आपका परिचय

शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 01-02,   सितम्बर-अक्टूबर  2014



।।कविता अनवरत।।

सामग्री : इस अंक में महावीर रवांल्टा, डॉ. नलिन, डॉ. सुरेश उजाला, शिरोमणि महतो, सुरेश कुमार शुक्ल सन्देश,  महेन्द्र सिंह महलान सम्पादित कविता संकलन 'नदियाँ और सागर' से  शिव सागर शर्मा ‘भावुक’, महेन्द्र सिंह महलान व  बलबीर सिंह ‘करुण’, अशोक दर्द  सम्पादित  कविता संकलनसे 'मेरे पहाड़ में' से  डॉ. दीपक वर्मा, बलदेव राज खोसला, देवराज डढवाल, अशोक दर्द, जगजीत आजाद की कविताएँ। 



महावीर रवांल्टा




{जाने-पहचाने कवि-कथाकार महावीर रंवाल्टा का कविता संग्रह ‘सपनों के साथ चेहरे’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था। उनके इस संग्रह से प्रस्तुत हैं कुछ कविताएं।}

समय कुछ नहीं भूलता

(21 मार्च 1996 को परेड ग्राउंड, देहरादून में पत्रकारों व जनता पर हुए लाठी चार्ज के बाद)

आखिर कब रुकेगा

हिंसा का तांडव
कितने निशाने और होंगे इसके
कितने औरों को देनी होंगी शहादत
सहनी पडेगी कितनों को मार
कौन सी सीमा होगी
इसके समापन की?

राजनीतिक रोटियां

कौन कौन लोग कब तक सेकेंगे
पहाड़ की तपती जमीन पर 
और किसके लिए
तुम्हारे स्वार्थी चेहरे
वैसे भी बेनकाब होने लगे हैं।

स्वार्थ की राजनीति के बहाने

कोई हल्ला बोलते हैं
अखबार जलते हैं
और पिटते हैं पत्रकार
प्रजातंत्र के चौथे स्तम्भ पर
लाठियां बरसाते लोग
कितने अच्छे लगते हैं तुम्हें

फिर ओढ़ लेते हो
अपनी तरह की चुप्पी।

अमानवीय

बर्बर और वीभत्स होने के बावजूद
रेखा चित्र : राजेंद्र परदेसी 

कितने निष्प्राण हो जाते हो तुम
लोकतंत्र के स्तम्भों पर आक्रमण होते देख
बहता रक्त देख
पिटते, कराहते लोग देख
कितने खुश होते हो तुम

अपने जय घोष के साथ

कितना भूल जाते हो
सब कुछ
लेकिन
समय कुछ नहीं भूलता
तुम्हें भी नहीं भूलता
तब तुम्हें अपनी कब्र खुद मिल जाएगी।

बेटी के जाने के बाद पिता की दुनियां

मेरी बच्ची!

ऐसे ही रखे हैं 
तुम्हारे खिलौने
जिन्हें तुमने
ठीक से छुआ भी न था
और पापा चाहते थे कि
तुम जल्दी ही बड़ी हो जाओ
इनसे खेलो
इनमें से कुछ फेंको
कुछ तोड़ो
और वे तुम्हें नए लाकर दे सकें।
मेरी बच्ची!
न छू सकी तुम 
इन खिलौनों को
न जाने कैसा झंझावात था
जिसने तुम्हें
खिलौने छूने से पहले
उनसे दूर कर दिया।
वैसे तुम भी तो
कोई खिलौना सी थी पापा के लिए
जिसके साथ खेलते हुए
सब कुछ भूल जाते थे पापा
रेखा चित्र : के.रविन्द्र 
नौकरी की थकान
घरेलू समस्याएं
दुनिया भर की उलझनें
और चिंताएं।
याद रहता था
सिर्फ इतना कि-
समय से घर पहुँचना
तुम्हारे साथ खेलना
बोलना-बतियाना।
तुम्हारे जाने के बाद
पापा की दुनिया
सिमट गई है- एक ही जगह
उस संदूक में
जिसमें तुम्हार खिलौने
नन्हें कपड़े
और तुमसे जुड़ी 
तमाम चीजें बंद हैं।
उनका स्पर्श करते हुए
उन्हें लगता है
वे तुम्हें छू रहे हैं
सुषुप्त सपने फड़फड़ाते हैं
वे जागते हैं
और फिर रो पड़ते हैं।

गीत

ठहरा हुआ समय

दिन-रात सुस्ताता हुआ
हो गया है रेत
नदी के तट बराबर बढ़ रहे हैं
और इससे उपजे गीत
जिन्दगी के समानान्तर
बेहद कर्कश
मुझे दोहरा रहे हैं।

  • ‘संभावना‘, महरगाँव, पत्रालय: मोल्टाड़ी, पुरोला, उत्तरकाशी-249185 (उत्तराखण्ड) / मोबाइल : 09411834007 


डॉ. नलिन




{गीत व ग़ज़ल के सुपरिचित हस्ताक्षर डॉ. नलिन ने कुण्डलिया छन्द के सृजन में भी प्रभावशाली हस्तक्षेप किया है। उनकी कुंडलियों का संग्रह ‘कुण्डलिया कौमुदी’ हाल ही में हमें पढ़ने को मिला। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से डॉ. नलिन की पांच प्रतिनिधि कुण्डलियाँ। }

कुण्डलियां


01.
नदियाँ मैली शुष्क हैं, कर्णधार हैं मौन।
पुनः जन्म लेंगे यहीं, करे सदिच्छा  कौन।।
करे सदिच्छा कौन, नर्क के दृश्य दिखे हैं।
और समय ने आज, श्याम ये पृष्ठ लिखे हैं।

छाया चित्र : उमेश महादोषी 
कहे नलिन कविराय, हवा भी हुई विषैली।
कौन बचाए देश, अगर हैं नदियाँ मैली।।

02.
अंधकार की ओर से, कभी चमकती भोर।
रस्ता दिखता ही नहीं, पकड़ें जा किस ओर।।
पकड़ें जा किस ओर, थके हैं दौड़ भाग कर।
कोई सोये मस्त, किन्तु हम रहे जागकर।
कहे नलिन कविराय, अर्गला लगी द्वार की।
उस पर भी तो परत, जमी है अंधकार की।।

03.
भूख बराबर रोटियाँ, प्यास बराबर नीर।
समीकरण सीधा दिखे, गणित बड़ा गम्भीर।।
गणित बड़ा गम्भीर, समझ कोई कब पाया।
बैठा नहीं हिसाब, कहें सब उसकी माया।
कहें नलिन कविराय, गलत है प्रश्न सरासर।
मिला कभी क्या इधर, प्यास औ‘ भूख बराबर।।

04.
एक हँसी है आज यह, मनवा डर-डर जाय।
एक हँसी थी वो कभी, जियरा दिया जुड़ाय।।
जियरा दिया जुड़ाय, हँसी में अन्तर आया।
कैसा दिखता मनुज, हृदय में भय आ छाया।
कहे नलिन कविराय, जाल में जान फँसी है।
दे दे कोई तनिक, शुद्ध जो एक हँसी है।।

05.
चाहा जिसको टूट कर, हमने प्राण समान।
हर कर ले जाता वही, आज हमारे प्राण।।
आज हमारे प्राण, नैन रोते ही जाते।
धारें कब तक धीर, विवश अपने को पाते।
कहे नलिन कविराय, हुआ कब है मनचाहा।
हो जाता है दूर, टूटकर जिसको चाहा।।

  • 4-ई-6, तलवंडी, कोटा (राजस्थान) / मोबाइल : 09413987457




डॉ. सुरेश उजाला




दो ग़ज़लें

01.
जब भी मैंने देखा दरपन।
याद आ गया मुझको बचपन।

भरे पात्र कुछ नहीं बोलते

बजने लगते खाली बरतन।

खाली पेट माँगता राशन

किन्तु मिला भाषण पर भाषण।

सबलों का उत्पीड़न देखा

निबलों की देखी है तड़पन।

मिश्र व्यवस्था की ये खूबी

सज्जन दुर्जन, दुर्जन सज्जन।

कैसी उल्टी रीति-नीति है

दांत में अंजन, आँख में मंजन।
रेखा चित्र : शशिभूषण बडोनी 


जनता का दुःख-दर्द न समझे

कैसी सत्ता, कैसा शासन।

02.
भूख-गरीबी चतुर शिकारी।
इससे जंग रहेगी जारी।

धरती माँ ने दिये ख़जाने-

धत् तेरी काला-बाजारी।

और न कोई अपना दुश्मन

घोर अविद्या शत्रु हमारी।

उसके पास बचा अब क्या है-

खेत खा गया सब पटवारी।

छेड़-छाड़ से कुपित आज वो-

कल थी भू भोली-भण्डारी।

जग को तहस-नहस कर सकती-

छोटी से छोटी चिन्गारी।

श्रम-पूरित निज हस्त-कटोरे-

अपना धन अपनी खुद्दारी।

कर्तव्यों का बोध नहीं है-

कहलाते लेकिन अधिकारी।

आयेंगे बरसाती मेढ़क-

होने दो बरसात करारी।

  • 108-तकरोही, पं. दीनदयालपुरम मार्ग, इन्दिरा नगर, लखनऊ (उ.प्र.) / मोबाइल : 09451144480




शिरोमणि महतो





नानी

अस्सी के चौखट पे

खड़ी होकर मेरी नानी
दस्तक दे रही है-
अपने पुरखों को
कि कोई तो दरवाजा खोले!

अब वह थकने लगी 

अपने शरीर को ढोने से
कभी पाँच-पाँच नातियों
और दसों छरनातियों को
ढोने में समर्थ था- उसका शरीर

अब वह सुना पहीं पाती 

राजा-रानी की कहानियाँ
उसके दाँतों ने छोड़ दिया 
उसकी जिह्वा का साथ

और मांस छोड़ने लगा है


हड्डियों से अपनी पकड़
रेखा चित्र : महावीर रंवाल्टा 

झूलने लगी है चमड़ी
जिसमें जीवन झूल रहा झूला!

यह एक ऐसा पड़ाव है

जहाँ पहुँचकर आदमी को
आनन्द का अनुभव होता है-
आठ दशक पीछे का आनन्द
और आनन्द 
पुरखों के आगोश में समाने का!

  • नवाडीह, बोकारो-829144 (झारखण्ड) / मोबाइल : 09931552982



सुरेश कुमार शुक्ल सन्देश


प्रेम-पण्डित

प्रेम-पण्डित प्रवर हैं तुम्हारे नयन।

मौन हैं पर मुखर हैं तुम्हारे नयन।

यदि कहीं चाह पंछी दिखायी पड़े-

मारते शर प्रखर हैं तुम्हारे नयन।
छाया चित्र : अभिशक्ति 


क्या कहें बात मन की, नयन से गये,

प्राण में ही उतर, है तुम्हारे नयन।

हैं लगे ये छलकते सुधाघट कभी,

जिन्दगी का जहर हैं तुम्हारे नयन।

शान्ति का मैं पुजारी सदा से रहा,

क्रान्ति के पक्षधर हैं तुम्हारे नयन।

रात-दिन रात-दिन रात-दिन ढा रहे-

अब कहर पर कहर तुम्हारे नयन।

  • श्री हनुमान मन्दिर, लखीमपुर रोड, गोला, गोला गोकर्णनाथ-खीरी-262802 (उ.प्र.)


नदियाँ और सागर :  कविता संकलन / संपादन :महेंद्र सिंह महलान 

{सुपरिचित साहित्यकार महेन्द्र सिंह महलान के सम्पादन में राजस्थान के पांच कवियों (शिव सागर शर्मा ‘भावुक’, ठाकुर सिंह पालीवाल, रमेश शायर, महेन्द्र सिंह महलान व  बलबीर सिंह ‘करुण’ )  की  कविताओं का  संकलन ‘नदियाँ और सागर’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं संकलन के कुछ कवियों की एक-एक कविता।}

शिव सागर शर्मा ‘भावुक’


लिखें किस तरह?

कोई पहचान अपनों की मिलती नहीं

पत्र हम प्यार के अब लिखें किस तरह?
वक्त की बाँसुरी नित्य बजती रही
बस मधुर कल्पना नृत्य करती रही।
मन आँगन में यादों के तरु के तले
पीर बन नीर नयनों से झरती रही।
बन के मकरन्द लुटता रहा उम्र भर
छाया चित्र : अभिशक्ति 
Add captio
छन्द मनुहार के हम लिखें किस तरह?
लाख दीपक जलाये मगर क्या हुआ
रोशनी भी हुई एक पल के लिए।
दर्द की देहरी अन्ध में खो रही
मन का सूरज उगा एक पल के लिए।
तन डिगा भी नहीं मन लगा भी नहीं
गीत हम प्यार के अब लिखें किस तरह?
प्रीति की लालिमा अब न अधरों पे है
अब न कलियों की मुस्कान मन को छुए।
अब न केशों में टेसू की खुशबू रही
अब बहारों की रंगत न तन को छुए।
लुप्त मुस्कान ‘भावुक’ विमुख बाँकपन
  गीत श्रृंगार के हम लिखें किस तरह?

  • डी-145, भगतसिंह कॉलोनी, भिवाड़ी, जिला अलवर, राज. / मोबाइल : 08003194214



महेन्द्र सिंह महलान






नियति

कई मर्तबा 

मैं न जाने क्या सोचता हूँ 
शायद गुज़रे लम्हों का 
बुत-तराश बनना चाहता हूँ 
या फिर नई पेन्टिंग का 
कैनवास बनने से इंकार करता हूँ

न जाने क्या कुछ था

उन पुराने रंगों में
मैं विवश पाता हूँ खुद को
फिर वही कलर-कॉम्बिनेशन बनने में
वास्तविकता की कूची पकड़ने में
क्यों मेरे हाथ डगमगाते हैं!

कई बार मैं

यों भी सोचता हूँ 
कि शायद मेरी ज़िन्दगी
रेखा चित्र :शशिभूषण  बडोनी 

एक पुरानी किताब है
जिसकी टूटी जर्द जिल्द
किसी की जुदाई का अहसास दे रही है
पर मैं असमर्थ पाता हूँ अपने-आपको
इसे फिर से सुधरवाने में,
शायद इसलिए कि जिल्द जर्द है
और क्या भरोसा है इसकी उम्र का
कोई भी मज़बूत हाथ
इसकी नज़ाकत का 
फायदा उठा सकता है।

मेरे सामने खड़े हैं कुछ हाथ

जो एक रिश्ता जोड़ते हैं तो
एक रिश्ता तोड़ते हैं
और हैं मेरे ये हाथ
जो वास्तविकता की कूची
उठा पाने में असमर्थ हैं
बुजुर्गों से सुना है-
शायद नियति इसे ही कहते हैं।

  • राजकीय पशु चिकित्सालय के सामने, तिजारा-301411, अलवर, राज. / मोबाइल :  09783187400



बलबीर सिंह ‘करुण’


कि लिखना मजबूरी

कितना-कितना लिख गये लोग

कैसा-कैसा हमसे पहले
वे रहे बादशाह औ’ इक्के
हम ज़्यादा से ज़्यादा दहले
मन को मथता ही रहता है
यह द्वन्द्व तर्क औ‘ चिन्तन का
क्या लिखना अब भी शेष
कि लिखना मजबूरी?
उपलब्ध रही उनको केवल
बस श्रद्धा श्राद्ध पक्ष वाली
वात्सल्य पूतना के जैसा
ममता कोठे जैसी जाली
फिर भी चलती ही रही कलम
छाया चित्र : रोहित काम्बोज 

फिर भी न जुबां ख़ामोश रही
विष भरे कटोरे कुछ को तो
कुछ को सूली की सेज मिली
हमको दुर्लभ वैसा साहस
वैसी उमंग, वैसा निश्चय
         यों यात्रा अब भी शेष
         घिसटना मजबूरी।
क्या लिखना अब भी शेष 
कि लिखना मजबूरी?
रह-रहकर प्रश्न उठा करता
हर रचना के पहले-पीछे
इस श्रम की सार्थकता क्या है?
हम किस-किस से ऊपर-नीचे?
क्या विधि ने सृष्टि रची होगी
रह अन्यमनस्क निर्लिप्त भाव
या कोई लक्ष्य रहा होगा
प्रेरणा बना था कौन चाव
पर देव बताये जाते हैं
हर चाव-चाहना से ऊपर
        ये तर्क-वितर्क विशेष
        उलझना मजबूरी।
क्या लिखना अब भी शेष
कि लिखना मजबूरी?
श्रम-शक्य काव्य का सृजन रहा
अथवा है कोई महाभाव
विहगों ने गीत कहाँ पाये
पुष्पों ने सौरभ औ‘ खिलाव
ये महादीप रवि-शशि जलते
है कौन विवशता या स्वभाव?
यह गाना लिखना औ’ जलना
स्वान्तः सुखाय या कर्म भाव?
जितना चिन्तन, उतनी उलझन
है सृजन साध्य अथवा साधन
        यह संशय सदा अशेष
       समझना मजबूरी।
क्या लिखना अब भी शेष
कि लिखना मजबूरी?

  • आस्था साहित्य संस्थान, 67, केशवनगर, अलवर-301001, राज. / मोबाइल : 09414789838


मेरे पहाड़ में :  कविता संकलन / संपादन : अशोक दर्द 

{संभावनाशील रचनाकार अशोक दर्द के सम्पादन में हिमाचल  के दस कवियों- डॉ. दीपक वर्मा, बलदेव राज खोसला, सुशील पुंडीर, सुभाष साहिल, देवराज डढवाल, फिरोज कुमार रोज़, केवल सिंह ‘डलहौजी’, जगजीत आजाद, अशोक दर्द एवं अनन्त आलोक का कविता संकलन ‘मेरे पहाड़ में’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं संकलन के कुछ कवियों की एक-एक कविता।}

डॉ. दीपक वर्मा





सफ़र


मैं तो रास्ते की तलाश में,

तेरी रहगुजर से गुज़र गया।

मुझे खुद को भी ख़बर नहीं,

मैं कहाँ-कहाँ से गुज़र गया।

यह ज़िन्दगी तो सफ़र में थी,

मैं सफ़र में यूँ ही गुज़र गया।

यह सफ़र में कैसे यह कब हुआ,
रेखा चित्र : शशिभूषण बडोनी 

इक शख़्स मुझमें था मर गया।

यह जो वक़्त गुज़रा गुज़र गया,

मगर काम अपना यह कर गया।

इक तड़प मुझे थी चला रही,

मैं इधर गया या उधर गया।

न तो चलके चैन न बैठकर,

सो मैं चल पड़ा मैं गुज़र गया।

  • भारत माता मन्दिर, हरदासपुरा, चम्बा-176310 (हि.प्र.) / मोबाइल :  09418084253 



बलदेव राज खोसला





रावी की पुकार

स्वतंत्र, लेकिन

समेटे, लपेटे, असंख्य भंवर एवं
चंचल लहरों को, निंदयी पहरों को,
सदियों से बह रही हूँ, सुनो सुनो कुछ कह रही हूँ...

बहुत गीत गाए तुमने मेरे किनारे

उत्सव, मेले, मंज़र 
कितने सजाए, तुमने मेरे किनारे,
आस्था में डूब, तुमने अस्थियाँ बहाईं
स्वीकारा मैंने उनको पुचकारा मैंने,
कतरा-कतरा मिट्टी, नव निर्माण में लगाई।

चमका रेत का कण-कण, किनारों पे छोड़ती

विचारों की धारा-सी तटों को जोड़ती,
पूर्व से पश्चिम, सफ़र में उतरती,
सँवरती निखरती, मचलती-सी चलती
आँचल में सदियों का इतिहास था,
हर-इक पत्थर तलक ख़ास था,
तरंगों में ऊर्जा थी इक आग थी,
पुरखों को लगती थी मैं ही माँ सी...
छाया चित्र : उमेश महादोषी 


मुझसे जुड़े बिना ही,

मेरे विस्तार को उन्नति में ढालने वालो
सुनहरे चमकीले सपनों को पालने वालो,
अतीत काल की चिर-निद्रा पर,
वर्तमान के संघर्षों की पुकार,
मैं भी सुनती हूँ 
तुम्हारे लिए, नदी से झील बनने की राह
मैं भी चुनती हूँ।
डैम-सुरंगों की शृंखलाओं में, ढालो मुझे,
पर प्रशव पीड़ा में हूँ सँभालो मुझे,
मैं ही हूँ तुम्हारी संस्कृति और सभ्यता की क्यारी
मान-सम्मान देना, मेरा वजूद बचाना मेरे बच्चो, 
मैं माँ हूँ तुम्हारी। 

  • 86-बी, सदर बाजार, डलहौजी, जिला चम्बा-176304 (हि.प्र.) / मोबाइल :  09418019460


देवराज डढवाल




अपनों से दूर

चिड़िया ने बनाया

आशियाना, अपनों से दूर
किसी वीराने में,
बुने थे सपने,
सोचा...
सुकूनभरी रातें होंगी,
क्योंकि
अपना घर तो, 
आखिर अपना ही होता है,
लेकिन, एक रात
झंझावात ने तोड़ डाले बुने सपने
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 

तिनका-तिनका बिखर गया घरोंदा,
क्या यही अंजाम होता है
अपनों से दूर बसने का?

मैं अक्सर सोचता हूँ,

क्यों होता है ये सब,
क्यों झंझावात आते हैं
क्यों घोंसले उजड़ जाते हैं
क्यों बसते गाँव,
विस्थापित शिविरों में तब्दील हो जाते हैं...?
मैं अक्सर सोचता हूँ...।

  • गाँव सरनूह, डाक सुखार, तह. नूरपुर, जिला काँगड़ा-176051 (हि.प्र.) / मोबाइल :  09816171358



अशोक दर्द





मेरे पहाड़ में

मेरे पहाड़ में

उगते हैं आज भी प्रेम के फूल
और घासनियों पर उगती है
सौहार्द की दूब;
घाटियाँ गूँथती हैं
छलछलाती नदियों की मालाएँ;
‘घूडू बाबा’ की तरह नाचते झरने
गाते हैं ‘रांझू-फूलमू’, ‘कुंजू-चंचलो’ और 
‘सुन्नी-भंक्कू’ के प्रेम गीत;
यहाँ लोग दौड़ते नहीं
सिर्फ सीना ऊँचा कर चलते हैं,
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 

यहाँ आज भी घर,
घर ही है,
लोगों ने इन्हें मकानों में 
नहीं बदला है;
मेरे पहाड़ में
कोई लापता नहीं होता,
दूर-दूर तक खबर रहती है
उसके होने या न होने की;
आज भी यहाँ कुछ अनछुए रास्ते हैं
जिन पर सिर्फ देवता ही विचरते हैं;
किसान आज भी,
‘सज्जण-मित्र’, पच्छे-परौह्णे’, ‘भिक्खू-भंगाले’ और
‘चिड्डुओं-पखेरुओं’ के नाम
कुछ दाने अपने खेतों में 
जरूर बीजते हैं;
बूढ़ी ताई ने परंपराओं की पोटली,
आज भी संभाल कर रखी है;
आज भी,
‘सत्यम्-शिवम्-सुंदरम्’ का
बास है
मेरे पहाड़ में....।

  • प्रवास कुटीर, गाँव व डाक बनीखेत, तहसील डलहौजी, जिला चम्बा-176303, (हि.प्र.) / मोबाइल : 09418248262




जगजीत आजाद







इशारा काफ़ी है






ग़र चाँद नहीं मेरी किस्मत में, इस रात का तारा काफ़ी है।
बेशक् तू साथ न चल मेरे, बस तेरा इशारा काफ़ी है।

मुझे गर्ज़ नहीं इस दुनिया की मुझे लेना क्या इस दुनिया से,

हर कोई मुखालिफ़ है तो क्या बस तेरा सहारा काफ़ी है।
छाया चित्र : अभिशक्ति

सिर पर है ग़र तपता सूरज और ग़म की धूप है चारों ओर,

बस प्यार भरी उस ममता के आंचल का किनारा काफ़ी है।

चाहे रात घिरी हो चारों ओर चाहे काली घटा हो बादल की,

छंट जाएँगे बादल बस उसकी दुआ का सितारा काफ़ी है।

सुनते हैं कि हर जगह है वो कहते हैं कि हर कण में वो,

कैसा है खुदा क्या पता ऐ माँ बस तेरा नज़ारा काफ़ी है।

  • मुख्याध्यापक, राजकीय उच्च विद्यालय, बलेरा, जिला चम्बा (हि.प्र.) / मोबाइल : 09418007729

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