अविराम ब्लॉग संकलन : वर्ष : 4, अंक : 01-02, सितम्बर-अक्टूबर 2014
स्व. पारस दासोत
{सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लघुकथाकार एवं चित्रकार श्री पारस दासोत अब हमारे बीच नहीं हैं। 14 अगस्त 1945 को जन्मे पारस दासोत जी ने कैंसर से जूझते लगभग 69 वर्ष की आयु में विगत 13 सितम्बर 2014 को अपना भौतिक शरीर को त्याग दिया। चित्रकारी के साथ लघुकथा के लिए उनके समर्पण की गाथा अब तक प्रकाशित उनके सोलह एकल लघुकथा संग्रह देखकर समझा जा सकता है। किसी अन्य लघुकथाकार के इतनी संख्या में लघुकथा संग्रह शायद ही प्रकाशित हुए हों। लघुकथा में उनकी लेखन शैली पर कुछ आलोचनात्मक बिन्दुओं के बावजूद उनके महत्व और योगदान को सदैव सराहा जायेगा। ‘‘नारी मन-विज्ञान मेरी लघुकथाएँ’’ संभवतः उनका आखिरी प्रकाशित लघुकथा संग्रह था। श्रद्धेय दासोत जी को हार्दिक श्रद्धांजलि के साथ उनके इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी तीन प्रतिनिधि लघुकथाएँ और उनके कुछ रेखा चित्र ।}
काजल का टीका
अपनी बच्ची को स्नान कराने के बाद,....
वह, जब उसको वस्त्र पहना रही थी, उससे, उसकी सासू माँ, एक काजल की डिबिया थमाती हुई बोली-
‘‘बेटे! गुड़िया को इसका, उसके गाल पर एक काला टीका लगा देना!’’
‘‘जी मम्मीजी!’’
थोड़ी देर बाद,
वह, जब अपनी बच्ची को, डिबिया में से काजल लेकर, टीका लगाने को हुई, कुछ सोचकर, यकायक रुक गयी।
अब,
पहले उसने, अपनी आँखों में काजल लगाया, फिर अपनी आँख में का काजल ले, बच्ची के गाल पर लगा दिया।
जंजीर
हवेली के आँगन में डले झूले पर झूलती-झूलती,....
वह, हवेली के पालतू कुत्ते को, कई दिनों से, उसके गले में डाली गई जंजीर से अपने को आजाद करने का प्रयास करते, देख रही थी।
आज,
वह, जब उसकी कोशिश को देख रही थी, यकायक उसकी नजर अपने गले पर शोभित नौलखा हार पर क्या
चली गई, उसने तुरन्त ही झूला रोका और कुत्ते को हवेली के द्वार पर लेजाकर, उसके गले पर शोभित जंजीर खोल दी।
आइ लव यू
‘‘ब्यूटी पार्लर पर अपना मेकअप होने के बाद,...
उसने, जैसे ही इस बार अपने को आइने में देखा, विस्मय स्वर से बोली- ‘‘ये ऽ ऽ....! ये मैं! नहीं, यह मैं नहीं, मेरी सौतन है।’’
और उसने, शीघ्र ही अपना मेकअप वॉश-बेसिन पर पहुँचकर पोंछ डाला।
मैंने देखा-
वह, आइने में उभरे अपने अक्श को, ‘आइ लव सू’ बोलकर चूम रही थी।
पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-3 / संपादक व श्रंखला संयोजक : मधुदीप
{वरिष्ठ कथाकार, संपादक व प्रकाशक मधुदीप जी के संयोजन में उन्हीं के प्रकाशन ‘दिशा प्रकाशन से प्रतिनिधि लघुकथा सृजन एवं उसके मूल्यांकन की एक अति महत्वपूर्ण तथा अनूठी श्रंखला ‘‘पड़ाव और पड़ताल’’ नाम से प्रकाशित हो रही है। गत वर्ष पहले श्रंखला के प्रथम खण्ड का द्वितीय संस्करण एवं दूसरा खण्ड प्रकाशित हुआ था। हाल ही में इस श्रंखला के कुछ और खण्ड प्रकाशित हुए हैं। यहां हमारे समक्ष है तीसरा खण्ड, जिसमें प्रवोध कुमार गोविल, मधुदीप, रमेश बत्तरा, रूप देवगुण, सतीश दुबे व सूर्यकान्त नागर की 11-11 लघुकथाएं एवं उन पर क्रमशः हरनाम शर्मा, डॉ. जितेन्द्र ‘जीतू’, सुभाष नीरव, अशोक लव, माधव नागदा व डॉ. अशोक भाटिया के समीक्षात्मक आलेख व सभी लघुकथाओं पर भगीरथ का समालोचनात्मक आलेख शामिल है। इसी के साथ संकलन में डॉ. सतीशराज पुष्करणा का आलेख ‘‘हिन्दी लघुकथा की रचना-प्रविधि’’ एवं धरोहर खण्ड में स्व. रमेश बत्तरा का आलेख ‘‘लघुकथा की साहित्यिक पृष्ठभूमि: सन्दर्भ और सरोकार’’ भी शामिल है। प्रस्तुत हैं संकलन में शामिल सभी लघुकथाकारों की एक-एक लघुकथा।}
प्रबोध कुमार गोविल
माँ
उसका बाप सुबह-सुबह तैयार होकर काम पर चला गया। माँ रोटी देकर ढेर सारे कपड़े लेकर नहर पर चली गई। वह घर से निकली ही थी कि उसी की तरह रूखे-उलझे-बालों वाली उसकी सहेली अपना फटा और थोड़ा ऊँचा फ्रॉक बार-बार नीचे खींचती आ गई। फिर एक-एक करके बस्ती के दो-चार बच्चे और आ गए।
‘‘चलो, घर-घर खेलें।’’
‘‘पहले खाना बनाएँगे, तू जाकर लकड़ी बीन ला। और तू यहाँ सफाई कर दे।’’
‘‘अरे ऐसे नहीं! पहले आग तो जला।’’
‘‘मैं तो इधर बैठूँगी।’’
‘‘चल अपने दोनों चलकर कपड़े धोएँगे।’’
‘‘नहीं, चलो पहले सब यहाँ बैठ जाओ। खाना खाओ, फिर बाहर जाना।’’
‘‘मैं तो इसमें लूँगा।’’
‘‘अरे! भात तो खत्म हो गया। इतने सारे लोग आ गए... चलो तुम लोग खाओ, मैं बाद में खा लूँगी।’’
‘‘तू माँ बनी है क्या?’’
मधुदीप
एकतन्त्र
राजपथ के चौराहे पर अपार भीड़ जमा है। सभी के हाथ में अपने-अपने डण्डे हैं और उन पर अपने-अपने झण्डे हैं। लाल रंग, हरा रंग, नीला रंग, भगवा रंग और कुछ तो दो-दो, तीन-तीन तथा चार-चार रंग के झण्डे भी हैं। भीड़ में सभी अपने झण्डे को सबसे ऊपर लहराना चाह रहे हैं।
पिछले एक महीने से ये सभी झण्डे शहर की प्रमुख सड़कों पर मार्च-पास्ट करते हुए देखे जाते रहे थे। अजीब-सा कोलाहल और छटपटाहट शहर की हवाओं में फैल रही थी। कोई झण्डा दूसरे झण्डे से ऊँचा न उठ जाए, इस पर सभी पक्ष बेहद सचेत और चौकस थे। आखिर माराकाटी प्रतियोगिता के बाद यह फैसला लॉकरनुमा सुरक्षित कमरों में बन्द कर दिया गया था कि कौन-सा झण्डा सबसे ऊँचा लहराएगा।
दो दिन की मरघटी नीरवता के बाद आज कोलाहल फिर हवाओं में तैरने लगा है। लॉकरनुमा कमरों में बन्द परिणाम आज राजपथ पर उद्घोषित किया जा रहा है। प्रत्येक उद्घोषणा के बाद डण्डों और झण्डों का रंग
बदलता जा रहा है। कभी लाल ऊपर तो कभी नीला। कभी भगवा तो कभी हरा। कहीं कोई स्थिरता या ठहराव नहीं है। पल-प्रतिपल धुकधुकाहट बढ़ती जा रही है। झण्डों का ऊपर-नीचे होना निरन्तर जारी है।
दोपहर बीतते-बीतते भीड़ का लगभग आधा हिस्सा अपने-अपने झण्डे-डण्डे लेकर राजपथ से वापिस लौट गया है। उन्होंने मान लिया है कि वे अपना झण्डा और अधिक नहीं फहरा सकते।
भीड़ थोड़ी छंटी अवश्य है लेकिन शोर अभी थम नहीं रहा है। कोई भी एक झण्डा पूरी ताकत से ऊपर नहीं पहुँच पा रहा है। बेचैनी और अकुलाहट बढ़ती जा रही है। अनेक रंगों के झण्डे अभी भी हवा में लहरा रहे हैं।
राजपथ पर अब शाम उतर चुकी है। हल्का-सा धुंधलका भी छाने लगा है। चारों दिशाओं में फैला कोलाहल एकाएक शान्त हो गया है। एक विचित्र-सा षणयन्त्री सन्नाटा फैलने लगा है।
एक अधबूढ़ा व्यक्ति अपनी हथेली को माथे पर टिकाए उस सन्नाटे में दूर तक देखने की कोशिश कर रहा है...झण्डों के रंग एक-दूसरे में गडमड होते जा रहे हैं। वह उन रंगों को अलग-अलग पहचानने का भरसक प्रयास कर रहा है मगर अब उसे वे सारे झण्डे एक ही रंग के नजर आ रहे हैं। स्याह काले रंग ने सभी रंगों को अपने में सोख लिया है। अधबूढ़ा व्यक्ति जनपथ से राजपथ को जोड़ने वाले चौराहे पर घबराया-सा खड़ा सोच रहा है, ‘यह कैसे हो सकता है? कहीं उसकी आँखों की रोशनी तो नहीं चली गई है!’
स्व. रमेश बत्तरा
खोज
मैं अपने घर की मुण्डेर पर बैठा हवाखोरी करता हुआ उसे देख रहा था। आँखें मिचमिचाती बड़ी देर से गली में इधर-उधर झाँकती शायद कुछ ढूँढ़ रही थी। उसके दोनों हाथ कमर को कुछ इस तरह जकड़े हुए थे कि चलने में उसके लिए लाठी का काम कर रहे थे।
मेरे समीप पहुँचकर भी, उसने पहले घर में झाँका और फिर मुझे घूरती हुई आगे बढ़ने लगी। अपनी ओर से काफी तेज चलने पर भी वह सरक ही रही थी।
उसे परेशान पाकर मैंने पूछा, ‘‘कुछ खो गया है क्या?’’
‘‘हाँ!...’’ वह रुककर भी अगल-बगल के मकानों पर नजर दौड़ाती रही।
‘‘क्या खोया है? मैं मदद करूँ?’’
‘‘मेरी बेटी का दुपट्टा फट गया था, उसी को सीं रही थी कि सुई गिर गई।’’
‘‘तुम कहाँ बैठी हुई थीं?’’
‘‘अपनी कोठरी में।’’
‘‘तो जाकर कोठरी में ढूँढ़ो। तुम्हारी आँखें कमजोर हैं। अपनी बेटी से कहना वह ढूँढ़ लेगी।’’
‘‘कोठरी में तो नहीं मिलेगी!’’
‘‘कमाल है, जब सुई गिरी कोठरी में है तो कोठरी में ही मिलेगी, और कहाँ जाएगी?’’
‘‘वहाँ अंधेरा भर गया है!’’
‘‘तो यहाँ क्या ढूँढ़ रही हो?’’
‘‘रोशनी ढूँढ़ रही हूँ, रोशनी.... तुम्हारे पास है क्या!’’
रूप देवगुण
जगमगाहट
वह दो बार नौकरी छोड़ चुकी थी। कारण एक ही था- बॉस की वासनात्मक दृष्टि। किन्तु उसका नौकरी करना उसकी मजबूरी थी। घर की आर्थिक दशा शोचनीय थी। आखिर उसने एक अन्य दफ्तर में नौकरी कर ली।
पहले दिन ही उसे उसके बॉस ने अपने कैबिन में काफी देर तक बिठाए रखा और इधर-उधर की बातें करता रहा। अबकी बार उसने सोच लिया था, वह नौकरी नहीं छोड़ेगी; वह मुकाबला करेगी। उसी दिन दोपहर बाद बॉस ने उसे अपने साथ अकेले में उस कमरे में जाने के लिए कहा, जहाँ पुरानी फाइलें पड़ी थीं। उन्हें उन फाइलों की चौकिंग करनी थी। उसे साफ लग रहा था कि आज उसके कुछ गड़बड़ होगी।
एक बार तो उसके मन में आया कि कह दे कि मैं नहीं जा सकती, किन्तु नौकरी का खयाल रखते हुए वह
इन्कार न कर सकी। कुछ देर में ही वह तीन कमरे पार करके चौथे कमरे में थी। वह और बॉस फाइलों की चौकिंग करने लगे। उसे लगा जैसे उसका बॉस फाइलों की आड़ में केवल उसे ही घूरे जा रहा है। उसने सोच लिया था कि ज्यों ही वह उसे छुएगा, वह शोर मचा देगी। दस-पन्द्रह मिनट हो गए, लेकिन बॉस की ओर से ऐसी कोई हरकत न हुई।
अचानक बिजली गुल हो गई। वह बॉस की ही साजिश हो सकती है- यह सोचते ही वह काँपने लगी। लेकिन तभी उसने सुना, बॉस हँसते-हँसते कह रहा था, ‘‘देखो, तुम्हें अँधेरा अच्छा नहीं लगता होगा। तुम्हारी भाभी को भी अच्छा नहीं लगता। जाओ, तुम बाहर चली जाओ।’’ इस अप्रत्याशित बात को सुनकर वह हैरान हो गई। बॉस की पत्नी, मेरी भाभी, यानी मैं बॉस की बहन!
सहसा उसे लगा, जैसे कमरे में हजार-हजार पावर के कई बल्ब जगमगा उठे हैं।
डॉ. सतीश दुबे
हमारे आगे हिन्दुस्तान
शाम के उस चिपचिपे वातावरण में मित्र के साथ वह तफरीह करने के इरादे से सड़क नाप रहा था।
उनके आगे एक दम्पति चले जा रहे थे। पुरुष ने मोटे कपड़े का कुरता-पायजामा तथा पैरों में चप्पल डाल रखे थे तथा स्त्री एक सामान्य भारतीय महिला की वेशभूषा में थी। उसकी निगाह जैसे ही दम्पति की ओर गई, उसने मित्र को बताया, ‘‘देखो! हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है।’’
‘‘क्या कहना चाहते हो? मुझे तो नहीं लगता है कि ये एम.एल.ए., भू.पू. मंत्री, पूँजीपति या नौकरशाह में से कोई हों।’’
‘‘ऊँ-हूँ, तुमने जिनके बारे में सोचा, उनमें से यदि कोई ऐसे चहलकदमी करें तो उनकी नाक नहीं कट
जाएगी!’’
‘‘फिर तुम कैसे कह रहे हो कि हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है?’’ मित्र ने तर्क की मुद्रा में आँखें घुमाई।
‘‘यह तो वे ही बताएँगे, आओ मेरे साथ।’’
‘‘वे दोनों कुछ दूरी से उनके पीछे-पीछे चलने लगे। उन्होंने सुना, पत्नी पति से कह रही थी, ‘‘दोनों बच्चों को कपड़े तो सिलवा ही दो। बाहर जाते हैं तो अच्छा नहीं लगता। कुछ भी खाते हैं तो कोई नहीं देखता पर कुछ भी पहनते हैं तो सब देखते हैं। इज्जत बना के रहना तो जरूरी है ना!’’
उन्होंने देखा, पत्नी मन्द-मन्द मुस्करा रहे पति की ओर ताकने लगी है। पति की उस मुस्कराहट में सचमुच हिन्दुस्तान नजर आ रहा था।
सूर्यकान्त नागर
राजा की बारात
दाँत किटकिटा देने वाली ठण्ड में वह बुरी तरह ठिठुर रही थी। सूट-बूट में लदे-फँदे और शाल-स्वेटर ओढ़े अतिथियों को देख शीत का अहसास उसे कुछ अधिक ही हो रहा था। सायं सात बजे से कैटरर ने उसे तथा उसके जैसी अन्य लड़कियों को पतली चुनरी-ब्लाउज में सजा-धजा तथा हाथ में मेवे-मिठाई का थाल थमा, पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया था, ताकि रिसेप्शन शुरू होते ही, अतिथियों के बीच घूम-घूमकर वे मेवा-मिठाई पेश करें और मौका-माहौल हो तो, चेहरे पर मुस्कान चिपका मेहमानों को अपने हाथों से खिला भी दें। घण्टे भर से ऊपर हो गया था, लेकिन बारात का दूर तक अता-पता नहीं था। उसकी दुबली-पतली देह अब इस तरह काँपने लगी थी, मानो जूड़ी बुखार चढ़ा हो। पैर जवाब देने लगे थे। सोचा, एक ओर बैठकर कहीं सुस्ता ले,
लेकिन कैटरर की निगाह पड़ गई तो खैर नहीं। पूरा जल्लाद है! पैसे काट लेगा और काम से बेदखल कर देगा, सो अलग। छोटे भाइयों की स्कूल की फीस व बूढ़ी माँ की खाँसी के खयाल ने उसे थोड़ी मजबूती दी, लेकिन अब पेट की अंतड़ियाँ भी कुलबुलाने लगी थीं। न चाहते हुए भी नजर बार-बार मिठाई पर से फिसल जाती थी। आक्रोश व असन्तोष जागा, पर मुट्ठी तान पाना सम्भव नहीं था। तभी ध्यान आया, समारोह तो रात ग्यारह बजे तक चलेगा। तब तक कैसे क्या होगा?’’ एक अभाव उसे अन्दर से डसने लगा था।
आखिर बारात आ ही गई।
लड़के-लड़कियाँ बैंड की धुन पर थिरक रहे थे, ‘राजा की आएगी बारात, रँगीली होगी रात’ गीत के बोल उसके कानों में गर्म लावा घोल रहे थे। उस चौंधियाती रोशनी में भी उसकी आँखों के सामने अन्धकार छा गया। अब उसे कुछ भी दिखाई-सुनाई नहीं दे रहा था।
कुछ और लघुकथाएँ ----------------------------------
बालकृष्ण गुप्ता ’गुरु’
उल्टा-पुल्टा
घर के दरवाजे पर बैठकर बिल्ली ने कुत्ते से कहा, ‘‘मुझे एक रोटी मिली है, आओ मिल-बांट कर खाएं।’’
कुत्ते ने कहा, ‘‘एक शर्त पर कि पूरा मैं खाऊंगा। तुम्हें सिर्फ एक टुकड़े पर संतोष करना पड़ेगा।’’
‘‘तुम्हें ज्यादा-से-ज्यादा आधी रोटी ही दे सकती हूं।’’ बिल्ली ने कहा।
‘‘आधी तो तुम राजी-खुशी दोगी और बाकी आधी मैं झपट लूंगा।’’ कुत्ता बोला।
‘‘झपटोगे कहां से? रोटी तो अभी घर की रसोई में ही रखी है।’’ यह कहते हुए बिल्ली घर के अंदर भाग गई।
कुत्ते ने कहा, ‘‘स्साली, उसकी मौसी मेरी दादी हो गई। घर में रहते-रहते आदमियों के रंग में रंग गई है।’’
डॉ. प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’
दौड़
कछुए और खरगोश में दौड़ जीतने को लेकर एक बार फिर से बहस छिड़ गयी। दोनों अपनी-अपनी जीत के दावे भरने लगे।
‘‘तुम भूल रहे हो, मेरे दादा के परदादा ने तुम्हारे दादा के परदादा को दौड़ में हराया था। मैं भी तुम्हें हरा दूँगा’’ कछुए ने गर्दन बाहर निकालते हुए कहा।
‘‘यह ठीक हैं कि तुम्हारे दादा के परदादा ने मेरे दादा के परदादा को हराया था; पर मेरे भाई, अब दुनियां बदल गयी है। अब तो हर बार मैं ही दौड़ जीतूँगा। अब दौड़ जीतने के लिए बुद्धिमानी नहीं चाहिये, वल्कि अब तो निरे पशुबल से दौड़ जीती जाती है’ खरगोश ने कछुए को समझाया। कछुए ने चुपचाप खरगोश की ओर देखा और फिर धीरे-धीरे नदी की ओर चल दिया।
मोह. मुइनुद्दीन ‘अतहर’
विदेशी पत्नी
पांच साल विदेश में रहने के बाद विलायती पत्नी को लेकर राकेश ने पहली बार घर में प्रवेश किया तो सबसे पहले उनकी मुलाकात मां से हुई जो उन्ही की प्रतीक्षा में खड़ी थी। उसने मां की ओर इशारा करके पत्नी से कहा, ‘‘यू सी... शी इज़ माय मदर।’’
विलायती पत्नी ने फौरन हाथ बढ़ाया और एक कदम आगे बढ़ाते हुए बोली, ‘‘हैलो मॉम... हाऊ आर यू?’’
मां की कुछ समझ में नहीं आया। वह उसका मुंह ताकती रह गई। पास ही खड़ी बहन की ओर इशारा करके परिचय कराया, ‘‘डार्लिंग! माय सिस्टर।’’ बहन ने हाथ जोड़कर अभिवादन किया लेकिन उसकी ओर ध्यान दिये बिना, ‘‘ओ आईसी’’ कहते हुए आगे बढ़ गई।
राकेश का छोटा भाई महेश भी इनके स्वागत के लिये खड़ा था। महेश ने राकेश के गले में फूलों की माला डाल कर भाई का स्वागत किया, टीका लगाया, पैर छू कर खड़ा हुआ तो राकेश ने परिचय कराया, ‘‘माय यंगर
ब्रदर- महेश।’’
‘‘वैरी स्वीट... वैरी स्वीट... हाउ आर यू हैंडसम यंग ब्वाय?’’ कहते हुए उसने महेश का हाथ पकड़ा और ज़ोरदार पप्पी ले ली। सब भौचक्क देखते रह गये। बीमार पिता के कमरे में जाकर राकेश ने पिता के पांव छुए और पत्नी को बताया, ‘‘माय फादर।’’
‘‘ओह... वैरी पुअर। यू नो, आई हेट ओल्डमैन!’’ कहकर उसने दूसरी ओर मुंह फेर लिया।
राकेश ने पिता से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘‘पिताजी! यह मेरी पत्नी है, हिन्दी नहीं जानती। हमारी संस्कृति से भी अनभिज्ञ है। कुछ दिनों में समझ जायेगी।’’
पिता ने पांव पर पड़ी चादर को सम्हालते हुए कहा, ‘‘बेटा! तू अपनी संस्कृति को सम्हाल कर रखना।’’
।। कथा प्रवाह ।।
सामग्री : इस अंक में स्व. पारस दासोत, मधुदीप द्वारा संयोजित-सम्पादित संकलन श्रंखला 'पड़ाव और पड़ताल' के खण्ड-3 से प्रवोध कुमार गोविल, मधुदीप, रमेश बत्तरा, रूप देवगुण, डॉ. सतीश दुबे व सूर्यकान्त नागर एवं बालकृष्ण गुप्ता ’गुरु’, डॉ. प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’ व मोह. मुइनुद्दीन ‘अतहर’ की लघुकथाएँ।
स्व. पारस दासोत
{सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लघुकथाकार एवं चित्रकार श्री पारस दासोत अब हमारे बीच नहीं हैं। 14 अगस्त 1945 को जन्मे पारस दासोत जी ने कैंसर से जूझते लगभग 69 वर्ष की आयु में विगत 13 सितम्बर 2014 को अपना भौतिक शरीर को त्याग दिया। चित्रकारी के साथ लघुकथा के लिए उनके समर्पण की गाथा अब तक प्रकाशित उनके सोलह एकल लघुकथा संग्रह देखकर समझा जा सकता है। किसी अन्य लघुकथाकार के इतनी संख्या में लघुकथा संग्रह शायद ही प्रकाशित हुए हों। लघुकथा में उनकी लेखन शैली पर कुछ आलोचनात्मक बिन्दुओं के बावजूद उनके महत्व और योगदान को सदैव सराहा जायेगा। ‘‘नारी मन-विज्ञान मेरी लघुकथाएँ’’ संभवतः उनका आखिरी प्रकाशित लघुकथा संग्रह था। श्रद्धेय दासोत जी को हार्दिक श्रद्धांजलि के साथ उनके इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी तीन प्रतिनिधि लघुकथाएँ और उनके कुछ रेखा चित्र ।}
काजल का टीका
अपनी बच्ची को स्नान कराने के बाद,....
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत |
वह, जब उसको वस्त्र पहना रही थी, उससे, उसकी सासू माँ, एक काजल की डिबिया थमाती हुई बोली-
‘‘बेटे! गुड़िया को इसका, उसके गाल पर एक काला टीका लगा देना!’’
‘‘जी मम्मीजी!’’
थोड़ी देर बाद,
वह, जब अपनी बच्ची को, डिबिया में से काजल लेकर, टीका लगाने को हुई, कुछ सोचकर, यकायक रुक गयी।
अब,
पहले उसने, अपनी आँखों में काजल लगाया, फिर अपनी आँख में का काजल ले, बच्ची के गाल पर लगा दिया।
जंजीर
हवेली के आँगन में डले झूले पर झूलती-झूलती,....
वह, हवेली के पालतू कुत्ते को, कई दिनों से, उसके गले में डाली गई जंजीर से अपने को आजाद करने का प्रयास करते, देख रही थी।
आज,
वह, जब उसकी कोशिश को देख रही थी, यकायक उसकी नजर अपने गले पर शोभित नौलखा हार पर क्या
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत |
आइ लव यू
‘‘ब्यूटी पार्लर पर अपना मेकअप होने के बाद,...
उसने, जैसे ही इस बार अपने को आइने में देखा, विस्मय स्वर से बोली- ‘‘ये ऽ ऽ....! ये मैं! नहीं, यह मैं नहीं, मेरी सौतन है।’’
और उसने, शीघ्र ही अपना मेकअप वॉश-बेसिन पर पहुँचकर पोंछ डाला।
मैंने देखा-
वह, आइने में उभरे अपने अक्श को, ‘आइ लव सू’ बोलकर चूम रही थी।
- परिवार संपर्क: श्री कुलदीप दासोत, प्लॉट नं.129, गली नं.9 (बी), मोतीनगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-301021 (राज.) / फोन : 09413687579
पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-3 / संपादक व श्रंखला संयोजक : मधुदीप
{वरिष्ठ कथाकार, संपादक व प्रकाशक मधुदीप जी के संयोजन में उन्हीं के प्रकाशन ‘दिशा प्रकाशन से प्रतिनिधि लघुकथा सृजन एवं उसके मूल्यांकन की एक अति महत्वपूर्ण तथा अनूठी श्रंखला ‘‘पड़ाव और पड़ताल’’ नाम से प्रकाशित हो रही है। गत वर्ष पहले श्रंखला के प्रथम खण्ड का द्वितीय संस्करण एवं दूसरा खण्ड प्रकाशित हुआ था। हाल ही में इस श्रंखला के कुछ और खण्ड प्रकाशित हुए हैं। यहां हमारे समक्ष है तीसरा खण्ड, जिसमें प्रवोध कुमार गोविल, मधुदीप, रमेश बत्तरा, रूप देवगुण, सतीश दुबे व सूर्यकान्त नागर की 11-11 लघुकथाएं एवं उन पर क्रमशः हरनाम शर्मा, डॉ. जितेन्द्र ‘जीतू’, सुभाष नीरव, अशोक लव, माधव नागदा व डॉ. अशोक भाटिया के समीक्षात्मक आलेख व सभी लघुकथाओं पर भगीरथ का समालोचनात्मक आलेख शामिल है। इसी के साथ संकलन में डॉ. सतीशराज पुष्करणा का आलेख ‘‘हिन्दी लघुकथा की रचना-प्रविधि’’ एवं धरोहर खण्ड में स्व. रमेश बत्तरा का आलेख ‘‘लघुकथा की साहित्यिक पृष्ठभूमि: सन्दर्भ और सरोकार’’ भी शामिल है। प्रस्तुत हैं संकलन में शामिल सभी लघुकथाकारों की एक-एक लघुकथा।}
प्रबोध कुमार गोविल
माँ
उसका बाप सुबह-सुबह तैयार होकर काम पर चला गया। माँ रोटी देकर ढेर सारे कपड़े लेकर नहर पर चली गई। वह घर से निकली ही थी कि उसी की तरह रूखे-उलझे-बालों वाली उसकी सहेली अपना फटा और थोड़ा ऊँचा फ्रॉक बार-बार नीचे खींचती आ गई। फिर एक-एक करके बस्ती के दो-चार बच्चे और आ गए।
‘‘चलो, घर-घर खेलें।’’
‘‘पहले खाना बनाएँगे, तू जाकर लकड़ी बीन ला। और तू यहाँ सफाई कर दे।’’
‘‘अरे ऐसे नहीं! पहले आग तो जला।’’
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत |
‘‘मैं तो इधर बैठूँगी।’’
‘‘चल अपने दोनों चलकर कपड़े धोएँगे।’’
‘‘नहीं, चलो पहले सब यहाँ बैठ जाओ। खाना खाओ, फिर बाहर जाना।’’
‘‘मैं तो इसमें लूँगा।’’
‘‘अरे! भात तो खत्म हो गया। इतने सारे लोग आ गए... चलो तुम लोग खाओ, मैं बाद में खा लूँगी।’’
‘‘तू माँ बनी है क्या?’’
- बी-301, मंगलम जाग्रति रेजीडेन्सी, 447, कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर-302004 (राज.) / मोबाइल : 09414028938
मधुदीप
एकतन्त्र
राजपथ के चौराहे पर अपार भीड़ जमा है। सभी के हाथ में अपने-अपने डण्डे हैं और उन पर अपने-अपने झण्डे हैं। लाल रंग, हरा रंग, नीला रंग, भगवा रंग और कुछ तो दो-दो, तीन-तीन तथा चार-चार रंग के झण्डे भी हैं। भीड़ में सभी अपने झण्डे को सबसे ऊपर लहराना चाह रहे हैं।
पिछले एक महीने से ये सभी झण्डे शहर की प्रमुख सड़कों पर मार्च-पास्ट करते हुए देखे जाते रहे थे। अजीब-सा कोलाहल और छटपटाहट शहर की हवाओं में फैल रही थी। कोई झण्डा दूसरे झण्डे से ऊँचा न उठ जाए, इस पर सभी पक्ष बेहद सचेत और चौकस थे। आखिर माराकाटी प्रतियोगिता के बाद यह फैसला लॉकरनुमा सुरक्षित कमरों में बन्द कर दिया गया था कि कौन-सा झण्डा सबसे ऊँचा लहराएगा।
दो दिन की मरघटी नीरवता के बाद आज कोलाहल फिर हवाओं में तैरने लगा है। लॉकरनुमा कमरों में बन्द परिणाम आज राजपथ पर उद्घोषित किया जा रहा है। प्रत्येक उद्घोषणा के बाद डण्डों और झण्डों का रंग
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत |
दोपहर बीतते-बीतते भीड़ का लगभग आधा हिस्सा अपने-अपने झण्डे-डण्डे लेकर राजपथ से वापिस लौट गया है। उन्होंने मान लिया है कि वे अपना झण्डा और अधिक नहीं फहरा सकते।
भीड़ थोड़ी छंटी अवश्य है लेकिन शोर अभी थम नहीं रहा है। कोई भी एक झण्डा पूरी ताकत से ऊपर नहीं पहुँच पा रहा है। बेचैनी और अकुलाहट बढ़ती जा रही है। अनेक रंगों के झण्डे अभी भी हवा में लहरा रहे हैं।
राजपथ पर अब शाम उतर चुकी है। हल्का-सा धुंधलका भी छाने लगा है। चारों दिशाओं में फैला कोलाहल एकाएक शान्त हो गया है। एक विचित्र-सा षणयन्त्री सन्नाटा फैलने लगा है।
एक अधबूढ़ा व्यक्ति अपनी हथेली को माथे पर टिकाए उस सन्नाटे में दूर तक देखने की कोशिश कर रहा है...झण्डों के रंग एक-दूसरे में गडमड होते जा रहे हैं। वह उन रंगों को अलग-अलग पहचानने का भरसक प्रयास कर रहा है मगर अब उसे वे सारे झण्डे एक ही रंग के नजर आ रहे हैं। स्याह काले रंग ने सभी रंगों को अपने में सोख लिया है। अधबूढ़ा व्यक्ति जनपथ से राजपथ को जोड़ने वाले चौराहे पर घबराया-सा खड़ा सोच रहा है, ‘यह कैसे हो सकता है? कहीं उसकी आँखों की रोशनी तो नहीं चली गई है!’
- दिशा प्रकाशन, 138/16, त्रिनगर, दिल्ली-110035 / मोबाइल : 09312400709
स्व. रमेश बत्तरा
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मैं अपने घर की मुण्डेर पर बैठा हवाखोरी करता हुआ उसे देख रहा था। आँखें मिचमिचाती बड़ी देर से गली में इधर-उधर झाँकती शायद कुछ ढूँढ़ रही थी। उसके दोनों हाथ कमर को कुछ इस तरह जकड़े हुए थे कि चलने में उसके लिए लाठी का काम कर रहे थे।
मेरे समीप पहुँचकर भी, उसने पहले घर में झाँका और फिर मुझे घूरती हुई आगे बढ़ने लगी। अपनी ओर से काफी तेज चलने पर भी वह सरक ही रही थी।
उसे परेशान पाकर मैंने पूछा, ‘‘कुछ खो गया है क्या?’’
‘‘हाँ!...’’ वह रुककर भी अगल-बगल के मकानों पर नजर दौड़ाती रही।
‘‘क्या खोया है? मैं मदद करूँ?’’
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत |
‘‘मेरी बेटी का दुपट्टा फट गया था, उसी को सीं रही थी कि सुई गिर गई।’’
‘‘तुम कहाँ बैठी हुई थीं?’’
‘‘अपनी कोठरी में।’’
‘‘तो जाकर कोठरी में ढूँढ़ो। तुम्हारी आँखें कमजोर हैं। अपनी बेटी से कहना वह ढूँढ़ लेगी।’’
‘‘कोठरी में तो नहीं मिलेगी!’’
‘‘कमाल है, जब सुई गिरी कोठरी में है तो कोठरी में ही मिलेगी, और कहाँ जाएगी?’’
‘‘वहाँ अंधेरा भर गया है!’’
‘‘तो यहाँ क्या ढूँढ़ रही हो?’’
‘‘रोशनी ढूँढ़ रही हूँ, रोशनी.... तुम्हारे पास है क्या!’’
रूप देवगुण
जगमगाहट
वह दो बार नौकरी छोड़ चुकी थी। कारण एक ही था- बॉस की वासनात्मक दृष्टि। किन्तु उसका नौकरी करना उसकी मजबूरी थी। घर की आर्थिक दशा शोचनीय थी। आखिर उसने एक अन्य दफ्तर में नौकरी कर ली।
पहले दिन ही उसे उसके बॉस ने अपने कैबिन में काफी देर तक बिठाए रखा और इधर-उधर की बातें करता रहा। अबकी बार उसने सोच लिया था, वह नौकरी नहीं छोड़ेगी; वह मुकाबला करेगी। उसी दिन दोपहर बाद बॉस ने उसे अपने साथ अकेले में उस कमरे में जाने के लिए कहा, जहाँ पुरानी फाइलें पड़ी थीं। उन्हें उन फाइलों की चौकिंग करनी थी। उसे साफ लग रहा था कि आज उसके कुछ गड़बड़ होगी।
एक बार तो उसके मन में आया कि कह दे कि मैं नहीं जा सकती, किन्तु नौकरी का खयाल रखते हुए वह
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत |
अचानक बिजली गुल हो गई। वह बॉस की ही साजिश हो सकती है- यह सोचते ही वह काँपने लगी। लेकिन तभी उसने सुना, बॉस हँसते-हँसते कह रहा था, ‘‘देखो, तुम्हें अँधेरा अच्छा नहीं लगता होगा। तुम्हारी भाभी को भी अच्छा नहीं लगता। जाओ, तुम बाहर चली जाओ।’’ इस अप्रत्याशित बात को सुनकर वह हैरान हो गई। बॉस की पत्नी, मेरी भाभी, यानी मैं बॉस की बहन!
सहसा उसे लगा, जैसे कमरे में हजार-हजार पावर के कई बल्ब जगमगा उठे हैं।
- डॉ. गांधी वाली गली, 13/676, गोविन्द नगर, सिरसा-125055 (हरियाणा) / मोबाइल : 09812236096
डॉ. सतीश दुबे
हमारे आगे हिन्दुस्तान
शाम के उस चिपचिपे वातावरण में मित्र के साथ वह तफरीह करने के इरादे से सड़क नाप रहा था।
उनके आगे एक दम्पति चले जा रहे थे। पुरुष ने मोटे कपड़े का कुरता-पायजामा तथा पैरों में चप्पल डाल रखे थे तथा स्त्री एक सामान्य भारतीय महिला की वेशभूषा में थी। उसकी निगाह जैसे ही दम्पति की ओर गई, उसने मित्र को बताया, ‘‘देखो! हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है।’’
‘‘क्या कहना चाहते हो? मुझे तो नहीं लगता है कि ये एम.एल.ए., भू.पू. मंत्री, पूँजीपति या नौकरशाह में से कोई हों।’’
‘‘ऊँ-हूँ, तुमने जिनके बारे में सोचा, उनमें से यदि कोई ऐसे चहलकदमी करें तो उनकी नाक नहीं कट
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत |
‘‘फिर तुम कैसे कह रहे हो कि हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है?’’ मित्र ने तर्क की मुद्रा में आँखें घुमाई।
‘‘यह तो वे ही बताएँगे, आओ मेरे साथ।’’
‘‘वे दोनों कुछ दूरी से उनके पीछे-पीछे चलने लगे। उन्होंने सुना, पत्नी पति से कह रही थी, ‘‘दोनों बच्चों को कपड़े तो सिलवा ही दो। बाहर जाते हैं तो अच्छा नहीं लगता। कुछ भी खाते हैं तो कोई नहीं देखता पर कुछ भी पहनते हैं तो सब देखते हैं। इज्जत बना के रहना तो जरूरी है ना!’’
उन्होंने देखा, पत्नी मन्द-मन्द मुस्करा रहे पति की ओर ताकने लगी है। पति की उस मुस्कराहट में सचमुच हिन्दुस्तान नजर आ रहा था।
- 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.) / मोबा. : 09617597211
सूर्यकान्त नागर
राजा की बारात
दाँत किटकिटा देने वाली ठण्ड में वह बुरी तरह ठिठुर रही थी। सूट-बूट में लदे-फँदे और शाल-स्वेटर ओढ़े अतिथियों को देख शीत का अहसास उसे कुछ अधिक ही हो रहा था। सायं सात बजे से कैटरर ने उसे तथा उसके जैसी अन्य लड़कियों को पतली चुनरी-ब्लाउज में सजा-धजा तथा हाथ में मेवे-मिठाई का थाल थमा, पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया था, ताकि रिसेप्शन शुरू होते ही, अतिथियों के बीच घूम-घूमकर वे मेवा-मिठाई पेश करें और मौका-माहौल हो तो, चेहरे पर मुस्कान चिपका मेहमानों को अपने हाथों से खिला भी दें। घण्टे भर से ऊपर हो गया था, लेकिन बारात का दूर तक अता-पता नहीं था। उसकी दुबली-पतली देह अब इस तरह काँपने लगी थी, मानो जूड़ी बुखार चढ़ा हो। पैर जवाब देने लगे थे। सोचा, एक ओर बैठकर कहीं सुस्ता ले,
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत |
लड़के-लड़कियाँ बैंड की धुन पर थिरक रहे थे, ‘राजा की आएगी बारात, रँगीली होगी रात’ गीत के बोल उसके कानों में गर्म लावा घोल रहे थे। उस चौंधियाती रोशनी में भी उसकी आँखों के सामने अन्धकार छा गया। अब उसे कुछ भी दिखाई-सुनाई नहीं दे रहा था।
- ज्ञानोदय, 81, बैराठी कॉलोनी क्र. 2, इन्दौर-452014(म.प्र.) / मोबा. : 09893810050
कुछ और लघुकथाएँ ----------------------------------
बालकृष्ण गुप्ता ’गुरु’
उल्टा-पुल्टा
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत |
कुत्ते ने कहा, ‘‘एक शर्त पर कि पूरा मैं खाऊंगा। तुम्हें सिर्फ एक टुकड़े पर संतोष करना पड़ेगा।’’
‘‘तुम्हें ज्यादा-से-ज्यादा आधी रोटी ही दे सकती हूं।’’ बिल्ली ने कहा।
‘‘आधी तो तुम राजी-खुशी दोगी और बाकी आधी मैं झपट लूंगा।’’ कुत्ता बोला।
‘‘झपटोगे कहां से? रोटी तो अभी घर की रसोई में ही रखी है।’’ यह कहते हुए बिल्ली घर के अंदर भाग गई।
कुत्ते ने कहा, ‘‘स्साली, उसकी मौसी मेरी दादी हो गई। घर में रहते-रहते आदमियों के रंग में रंग गई है।’’
- डॉ. बख्शी मार्ग, खैरागढ़-491881, जिला: राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) / फोन : 09424111454
डॉ. प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’
दौड़
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत |
कछुए और खरगोश में दौड़ जीतने को लेकर एक बार फिर से बहस छिड़ गयी। दोनों अपनी-अपनी जीत के दावे भरने लगे।
‘‘तुम भूल रहे हो, मेरे दादा के परदादा ने तुम्हारे दादा के परदादा को दौड़ में हराया था। मैं भी तुम्हें हरा दूँगा’’ कछुए ने गर्दन बाहर निकालते हुए कहा।
‘‘यह ठीक हैं कि तुम्हारे दादा के परदादा ने मेरे दादा के परदादा को हराया था; पर मेरे भाई, अब दुनियां बदल गयी है। अब तो हर बार मैं ही दौड़ जीतूँगा। अब दौड़ जीतने के लिए बुद्धिमानी नहीं चाहिये, वल्कि अब तो निरे पशुबल से दौड़ जीती जाती है’ खरगोश ने कछुए को समझाया। कछुए ने चुपचाप खरगोश की ओर देखा और फिर धीरे-धीरे नदी की ओर चल दिया।
- एस. ए. जैन (पी.जी.) कॉलेज, अम्बाला शहर-134002 (हरियाणा) / मोबाइल : 09896135105
मोह. मुइनुद्दीन ‘अतहर’
विदेशी पत्नी
पांच साल विदेश में रहने के बाद विलायती पत्नी को लेकर राकेश ने पहली बार घर में प्रवेश किया तो सबसे पहले उनकी मुलाकात मां से हुई जो उन्ही की प्रतीक्षा में खड़ी थी। उसने मां की ओर इशारा करके पत्नी से कहा, ‘‘यू सी... शी इज़ माय मदर।’’
विलायती पत्नी ने फौरन हाथ बढ़ाया और एक कदम आगे बढ़ाते हुए बोली, ‘‘हैलो मॉम... हाऊ आर यू?’’
मां की कुछ समझ में नहीं आया। वह उसका मुंह ताकती रह गई। पास ही खड़ी बहन की ओर इशारा करके परिचय कराया, ‘‘डार्लिंग! माय सिस्टर।’’ बहन ने हाथ जोड़कर अभिवादन किया लेकिन उसकी ओर ध्यान दिये बिना, ‘‘ओ आईसी’’ कहते हुए आगे बढ़ गई।
राकेश का छोटा भाई महेश भी इनके स्वागत के लिये खड़ा था। महेश ने राकेश के गले में फूलों की माला डाल कर भाई का स्वागत किया, टीका लगाया, पैर छू कर खड़ा हुआ तो राकेश ने परिचय कराया, ‘‘माय यंगर
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत |
‘‘वैरी स्वीट... वैरी स्वीट... हाउ आर यू हैंडसम यंग ब्वाय?’’ कहते हुए उसने महेश का हाथ पकड़ा और ज़ोरदार पप्पी ले ली। सब भौचक्क देखते रह गये। बीमार पिता के कमरे में जाकर राकेश ने पिता के पांव छुए और पत्नी को बताया, ‘‘माय फादर।’’
‘‘ओह... वैरी पुअर। यू नो, आई हेट ओल्डमैन!’’ कहकर उसने दूसरी ओर मुंह फेर लिया।
राकेश ने पिता से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘‘पिताजी! यह मेरी पत्नी है, हिन्दी नहीं जानती। हमारी संस्कृति से भी अनभिज्ञ है। कुछ दिनों में समझ जायेगी।’’
पिता ने पांव पर पड़ी चादर को सम्हालते हुए कहा, ‘‘बेटा! तू अपनी संस्कृति को सम्हाल कर रखना।’’
- 1308, अज़ीज़गंज, पसियाना, शास्त्री वार्ड, जबलपुर-2 (म.प्र.) / मोबाइल : 09425860708
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