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शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

अविराम विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : 3,  अंक : 11-12,  जुलाई-अगस्त 2014 

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सामग्री : मारीशस के वरिष्ठ साहित्यकार श्री राज हीरामन जी के साथ मॉरीशस व विश्व के अन्य हिस्सों में हिन्दी साहित्य की स्थिति एवं हीरामन जी के अपने साहित्य के बारे में श्री राजेन्द्र परदेसी जी की बापचीत।


मॉरीशस ने अपनी हिन्दी में सृजन करना सीख लिया है : राज हीरामन

श्री राज हीरामन 

{मॉरीशस के वरिष्ठ साहित्यकार श्री राज हीरामन के साथ मॉरीशस व विश्व के अन्य हिस्सों में हिन्दी साहित्य की स्थिति एवं हीरामन जी के अपने साहित्य के बारे में पिछले दिनों श्री राजेन्द्र परदेसी जी ने एक बातचीत की। यहां प्रस्तुत हैं उस बातचीत के कुछ प्रमुख अंश।}


श्री राजेन्द्र परदेसी 
राजेन्द्र परदेसी :  युवा पीढ़ी आप के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ विशेष जानना
चाहेगी, जैसे आपका जन्म-स्थान वहाँ का वातावरण आदि।

राज हीरामन :   मेरा जन्म 11 जनवरी 1953 को एक गरीब परिवार में हुआ। पिता को देखा नहीं, माँ मज़दूरी करती थी। 10 बच्चों में मैं अंतिम संतान था। माध्यमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त की। आरम्भ में मज़दूरी की फिर पुलिस कान्स्टेबल और बाद में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर का अध्यापक बना। रूस में पत्रकारिता की। स्थानीय रेडियो, टी.वी पर सालों तक पत्रकार रहा, “स्वदेश”, हिन्दी साप्ताहिक का सम्पादन किया। दो बेटियाँ लण्डन में शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। उनकी माँ का स्वर्गवास हो चुका है, अकेला रहता हूँ। देर से पर 1997 में लिखना शुरू किया और पहली पुस्तक छपी। अब तक 21 पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनाधीन कई कहानी संग्रह और तेरा गाँव बड़ा त्याज्य (यात्रा संस्मरण)।

राजेन्द्र परदेसी :  वे कौन थे, जिनसे आप प्रेरणा पाते हैं, जिनसे प्रभावित होकर आप रचना कर्म की दिशा में प्रस्तुत हुए हैं और होते रहते हैं?

राज हीरामन :   मेरी स्वर्गीय पत्नी, जिन्होंने सारे प्रेम-पत्र कविता में लिखे थे। उनका संकलन करके मुझे भेंट किया था। शादी के बाद और उनके चले जाने के बाद भी मैं लिखता ही आ रहा हूँ। कुंवर बेचेन, जब मॉरीशस पधारे थे और मेरे कमरे में रहते थे। शाम को दिन की लिखी कविता उनकी मेज़ पर रख देता था। वे रात को अपने कार्यक्रमों के बाद लौटते तो कविता देखते और लिख देते, ‘सुन्दर’ या ‘अति सुन्दर’। जब तक वे रहे हैं रोज़ ही कविता लिखता। उनके जाने के बाद भी लिखने की आदत बनी रही। कुंवर बेचेन ने मेरी क्षणिकाएँ पढ़ी और मुझे पत्र लिखा ‘आप अगर अब तक लघुकथाएँ न लिखते हो तो आप इन्हीं विचारों को उसमें पिरो सकते हैं।’ तब से अब तक मेरी तीसरी लघुकथा की पुस्तक छपने जा रही है।

राजेन्द्र परदेसी :  मॉरीशस के साहित्यिक वातावरण के विषय में आपकी क्या धारणा है?

राज हीरामन :   हिन्दी जैसे आप भारतीयों को विरासत में मिली है वैसे हम मॉरीशसवासियों को नहीं मिली। बहुत ही संघर्ष के बाद हमें हिन्दी प्राप्त हुई है। इसीलिए जैसे आपकी मातृ भाषा हिन्दी है। हमारे लिए हिन्दी दर्द है। संस्कार की भाषा है। मॉरीशस ने एक अपनी हिन्दी में सृजन करना सीख लिया है। वह प्रवासी हिन्दी ही... हमारी हिन्दी है। दर्द की भाषा है... सम्मान की भाषा है। इज़्जत की भाषा है। इसीलिए यहाँ एक अनुकूल वातावरण बनाने में हम कामयाब हुए हैं। हमारे यहाँ हिन्दी-सृजन खूब हो रहा है।

राजेन्द्र परदेसी:  मॉरीशस में प्रचार-प्रसार की स्थिति के बारे में कुछ बताइए।
राज हीरामन :   बच्चा 5 साल से विश्वविद्यालय स्तर तक हिन्दी निःशुल्क पढ़ रहा है। साथ ही पीएच. डी. तक के लिए हिन्दी में प्रावधान है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए आर्य समाज/सनातन सभाएँ/आर्य रविवेद प्रचारिणी सभा/ हिन्दी प्रचारिणी सभा आदि स्वैच्छिक संस्थाएँ कर्म कर रही है। भारत-मॉरीशस सरकार हमारे देश में हिन्दी सचिवालय की स्थापना कर रही है और वह छः वर्षों से कार्यरत है। हिन्दी-प्रकाशन भी तेज़ी पर हैं।
राजेन्द्र परदेसी:  हिन्दी के प्रति साहित्य सृजताओं से अलग अन्य लोगों की सोच क्या है?

राज हीरामन :   जहाँ यह हिन्दी भाषा के साहित्यकारों की चिंता है, वहाँ यह उन लोगों की भी चिंता है, जिन्हें हिन्दी नहीं आती पर इसके प्रति उद्गार व्यक्त करते हैं, कि हमारे मुल्क में हिन्दी का भविष्य क्या है? क्या यह इतनी सारी महाशक्तियों के दबाव में पनप सकती है? कि हमारे देश में हिन्दी साहित्य जो आज कुछ नामी और अच्छे साहित्यकारों की वजह से एनटिक और संवाद में गण्य है,इस का भविष्य कैसा होगा? क्या आने वाली पीढ़ी तैयार हो रही है? या कोई उनकी तैयारी के बारे में सोच भी रहा है?

राजेन्द्र परदेसी :  मॉरीशस की साहित्यिक संस्थाएँ साहित्य के प्रति कहां तक प्रतिबद्ध है?

राज हीरामन :   हमारे यहाँ साहित्यिक संस्थाएँ न के बराबर हैं। धार्मिक संस्थाएँ ही हिन्दी प्रचार-प्रसार करती आ रही हैं। हिन्दी प्रचारिणी सभा ही एक ऐसी संस्था है जो सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दी का कार्य कर रही है। पर ऐसा नहीं है कि हिन्दी साहित्य का कार्य नहीं हो रहा है। साहित्य सृजन यहाँ  ज़ोरों से चल रहा है। यद्यपि यहाँ प्रकाशन की सुविधाएँ अधिकतर नहीं है और महंगी है। फिर भी मॉरीशस ही ऐसा देश है जहाँ भारत से बाहर सबसे अधिक हिन्दी सृजन हो रहा है और हिन्दी प्रकाशन भी सबसे अधिक हो रहा है।

राजेन्द्र परदेसी : आपकी मातृ भाषा हिन्दी तो नहीं है, फिर भी आप हिन्दी के प्रति आपका लगाव क्यों हो रहा है?
राज हीरामन :   क्योंकि यह हमारा संस्कार है। यह हमारे बाप-दादों पर जो कोड़े अंग्रेज़ों ने बरसाए थे, वह दर्द ही हमारे लिए हिन्दी भाषा है। यह एक बहुत ही अहम धरोहर की भाषा है। यह हमारे भौंहों में बसती है। यह हमारे दिल में/हृदय में बसती है। हमारे खेतों की भाषा है/ प्रेम करने की भाषा है। संस्कार रूपी सांस्कृतिक चादर है हिन्दी। हिन्दी बोलना हमारे लिए वरदान है।

राजेन्द्र परदेसी :   साहित्य की किस विधा में आपकी विशेष रुचि है? और आप इस के अतिरिक्त किन-किन विधाओं में अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं?

राज हीरामन :   मेरी विशेष रुचि कविता है। मैंने कविता में ही प्रेम पत्र लिखना आरम्भ किया था। बाद में उन पत्रों का एक संकलन मेरे पत्नी के नाम पर है- ‘कविताएँ जो छप न सकीं’। पाँच काव्य संकलनों के प्रकाशन के बाद ही मेरा पहला कहानी-संग्रह छपा था। आजकल कहानी के साथ लघुकथा भी लिख रहा हूं। दो कहानी संग्रहों और दो लघुकथा-संग्रहों का प्रकाशन हो चुका है। हायकु, यात्रा-संस्मरण और डायरी भी लिख रहा हूं।

राजेन्द्र परदेसी :   मॉरीशस में साहित्य सृजन की क्या स्थिति है? आप इससे संतुष्ट हैं?

राज हीरामन :  मॉरीशस वह देश है, जहाँ भारत से बाहर सबसे अधिक हिन्दी धुरन्धर हैं। पूजानन्द नेमा, राज हीरामन, धनराज शम्भु, भानुमति नागदान, सुमति सन्धु, कुछ ऐसे रचनाकार है। कुछ दिनों पहले पूजानंद नेमा और पिछले साल भानुमति नागदान जी का स्वर्गवास हो चुका है। अभिमन्यु अनत को अगले सप्ताह साहित्य अकादमी का सर्वश्रेष्ठ सर्वाेत्तम सम्मान प्राप्त होने जा रहा है। उन्होंने अब तक हिन्दी में 85 पुस्तकों की रचना की है। जिनमें 60 उपन्यास हैं। रामदेव धुरंधर भी स्तरीय साहित्य लिख रहा है। बात संतुष्टि की नहीं है। एक गहरी चिन्ता है। आने वाले पीढ़ी के रचनाकार आगे आ नहीं रहे हैं अर्थात उनकी तैयारी नहीं हो रही है।

राजेन्द्र परदेसी :   आपके विचार से साहित्यकारों को प्रेरित करने के लिए कैसा वातावरण होना चाहिए?

राज हीरामन :   स्वच्छ वातावरण। ईमानदारी का वातावरण। सहानुभूति का वातावरण। सहिष्णुता का वातावरण। आक्रोश का वातावरण। शांत वातावरण ज़रूरी नहीं है। एकांत वातावरण ज़रूरी नहीं। नदी का कल-कल करता पानी। भौंरे का गुंजन, पहाड़-नदियाँ, उठती लहरें, हरे-भरे सुगंधित फूल की भी आवश्यकता नहीं! आज की माँग कुछ और है। आज आदमी अन्तर से बीमार है। तनावग्रस्त है! मानसिकता बिगड़ी हुई है। बच्चों के पालन-पोषण में फर्क आने के सहारे बदल रहा है। और ये सारी बातें लिखने के लिए आप हसीन होंठों से प्रेरित नहीं हो सकते।

राजेन्द्र परदेसी :   विश्व के स्तर पर हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रचार एवं प्रसार की दिशा में जो प्रयास हुए उन से आप कहाँ तक संतुष्ट हैं? कोई सुझाव भी देना चाहेंगे?

राज हीरामन :   हिन्दी भारत की भाषा है न! जहाँ 700 वर्ष मुगलों और 200 साल तक अंग्रेज़ों ने राज किया। तोड़ा। तहस-नहस किया। चुराया और रोका। इसके बावजूद भी हिन्दी को कोई रोक नहीं पा रहा है। कल यह बाज़ार की भाषा बन जाती है तो हिन्दी की धारा में से लोग बह जाएँगे और इनका पता तक नहीं चलेगा। यह उसी तरह है जैसे गांधी के कदमों पर चलने वाले नेलसन मंडेला, उनका पाँच बार नाम लेने वाले को तो शांति का नोबल पुरस्कार मिल गया पर स्वयं गांधी को यह सम्मान नहीं मिला। क्यों? क्योंकि वे भारत के थे। इसलिए।
      अभिमन्यु अनत को जो मेरे देश का है, उन्हें साहित्य अकादमी को सर्वाेच्य सम्मान मिलता है। यह हिन्दी और हिन्दी की अंतरार्ष्ट्रीयता ही तो है। भारत के बाहर यहाँ सबसे अधिक हिन्दी रचनाकारों के प्रकाशन हो रहे हैं। यह अंतरार्ष्ट्रीयता ही तो है। मॉरीशस में हिन्दी सचिवालय का सक्रिय होना। सब संकेत देता है कि भारत को छोड़ दुनिया के अन्य देश भी हिन्दी के विकास के लिए कटिबद्ध हैं। दिलो-जान से वे हिन्दी को चाहते हैं और जी-जान से उसके लिए काम कर रहे हैं। हिन्दी को राष्ट्र संघ में ले जाने की ज़रूरत है। हमें हिन्दी को उस गद्दी बैठाने के लिए चंदा की धन-राशि की ज़रूरत पड़ेगी। लगन, श्रद्धा और हिन्दी को गले लगाने की आवश्यकता है।

राजेन्द्र परदेसी :   अपने अनुभवों के आधार पर आप नयी पीढ़ी को क्या कहना चाहेंगे?

राज हीरामन :  सभी यही कहते हैं। आज का युवा कल का नेता। क्या युवा वर्ग यह समझ रहा है कि भावी में उसकी क्या भूमिका रहेगी? और इसके लिए क्या और कितना करना पड़ेगा? भावी पीढ़ी खोखली नज़र आ रही है। नशाखोरी में कितने ही जीवन बर्बाद हो रहे हैं। ज़िम्मेदारी, कर्त्तव्य, शिष्टाचार आदि का तो कोई एहसास ही नहीं रहा। अभी हाल ही में मैं पटना में था मेरे मित्र हरिदेश अपने पत्नी के साथ मुझे मिलने आया और रॉची लौटते ही एम.पी. मनोनित हुआ। तब मैंने लिखा- ‘‘गांधी, जेपी, राम मनोहर लोहिया तुममें जन्मे हैं? आज युवा पीढ़ी में हम गांधी, जेपी, टेगौर, दयानंद, विवेकानंद, लोहिया के पुनर्जन्म की आशा डाल सकते हैं?
   ‘‘आज की द्रौपदी को/दुर्योधन की प्रतीक्षा है/वह इसका विरोध भी करती है/कि कृष्ण उसके बदले/अपनी नाक न डाले।’’
     क्या आज की युवा पीढ़ी मेरी इस क्षणिका को झुठला सकती है? वह गांधी नहीं बन सके तो अपने को उनके चरण छूने के काबिल बनाए। काबिलयत बेशुमार है। उसका सही प्रयोग करे और ज़माने को बदल डाले।


  • राज हीरामन,  Morcellement Swan, Beau Manguiers, Pereybere, Grand Bay, Mauritius / मोबाइल :  230-59109094 / ई मेल : rajheeramun@gmail.com


  • राजेन्द्र परदेसी :  44, शिव विहार, फरीदी नगर, लखनऊ-226015 (उ.प्र.) भारत / मोबाइल :  09415045584

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