्बिनेशन बनने में
वास्तविकता की कूची पकड़ने में
क्यों मेरे हाथ डगमगाते हैं!

कई बार मैं

यों भी सोचता हूँ 
कि शायद मेरी ज़िन्दगी
रेखा चित्र :शशिभूषण  बडोनी 

एक पुरानी किताब है
जिसकी टूटी जर्द जिल्द
किसी की जुदाई का अहसास दे रही है
पर मैं असमर्थ पाता हूँ अपने-आपको
इसे फिर से सुधरवाने में,
शायद इसलिए कि जिल्द जर्द है
और क्या भरोसा है इसकी उम्र का
कोई भी मज़बूत हाथ
इसकी नज़ाकत का 
फायदा उठा सकता है।

मेरे सामने खड़े हैं कुछ हाथ

जो एक रिश्ता जोड़ते हैं तो
एक रिश्ता तोड़ते हैं
और हैं मेरे ये हाथ
जो वास्तविकता की कूची
उठा पाने में असमर्थ हैं
बुजुर्गों से सुना है-
शायद नियति इसे ही कहते हैं।

  • राजकीय पशु चिकित्सालय के सामने, तिजारा-301411, अलवर, राज. / मोबाइल :  09783187400



बलबीर सिंह ‘करुण’


कि लिखना मजबूरी

कितना-कितना लिख गये लोग

कैसा-कैसा हमसे पहले
वे रहे बादशाह औ’ इक्के
हम ज़्यादा से ज़्यादा दहले
मन को मथता ही रहता है
यह द्वन्द्व तर्क औ‘ चिन्तन का
क्या लिखना अब भी शेष
कि लिखना मजबूरी?
उपलब्ध रही उनको केवल
बस श्रद्धा श्राद्ध पक्ष वाली
वात्सल्य पूतना के जैसा
ममता कोठे जैसी जाली
फिर भी चलती ही रही कलम
छाया चित्र : रोहित काम्बोज 

फिर भी न जुबां ख़ामोश रही
विष भरे कटोरे कुछ को तो
कुछ को सूली की सेज मिली
हमको दुर्लभ वैसा साहस
वैसी उमंग, वैसा निश्चय
         यों यात्रा अब भी शेष
         घिसटना मजबूरी।
क्या लिखना अब भी शेष 
कि लिखना मजबूरी?
रह-रहकर प्रश्न उठा करता
हर रचना के पहले-पीछे
इस श्रम की सार्थकता क्या है?
हम किस-किस से ऊपर-नीचे?
क्या विधि ने सृष्टि रची होगी
रह अन्यमनस्क निर्लिप्त भाव
या कोई लक्ष्य रहा होगा
प्रेरणा बना था कौन चाव
पर देव बताये जाते हैं
हर चाव-चाहना से ऊपर
        ये तर्क-वितर्क विशेष
        उलझना मजबूरी।
क्या लिखना अब भी शेष
कि लिखना मजबूरी?
श्रम-शक्य काव्य का सृजन रहा
अथवा है कोई महाभाव
विहगों ने गीत कहाँ पाये
पुष्पों ने सौरभ औ‘ खिलाव
ये महादीप रवि-शशि जलते
है कौन विवशता या स्वभाव?
यह गाना लिखना औ’ जलना
स्वान्तः सुखाय या कर्म भाव?
जितना चिन्तन, उतनी उलझन
है सृजन साध्य अथवा साधन
        यह संशय सदा अशेष
       समझना मजबूरी।
क्या लिखना अब भी शेष
कि लिखना मजबूरी?

  • आस्था साहित्य संस्थान, 67, केशवनगर, अलवर-301001, राज. / मोबाइल : 09414789838


मेरे पहाड़ में :  कविता संकलन / संपादन : अशोक दर्द 

{संभावनाशील रचनाकार अशोक दर्द के सम्पादन में हिमाचल  के दस कवियों- डॉ. दीपक वर्मा, बलदेव राज खोसला, सुशील पुंडीर, सुभाष साहिल, देवराज डढवाल, फिरोज कुमार रोज़, केवल सिंह ‘डलहौजी’, जगजीत आजाद, अशोक दर्द एवं अनन्त आलोक का कविता संकलन ‘मेरे पहाड़ में’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं संकलन के कुछ कवियों की एक-एक कविता।}

डॉ. दीपक वर्मा





सफ़र


मैं तो रास्ते की तलाश में,

तेरी रहगुजर से गुज़र गया।

मुझे खुद को भी ख़बर नहीं,

मैं कहाँ-कहाँ से गुज़र गया।

यह ज़िन्दगी तो सफ़र में थी,

मैं सफ़र में यूँ ही गुज़र गया।

यह सफ़र में कैसे यह कब हुआ,
रेखा चित्र : शशिभूषण बडोनी 

इक शख़्स मुझमें था मर गया।

यह जो वक़्त गुज़रा गुज़र गया,

मगर काम अपना यह कर गया।

इक तड़प मुझे थी चला रही,

मैं इधर गया या उधर गया।

न तो चलके चैन न बैठकर,

सो मैं चल पड़ा मैं गुज़र गया।

  • भारत माता मन्दिर, हरदासपुरा, चम्बा-176310 (हि.प्र.) / मोबाइल :  09418084253 



बलदेव राज खोसला





रावी की पुकार

स्वतंत्र, लेकिन

समेटे, लपेटे, असंख्य भंवर एवं
चंचल लहरों को, निंदयी पहरों को,
सदियों से बह रही हूँ, सुनो सुनो कुछ कह रही हूँ...

बहुत गीत गाए तुमने मेरे किनारे

उत्सव, मेले, मंज़र 
कितने सजाए, तुमने मेरे किनारे,
आस्था में डूब, तुमने अस्थियाँ बहाईं
स्वीकारा मैंने उनको पुचकारा मैंने,
कतरा-कतरा मिट्टी, नव निर्माण में लगाई।

चमका रेत का कण-कण, किनारों पे छोड़ती

विचारों की धारा-सी तटों को जोड़ती,
पूर्व से पश्चिम, सफ़र में उतरती,
सँवरती निखरती, मचलती-सी चलती
आँचल में सदियों का इतिहास था,
हर-इक पत्थर तलक ख़ास था,
तरंगों में ऊर्जा थी इक आग थी,
पुरखों को लगती थी मैं ही माँ सी...
छाया चित्र : उमेश महादोषी 


मुझसे जुड़े बिना ही,

मेरे विस्तार को उन्नति में ढालने वालो
सुनहरे चमकीले सपनों को पालने वालो,
अतीत काल की चिर-निद्रा पर,
वर्तमान के संघर्षों की पुकार,
मैं भी सुनती हूँ 
तुम्हारे लिए, नदी से झील बनने की राह
मैं भी चुनती हूँ।
डैम-सुरंगों की शृंखलाओं में, ढालो मुझे,
पर प्रशव पीड़ा में हूँ सँभालो मुझे,
मैं ही हूँ तुम्हारी संस्कृति और सभ्यता की क्यारी
मान-सम्मान देना, मेरा वजूद बचाना मेरे बच्चो, 
मैं माँ हूँ तुम्हारी। 

  • 86-बी, सदर बाजार, डलहौजी, जिला चम्बा-176304 (हि.प्र.) / मोबाइल :  09418019460


देवराज डढवाल




अपनों से दूर

चिड़िया ने बनाया

आशियाना, अपनों से दूर
किसी वीराने में,
बुने थे सपने,
सोचा...
सुकूनभरी रातें होंगी,
क्योंकि
अपना घर तो, 
आखिर अपना ही होता है,
लेकिन, एक रात
झंझावात ने तोड़ डाले बुने सपने
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 

तिनका-तिनका बिखर गया घरोंदा,
क्या यही अंजाम होता है
अपनों से दूर बसने का?

मैं अक्सर सोचता हूँ,

क्यों होता है ये सब,
क्यों झंझावात आते हैं
क्यों घोंसले उजड़ जाते हैं
क्यों बसते गाँव,
विस्थापित शिविरों में तब्दील हो जाते हैं...?
मैं अक्सर सोचता हूँ...।

  • गाँव सरनूह, डाक सुखार, तह. नूरपुर, जिला काँगड़ा-176051 (हि.प्र.) / मोबाइल :  09816171358



अशोक दर्द





मेरे पहाड़ में

मेरे पहाड़ में

उगते हैं आज भी प्रेम के फूल
और घासनियों पर उगती है
सौहार्द की दूब;
घाटियाँ गूँथती हैं
छलछलाती नदियों की मालाएँ;
‘घूडू बाबा’ की तरह नाचते झरने
गाते हैं ‘रांझू-फूलमू’, ‘कुंजू-चंचलो’ और 
‘सुन्नी-भंक्कू’ के प्रेम गीत;
यहाँ लोग दौड़ते नहीं
सिर्फ सीना ऊँचा कर चलते हैं,
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 

यहाँ आज भी घर,
घर ही है,
लोगों ने इन्हें मकानों में 
नहीं बदला है;
मेरे पहाड़ में
कोई लापता नहीं होता,
दूर-दूर तक खबर रहती है
उसके होने या न होने की;
आज भी यहाँ कुछ अनछुए रास्ते हैं
जिन पर सिर्फ देवता ही विचरते हैं;
किसान आज भी,
‘सज्जण-मित्र’, पच्छे-परौह्णे’, ‘भिक्खू-भंगाले’ और
‘चिड्डुओं-पखेरुओं’ के नाम
कुछ दाने अपने खेतों में 
जरूर बीजते हैं;
बूढ़ी ताई ने परंपराओं की पोटली,
आज भी संभाल कर रखी है;
आज भी,
‘सत्यम्-शिवम्-सुंदरम्’ का
बास है
मेरे पहाड़ में....।

  • प्रवास कुटीर, गाँव व डाक बनीखेत, तहसील डलहौजी, जिला चम्बा-176303, (हि.प्र.) / मोबाइल : 09418248262




जगजीत आजाद







इशारा काफ़ी है






ग़र चाँद नहीं मेरी किस्मत में, इस रात का तारा काफ़ी है।
बेशक् तू साथ न चल मेरे, बस तेरा इशारा काफ़ी है।

मुझे गर्ज़ नहीं इस दुनिया की मुझे लेना क्या इस दुनिया से,

हर कोई मुखालिफ़ है तो क्या बस तेरा सहारा काफ़ी है।
छाया चित्र : अभिशक्ति

सिर पर है ग़र तपता सूरज और ग़म की धूप है चारों ओर,

बस प्यार भरी उस ममता के आंचल का किनारा काफ़ी है।

चाहे रात घिरी हो चारों ओर चाहे काली घटा हो बादल की,

छंट जाएँगे बादल बस उसकी दुआ का सितारा काफ़ी है।

सुनते हैं कि हर जगह है वो कहते हैं कि हर कण में वो,

कैसा है खुदा क्या पता ऐ माँ बस तेरा नज़ारा काफ़ी है।

  • मुख्याध्यापक, राजकीय उच्च विद्यालय, बलेरा, जिला चम्बा (हि.प्र.) / मोबाइल : 09418007729

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 01-02, सितम्बर-अक्टूबर  2014



।। कथा प्रवाह ।।

सामग्री :  इस अंक में स्व. पारस दासोत, मधुदीप द्वारा संयोजित-सम्पादित संकलन श्रंखला 'पड़ाव और पड़ताल' के  खण्ड-3 से  प्रवोध कुमार गोविल, मधुदीप, रमेश बत्तरा, रूप देवगुण, डॉ. सतीश दुबे व सूर्यकान्त नागर एवं  बालकृष्ण गुप्ता ’गुरु’, डॉ. प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’ व  मोह. मुइनुद्दीन ‘अतहर’ की लघुकथाएँ। 



स्व. पारस दासोत


{सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लघुकथाकार एवं चित्रकार श्री पारस दासोत अब हमारे बीच नहीं हैं। 14 अगस्त 1945 को जन्मे पारस दासोत जी ने कैंसर से जूझते लगभग 69 वर्ष की आयु में विगत 13 सितम्बर 2014 को अपना भौतिक शरीर को त्याग दिया। चित्रकारी के साथ लघुकथा के लिए उनके समर्पण की गाथा अब तक प्रकाशित उनके सोलह एकल लघुकथा संग्रह देखकर समझा जा सकता है। किसी अन्य लघुकथाकार के इतनी संख्या में लघुकथा संग्रह शायद ही प्रकाशित हुए हों। लघुकथा में उनकी लेखन शैली पर कुछ आलोचनात्मक बिन्दुओं के बावजूद उनके महत्व और योगदान को सदैव सराहा जायेगा।  ‘‘नारी मन-विज्ञान मेरी लघुकथाएँ’’ संभवतः उनका आखिरी प्रकाशित लघुकथा संग्रह था। श्रद्धेय दासोत जी को हार्दिक श्रद्धांजलि के साथ उनके इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी तीन प्रतिनिधि लघुकथाएँ और  उनके कुछ  रेखा चित्र ।}

काजल का टीका
      
      अपनी बच्ची को स्नान कराने के बाद,....
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत 

      वह, जब उसको वस्त्र पहना रही थी, उससे, उसकी सासू माँ, एक काजल की डिबिया थमाती हुई बोली-
      ‘‘बेटे! गुड़िया को इसका, उसके गाल पर एक काला टीका लगा देना!’’
     ‘‘जी मम्मीजी!’’
     थोड़ी देर बाद,
     वह, जब अपनी बच्ची को, डिबिया में से काजल लेकर, टीका लगाने को हुई, कुछ सोचकर, यकायक रुक गयी।
     अब,
     पहले उसने, अपनी आँखों में काजल लगाया, फिर अपनी आँख में का काजल ले, बच्ची के गाल पर लगा दिया।


जंजीर
     हवेली के आँगन में डले झूले पर झूलती-झूलती,....
     वह, हवेली के पालतू कुत्ते को, कई दिनों से, उसके गले में डाली गई जंजीर से अपने को आजाद करने का प्रयास करते, देख रही थी।
     आज,
     वह, जब उसकी कोशिश को देख रही थी, यकायक उसकी नजर अपने गले पर शोभित नौलखा हार पर क्या
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत 
चली गई, उसने तुरन्त ही झूला रोका और कुत्ते को हवेली के द्वार पर लेजाकर, उसके गले पर शोभित जंजीर खोल दी।


आइ लव यू
     ‘‘ब्यूटी पार्लर पर अपना मेकअप होने के बाद,...
     उसने, जैसे ही इस बार अपने को आइने में देखा, विस्मय स्वर से बोली- ‘‘ये ऽ ऽ....! ये मैं! नहीं, यह मैं नहीं, मेरी सौतन है।’’
     और उसने, शीघ्र ही अपना मेकअप वॉश-बेसिन पर पहुँचकर पोंछ डाला।
     मैंने देखा-
     वह, आइने में उभरे अपने अक्श को, ‘आइ लव सू’ बोलकर चूम रही थी।

  • परिवार संपर्क: श्री कुलदीप दासोत, प्लॉट नं.129, गली नं.9 (बी), मोतीनगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-301021 (राज.) / फोन : 09413687579




पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-3 / संपादक व श्रंखला संयोजक :  मधुदीप

{वरिष्ठ कथाकार, संपादक व प्रकाशक मधुदीप जी के संयोजन में उन्हीं के प्रकाशन ‘दिशा प्रकाशन से प्रतिनिधि लघुकथा सृजन एवं उसके मूल्यांकन की एक अति महत्वपूर्ण तथा अनूठी श्रंखला ‘‘पड़ाव और पड़ताल’’ नाम से प्रकाशित हो रही है। गत वर्ष पहले श्रंखला के प्रथम खण्ड का द्वितीय संस्करण एवं दूसरा खण्ड प्रकाशित हुआ था। हाल ही में इस श्रंखला के कुछ और खण्ड प्रकाशित हुए हैं। यहां हमारे समक्ष है तीसरा खण्ड, जिसमें प्रवोध कुमार गोविल, मधुदीप, रमेश बत्तरा, रूप देवगुण, सतीश दुबे व सूर्यकान्त नागर की 11-11 लघुकथाएं एवं उन पर क्रमशः हरनाम शर्मा, डॉ. जितेन्द्र ‘जीतू’, सुभाष नीरव, अशोक लव, माधव नागदा व डॉ. अशोक भाटिया के समीक्षात्मक आलेख व सभी लघुकथाओं पर भगीरथ का समालोचनात्मक आलेख शामिल है। इसी के साथ संकलन में डॉ. सतीशराज पुष्करणा का आलेख ‘‘हिन्दी लघुकथा की रचना-प्रविधि’’ एवं धरोहर खण्ड में स्व. रमेश बत्तरा का आलेख ‘‘लघुकथा की साहित्यिक पृष्ठभूमि: सन्दर्भ और सरोकार’’ भी शामिल है। प्रस्तुत हैं संकलन में शामिल सभी लघुकथाकारों की एक-एक लघुकथा।}



प्रबोध कुमार गोविल




माँ
    
     उसका बाप सुबह-सुबह तैयार होकर काम पर चला गया। माँ रोटी देकर ढेर सारे कपड़े लेकर नहर पर चली गई। वह घर से निकली ही थी कि उसी की तरह रूखे-उलझे-बालों वाली उसकी सहेली अपना फटा और थोड़ा ऊँचा फ्रॉक बार-बार नीचे खींचती आ गई। फिर एक-एक करके बस्ती के दो-चार बच्चे और आ गए।
     ‘‘चलो, घर-घर खेलें।’’
     ‘‘पहले खाना बनाएँगे, तू जाकर लकड़ी बीन ला। और तू यहाँ सफाई कर दे।’’
     ‘‘अरे ऐसे नहीं! पहले आग तो जला।’’
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत 

     ‘‘मैं तो इधर बैठूँगी।’’
     ‘‘चल अपने दोनों चलकर कपड़े धोएँगे।’’
     ‘‘नहीं, चलो पहले सब यहाँ बैठ जाओ। खाना खाओ, फिर बाहर जाना।’’
     ‘‘मैं तो इसमें लूँगा।’’
     ‘‘अरे! भात तो खत्म हो गया। इतने सारे लोग आ गए... चलो तुम लोग खाओ, मैं बाद में खा लूँगी।’’
     ‘‘तू माँ बनी है क्या?’’

  • बी-301, मंगलम जाग्रति रेजीडेन्सी, 447, कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर-302004 (राज.) / मोबाइल : 09414028938



मधुदीप




एकतन्त्र

     राजपथ के चौराहे पर अपार भीड़ जमा है। सभी के हाथ में अपने-अपने डण्डे हैं और उन पर अपने-अपने झण्डे हैं। लाल रंग, हरा रंग, नीला रंग, भगवा रंग और कुछ तो दो-दो, तीन-तीन तथा चार-चार रंग के झण्डे भी हैं। भीड़ में सभी अपने झण्डे को सबसे ऊपर लहराना चाह रहे हैं।

     पिछले एक महीने से ये सभी झण्डे शहर की प्रमुख सड़कों पर मार्च-पास्ट करते हुए देखे जाते रहे थे। अजीब-सा कोलाहल और छटपटाहट शहर की हवाओं में फैल रही थी। कोई झण्डा दूसरे झण्डे से ऊँचा न उठ जाए, इस पर सभी पक्ष बेहद सचेत और चौकस थे। आखिर माराकाटी प्रतियोगिता के बाद यह फैसला लॉकरनुमा सुरक्षित कमरों में बन्द कर दिया गया था कि कौन-सा झण्डा सबसे ऊँचा लहराएगा।
     दो दिन की मरघटी नीरवता के बाद आज कोलाहल फिर हवाओं में तैरने लगा है। लॉकरनुमा कमरों में बन्द परिणाम आज राजपथ पर उद्घोषित किया जा रहा है। प्रत्येक उद्घोषणा के बाद डण्डों और झण्डों का रंग
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत 
बदलता जा रहा है। कभी लाल ऊपर तो कभी नीला। कभी भगवा तो कभी हरा। कहीं कोई स्थिरता या ठहराव नहीं है। पल-प्रतिपल धुकधुकाहट बढ़ती जा रही है। झण्डों का ऊपर-नीचे होना निरन्तर जारी है।

     दोपहर बीतते-बीतते भीड़ का लगभग आधा हिस्सा अपने-अपने झण्डे-डण्डे लेकर राजपथ से वापिस लौट गया है। उन्होंने मान लिया है कि वे अपना झण्डा और अधिक नहीं फहरा सकते।
     भीड़ थोड़ी छंटी अवश्य है लेकिन शोर अभी थम नहीं रहा है। कोई भी एक झण्डा पूरी ताकत से ऊपर नहीं पहुँच पा रहा है। बेचैनी और अकुलाहट बढ़ती जा रही है। अनेक रंगों के झण्डे अभी भी हवा में लहरा रहे हैं।
     राजपथ पर अब शाम उतर चुकी है। हल्का-सा धुंधलका भी छाने लगा है। चारों दिशाओं में फैला कोलाहल एकाएक शान्त हो गया है। एक विचित्र-सा षणयन्त्री सन्नाटा फैलने लगा है।
     एक अधबूढ़ा व्यक्ति अपनी हथेली को माथे पर टिकाए उस सन्नाटे में दूर तक देखने की कोशिश कर रहा है...झण्डों के रंग एक-दूसरे में गडमड होते जा रहे हैं। वह उन रंगों को अलग-अलग पहचानने का भरसक प्रयास कर रहा है मगर अब उसे वे सारे झण्डे एक ही रंग के नजर आ रहे हैं। स्याह काले रंग ने सभी रंगों को अपने में सोख लिया है। अधबूढ़ा व्यक्ति जनपथ से राजपथ को जोड़ने वाले चौराहे पर घबराया-सा खड़ा सोच रहा है, ‘यह कैसे हो सकता है? कहीं उसकी आँखों की रोशनी तो नहीं चली गई है!’

  • दिशा प्रकाशन, 138/16, त्रिनगर, दिल्ली-110035 / मोबाइल : 09312400709




स्व. रमेश बत्तरा



खोज

    मैं अपने घर की मुण्डेर पर बैठा हवाखोरी करता हुआ उसे देख रहा था। आँखें मिचमिचाती बड़ी देर से गली में इधर-उधर झाँकती शायद कुछ ढूँढ़ रही थी। उसके दोनों हाथ कमर को कुछ इस तरह जकड़े हुए थे कि चलने में उसके लिए लाठी का काम कर रहे थे।

     मेरे समीप पहुँचकर भी, उसने पहले घर में झाँका और फिर मुझे घूरती हुई आगे बढ़ने लगी। अपनी ओर से काफी तेज चलने पर भी वह सरक ही रही थी।
     उसे परेशान पाकर मैंने पूछा, ‘‘कुछ खो गया है क्या?’’
     ‘‘हाँ!...’’ वह रुककर भी अगल-बगल के मकानों पर नजर दौड़ाती रही।
     ‘‘क्या खोया है? मैं मदद करूँ?’’
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत 

     ‘‘मेरी बेटी का दुपट्टा फट गया था, उसी को सीं रही थी कि सुई गिर गई।’’
     ‘‘तुम कहाँ बैठी हुई थीं?’’
     ‘‘अपनी कोठरी में।’’
     ‘‘तो जाकर कोठरी में ढूँढ़ो। तुम्हारी आँखें कमजोर हैं। अपनी बेटी से कहना वह ढूँढ़ लेगी।’’
     ‘‘कोठरी में तो नहीं मिलेगी!’’
     ‘‘कमाल है, जब सुई गिरी कोठरी में है तो कोठरी में ही मिलेगी, और कहाँ जाएगी?’’
     ‘‘वहाँ अंधेरा भर गया है!’’
     ‘‘तो यहाँ क्या ढूँढ़ रही हो?’’
     ‘‘रोशनी ढूँढ़ रही हूँ, रोशनी.... तुम्हारे पास है क्या!’’



रूप देवगुण



जगमगाहट

    वह दो बार नौकरी छोड़ चुकी थी। कारण एक ही था- बॉस की वासनात्मक दृष्टि। किन्तु उसका नौकरी करना उसकी मजबूरी थी। घर की आर्थिक दशा शोचनीय थी। आखिर उसने एक अन्य दफ्तर में नौकरी कर ली।
     पहले दिन ही उसे उसके बॉस ने अपने कैबिन में काफी देर तक बिठाए रखा और इधर-उधर की बातें करता रहा। अबकी बार उसने सोच लिया था, वह नौकरी नहीं छोड़ेगी; वह मुकाबला करेगी। उसी दिन दोपहर बाद बॉस ने उसे अपने साथ अकेले में उस कमरे में जाने के लिए कहा, जहाँ पुरानी फाइलें पड़ी थीं। उन्हें उन फाइलों की चौकिंग करनी थी। उसे साफ लग रहा था कि आज उसके कुछ गड़बड़ होगी। 
     एक बार तो उसके मन में आया कि कह दे कि मैं नहीं जा सकती, किन्तु नौकरी का खयाल रखते हुए वह
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत
इन्कार न कर सकी। कुछ देर में ही वह तीन कमरे पार करके चौथे कमरे में थी। वह और बॉस फाइलों की चौकिंग करने लगे। उसे लगा जैसे उसका बॉस फाइलों की आड़ में केवल उसे ही घूरे जा रहा है। उसने सोच लिया था कि ज्यों ही वह उसे छुएगा, वह शोर मचा देगी। दस-पन्द्रह मिनट हो गए, लेकिन बॉस की ओर से ऐसी कोई हरकत न हुई।

     अचानक बिजली गुल हो गई। वह बॉस की ही साजिश हो सकती है- यह सोचते ही वह काँपने लगी। लेकिन तभी उसने सुना, बॉस हँसते-हँसते कह रहा था, ‘‘देखो, तुम्हें अँधेरा अच्छा नहीं लगता होगा। तुम्हारी भाभी को भी अच्छा नहीं लगता। जाओ, तुम बाहर चली जाओ।’’ इस अप्रत्याशित बात को सुनकर वह हैरान हो गई। बॉस की पत्नी, मेरी भाभी, यानी मैं बॉस की बहन!
सहसा उसे लगा, जैसे कमरे में हजार-हजार पावर के कई बल्ब जगमगा उठे हैं।

  • डॉ. गांधी वाली गली, 13/676, गोविन्द नगर, सिरसा-125055 (हरियाणा) / मोबाइल : 09812236096 



डॉ. सतीश दुबे



हमारे आगे हिन्दुस्तान

     शाम के उस चिपचिपे वातावरण में मित्र के साथ वह तफरीह करने के इरादे से सड़क नाप रहा था।

     उनके आगे एक दम्पति चले जा रहे थे। पुरुष ने मोटे कपड़े का कुरता-पायजामा तथा पैरों में चप्पल डाल रखे थे तथा स्त्री एक सामान्य भारतीय महिला की वेशभूषा में थी। उसकी निगाह जैसे ही दम्पति की ओर गई, उसने मित्र को बताया, ‘‘देखो! हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है।’’
     ‘‘क्या कहना चाहते हो? मुझे तो नहीं लगता है कि ये एम.एल.ए., भू.पू. मंत्री, पूँजीपति या नौकरशाह में से कोई हों।’’
     ‘‘ऊँ-हूँ, तुमने जिनके बारे में सोचा, उनमें से यदि कोई ऐसे चहलकदमी करें तो उनकी नाक नहीं कट
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत 

जाएगी!’’
     ‘‘फिर तुम कैसे कह रहे हो कि हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है?’’ मित्र ने तर्क की मुद्रा में आँखें घुमाई।
     ‘‘यह तो वे ही बताएँगे, आओ मेरे साथ।’’
     ‘‘वे दोनों कुछ दूरी से उनके पीछे-पीछे चलने लगे। उन्होंने सुना, पत्नी पति से कह रही थी, ‘‘दोनों बच्चों को कपड़े तो सिलवा ही दो। बाहर जाते हैं तो अच्छा नहीं लगता। कुछ भी खाते हैं तो कोई नहीं देखता पर कुछ भी पहनते हैं तो सब देखते हैं। इज्जत बना के रहना तो जरूरी है ना!’’
     उन्होंने देखा, पत्नी मन्द-मन्द मुस्करा रहे पति की ओर ताकने लगी है। पति की उस मुस्कराहट में सचमुच हिन्दुस्तान नजर आ रहा था।

  • 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.) / मोबा. : 09617597211





सूर्यकान्त नागर



राजा की बारात

     दाँत किटकिटा देने वाली ठण्ड में वह बुरी तरह ठिठुर रही थी। सूट-बूट में लदे-फँदे और शाल-स्वेटर ओढ़े अतिथियों को देख शीत का अहसास उसे कुछ अधिक ही हो रहा था। सायं सात बजे से कैटरर ने उसे तथा उसके जैसी अन्य लड़कियों को पतली चुनरी-ब्लाउज में सजा-धजा तथा हाथ में मेवे-मिठाई का थाल थमा, पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया था, ताकि रिसेप्शन शुरू होते ही, अतिथियों के बीच घूम-घूमकर वे मेवा-मिठाई पेश करें और मौका-माहौल हो तो, चेहरे पर मुस्कान चिपका मेहमानों को अपने हाथों से खिला भी दें। घण्टे भर से ऊपर हो गया था, लेकिन बारात का दूर तक अता-पता नहीं था। उसकी दुबली-पतली देह अब इस तरह काँपने लगी थी, मानो जूड़ी बुखार चढ़ा हो। पैर जवाब देने लगे थे। सोचा, एक ओर बैठकर कहीं सुस्ता ले,
लेकिन कैटरर की निगाह पड़ गई तो खैर नहीं। पूरा जल्लाद है! पैसे काट लेगा और काम से बेदखल कर देगा, सो अलग। छोटे भाइयों की स्कूल की फीस व बूढ़ी माँ की खाँसी के खयाल ने उसे थोड़ी मजबूती दी, लेकिन अब पेट की अंतड़ियाँ भी कुलबुलाने लगी थीं। न चाहते हुए भी नजर बार-बार मिठाई पर से फिसल जाती थी। आक्रोश व असन्तोष जागा, पर मुट्ठी तान पाना सम्भव नहीं था। तभी ध्यान आया, समारोह तो रात ग्यारह बजे तक चलेगा। तब तक कैसे क्या होगा?’’ एक अभाव उसे अन्दर से डसने लगा था।
रेखा चित्र  : स्व. पारस दासोत 
     आखिर बारात आ ही गई।
     लड़के-लड़कियाँ बैंड की धुन पर थिरक रहे थे, ‘राजा की आएगी बारात, रँगीली होगी रात’ गीत के बोल उसके कानों में गर्म लावा घोल रहे थे। उस चौंधियाती रोशनी में भी उसकी आँखों के सामने अन्धकार छा गया। अब उसे कुछ भी दिखाई-सुनाई नहीं दे रहा था।

  • ज्ञानोदय, 81, बैराठी कॉलोनी क्र. 2, इन्दौर-452014(म.प्र.) / मोबा. : 09893810050








कुछ और लघुकथाएँ ----------------------------------



बालकृष्ण गुप्ता ’गुरु’






उल्टा-पुल्टा


रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत
     घर के दरवाजे पर बैठकर बिल्ली ने कुत्ते से कहा, ‘‘मुझे एक रोटी मिली है, आओ मिल-बांट कर खाएं।’’
     कुत्ते ने कहा, ‘‘एक शर्त पर कि पूरा मैं खाऊंगा। तुम्हें सिर्फ एक टुकड़े पर संतोष करना पड़ेगा।’’
     ‘‘तुम्हें ज्यादा-से-ज्यादा आधी रोटी ही दे सकती हूं।’’ बिल्ली ने कहा।
     ‘‘आधी तो तुम राजी-खुशी दोगी और बाकी आधी मैं झपट लूंगा।’’ कुत्ता बोला।
     ‘‘झपटोगे कहां से? रोटी तो अभी घर की रसोई में ही रखी है।’’ यह कहते हुए बिल्ली घर के अंदर भाग गई।
     कुत्ते ने कहा, ‘‘स्साली, उसकी मौसी मेरी दादी हो गई। घर में रहते-रहते आदमियों के रंग में रंग गई है।’’

  • डॉ. बख्शी मार्ग, खैरागढ़-491881, जिला: राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) / फोन : 09424111454



डॉ. प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’


दौड़
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत 

      कछुए और खरगोश में दौड़ जीतने को लेकर एक बार फिर से बहस छिड़ गयी। दोनों अपनी-अपनी जीत के दावे भरने लगे।
     ‘‘तुम भूल रहे हो, मेरे दादा के परदादा ने तुम्हारे दादा के परदादा को दौड़ में हराया था। मैं भी तुम्हें हरा दूँगा’’ कछुए ने गर्दन बाहर निकालते हुए कहा।
      ‘‘यह ठीक हैं कि तुम्हारे दादा के परदादा ने मेरे दादा के परदादा को हराया था; पर मेरे भाई, अब दुनियां बदल गयी है। अब तो हर बार मैं ही दौड़ जीतूँगा। अब दौड़ जीतने के लिए बुद्धिमानी नहीं चाहिये, वल्कि अब तो निरे पशुबल से दौड़ जीती जाती है’ खरगोश ने कछुए को समझाया। कछुए ने चुपचाप खरगोश की ओर देखा और फिर धीरे-धीरे नदी की ओर चल दिया।

  • एस. ए. जैन (पी.जी.) कॉलेज, अम्बाला शहर-134002 (हरियाणा) / मोबाइल : 09896135105


मोह. मुइनुद्दीन ‘अतहर’




विदेशी पत्नी

     पांच साल विदेश में रहने के बाद विलायती पत्नी को लेकर राकेश ने पहली बार घर में प्रवेश किया तो सबसे पहले उनकी मुलाकात मां से हुई जो उन्ही की प्रतीक्षा में खड़ी थी। उसने मां की ओर इशारा करके पत्नी से कहा, ‘‘यू सी... शी इज़ माय मदर।’’

     विलायती पत्नी ने फौरन हाथ बढ़ाया और एक कदम आगे बढ़ाते हुए बोली, ‘‘हैलो मॉम... हाऊ आर यू?’’
     मां की कुछ समझ में नहीं आया। वह उसका मुंह ताकती रह गई। पास ही खड़ी बहन की ओर इशारा करके परिचय कराया, ‘‘डार्लिंग! माय सिस्टर।’’ बहन ने हाथ जोड़कर अभिवादन किया लेकिन उसकी ओर ध्यान दिये बिना, ‘‘ओ आईसी’’ कहते हुए आगे बढ़ गई।
     राकेश का छोटा भाई महेश भी इनके स्वागत के लिये खड़ा था। महेश ने राकेश के गले में फूलों की माला डाल कर भाई का स्वागत किया, टीका लगाया, पैर छू कर खड़ा हुआ तो राकेश ने परिचय कराया, ‘‘माय यंगर
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत 
ब्रदर- महेश।’’

    ‘‘वैरी स्वीट... वैरी स्वीट... हाउ आर यू हैंडसम यंग ब्वाय?’’ कहते हुए उसने महेश का हाथ पकड़ा और ज़ोरदार पप्पी ले ली। सब भौचक्क देखते रह गये। बीमार पिता के कमरे में जाकर राकेश ने पिता के पांव छुए और पत्नी को बताया, ‘‘माय फादर।’’
     ‘‘ओह... वैरी पुअर। यू नो, आई हेट ओल्डमैन!’’ कहकर उसने दूसरी ओर मुंह फेर लिया।
     राकेश ने पिता से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘‘पिताजी! यह मेरी पत्नी है, हिन्दी नहीं जानती। हमारी संस्कृति से भी अनभिज्ञ है। कुछ दिनों में समझ जायेगी।’’
     पिता ने पांव पर पड़ी चादर को सम्हालते हुए कहा, ‘‘बेटा! तू अपनी संस्कृति को सम्हाल कर रखना।’’

  • 1308, अज़ीज़गंज, पसियाना, शास्त्री वार्ड, जबलपुर-2 (म.प्र.) / मोबाइल :  09425860708