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शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 11-12,  जुलाई-अगस्त   2014

प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल: 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।



छाया चित्र : पूनम गुप्ता 
।।सामग्री।।

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सम्पादकीय पृष्ठ { सम्पादकीय पृष्ठ }:  नई पोस्ट नहीं। 

अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} :  इस अंक में डॉ. कमलेश मलिक,  डॉ. विनोद निगम, किशन स्वरूप, प्रतिभा माही, राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’, हरीलाल ‘मिलन’, देवेन्द्र कुमार मिश्रा, विश्वनाथ शर्मा ‘विमल’, माधुरी राऊलकर, डॉ. बी.पी.दुबे, अजय अज्ञात, डॉ. नन्द लाल भारती की काव्य रचनाएँ। 

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} :   इस अंक में डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’, श्री पारस दासोत, श्री रामेश्वर काम्बोज हिमांशु,  श्री कृष्ण चन्द्र महादेविया,  श्री कुंवर प्रेमिल,  सुश्री शोभा रस्तोगी ‘शोभा’,  श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा , सुश्री शुभदा पाण्डेय व श्री  अनन्त आलोक की लघुकथाएँ। 

कहानी {कथा कहानी} : नई पोस्ट नहीं।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ} :  इस अंक में सर्व श्री केशव शरण, विश्वेश्वर शरण चतुर्वेदी व  अशोक आनन की क्षणिकाएँ। 

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  श्री राजेद्र परदेसी, श्री राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’ व डॉ. रंजीत रविशैलम के हाइकु। 

जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} : पं. ज्वालाप्रसाद शांडिल्य ‘दिव्य’ के बारह जनक छंद।

माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  नई पोस्ट नहीं।

बाल अविराम {बाल अविराम} :  डॉ. सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी की बाल कविता बाल चित्रकार राधिका शर्मा के चित्र के साथ। 

हमारे सरोकार (सरोकार) :  नई पोस्ट नहीं।

व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  श्री दिनेश रस्तोगी की दो व्यंग्य गजलें। 

संभावना {संभावना} : इस अंक में सुश्री कमलेश सूद अपनी दो कविताओं के साथ।

स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} :  नई पोस्ट नहीं।

क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : नई पोस्ट नहीं।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :  मारीशस के वरिष्ठ साहित्यकार श्री राज हीरामन जी के साथ मॉरीशस व विश्व के अन्य हिस्सों में हिन्दी साहित्य की स्थिति एवं हीरामन जी के अपने साहित्य के बारे में श्री राजेन्द्र परदेसी जी की बापचीत।

किताबें {किताबें} :  इस अंक में  श्याम सुन्दर अग्रवाल के  लघुकथा संग्रह 'बेटी का हिस्सा' की डॉ. सतीश दुबे द्वारा, उषा अग्रवाल ‘पारस’ द्वारा संपादित लघुकथा संकलन ‘लघुकथा वर्तिका’ की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा तथा कपिलेश भोज के कविता संग्रह ‘ताकि वसन्त में खिल सकें फूल’ की श्रीनिवास श्रीकान्त द्वारा लिखित समीक्षाएं। 



लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ} : नई पोस्ट नहीं।

हमारे युवा {हमारे युवा} :  नई पोस्ट नहीं।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} :  पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम की समीक्षा (अविराम की समीक्षा) :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम के अंक {अविराम के अंक} :  अविराम साहित्यकी के जुलाई-सितम्बर 2014 मुद्रित अंक में प्रकाशित सामग्री / रचनाकारों से सम्बंधित सूचना। 

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के  20 अगस्त 2014 तक अद्यतन आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार} :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 11-12,  जुलाई-अगस्त 2014



।।कविता अनवरत।।

सामग्री : इस अंक में डॉ. कमलेश मलिक,  डॉ. विनोद निगम, किशन स्वरूप, प्रतिभा माही, राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’, हरीलाल ‘मिलन’, देवेन्द्र कुमार मिश्रा, विश्वनाथ शर्मा ‘विमल’, माधुरी राऊलकर, डॉ. बी.पी.दुबे, अजय अज्ञात, डॉ. नन्द लाल भारती की काव्य रचनाएँ। 


डॉ. कमलेश मलिक




ग़ज़ल

मन्दिर नहीं, मस्जिद नहीं, इन वहशियों की डगर में
हम कातिलों से घिर गये, इस कातिलाना शहर में

लाश कन्धे पर उठाकर चल रहा है हर बटोही,
सांस फिर भी ले रहे सब इस जानलेवा कहर में

घाव पर मरहम लगाना अब भला वाजिब कहाँ
आँख तो लगती नहीं इक पल भी आठों पहर में

कुछ तो कड़वाहट घटेगी इस छलावे के तहत 
रेखा चित्र : पारस दासोत 

शहद घोले जा रहे हम अंगुलियों से ज़हर में

बारहा फिसले मगर हम बारहा उठकर चले
पर सामने मंजिल न हो तो क्यों चलें इस सफर में

कौन से सपने बुनें हम इस कयामत की घड़ी में
सब नजारे सो गये हैं अब हमारी नज़र में

शायर नहीं थे किन्तु फिर भी शायरी करते रहे,
बेमायना अल्फाज़ हैं इस बेतुकी सी बहर में

  • 16-बी, सुजान सिंह पार्क, सोनीपत (हरियाणा) / मोबाइल : 09466348348



डॉ. विनोद निगम


चारों धामों के चक्कर में

अपने धाम प्रसन्न सुखी थे, बारिश, गर्मी, ठण्ड में,
चारों धामों के चक्कर में, मरे उत्तराखंड में।

महाप्रलय ने दी होगी, जब दस्तक आकर द्वारे
ईश्वर शून्य लगे होंगे, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे
भूख-प्यास से, मृत्यु-ग्रास से, जान गए तुम होगे
कितनी निर्मम, कितनी अक्षम, होती हैं सरकारें

अपनों के कन्धों पर जाते, चन्दन-गन्ध चिता में पाते
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 

जलने भर को मिली न लकड़ी, अनुकम्पा के फन्ड में।

मगन मीडिया, मिला मसाला, नेता रोटी लगे सेंकने
महाविनाश दिखे कुछ छोटा, आसमान से लगे देखने
धँसे पहाड़, उफनती नदियों से लड़ती है वहाँ जिन्दगी
यहाँ मतों के लिए परस्पर, स्याही कीचड़ लगें फेंकने

छिन्न-भिन्न सब हुई व्यवस्था, धरे रह गए सभी प्रबंधन
महाकाल से बचे, मर गए सत्ता के पाखण्ड में।

भूखे-प्यासे जनम के, प्रभु के पुत्र हजार यहीं पर
आस तुम्हीं से रखने वाले, बद्री औ‘ केद्वार यहीं पर
गंगा, भगीरथी, मंदाकिनि, चिथड़ों लिपटी सूखी काया
इनका मंगल, बड़ा धाम है, तीरथ, व्रत, उद्धार यहीं पर

पीढ़ी दर पीढ़ी अंधियारे, घोलें इनमें तनिक रोशनी
जीवन मिला जरूर इन्हें, पर मिला सजा में, दण्ड में।
पुण्य लाभ के लिए व्यर्थ ही गए, उत्तराखण्ड में।
चारों धामों के चक्कर में, मरे उत्तराखण्ड में।
  • ‘नन्द कुटीर’, शनीचरा, होशंगाबाद, म.प्र.



किशन स्वरूप






{वरिष्ठ कवि श्री किशन स्वरूप का ग़ज़ल संग्रह ‘परिन्दे’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। उनके इस संग्रह से पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी कुछ प्रतिनिधि ग़ज़लें।}


तीन ग़ज़लें

01.
भूखे को आजादी दे दी पेट मगर खाली-खाली
भारत की संसद है, आओ मिल खेलें गाली-गाली

आँख मूंद कर सोने भर का नाटक करता है यारो
लूटपाट के रामराज में धूम मची है दे ताली

झोला-छाप बने फिरते हैं गाँव गली बस्ती-बस्ती
पाँच साल में रंगत बदली आई चहरे पर लाली

भाई और भतीजे नाते-रिश्तेदार प्रसन्न हुए
कल तक सब खाली जेबें थी आज नहीं कोई खाली

परचम उसके हाथ लगा है, मंजिल तक मालूम नहीं
तितर-बितर हो गया क़ाफला फैल गई है बदहाली

कितने अब तक आज़ादी के जश्न मने फीके-फीके
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी 

और चमन में लूट मची  है, ग़फ़लत में सोए माली

आसमान छूने को आतुर हैं पत्थर की  मीनारें
आँगन तक सहरा आ पहुँचा लुप्त हो गई हरियाली

02.
लालच में भी सच्चे मन के भाव बदलते हैं
जाने क्यों सूखी ज़मीन पर पाँव फिसलते हैं

नूरा कुश्ती देख-देख कर तंग आ गए हम
साथ कभी देते हैं पाला कभी बदलते हैं

झुककर चलना ऊँचाई पाने का नुस्खा है
जल्दी थक जाते हैं वे जो तनकर चलते हैं

इन मासूम ज़िदों का मतलब क्या समझे कोई
कोरे शब्द जाल से ये मासूम बहलते हैं

पाँव ज़मीं पर होंगे चिन्तन की गहराई से
जिनमें फूँक भरी होती है खूब उछलते हैं

तनहा हो हर एक सफर मुश्किल सा लगता है
आसाँ मंजिल हो जाए जब मिलकर चलते हैं

तूफानों से गहरी नींवें, हिल जाएँ, मुमकिन
लेकिन झंझावातों से कब पर्वत हिलते हैं

03.
सियासत का अजब ये खेल है आतंक तारी है
जमूरा बन गया हर एक, केवल वो मदारी है

समंदर से गले मिलकर नदी ने खुदकुशी कर ली
मिलन का ये तरीका आज भी हर सिम्त जारी है

अगर इंसानियत है धर्म का मतभेद फिर कैसा
वही मस्ज़िद वही मंदिर, वही मुल्ला, पुजारी है
छाया चित्र : अभिशक्ति 


पुरानी बात है लेकिन सही इस दौर में कितनी
हमेशा एक सच भी तो कई झूठों पै भारी है

हवा, आकाश, पानी, आग, मॉटी एक जैसे हैं
वही संस्कृति तुम्हारी है वही संस्कृति हमारी है

कभी भी आइने के रूबरू सच छिप नहीं सकता
मुखौटा ओढ़ लेना सिर्फ इक पल की खुमारी है

अना की बात मानूँ या चलूँ हम-राह दुनिया के
यही तो सोच में दुष्वारियों से जंग जारी है
  • 108/3, मंगल पांडेय नगर, मेरठ-250004(उ.प्र.)/फोन: 0121-2603523 / मोबाइल : 09837003216



प्रतिभा माही



दो ग़ज़लें

01.
छोड़कर वो घोंसला जब से रवाना हो गया
बात अपनों की नहीं दुश्मन ज़माना हो गया

लाख कोशिश में रहे वो तो मिटाने को उसे
जुल्म ढाकर थक गये किस्सा पुराना हो गया

हर कदम पर हौसला इस वक़्त ने मुझको दिया
फिर नये इक रूप में इक आशियाना हो गया

फूल भी खिलते रहे और महफिलें सजती रहीं
अश्क़ पीकर दर्द बाँटे मुस्कुराना हो गया
रेखा चित्र : के.रविन्द्र 

हूँ नहीं फिर भी बसा हूँ साँस में ‘माही’ तेरी
मंजिलें नज़दीक हैं हर दिन सुहाना हो गया

02. दुख सुख के मोती पोए हैं

दुख सुख के मोती पोए हैं
ना जागे हैं ना सोए हैं

अपने-गैरों का होश कहाँ
बीते आलम में खोए हैं

हर पहलू रूठा जीवन का
काँटे क्या खूब चुभोए हैं

निसदिन हमने पूजा उनको
आँचल में फूल सँजोए हैं

‘माही’ सिसक रही है तट पर
लहरों ने गाँव डुबोए हैं

  • मकान नं. 4/127, शिवाजी नगर, नियर बत्रा हॉस्पीटल, गुड़गाँव-122001 / मोबाइल : 09350672355



राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’

तीन मुक्तक

01.
मन ही मन उनको चाहा है
रेखा चित्र : नरेश उदास 

मन ही मन का दोराहा है
मन कितनी भी कोशिश कर ले
कब होता जो मनचाहा है

02.
दूर है, फिर भी लगे वह पास है
प्यार का कैसा मधुर अहसास है
पास भी इतनी कि कुछ दूरी नहीं
बुझ न पाई ‘राज’ कैसी प्यास है

03.
क्यों गिला हो अब हमें तकदीर से
जी बहल जाता है जब तसवीर से
क्यों पड़ें हम व्यर्थ के जंजाल में
काम है जब ख्वाब की तावीर से

  • भारतीय खान ब्यूरो, सेक्टर-11, हिरण मगरी, उदयपुर-313002, राज.



हरीलाल ‘मिलन’

तीन मुक्तक

01. किताबें
कभी सुख, कभी दुःख के किस्से कहेंगी।
ग़ज़ल, गीत, दोहे की नदियाँ बहेंगी।
मुझे याद करता रहेगा ज़माना-
मेरे बाद मेरी किताबें रहेंगी।

02.हम कवि हैं
कितनों के कल्पना-दुर्ग ढह जाते हैं
रेखा चित्र : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा 

कितने भीतर ही भीतर रह जाते हैं
हम कवि हैं, कह लेते हैं पीड़ा अपनी-
लोग कहाँ अपनी पीड़ा कह पाते हैं।

03. वक्त ज़िन्दा रखेगा
कभी घर तो कभी वनवास लिख रहा होगा
कभी पतझर कभी मधुमास लिख रहा होगा
वक्त ज़िन्दा रखेगा प्यार की किताबों में-
कोई तेरा-मेरा इतिहास लिख रहा होगा।
  • 300 ए/2, (प्लॉट संख्या 16-बी), दुर्गावती सदन, हनुमन्तनगर, नौबस्ता, कानपुर (उ.प्र.) / मोबाइल : 09935299939



देवेन्द्र कुमार मिश्रा




दो कविताएं

01.  बस रास्ते हैं

भटकन, जो शुरू होती है
तो चलती ही रहती है अनवरत्
खत्म ही नहीं होती
जीवन एक विशाल घना जंगल 
बस मंजिल की तलाश
जारी रहती है सतत
मंजिल, जो है ही नहीं
बस रास्ते हैं
एक के बाद दूसरा, तीसरा
मौत आने तक!

02.  ईश्वर का खेल

ईश्वर का खेल
शतरंज उसकी सृष्टि
और मोहरे बने मनुष्य
रेखा चित्र : उमेश महादोषी 

ईश्वर
एक तरफ
जीवन नाम का खिलाड़ी
दूसरी तरफ
मौत नाम का खिलाड़ी
दोनों ही ओर बैठा
मन बहला रहा है
खेल रहा है शह और मात का खेल
और मोहरे बने मनुष्य
इसी बेवकूफी में सुखी और दुखी
कि हम पैदल, ऊँट, घोड़े, हाथी
वजीर, राजा।

  • पाटनी कालोनी, भरत नगर, चन्दनगांव, छिन्दवाड़ा (म0प्र0) 480001 / मोबाइल : 09425405022



विश्वनाथ शर्मा ‘विमल’

वसंत पर सवैये

01.
द्वार वसंत पुकार रहा, उतरूँ कहँ पे वह ठौर बता।
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 

बाग न पेड़ न जंगल हैं, नहिं देख पड़े कहुँ कुंज लता।
चारहुँ ओर मकान खड़े, हरियाली बिना चहुँ नीरसता।
आय वसंत कहाँ उतरे, वह ठौर कहाँ बतलाव पता।

02.
अलसी सरसों जब फूल उठे, वन खंड सुगंध उड़े मन भावे।
मुनि संतन के मन छोभ बढ़े, तजि भक्ति चलें जहँ को मन आवे।
बिन कारन अंग अनंग जगे, उर ज्ञान विनाश करे मद लावे।
नर नारि नवेलिन भेद मिटा, रितुराज वसंत सबै हुलसावे।

03.
फाग फवी ऋतुराज वसंत, धरा चहुँ ओर छटा छिटके।
फागुन फाग सुहावत है, मन मौज भरे रस सा छलके।
रौनक रंग गुलाल बिखेरत देख सभी हिय में पुलके।
वैर भुला सब प्रेम निभा अति चाव मिलें सबसे खुलके।

  • 120, महाबली नगर, कोलार रोड, भोपाल, म.प्र. / मोबाइल : 09981722188




माधुरी राऊलकर




{नागपुर की कवयित्री सुश्री माधुरी राऊलकर का 2010 में प्रकाशित तीसरा ग़ज़ल संग्रह ‘अजनबी आसमां’ हमें हाल ही पढ़ने का अवसर मिला। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी दो प्रतिनिधि ग़ज़लें।} 

दो ग़ज़लें 

01.
हों कितने लाजवाब, हम नहीं रखते।
कांटों भरे गुलाब, हम नहीं रखते।

पूरा करने में जिन्दगी लुटा देते,
आंखों में सिर्फ ख्वाब, हम नहीं रखते।

हाथ बढ़ाया तो उम्रभर निभायेंगे,
रेखा चित्र : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा  

दोस्ती में हिसाब, हम नहीं रखते।

मैं जैसी हूँ, वैसे ही मिलना तुझसे
चेहरे पर नकाब, हम नहीं रखते।

जहाँ न आती हो खुशबू शायरी की,
ऐसी कोई किताब, हम नहीं रखते।

02.
सर पर अजनबी आसमां होते हुए।
सफर मुश्किल लगा आसां होते हुए।

नज़रों के सामने ही हादसा हुआ,
मगर मैं चुप रही जुबां होते हुए।

कुछ घर में, रिश्ते ऐसे भी देखे,
आग के साथ साथ धुआं होते हुए।

हमेशा आपस में क्यों लड़ते लोग,
अलग अलग सबका आशियां होते हुए।

हर किसी को तय करना है फासला,
ग़म और खुशी के दरमियाँ होते हुए।

  • 76, रामनगर, रिंग रोड, नागपुर (महा.) / फोन : 0712- 2537185



डॉ. बी.पी.दुबे




गीत

गुलाबों की महफ़िल बहारों के मेले
है मुश्किल सफ़र अब अकेले-अकेले...

जिधर देखिये गुल ही गुल खिल रहे हैं
कली से लिपटकर भँवर मिल रहे हैं
ये मन कह रहा कोई बाहों में ले ले...

वसंती पवन तन लगाये अगन सी
छाया चित्र : अभिशक्ति 

बहुत याद आती है बिछुड़े सजन की
कोई सूरमा ही मदन वाण झेले...

दहकते हुए ये पलासों के जंगल
है अमराइयों में मचलने की हलचल
बहुत खुशनुमा हैं ये खुश्बू के रेले....

फ़िजाओं में सब-कुछ नया लग रहा है
करें कुछ नया ही ये मन कह रहा है
भुला दें सभी ज़िन्दगी के झमेले....
गुलाबों की महफ़िल बहारों के मेले...

  • होटल संगम के सामने, चौराहा 5, सिविल लाइन्स, सागर-470001(म.प्र.) / मोबाइल : 09424426778



अजय अज्ञात


ग़ज़ल

आ जाए जो नदी ज़रा सहरा के आस पास
मिट जाये इस ज़मीं की ये मुद्दत पुरानी प्यास
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 


मुमकिन नहीं कि कोई मेरा हाल जान ले
ज़ाहिर तो मुस्कुराता हूँ, रहता है दिल उदास

जाने क्यूँ ऐसा करते हैं कुछ लोग बारबार
चिंगारी डाल दी वहाँ, देखी जहाँ कपास

ये मशविरा है मेरा, सलीका न छोड़िए
शीशे के घर में अच्छा नहीं रहना बेलिबास   

हो जाये सामना जो हकीकत से ऐ ‘अजय’
पैरों को देख मोर भी हो जाता है उदास

  • म.नं. 37, सै. 31, फरीदाबाद-121003 (हरि.) / मोबाइल : 09810561782


डॉ. नन्द लाल भारती 




दो कविताएं


01.  कैद नसीब

कैद नसीब आदमी का जीवन 
अग्नि परीक्षा का दौर होता है 
वफ़ा पर गरीब की कहाँ यकीं होता है 
कर्मयोगी न सोता न रोता 
उसे तो कल पर यकीं होता है 

02.  मेरी गली आया करो....

बहारों मेरी गली आया करो 

रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी 
बंद गली के रह गए हम 
कुसुमित अपना श्रम 
याचना की ना हिम्मत हमारी 
दुआ कबूल सको तो 
कबूल लो हमारी 
हमारी गली आया करो 
लेने की तमन्ना नहीं 
मेरी गली की 
सोंधी खुशबू साथ ले जाया करो 
बहारों मेरी गली आया करो....
  • आजाददीप, 15-एम, वीणा नगर, इन्दौर (म.प्र.) / मोबाइल :  09753081066

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 11-12, जुलाई-अगस्त  2014


।। कथा प्रवाह ।।

सामग्री :  इस अंक में डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’, श्री पारस दासोत, श्री रामेश्वर काम्बोज हिमांशु,  श्री कृष्ण चन्द्र महादेविया,  श्री कुंवर प्रेमिल,  सुश्री शोभा रस्तोगी ‘शोभा’,  श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा , सुश्री शुभदा पाण्डेय व श्री  अनन्त आलोक की लघुकथाएँ। 


डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’



अधिकार
     भारत से चल कर जब बोस्टन पहुंचा, तो हवाई अड्डे पर पत्नी के लिए ‘व्हील चेयर’ तैयार थी! मैंने व्हील चेयर थामे व्यक्ति से अंग्रेजी में पूछा- ‘कहाँ के हैं आप’, तो अंग्रेजी में जवाब मिला- ‘अफ्रीका’। मैंने बड़े जोश में कहा- ‘साउथ अफ्रीका?’ तो उसने मुझे ख़ुशी से देख कर कहा- ‘या’ और हमें लेकर सामान उतारने के लिए हवाई अड्डे की ‘बेल्ट’ पर ले आया!
    मैं सामान बाहर ले जाने के लिए ‘ट्रॉली’ लेने आगे बढ़ा तो देखा कि ट्रॉलियों में ‘लॉक’ लगा हुआ है! उसने मुझे देखा तो बोला- ‘पुट फोर डॉलर्स टू गेट ट्रॉली’। मैंने पूछा ‘व्हाई?’ तो उसने बताया कि बोस्टन एयरपोर्ट पर ट्रॉली लेने के लिए चार डॉलर देने होते हैं!
     मुझे परेशान देख कर अंग्रेजी में उसने पूछा- ‘क्या बात है, आप को क्या परेशानी है?’ मैंने अंग्रेजी में बताया- ‘मेरे पास तो चार डॉलर्स नहीं हैं, सौ डॉलर का नोट मेरे पास है, इसको मैं कहाँ से तुड़ाऊँ?’
     अफरीकी व्यक्ति ने रास्ता सुझाया- ‘‘आपका बेटा आपको लेने हवाई अड्डे पर आ रहा है ना? अभी मैं आपके लिए चार डॉलर डाल कर ट्रॉली ले लेता हूँ, आप मेरे साथ बाहर जा कर मुझे अपने बेटे से मेरे ये चार डॉलर दिलवा देना!’’
     मेरे सामने और कोई रास्ता था ही नहीं और बेटा हमें लेने आ ही रहा था, सो मैंने उसे ‘वचन’ सा दे दिया कि
रेखा चित्र :  दासोत 
मैं अपने बेटे से उसे ये चार डॉलर जरूर दिल दूंगा! वह मेरे साथ ट्रॉलियों के पास आया और वेक मशीन में एक-एक करके उसने चार डॉलर डाल कर ट्रॉली ले ली! ट्रॉली लेकर वह मेरे साथ ‘बेल्ट’ पर आया और हमारे सारे सामान को उठवा कर ट्रॉली पर रक्खा! हम उसके साथ बाहर आ गए!

    बाहर मेरा बेटा अपनी पत्नी, बेटे और बेटी के साथ जैसे ही हमें मिला तो जान में जान आ गई! मैंने बेटे को बताया कि साथ आए इस आदमी ने हमारी बहुत मदद की है! बेटे ने खुश हो कर उसे बीस डॉलर का नोट दिया तो उसने बेहद खुश होकर ‘थैंक्स’ कहा, लेकिन गया नहीं, बल्कि वहीं खड़ा रहा तो बेटे ने अंग्रेजी में पूछा, ‘‘क्या बात है?’’ तो उसने अंग्रेजी में ही कहा- ‘‘मैंने आपके पिता को ट्रॉली के लिए चार डॉलर उधार दिए थे, वो आपने नहीं दिए?’’ मैंने कहा- ‘‘बीस डॉलर तो दिए हैं न?’’ तो कड़क कर वो बोला- ‘‘ये तो ट्रिप है, पर वो पैसा तो मैंने आपको दिया था, वो मुझे लेना ही है!’’
     बेटे ने पांच डॉलर का नोट दिया तो बोला- ‘‘नो,नो, ओन्ली फोर डॉलर्स, मैंने पांच नहीं, सिर्फ ‘चार डॉलर्स’ ही दिए थे!’’ जैसे ही बेटे ने एक एक के चार नोट उसे दिए, उसने ले कर हँसते हुए कहा- ‘थैंक्स’ और चला गया!
  • 74/3, न्यू नेहरू नगर, रूड़की-247667, जिला: हरिद्वार, उत्तराखंड / मोबाइल : 09412070351



पारस दासोत



{सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लघुकथाकार एवं चित्रकार श्री पारस दासोत का लघुकथा संग्रह ‘मेरी अलंकारिक लघुकथाएँ’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। उनके इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो प्रतिनिधि लघुकथाएँ।}

भारत

      ‘दौड़ प्रतियोगिता’ में सम्मिलित होने के लिये,....
      उसने, मास्टर को हाथ जोड़ते हुए निवेदन किया-
      ‘‘गुरुजी! मैं भी दौड़ूँगा!’’
      ‘‘तू ऽऽ...! तू दौड़ेगा! अच्छा तो, यह अपना चोला उतार!’’
      उसने, शीघ्र ही अपना कुर्ता उतार दिया।
      उसके शरीर पर छनी बनियान देखकर, सब ठिलठिला पड़े।
      ..........  
      देखो-रे-देखो! इसकी बनियान तो, देश का नक्शा बनी हुई है!’’
रेखा चित्र : पारस दासोत 

      एक मास्टर ने उसका मजाक उड़ाया। 
      ‘‘अरे ऽऽ...! देश तो राज्यों और जिलों में भी बँटा हुआ है!’’
      दूसरे मास्टर ने मजाक आगे बढ़ाया।
      इस बीच,
      उसके पास ही बैठे एक मास्टर ने, उससे पूछा-
      ‘‘क्यों रे ऽऽ...! तेरा नाम क्या है?’’
      ‘‘गुरुजी, मेरा नाम! मेरा नाम भारत है।’’
      उसने सहज उत्तर दिया।
      थोड़ी देर बाद,
      भारत, तालियों की गड़गड़ाहट के बीच, सबसे आगे था।

कुआँ और कुआँ

     हरिजन लड़की के साथ हुए बलात्कार के कारण,... 
     लम्बी लड़ाई का परिणाम ये हुआ, ‘‘दो हरिजनों की दिन-दहाड़े हत्या कर दी गई।’’ खून बहा, पर गुस्सा शान्त नहीं हुआ। 
     दोनों लाशें, गाँव के हरिजन कुएँ में डाल दी गईं। कुएँ का पानी लाल हो गया। 
     कुछ ही दिनों में महाजन कुएँ का पानी भी लाल हो गया। पूरे गाँव में दहशत छा गयी...। गोताखोरों को कुएँ में उतारा गया। कछुओं, मेढ़कों के सिवा कुछ भी हाथ न लगा।
     ‘‘करें...तो क्या करे...?’’ चारों ओर से चिंता के स्वर उभरने लगे।
      .........
     ‘‘हमें, अपना कुआँ, पानी उलीचकर साफ करना चाहिए।’’  एक साहूकार ने सलाह दी।
     यह सब देख-सुनकर....भीड़ से दूर खड़ा मास्टर बोला-
     ‘‘यदि इस कुएँ को साफ करना है.... तो आओ! आओ मेरे साथ....।’’
     मास्टर के कदम, हरिजन कुएँ की ओर बढ़ रहे थे। 

  • प्लाट नं.129, गली नं.9 (बी), मोती नगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-21 / मोबाइल : 09413687579



रामेश्वर काम्बोज हिमांशु






{सुप्रसिद्ध लघुकथाकार एवं कवि श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी के लघुकथा संग्रह ‘असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ’ का दूसरा संस्करण गत वर्ष प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो प्रतिनिधि लघुकथाएँ।}

चक्रव्यूह

     ‘‘मँझले को देखो न, कितना कमज़ोर हो गया है।’’ सुबह पत्नी ने कहा।
     ‘‘देख तो मैं भी रहा हूँ। पर करूँ भी तो क्या? कलकत्ता में रहे हैं। वहाँ गरम कपड़ों की ज्यादा ज़रूरत नहीं पड़ी। अधिक न भी हों तो तीनों बच्चों के लिए एक-एक फुल स्वेटर ज़रूरी है। मैं चप्पल पहनकर ही आफिस जा रहा हूँ। कम-से-कम दो सौ रुपए हाथ में हों, तब मँझले का इलाज फिर
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
शुरू कराऊँ।’’

     ‘‘मैं पिछले आठ साल से देख रही हूँ कि आपके पास महीने के अन्तिम दिनों में दो रुपए भी नहीं बचते।’’ पत्नी तुनक उठी।
     कोई खांसी-जुकाम का इलाज तो कराना नहीं। लंग्स की खराबी है। साल-भर दवाई खिलाकर देख ली। रत्ती-भर फर्क नहीं पड़ा। संतुलित भोजन भी कहाँ मिल पाता है मंझले को।
     मैंने देखा, पत्नी की आँखें भर आईं- ‘‘तीनों बेटों में मँझला ही तो सुन्दर भी लगता है।....’’ उसने एक ओर मुँह घुमा लिया। मैं बिना खाए ही आफिस चला गया। मँझले का झुरता हुआ चेहरा दिन-भर मेरी आँखों में तैरता रहा। शाम को बोझिल कदमों से घर लौटा। पिताजी का पत्र आया था कि एक हज़ार रुपए भेज दूँ। अब उनको क्या उत्तर दूँ? महीने-भर की कमाई है आठ सौ रुपए। कहीं डाका डालूँ या चोरी करूँ? साल-भर में भी कभी एक हज़ार रुपए नहीं जुड़ पाए। वे बूढ़ी आँखें आए दिन पोस्टमैन की प्रतीक्षा करती होंगी कि मैं हज़ार न भेजता, तीन-चार सौ ही भेज देता।
     एक पीली रोशनी मेरी आँखों के आगे पसर रही है जिसमें जर्जर पिताजी मचिया पर पड़े कराह रहे हैं और अस्थि-पंजर सा मेरा मँझला बेटा सूखी खपच्ची टांगों से गिरता-पड़ता कहीं दूर भागा जा रहा है। और मैं धरती पर पाँव टिकाने में भी खुद को असमर्थ पा रहा हूँ।

लौटते हुए

     नीरज ने गली में घुसते समय पीछे मुड़कर देखा- कहीं कोई उसे देख तो नहीं रहा है? धीरे-धीरे चलते हुए उसने दरवाज़ों पर नज़र डाली। एक दरवाज़े की सीढ़ियों पर बैठे मिचमिची आँखों वाले अधेड़ ने उसको इशारे से पास बुलाया।
     वह सिटपिटाया। जीभ जैसे तालू से चिपक गई। अधेड़ उसके पास खिसककर फुसफुसाया- ‘‘आइए साहब, मनपसंद मिलेगा। तबियत हरी हो जायेगी।’’
     ‘‘मैं....’’ बोलते नीरज अटका।
     ‘‘समझ गया, जनाब, नए हैं। पचास रुपये निकालिए।’’ मिचमिची आँखों ने बीड़ी का धुआँ उगलते हुए कहा।
     झिझकते हुए नीरज का हाथ जेब से निकला ही था कि अधेड़ ने पचास का नोट बाज की तरह झपटा और उसे सीढ़ियों की ओर ठेल दिया।
     सीढ़ियाँ चढ़ते ही कई अदाएँ उसको गिरफ्त में लेने के लिए आगे बढ़ीं। उसकी टाँगे बुरी तरह काँप रही थीं। उसने चुपचाप खड़ी बड़ी-बड़ी आँखों वाली युवती की तरफ दृष्टि उठाई। वह आगे बढ़ी और लगभग खींचते हुए उसे कोठरी में लेती गई।
     पलंग पर बैठने का संकेत करके उसने पर्दा खींच दिया और फिर खुद भी उसके पास बैठ गई।
रेखा चित्र : उमेश महादोषी 

     नीरज चुप। दिमांग में भयंकर तनाव। भयंकर हड़कम्प। बात कैसे शुरू करे।
     ‘‘क्यों, मैं पसन्द नहीं हूँ क्या?’’ उसने रुखाई से पूछा।
     वह सकपकाकर एक तरफ को खिसक गया।
     ‘‘किस काम से आए हैं मेरे राजा?’’ उसने नीरज पर आँखें गढ़ा दीं।
     ‘‘मुझे मेरी पत्नी पर शक है।’’ वह अचकचाया- ‘‘मैं उसके साथ... पति की तरह नहीं रह पा रहा हूँ। किसी और से कह भी नहीं सकता। तुम लोगों को अनुभव होगा, इसीलिए यहाँ आया हूँ। मैं कैसे जानूँ कि मेरी पत्नी बदचलन है या नहीं?’’
     ‘‘बड़ी-बड़ी आँखें पल-भर को धधक उठीं। फिर अचानक गम्भीर हो गईं- ‘‘एक बात पूछूँ तुमसे?’’
     ‘‘पूछो।’’ उसने माथे पर छलक आया पसीना पोंछा।
     ‘‘तुम्हारी पत्नी अगर तुमको इस कोठे से उतरता हुआ देख ले, तो क्या सोचेगी?’’ उसने होंठ चबाये।
     ‘‘....’’ नीरज बगलें झाँकने लगा।
     ‘‘बोलो! यही न कि तुमने किसी से मुँह काला किया है; जबकि यह सच नहीं है।’’ बड़ी-बड़ी आँखों वाली युवती के चेहरे पर कड़वाहट उभर आई।
     नीरज की ज़ुबान पर जैसे ताला पड़ गया।
     ‘‘सुनो, पत्नी पर विश्वास करना सीखो। मुझे देखो...’’ उसकी आँखें भर आईं- ‘‘पति के शक ने मुझे इस कोठे पर पहुँचा दिया। अगर तुम्हारा शक झूठा हुआ तो क्या करोगे?’’
     नीरज भीतर तक दहल गया। उसने कृतज्ञता-भरी दृष्टि बड़ी-बड़ी आँखों पर डाली और बिजली की तेज़ी से सीढ़ियाँ उतरकर गली में आ गया।
  • एफ-305, छठा तल, मैक्स हाइट, सेक्टर-62, कुण्डली-131023, सोनीपत (हरियाणा) / मोबाइल : 09313727493



कृष्ण चन्द्र महादेविया




उदास आँखें

     ‘‘माताजी....ऐ माताजी...!’’ एस.डी.ओ. चौहान ने खेत पर काम करती दो महिलाओं में साठ-पेंसठ की महिला को पुकारा, जो घर के पास खेतों में मैला फेंकने में लगी थी।
    ‘‘क्या है?’’ महिला ने घूरते हुए कठोर स्वर में कहा।
    ‘‘मैं पानी वाले महकमे से आया हूँ और थांथी ठाकर से आपके खेत में निकले पानी वारे बात करनी थी।’’
    ‘‘तुझे पता नहीं, उसका बेटा हुआ है! आज छः दिन हुए हैं, तेरह दिन के बाद आना।’’ कठोर स्वर से महिला ने फिर कहा।
    ‘‘किन्तु माता जी, वह है कहाँ?’’
    ‘‘दिखता नहीं, तेरे सामने खुले कमरे में आराम कर रहा है। उसे उठाना मत, न ही बात करना। उसे हवा लग
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 
जायेगी।’’

     हैरान एस.डी.ओ. चौहान ने आगे बढ़कर कमरे में झांका। थांथी ठाकर सोया था और उसके पास नवजात बच्चा लिटाया था। उसके पास ही मेवों से भरी थाली और बड़ा सा दूध का गिलास रखा था। एस.डी.ओ. चौहान अवाक् देखता रह गया। कुछ देर झांकने के बाद उसने पीछे हटकर महिला से जिज्ञासावश पूछा- ‘‘माताजी, थाथी की पत्नी कहाँ है?’’   
     तुझे दिखती नहीं, ये जो काम कर रही है मेरे साथ। गोबर से भरा किलटा उठाये युवती की ओर संकेत करते उस उम्रदराज महिला ने कहा।
     युवती ने अब मासूमियत और उदास आँखों से एस.डी.ओ. चौहान की ओर देखा। कमजोरी के कारण वह धीरे-धीरे चलती गोबर का किलटा उठाकर कुछ दूरी पर खेत में फेंकती थी। एस.डी.ओ. चौहान को नवप्रसूता युवती पर बहुत दया आई। उसके दिल में आया कि इस खूसट औरत को चार थप्पड़ जड़ दे और खूब खरी-खोटी सुनाए। किन्तु वह अजनबी पहाड़ी इलाके में मन मसोस कर रह गया। जिसे आराम करना चाहिए, वह काम करती है और जिसे काम करना चाहिए, वह आराम से सोता है। चौहान आक्रोशित सा लौट आया। किन्तु उसकी आँखों के सामने मासूम और उदास आँखों में उसकी बिटिया जैसी युवती बार-बार दिखाई देने लगी थी।
  • पत्रालय महादेव, सुन्दरनगर, जिला मण्डी-175018, हि.प्र. / मोबाइल :  08988152163



कुंवर प्रेमिल




दो पाटन के बीच

     कुछेक भिखारी एक जगह मिल बैठे। एक भिखारी बोला- ‘‘आज कुल दो रूपये की हुई कमाई, ऐसे कैसे काम चलेगा भाई।’’
     दूसरा बोला-लोगों ने अपने घरों के सामने बोर्ड टांग रखे हैं- ‘यहां भिखारियों को भीख नहीं दी जाती है।’
     ‘‘अजी घंटों रिरियाते रहो, कोई घर से निकलता ही नहीं।’’
     ‘‘कुत्तों से सावधान, लिखकर भी हमें डराया जाता है।’’
     ‘‘अजी, फिल्म वालों ने भी आंखें मूंद ली हैं.... तुम एक पैसा दोगे, वो दस लाख देगा... जैसे गाने भी कोई लिखता-गाता नहीं। सबने मिलकर भिखारियों के खिलाफ मोर्चा बांध लिया है, क्या किया जाए आखिर।’’
     यह सब सुनते-सुनते एक पढ़ा-लिखा भिखारी बोला- ‘‘यह सब मंदी और महंगाई की मार है प्रभु, जब दो पाटन के बीच में सरकार ही फंसी हो तो हमारी झोली में कौन माई का लाल टका डालेगा- ऐं।’’
     इसके बाद गहन चुप्पी छा गई।

  • एम.आई.जी.-8, विजयनगर, जबलपुर-482002, म.प्र. / मोबाइल :  09301822782



शोभा रस्तोगी ‘शोभा’




{नई पीढ़ी के प्रतिभावान लघुकथाकारों में शोभा रस्तोगी ‘शोभा’ ने तेजी से अपनी जगह बनाई है। हाल ही में उनका एक लघुकथा संग्रह ‘दिन अपने लिए’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो प्रतिनिधि लघुकथाएँ।}

प्रेस्टिज इश्यू

     ‘‘ओफ्फोह! करीने से रखिए फूलमालाएँ डैड बॉडी के पास। व्हाट! पुरानी चादी? हटाओ इसे। नई धुली, वेल प्रैस्ड बोम्बे डाइंग की बैडशीट्स बिछाएँ.... वीडियो कवरेज हो रही है। देखिए! आप सभी रिश्तेदार अपने कपड़े ठीक करें। और चेहरा कुछ मुस्काता हुआ.... आई मीन, थोड़ा दुःख के साथ, ...बाकी ठीक है। साहब की माँ एक्सपायर हुई हैं। लगना चाहिए भई।’’ वीडियोग्राफर कवरेज के दौरान हिदायतें दे रहा था।
     ‘‘अरे, ये काली साड़ी... नो-नो... सफेद पहनिए।’’ मृतका की ग्रामीण चचेरी बहन को रोका उसने।
     ‘‘पर सफेद साड़ी तो....’’ वह झिझकी।
     ‘‘तो किराये पर ले लो। बड़ी बात है। साहब के ऑफिस में, मित्रों में, .... हर जगह यह वीडियो दिखाई जाएगी। बॉस का प्रेस्टिज इश्यू है न!’’ वीडियोग्राफर बोला।

पंख
     ‘‘ममा! परसों मेरा वर्थ-डे है। धूम मचेगी। ग्रेंड पार्टी होगी।’’ बिटिया उत्साहित थी।
     ‘‘हाँ-हाँ। बड़ी हो गयी, पर बच्चों की सी पुलक है। चल। कहीं जाना है मुझे।’’ स्कूटी पर बिठा मैं उसे अनाथालय ले आई।
     अनाथालय की इमारत साधारण थी। किन्तु साफ-स्वच्छ। खुले कमरे, कंपाउण्ड, कक्षाएँ।
     ‘‘इतनी सारी शील्ड्स, मैडल्स?’’
     ‘‘हमारे बच्चों ने जीते हैं।’’
     ‘‘कहाँ से लाते हैं आप इन बच्चों को?’’
     ‘‘रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, होटल्स।’’
     ‘‘इनके धर्म?’’
     ‘‘जैसा ये नाम बताते हैं... जिस धर्म को अपनाना चाहते हैं।’’
छाया चित्र : डॉ. बलराम अग्रवाल 

     ‘‘यह बात वाकई जमी आपकी।’’
     ‘‘यहाँ आप अपने बच्चों की पुरानी नई-चीजें दान में दे सकते हैं। स्टेशनरी, बर्तन, बिस्तर, कपड़े, खिलौने आदि।’’
     ‘‘ममा! मेरे ज्यामेट्री बॉक्स, कलर्स, स्टोरी बुक्स रखे हैं। यहाँ दे जाएँगे।’’ बेटी उल्लसित थी।
     उनके वॉचमैन से मैंने कुछ चॉकलेट्स मंगवाईं। बेटी ने अपने हाथ से बच्चों को दीं।
     ‘‘दीदी, थैंक्यू। थेंक्यू दीदी।’’ बच्चे खुश थे।
     बेटी के मुख पर आनंद की ऐसी पनीली परत मैंने आज तक नहीं देखी। लौटते हुए कहा मैंने, ‘‘चलो, तुम्हारे वर्थ-डे की तैयारी करें।’’ पल भर को चुप हो गई वह। उसके चेहरे पर सोने से विचार चप्पू चला रहे थे।
     ‘‘हम यहीं अनाथ बच्चों के साथ पार्टी करें तो?’’
     ‘‘फिर तेरी पार्टी....?’’
     ‘‘मैं अपने फ्रेंड्स को यहीं बुला लूँगी। स्नेक्स पार्टी रख लेंगे। ज़्यादा खर्च भी नहीं आएगा।’’ यकायक मेरे बेटी बड़ी हो गयी।
     ‘‘ओ.के.। एज यू विश।’’ मेरी कल्पना को पंख मिल गए।
  • आर जेड डी-208-बी, डी.डी.ए. पार्क रोड, राज नगर-2, पालम कालोनी, नई दिल्ली-110077 / मोबाइल : 09650267277 



सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा     





कानून                

     भरी बस के साथ उमस भरी गर्मी। न्यूट्रल लेकर चालक बार-बार एक्सीलेटर दबाता पर बस को चलाता नहीं था। लोगों से ठुसी हुई बस में उसे अभी और सवारियों की जरूरत थी। होती देर और गर्मी ने मेरी बैचेनी को बढ़ा दिया। इन सब परेशानियों से बेखबर मेरे बगल की सीट पर बैठे दढ़ियल ने बीड़ी सुलगा ली। पहला कश भरकर जैसे ही उसने धुआं अपनी नाक से बाहर उगला, मुझे लगा कि मेरा दम घुट जायेगा। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो मैं बोला, ‘‘मेरे भाई, बस में धूम्र-पान का जुर्माना सौ रूपये लग जाता है।’’
    उसकी तीखी नजरें मुझे ऐसे घूरने लगीं जैसे मैंने उसके मौलिक अधकारों पर कैंची चला दी हो। उसने मुझे चेताया, ‘‘वो देखो ड्राइवर भी तो सूटे मार रहा है, उसे रोकने के बाद मुझे जुर्माने की धमकी देना।’’
    मैंने ड्राइवर की ओर दृष्टि फेरी। मुसाफिर की बात ठीक थी। ड्राइवर भी पूरी मस्ती से मुँह में लगी बीड़ी का धूआँ उगल रहा था।        
    मैं उसे रोकने के लिए अपने स्थान से उठने को हुआ था कि मेरे अचेतन ने मुझे टोक दिया, ‘‘ड्राइवर इस बस
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल 
का सबसे खास आदमी है, अगर मैंने उसे कानून का पाठ पढ़ाने की कोशिश की तो निश्चय ही मेरी खिल्ली उड़ेगी। हो सकता है अपमानित भी होना पड़े, क्या पता मुझे बस से ही उतार दिया जाये। पर मेरे बगल में बैठा आम मुसाफिर कानून की परवाह न करे, यह मुझे हजम नहीं हुई। मैंने कहा, ‘‘उसे बाद में देख लेगें, पहले तुम बताओ कि अगर बस में जेब-कतरे सवार होकर सवारियों की जेब काटने लगें तो क्या तुम भी वही करने लगोगे?’’ 

     मुसाफ़िर ने हिकारत-भरी एक और नजर मुझ पर डाली और इत्मिनान से एक और भरपूर सूटा भरकर धुएँ के बादल उगलने के साथ कहा, ‘‘हो तो डरपोक पर बातें खूब बना लेते हो, इतनी समझ और पैदा कर लो कि बेमतलब की बातों की कोई अहमियत नहीं होती ........!’’ 
    मैं कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करता इससे पहले ही वह फिर भन्नाया, ‘‘जाओ जुर्माना करने वाले को बुला लाओ, उससे निबटने के बाद तुमसे भी निबट लेगें’’
    मेरी समझ ने तुरन्त काम किया, ‘‘मैं चुपचाप बस से उतर कर घर पहुँचने का कोई और साधन ढूंढ़ लूँ, तभी मुन्ने का होम-वर्क करवा पाऊँगा, नहीं तो बेइज्जती तय है।’’ 

  • डी-184, श्याम आर्क एक्सटेंशन साहिबाबाद-201005, जिला गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश / मोबाइल :  09911127277



शुभदा पाण्डेय







उदारता की लिपि

     आशीष के कम्प्यूटर की दुकान पर मैं अक्सर जाया करता था। वह वहाँ पुराना कर्मचारी था। कार्य में प्रवीण किंतु कुछ घमंडी भी था। अपनी अहमियत जताने के लिए वह तुरन्त होने वाले काम में भी देर लगाया करता। 
     पर मैं क्या करता? काम रहता तो जाना ही पड़ता।
छाया चित्र : रामेश्वर काम्बोज हिमांशु 

     एक दिन मैं गया तो वह नहीं मिला। मालिक नन्दनाथ से पूछा तो पता चला, उसके पिता बीमार हैं। सुनकर अच्छा नहीं लगा। कई दिनों तक यही संवाद मिलता रहा।
    एक दिन पता चला, उसके पिता नहीं रहे। पता नहीं क्यों मैं बहुत दुखी हुआ। हमारे बीच कोई मित्रता भी नहीं थी। ग्राहक ही था मैं वहाँ, पर लगा बिचारा कितना दुखी होगा। पन्द्रह दिन बाद दुकान पर वह मिला। मैंने देखते ही गले से लगा लिया और अपनत्व के प्रवाह में, पिछली बातें बह गईं।
    मन से उसने सहयोग दिया। हम एक-दूसरे से कुछ भी नहीं कहे, पर अब जब मैं आता तो वह मेरा काम फौरन कर देता, पर इससे मुझे इतनी खुशी नहीं होती, जितनी उसे गले लगाकर। आखिर उदारता की कोई लिपि नहीं होती।
  • असम विश्वविद्यालय, शिलचर-788011, असम / मोबाइल :  09435376047



अनन्त आलोक




प्रसाद

     धोंगू अब धोंगू नहीं रह गया था, धनीराम हो गया था। उसके चारों पुत्र सरकारी नौकर हो गये थे। दो बड़े बेटे तो पहले ही आर्मी ऑफीसर हो गये थे और छोटे पुत्रों को भी अच्छी नौकरी मिल गई थी। आज वह बहुत खुश है। उसने घर पर सत्यनारायण भगवान की कथा रखवाई है। चारों पुत्र और परिवार के अन्य सदस्य खुशी-खुशी मेहमानों की खातिरदारी में लगे हुए हैं। घर भर मेहमानों की उपस्थिति में पण्डित ने प्रभु की आरती उतारी। पण्डित जी ने प्रभु को पंचामृत और प्रसाद का भोग लगाया और श्रोताओं में बांटने को कहा। धनीराम ने विनम्र आग्रह किया, ‘‘पण्डित जी पहले आप प्रसाद ग्रहण करें तो बाकी लोगों में बंटवा दूं।’’ 
    ‘‘अरे धोंगू तुम पगला गये हो का! नीच जाति के घर मा बना प्रसाद हम कइसे ग्रहण कर सकत हैं भई! हमार धरम भ्रष्ट होए जई।’’
     धनीराम को पण्डित की बात से कोई ज्यादा आश्चर्य तो नहीं हुआ, क्योंकि इस बात का उसे आभास था।
छाया चित्र : ज्योत्सना शर्मा 
लेकिन उसके मन में क्रोध जरूर आया। अपमान के घूंट पीते हुए उसने बस इतना कहा, ‘‘पण्डित जी, अभी-अभी आपने इसी प्रसाद का भोग भगवान को लगाया, यानि भगवान यह प्रसाद ग्रहण कर सकता है लेकिन आप नहीं! क्या आप भगवान से बड़े हैं? इससे पहले कि मेरे पुत्रों को इस बात का पता चले, कृपया आप यहाँ से चले जाएं। शायद आप जानते नहीं कि प्रभु की नज़र में तो हम सब एक हैं ही, कानून की नज़र में भी एक हैं और जो बात आपने इतने लोगों के बीच कही उसके लिए आपको सजा भी हो सकती है।’’

    ‘‘अरे नहीं धोंगू, अइसी कोन बात नहीं, तुम तो जानत हो हमार गांव में इ सब होता ही है। भइया अब माफ कर देवो, इ लीजिए पहिले परसाद हम ही खाए लेत हैं। सच्ची कहें हमार मन में कुछो न है, वो तो हमार पिताजी एइसा कहत हैं बस। हम तो...’’ इतना कह पण्डित ने प्रसाद अपने मुँह में डालते हुए थाली धनीराम को पकड़ा दी। उपस्थित श्रोताओं ने जोर से नारा लगाया- ‘‘सत्यनारायण भगवान की जय... पण्डित जी की जय।’’ धनीराम के मन का सारा मैल एक पल में साफ हो गया। उसने दक्षिणा पण्डित जी के हाथ में रखते हुए पण्डित जी के चरण स्पर्श करते हुए हाथ जोड़कर कहा, ‘‘कहा-सुना माफ करना पण्डित जी।’’ धनीराम की आँखों से आंसू झराझर झरने लगे।
     पण्डित ने धनीराम के हाथों को हाथ में लेते हुए उसे गले लगा लिया।
  • साहित्यालोक, ददाहू, तहसील नाहन, जिला सिरमौर-173022, हि.प्र. / मोबा. :  9418740772