अविराम ब्लॉग संकलन : वर्ष : 3, अंक : 11-12, जुलाई-अगस्त 2014
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में डॉ. कमलेश मलिक, डॉ. विनोद निगम, किशन स्वरूप, प्रतिभा माही, राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’, हरीलाल ‘मिलन’, देवेन्द्र कुमार मिश्रा, विश्वनाथ शर्मा ‘विमल’, माधुरी राऊलकर, डॉ. बी.पी.दुबे, अजय अज्ञात, डॉ. नन्द लाल भारती की काव्य रचनाएँ।
डॉ. कमलेश मलिक
ग़ज़ल
मन्दिर नहीं, मस्जिद नहीं, इन वहशियों की डगर में
हम कातिलों से घिर गये, इस कातिलाना शहर में
लाश कन्धे पर उठाकर चल रहा है हर बटोही,
सांस फिर भी ले रहे सब इस जानलेवा कहर में
घाव पर मरहम लगाना अब भला वाजिब कहाँ
आँख तो लगती नहीं इक पल भी आठों पहर में
कुछ तो कड़वाहट घटेगी इस छलावे के तहत
शहद घोले जा रहे हम अंगुलियों से ज़हर में
बारहा फिसले मगर हम बारहा उठकर चले
पर सामने मंजिल न हो तो क्यों चलें इस सफर में
कौन से सपने बुनें हम इस कयामत की घड़ी में
सब नजारे सो गये हैं अब हमारी नज़र में
शायर नहीं थे किन्तु फिर भी शायरी करते रहे,
बेमायना अल्फाज़ हैं इस बेतुकी सी बहर में
डॉ. विनोद निगम
चारों धामों के चक्कर में
अपने धाम प्रसन्न सुखी थे, बारिश, गर्मी, ठण्ड में,
चारों धामों के चक्कर में, मरे उत्तराखंड में।
महाप्रलय ने दी होगी, जब दस्तक आकर द्वारे
ईश्वर शून्य लगे होंगे, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे
भूख-प्यास से, मृत्यु-ग्रास से, जान गए तुम होगे
कितनी निर्मम, कितनी अक्षम, होती हैं सरकारें
अपनों के कन्धों पर जाते, चन्दन-गन्ध चिता में पाते
जलने भर को मिली न लकड़ी, अनुकम्पा के फन्ड में।
मगन मीडिया, मिला मसाला, नेता रोटी लगे सेंकने
महाविनाश दिखे कुछ छोटा, आसमान से लगे देखने
धँसे पहाड़, उफनती नदियों से लड़ती है वहाँ जिन्दगी
यहाँ मतों के लिए परस्पर, स्याही कीचड़ लगें फेंकने
छिन्न-भिन्न सब हुई व्यवस्था, धरे रह गए सभी प्रबंधन
महाकाल से बचे, मर गए सत्ता के पाखण्ड में।
भूखे-प्यासे जनम के, प्रभु के पुत्र हजार यहीं पर
आस तुम्हीं से रखने वाले, बद्री औ‘ केद्वार यहीं पर
गंगा, भगीरथी, मंदाकिनि, चिथड़ों लिपटी सूखी काया
इनका मंगल, बड़ा धाम है, तीरथ, व्रत, उद्धार यहीं पर
पीढ़ी दर पीढ़ी अंधियारे, घोलें इनमें तनिक रोशनी
जीवन मिला जरूर इन्हें, पर मिला सजा में, दण्ड में।
पुण्य लाभ के लिए व्यर्थ ही गए, उत्तराखण्ड में।
चारों धामों के चक्कर में, मरे उत्तराखण्ड में।
किशन स्वरूप
{वरिष्ठ कवि श्री किशन स्वरूप का ग़ज़ल संग्रह ‘परिन्दे’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। उनके इस संग्रह से पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी कुछ प्रतिनिधि ग़ज़लें।}
तीन ग़ज़लें
01.
भूखे को आजादी दे दी पेट मगर खाली-खाली
भारत की संसद है, आओ मिल खेलें गाली-गाली
आँख मूंद कर सोने भर का नाटक करता है यारो
लूटपाट के रामराज में धूम मची है दे ताली
झोला-छाप बने फिरते हैं गाँव गली बस्ती-बस्ती
पाँच साल में रंगत बदली आई चहरे पर लाली
भाई और भतीजे नाते-रिश्तेदार प्रसन्न हुए
कल तक सब खाली जेबें थी आज नहीं कोई खाली
परचम उसके हाथ लगा है, मंजिल तक मालूम नहीं
तितर-बितर हो गया क़ाफला फैल गई है बदहाली
कितने अब तक आज़ादी के जश्न मने फीके-फीके
और चमन में लूट मची है, ग़फ़लत में सोए माली
आसमान छूने को आतुर हैं पत्थर की मीनारें
आँगन तक सहरा आ पहुँचा लुप्त हो गई हरियाली
02.
लालच में भी सच्चे मन के भाव बदलते हैं
जाने क्यों सूखी ज़मीन पर पाँव फिसलते हैं
नूरा कुश्ती देख-देख कर तंग आ गए हम
साथ कभी देते हैं पाला कभी बदलते हैं
झुककर चलना ऊँचाई पाने का नुस्खा है
जल्दी थक जाते हैं वे जो तनकर चलते हैं
इन मासूम ज़िदों का मतलब क्या समझे कोई
कोरे शब्द जाल से ये मासूम बहलते हैं
पाँव ज़मीं पर होंगे चिन्तन की गहराई से
जिनमें फूँक भरी होती है खूब उछलते हैं
तनहा हो हर एक सफर मुश्किल सा लगता है
आसाँ मंजिल हो जाए जब मिलकर चलते हैं
तूफानों से गहरी नींवें, हिल जाएँ, मुमकिन
लेकिन झंझावातों से कब पर्वत हिलते हैं
03.
सियासत का अजब ये खेल है आतंक तारी है
जमूरा बन गया हर एक, केवल वो मदारी है
समंदर से गले मिलकर नदी ने खुदकुशी कर ली
मिलन का ये तरीका आज भी हर सिम्त जारी है
अगर इंसानियत है धर्म का मतभेद फिर कैसा
वही मस्ज़िद वही मंदिर, वही मुल्ला, पुजारी है
पुरानी बात है लेकिन सही इस दौर में कितनी
हमेशा एक सच भी तो कई झूठों पै भारी है
हवा, आकाश, पानी, आग, मॉटी एक जैसे हैं
वही संस्कृति तुम्हारी है वही संस्कृति हमारी है
कभी भी आइने के रूबरू सच छिप नहीं सकता
मुखौटा ओढ़ लेना सिर्फ इक पल की खुमारी है
अना की बात मानूँ या चलूँ हम-राह दुनिया के
यही तो सोच में दुष्वारियों से जंग जारी है
प्रतिभा माही
दो ग़ज़लें
01.
छोड़कर वो घोंसला जब से रवाना हो गया
बात अपनों की नहीं दुश्मन ज़माना हो गया
लाख कोशिश में रहे वो तो मिटाने को उसे
जुल्म ढाकर थक गये किस्सा पुराना हो गया
हर कदम पर हौसला इस वक़्त ने मुझको दिया
फिर नये इक रूप में इक आशियाना हो गया
फूल भी खिलते रहे और महफिलें सजती रहीं
अश्क़ पीकर दर्द बाँटे मुस्कुराना हो गया
हूँ नहीं फिर भी बसा हूँ साँस में ‘माही’ तेरी
मंजिलें नज़दीक हैं हर दिन सुहाना हो गया
02. दुख सुख के मोती पोए हैं
दुख सुख के मोती पोए हैं
ना जागे हैं ना सोए हैं
अपने-गैरों का होश कहाँ
बीते आलम में खोए हैं
हर पहलू रूठा जीवन का
काँटे क्या खूब चुभोए हैं
निसदिन हमने पूजा उनको
आँचल में फूल सँजोए हैं
‘माही’ सिसक रही है तट पर
लहरों ने गाँव डुबोए हैं
राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’
तीन मुक्तक
01.
मन ही मन उनको चाहा है
मन ही मन का दोराहा है
मन कितनी भी कोशिश कर ले
कब होता जो मनचाहा है
02.
दूर है, फिर भी लगे वह पास है
प्यार का कैसा मधुर अहसास है
पास भी इतनी कि कुछ दूरी नहीं
बुझ न पाई ‘राज’ कैसी प्यास है
03.
क्यों गिला हो अब हमें तकदीर से
जी बहल जाता है जब तसवीर से
क्यों पड़ें हम व्यर्थ के जंजाल में
काम है जब ख्वाब की तावीर से
हरीलाल ‘मिलन’
तीन मुक्तक
01. किताबें
कभी सुख, कभी दुःख के किस्से कहेंगी।
ग़ज़ल, गीत, दोहे की नदियाँ बहेंगी।
मुझे याद करता रहेगा ज़माना-
मेरे बाद मेरी किताबें रहेंगी।
02.हम कवि हैं
कितनों के कल्पना-दुर्ग ढह जाते हैं
कितने भीतर ही भीतर रह जाते हैं
हम कवि हैं, कह लेते हैं पीड़ा अपनी-
लोग कहाँ अपनी पीड़ा कह पाते हैं।
03. वक्त ज़िन्दा रखेगा
कभी घर तो कभी वनवास लिख रहा होगा
कभी पतझर कभी मधुमास लिख रहा होगा
वक्त ज़िन्दा रखेगा प्यार की किताबों में-
कोई तेरा-मेरा इतिहास लिख रहा होगा।
देवेन्द्र कुमार मिश्रा
दो कविताएं
01. बस रास्ते हैं
भटकन, जो शुरू होती है
तो चलती ही रहती है अनवरत्
खत्म ही नहीं होती
जीवन एक विशाल घना जंगल
बस मंजिल की तलाश
जारी रहती है सतत
मंजिल, जो है ही नहीं
बस रास्ते हैं
एक के बाद दूसरा, तीसरा
मौत आने तक!
02. ईश्वर का खेल
ईश्वर का खेल
शतरंज उसकी सृष्टि
और मोहरे बने मनुष्य
ईश्वर
एक तरफ
जीवन नाम का खिलाड़ी
दूसरी तरफ
मौत नाम का खिलाड़ी
दोनों ही ओर बैठा
मन बहला रहा है
खेल रहा है शह और मात का खेल
और मोहरे बने मनुष्य
इसी बेवकूफी में सुखी और दुखी
कि हम पैदल, ऊँट, घोड़े, हाथी
वजीर, राजा।
विश्वनाथ शर्मा ‘विमल’
वसंत पर सवैये
01.
द्वार वसंत पुकार रहा, उतरूँ कहँ पे वह ठौर बता।
बाग न पेड़ न जंगल हैं, नहिं देख पड़े कहुँ कुंज लता।
चारहुँ ओर मकान खड़े, हरियाली बिना चहुँ नीरसता।
आय वसंत कहाँ उतरे, वह ठौर कहाँ बतलाव पता।
02.
अलसी सरसों जब फूल उठे, वन खंड सुगंध उड़े मन भावे।
मुनि संतन के मन छोभ बढ़े, तजि भक्ति चलें जहँ को मन आवे।
बिन कारन अंग अनंग जगे, उर ज्ञान विनाश करे मद लावे।
नर नारि नवेलिन भेद मिटा, रितुराज वसंत सबै हुलसावे।
03.
फाग फवी ऋतुराज वसंत, धरा चहुँ ओर छटा छिटके।
फागुन फाग सुहावत है, मन मौज भरे रस सा छलके।
रौनक रंग गुलाल बिखेरत देख सभी हिय में पुलके।
वैर भुला सब प्रेम निभा अति चाव मिलें सबसे खुलके।
माधुरी राऊलकर
{नागपुर की कवयित्री सुश्री माधुरी राऊलकर का 2010 में प्रकाशित तीसरा ग़ज़ल संग्रह ‘अजनबी आसमां’ हमें हाल ही पढ़ने का अवसर मिला। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी दो प्रतिनिधि ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
01.
हों कितने लाजवाब, हम नहीं रखते।
कांटों भरे गुलाब, हम नहीं रखते।
पूरा करने में जिन्दगी लुटा देते,
आंखों में सिर्फ ख्वाब, हम नहीं रखते।
हाथ बढ़ाया तो उम्रभर निभायेंगे,
दोस्ती में हिसाब, हम नहीं रखते।
मैं जैसी हूँ, वैसे ही मिलना तुझसे
चेहरे पर नकाब, हम नहीं रखते।
जहाँ न आती हो खुशबू शायरी की,
ऐसी कोई किताब, हम नहीं रखते।
02.
सर पर अजनबी आसमां होते हुए।
सफर मुश्किल लगा आसां होते हुए।
नज़रों के सामने ही हादसा हुआ,
मगर मैं चुप रही जुबां होते हुए।
कुछ घर में, रिश्ते ऐसे भी देखे,
आग के साथ साथ धुआं होते हुए।
हमेशा आपस में क्यों लड़ते लोग,
अलग अलग सबका आशियां होते हुए।
हर किसी को तय करना है फासला,
ग़म और खुशी के दरमियाँ होते हुए।
डॉ. बी.पी.दुबे
गीत
गुलाबों की महफ़िल बहारों के मेले
है मुश्किल सफ़र अब अकेले-अकेले...
जिधर देखिये गुल ही गुल खिल रहे हैं
कली से लिपटकर भँवर मिल रहे हैं
ये मन कह रहा कोई बाहों में ले ले...
वसंती पवन तन लगाये अगन सी
बहुत याद आती है बिछुड़े सजन की
कोई सूरमा ही मदन वाण झेले...
दहकते हुए ये पलासों के जंगल
है अमराइयों में मचलने की हलचल
बहुत खुशनुमा हैं ये खुश्बू के रेले....
फ़िजाओं में सब-कुछ नया लग रहा है
करें कुछ नया ही ये मन कह रहा है
भुला दें सभी ज़िन्दगी के झमेले....
गुलाबों की महफ़िल बहारों के मेले...
अजय अज्ञात
ग़ज़ल
आ जाए जो नदी ज़रा सहरा के आस पास
मिट जाये इस ज़मीं की ये मुद्दत पुरानी प्यास
मुमकिन नहीं कि कोई मेरा हाल जान ले
ज़ाहिर तो मुस्कुराता हूँ, रहता है दिल उदास
जाने क्यूँ ऐसा करते हैं कुछ लोग बारबार
चिंगारी डाल दी वहाँ, देखी जहाँ कपास
ये मशविरा है मेरा, सलीका न छोड़िए
शीशे के घर में अच्छा नहीं रहना बेलिबास
हो जाये सामना जो हकीकत से ऐ ‘अजय’
पैरों को देख मोर भी हो जाता है उदास
डॉ. नन्द लाल भारती
दो कविताएं
01. कैद नसीब
कैद नसीब आदमी का जीवन
अग्नि परीक्षा का दौर होता है
वफ़ा पर गरीब की कहाँ यकीं होता है
कर्मयोगी न सोता न रोता
उसे तो कल पर यकीं होता है
02. मेरी गली आया करो....
बहारों मेरी गली आया करो
बंद गली के रह गए हम
कुसुमित अपना श्रम
याचना की ना हिम्मत हमारी
दुआ कबूल सको तो
कबूल लो हमारी
हमारी गली आया करो
लेने की तमन्ना नहीं
मेरी गली की
सोंधी खुशबू साथ ले जाया करो
बहारों मेरी गली आया करो....
।।कविता अनवरत।।
डॉ. कमलेश मलिक
ग़ज़ल
मन्दिर नहीं, मस्जिद नहीं, इन वहशियों की डगर में
हम कातिलों से घिर गये, इस कातिलाना शहर में
लाश कन्धे पर उठाकर चल रहा है हर बटोही,
सांस फिर भी ले रहे सब इस जानलेवा कहर में
घाव पर मरहम लगाना अब भला वाजिब कहाँ
आँख तो लगती नहीं इक पल भी आठों पहर में
कुछ तो कड़वाहट घटेगी इस छलावे के तहत
रेखा चित्र : पारस दासोत |
शहद घोले जा रहे हम अंगुलियों से ज़हर में
बारहा फिसले मगर हम बारहा उठकर चले
पर सामने मंजिल न हो तो क्यों चलें इस सफर में
कौन से सपने बुनें हम इस कयामत की घड़ी में
सब नजारे सो गये हैं अब हमारी नज़र में
शायर नहीं थे किन्तु फिर भी शायरी करते रहे,
बेमायना अल्फाज़ हैं इस बेतुकी सी बहर में
- 16-बी, सुजान सिंह पार्क, सोनीपत (हरियाणा) / मोबाइल : 09466348348
डॉ. विनोद निगम
चारों धामों के चक्कर में
अपने धाम प्रसन्न सुखी थे, बारिश, गर्मी, ठण्ड में,
चारों धामों के चक्कर में, मरे उत्तराखंड में।
महाप्रलय ने दी होगी, जब दस्तक आकर द्वारे
ईश्वर शून्य लगे होंगे, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे
भूख-प्यास से, मृत्यु-ग्रास से, जान गए तुम होगे
कितनी निर्मम, कितनी अक्षम, होती हैं सरकारें
अपनों के कन्धों पर जाते, चन्दन-गन्ध चिता में पाते
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी |
जलने भर को मिली न लकड़ी, अनुकम्पा के फन्ड में।
मगन मीडिया, मिला मसाला, नेता रोटी लगे सेंकने
महाविनाश दिखे कुछ छोटा, आसमान से लगे देखने
धँसे पहाड़, उफनती नदियों से लड़ती है वहाँ जिन्दगी
यहाँ मतों के लिए परस्पर, स्याही कीचड़ लगें फेंकने
छिन्न-भिन्न सब हुई व्यवस्था, धरे रह गए सभी प्रबंधन
महाकाल से बचे, मर गए सत्ता के पाखण्ड में।
भूखे-प्यासे जनम के, प्रभु के पुत्र हजार यहीं पर
आस तुम्हीं से रखने वाले, बद्री औ‘ केद्वार यहीं पर
गंगा, भगीरथी, मंदाकिनि, चिथड़ों लिपटी सूखी काया
इनका मंगल, बड़ा धाम है, तीरथ, व्रत, उद्धार यहीं पर
पीढ़ी दर पीढ़ी अंधियारे, घोलें इनमें तनिक रोशनी
जीवन मिला जरूर इन्हें, पर मिला सजा में, दण्ड में।
पुण्य लाभ के लिए व्यर्थ ही गए, उत्तराखण्ड में।
चारों धामों के चक्कर में, मरे उत्तराखण्ड में।
- ‘नन्द कुटीर’, शनीचरा, होशंगाबाद, म.प्र.
किशन स्वरूप
{वरिष्ठ कवि श्री किशन स्वरूप का ग़ज़ल संग्रह ‘परिन्दे’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। उनके इस संग्रह से पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी कुछ प्रतिनिधि ग़ज़लें।}
तीन ग़ज़लें
01.
भूखे को आजादी दे दी पेट मगर खाली-खाली
भारत की संसद है, आओ मिल खेलें गाली-गाली
आँख मूंद कर सोने भर का नाटक करता है यारो
लूटपाट के रामराज में धूम मची है दे ताली
झोला-छाप बने फिरते हैं गाँव गली बस्ती-बस्ती
पाँच साल में रंगत बदली आई चहरे पर लाली
भाई और भतीजे नाते-रिश्तेदार प्रसन्न हुए
कल तक सब खाली जेबें थी आज नहीं कोई खाली
परचम उसके हाथ लगा है, मंजिल तक मालूम नहीं
तितर-बितर हो गया क़ाफला फैल गई है बदहाली
कितने अब तक आज़ादी के जश्न मने फीके-फीके
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी |
और चमन में लूट मची है, ग़फ़लत में सोए माली
आसमान छूने को आतुर हैं पत्थर की मीनारें
आँगन तक सहरा आ पहुँचा लुप्त हो गई हरियाली
02.
लालच में भी सच्चे मन के भाव बदलते हैं
जाने क्यों सूखी ज़मीन पर पाँव फिसलते हैं
नूरा कुश्ती देख-देख कर तंग आ गए हम
साथ कभी देते हैं पाला कभी बदलते हैं
झुककर चलना ऊँचाई पाने का नुस्खा है
जल्दी थक जाते हैं वे जो तनकर चलते हैं
इन मासूम ज़िदों का मतलब क्या समझे कोई
कोरे शब्द जाल से ये मासूम बहलते हैं
पाँव ज़मीं पर होंगे चिन्तन की गहराई से
जिनमें फूँक भरी होती है खूब उछलते हैं
तनहा हो हर एक सफर मुश्किल सा लगता है
आसाँ मंजिल हो जाए जब मिलकर चलते हैं
तूफानों से गहरी नींवें, हिल जाएँ, मुमकिन
लेकिन झंझावातों से कब पर्वत हिलते हैं
03.
सियासत का अजब ये खेल है आतंक तारी है
जमूरा बन गया हर एक, केवल वो मदारी है
समंदर से गले मिलकर नदी ने खुदकुशी कर ली
मिलन का ये तरीका आज भी हर सिम्त जारी है
अगर इंसानियत है धर्म का मतभेद फिर कैसा
वही मस्ज़िद वही मंदिर, वही मुल्ला, पुजारी है
छाया चित्र : अभिशक्ति |
पुरानी बात है लेकिन सही इस दौर में कितनी
हमेशा एक सच भी तो कई झूठों पै भारी है
हवा, आकाश, पानी, आग, मॉटी एक जैसे हैं
वही संस्कृति तुम्हारी है वही संस्कृति हमारी है
कभी भी आइने के रूबरू सच छिप नहीं सकता
मुखौटा ओढ़ लेना सिर्फ इक पल की खुमारी है
अना की बात मानूँ या चलूँ हम-राह दुनिया के
यही तो सोच में दुष्वारियों से जंग जारी है
- 108/3, मंगल पांडेय नगर, मेरठ-250004(उ.प्र.)/फोन: 0121-2603523 / मोबाइल : 09837003216
प्रतिभा माही
दो ग़ज़लें
01.
छोड़कर वो घोंसला जब से रवाना हो गया
बात अपनों की नहीं दुश्मन ज़माना हो गया
लाख कोशिश में रहे वो तो मिटाने को उसे
जुल्म ढाकर थक गये किस्सा पुराना हो गया
हर कदम पर हौसला इस वक़्त ने मुझको दिया
फिर नये इक रूप में इक आशियाना हो गया
फूल भी खिलते रहे और महफिलें सजती रहीं
अश्क़ पीकर दर्द बाँटे मुस्कुराना हो गया
रेखा चित्र : के.रविन्द्र |
हूँ नहीं फिर भी बसा हूँ साँस में ‘माही’ तेरी
मंजिलें नज़दीक हैं हर दिन सुहाना हो गया
02. दुख सुख के मोती पोए हैं
दुख सुख के मोती पोए हैं
ना जागे हैं ना सोए हैं
अपने-गैरों का होश कहाँ
बीते आलम में खोए हैं
हर पहलू रूठा जीवन का
काँटे क्या खूब चुभोए हैं
निसदिन हमने पूजा उनको
आँचल में फूल सँजोए हैं
‘माही’ सिसक रही है तट पर
लहरों ने गाँव डुबोए हैं
- मकान नं. 4/127, शिवाजी नगर, नियर बत्रा हॉस्पीटल, गुड़गाँव-122001 / मोबाइल : 09350672355
राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’
तीन मुक्तक
01.
मन ही मन उनको चाहा है
रेखा चित्र : नरेश उदास |
मन ही मन का दोराहा है
मन कितनी भी कोशिश कर ले
कब होता जो मनचाहा है
02.
दूर है, फिर भी लगे वह पास है
प्यार का कैसा मधुर अहसास है
पास भी इतनी कि कुछ दूरी नहीं
बुझ न पाई ‘राज’ कैसी प्यास है
03.
क्यों गिला हो अब हमें तकदीर से
जी बहल जाता है जब तसवीर से
क्यों पड़ें हम व्यर्थ के जंजाल में
काम है जब ख्वाब की तावीर से
- भारतीय खान ब्यूरो, सेक्टर-11, हिरण मगरी, उदयपुर-313002, राज.
हरीलाल ‘मिलन’
तीन मुक्तक
01. किताबें
कभी सुख, कभी दुःख के किस्से कहेंगी।
ग़ज़ल, गीत, दोहे की नदियाँ बहेंगी।
मुझे याद करता रहेगा ज़माना-
मेरे बाद मेरी किताबें रहेंगी।
02.हम कवि हैं
कितनों के कल्पना-दुर्ग ढह जाते हैं
रेखा चित्र : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा |
कितने भीतर ही भीतर रह जाते हैं
हम कवि हैं, कह लेते हैं पीड़ा अपनी-
लोग कहाँ अपनी पीड़ा कह पाते हैं।
03. वक्त ज़िन्दा रखेगा
कभी घर तो कभी वनवास लिख रहा होगा
कभी पतझर कभी मधुमास लिख रहा होगा
वक्त ज़िन्दा रखेगा प्यार की किताबों में-
कोई तेरा-मेरा इतिहास लिख रहा होगा।
- 300 ए/2, (प्लॉट संख्या 16-बी), दुर्गावती सदन, हनुमन्तनगर, नौबस्ता, कानपुर (उ.प्र.) / मोबाइल : 09935299939
देवेन्द्र कुमार मिश्रा
दो कविताएं
01. बस रास्ते हैं
भटकन, जो शुरू होती है
तो चलती ही रहती है अनवरत्
खत्म ही नहीं होती
जीवन एक विशाल घना जंगल
बस मंजिल की तलाश
जारी रहती है सतत
मंजिल, जो है ही नहीं
बस रास्ते हैं
एक के बाद दूसरा, तीसरा
मौत आने तक!
02. ईश्वर का खेल
ईश्वर का खेल
शतरंज उसकी सृष्टि
और मोहरे बने मनुष्य
रेखा चित्र : उमेश महादोषी |
ईश्वर
एक तरफ
जीवन नाम का खिलाड़ी
दूसरी तरफ
मौत नाम का खिलाड़ी
दोनों ही ओर बैठा
मन बहला रहा है
खेल रहा है शह और मात का खेल
और मोहरे बने मनुष्य
इसी बेवकूफी में सुखी और दुखी
कि हम पैदल, ऊँट, घोड़े, हाथी
वजीर, राजा।
- पाटनी कालोनी, भरत नगर, चन्दनगांव, छिन्दवाड़ा (म0प्र0) 480001 / मोबाइल : 09425405022
विश्वनाथ शर्मा ‘विमल’
वसंत पर सवैये
01.
द्वार वसंत पुकार रहा, उतरूँ कहँ पे वह ठौर बता।
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी |
बाग न पेड़ न जंगल हैं, नहिं देख पड़े कहुँ कुंज लता।
चारहुँ ओर मकान खड़े, हरियाली बिना चहुँ नीरसता।
आय वसंत कहाँ उतरे, वह ठौर कहाँ बतलाव पता।
02.
अलसी सरसों जब फूल उठे, वन खंड सुगंध उड़े मन भावे।
मुनि संतन के मन छोभ बढ़े, तजि भक्ति चलें जहँ को मन आवे।
बिन कारन अंग अनंग जगे, उर ज्ञान विनाश करे मद लावे।
नर नारि नवेलिन भेद मिटा, रितुराज वसंत सबै हुलसावे।
03.
फाग फवी ऋतुराज वसंत, धरा चहुँ ओर छटा छिटके।
फागुन फाग सुहावत है, मन मौज भरे रस सा छलके।
रौनक रंग गुलाल बिखेरत देख सभी हिय में पुलके।
वैर भुला सब प्रेम निभा अति चाव मिलें सबसे खुलके।
- 120, महाबली नगर, कोलार रोड, भोपाल, म.प्र. / मोबाइल : 09981722188
माधुरी राऊलकर
{नागपुर की कवयित्री सुश्री माधुरी राऊलकर का 2010 में प्रकाशित तीसरा ग़ज़ल संग्रह ‘अजनबी आसमां’ हमें हाल ही पढ़ने का अवसर मिला। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी दो प्रतिनिधि ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
01.
हों कितने लाजवाब, हम नहीं रखते।
कांटों भरे गुलाब, हम नहीं रखते।
पूरा करने में जिन्दगी लुटा देते,
आंखों में सिर्फ ख्वाब, हम नहीं रखते।
हाथ बढ़ाया तो उम्रभर निभायेंगे,
रेखा चित्र : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा |
दोस्ती में हिसाब, हम नहीं रखते।
मैं जैसी हूँ, वैसे ही मिलना तुझसे
चेहरे पर नकाब, हम नहीं रखते।
जहाँ न आती हो खुशबू शायरी की,
ऐसी कोई किताब, हम नहीं रखते।
02.
सर पर अजनबी आसमां होते हुए।
सफर मुश्किल लगा आसां होते हुए।
नज़रों के सामने ही हादसा हुआ,
मगर मैं चुप रही जुबां होते हुए।
कुछ घर में, रिश्ते ऐसे भी देखे,
आग के साथ साथ धुआं होते हुए।
हमेशा आपस में क्यों लड़ते लोग,
अलग अलग सबका आशियां होते हुए।
हर किसी को तय करना है फासला,
ग़म और खुशी के दरमियाँ होते हुए।
- 76, रामनगर, रिंग रोड, नागपुर (महा.) / फोन : 0712- 2537185
डॉ. बी.पी.दुबे
गीत
गुलाबों की महफ़िल बहारों के मेले
है मुश्किल सफ़र अब अकेले-अकेले...
जिधर देखिये गुल ही गुल खिल रहे हैं
कली से लिपटकर भँवर मिल रहे हैं
ये मन कह रहा कोई बाहों में ले ले...
वसंती पवन तन लगाये अगन सी
छाया चित्र : अभिशक्ति |
बहुत याद आती है बिछुड़े सजन की
कोई सूरमा ही मदन वाण झेले...
दहकते हुए ये पलासों के जंगल
है अमराइयों में मचलने की हलचल
बहुत खुशनुमा हैं ये खुश्बू के रेले....
फ़िजाओं में सब-कुछ नया लग रहा है
करें कुछ नया ही ये मन कह रहा है
भुला दें सभी ज़िन्दगी के झमेले....
गुलाबों की महफ़िल बहारों के मेले...
- होटल संगम के सामने, चौराहा 5, सिविल लाइन्स, सागर-470001(म.प्र.) / मोबाइल : 09424426778
अजय अज्ञात
ग़ज़ल
आ जाए जो नदी ज़रा सहरा के आस पास
मिट जाये इस ज़मीं की ये मुद्दत पुरानी प्यास
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी |
मुमकिन नहीं कि कोई मेरा हाल जान ले
ज़ाहिर तो मुस्कुराता हूँ, रहता है दिल उदास
जाने क्यूँ ऐसा करते हैं कुछ लोग बारबार
चिंगारी डाल दी वहाँ, देखी जहाँ कपास
ये मशविरा है मेरा, सलीका न छोड़िए
शीशे के घर में अच्छा नहीं रहना बेलिबास
हो जाये सामना जो हकीकत से ऐ ‘अजय’
पैरों को देख मोर भी हो जाता है उदास
- म.नं. 37, सै. 31, फरीदाबाद-121003 (हरि.) / मोबाइल : 09810561782
डॉ. नन्द लाल भारती
दो कविताएं
01. कैद नसीब
कैद नसीब आदमी का जीवन
अग्नि परीक्षा का दौर होता है
वफ़ा पर गरीब की कहाँ यकीं होता है
कर्मयोगी न सोता न रोता
उसे तो कल पर यकीं होता है
02. मेरी गली आया करो....
बहारों मेरी गली आया करो
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी |
कुसुमित अपना श्रम
याचना की ना हिम्मत हमारी
दुआ कबूल सको तो
कबूल लो हमारी
हमारी गली आया करो
लेने की तमन्ना नहीं
मेरी गली की
सोंधी खुशबू साथ ले जाया करो
बहारों मेरी गली आया करो....
- आजाददीप, 15-एम, वीणा नगर, इन्दौर (म.प्र.) / मोबाइल : 09753081066
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