आपका परिचय

बुधवार, 6 जनवरी 2016

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 5,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2015


प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल: 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।

छायाचित्र : आकाश अग्रवाल




।।सामग्री।।

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सम्पादकीय पृष्ठ {सम्पादकीय पृष्ठ}:  नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} : इस अंक में स्व. ज्ञान स्वरूप ‘कुमुद’, तथा सर्वश्री श्यामसुंदर निगम, नित्यानन्द गायेन, जगन्नाथ ‘विश्व’, खालिद हुसैन सिद्दीकी, अशोक अंजुम, देवी नागरानी, ख़याल खन्ना, प्रतिभा माही, डॉ. सुरेश उजाला, रोहित यादव एवं सजीवन मयंक की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} : इस अंक में स्व. प्रो. पृथ्वीराज अरोड़ा, स्व. विक्रम सोनी, स्व. पारस दासोत, मधुकांत, प्रद्युम्न भल्ला, राधेश्याम भारतीय, सीमा जैन, चंद्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाएँ।

कहानी {कथा कहानी} : नई पोस्ट नहीं।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ} : इस अंक में डॉ. बेचैन कण्डियाल की क्षणिकाएँ।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में श्री श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी एवं श्री ललित मावर के हाइकु।
जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} : इस अंक में डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के जनक छन्द।

माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  नई पोस्ट नहीं।

बाल अविराम {बाल अविराम} : इस अंक में श्री श्याम सुन्दर अग्रवाल की बाल कथा एवं डॉ. यशोदा प्रसाद सेमल्टी की बाल कविता बाल चित्रकार  स्तुति शर्मा एवं स्मिति गम्भीर  के चित्रों के साथ।

हमारे सरोकार {सरोकार} :  नई पोस्ट नहीं।

व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  नई पोस्ट नहीं।

संभावना {संभावना} :  नई पोस्ट नहीं।

स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} :  नई पोस्ट नहीं।

क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : नई पोस्ट नहीं।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} : इस अंक में डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय का आलेख- ‘‘आंचलिक कथासाहित्य की प्रेरक वृत्ति और शक्ति (डॉ. सतीश दुबे की औपन्यासिक कृतियाँ ‘कुर्राटी’ तथा ‘डेरा-बस्ती का सफरनामा’ के विशेष सन्दर्भ में)’’ तथा डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ द्वारा ‘‘सामाजिक-मानवीय परिप्रेक्ष्य में ऑनर किलिंग’’ विषय पर आयोजित बहस (प्रतिभागी- इन्दिरा किसलय, डॉ.रामकिंकर सिन्हा, कविता विकास एवं विनोद सागर)

किताबें {किताबें} :  इस अंक में ‘‘पीले पंखों वाली तितलियाँ : रचनात्मक विविधिताओं से भरा संग्रह’’/डॉ. बलराम अग्रवाल के लघुकथा संग्रह एवं ‘‘समय का पहिया : अपने समय का लघुकथा’’/मधुदीप के लघुकथा संग्रह की डॉ. उमेश महादोषी द्वाा तथा ‘‘लघुकथा संकलन ‘मुट्ठी भर अक्षर’: एक पाठकीय प्रतिक्रिया’’/ नीलिमा शर्मा और विवेक कुमार संपादित लघुकथा संकलन की दीपक मशाल द्वारा परिचयात्मक समीक्षाएँ। 
लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ} : नई पोस्ट नहीं।

हमारे युवा {हमारे युवा} :  नई पोस्ट नहीं।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} :  पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम की समीक्षा {अविराम की समीक्षा} :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम के अंक {अविराम के अंक} : इस अंक में अविराम साहित्यकी के जुलाई-सितम्बर 2015 मुद्रित अंक में प्रकाशित सामग्री की सूची।

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य {हमारे आजीवन पाठक सदस्य} :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के 31 दिसम्बर 2015  तक अद्यतन आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार} :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  :  5,   अंक  : 01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2015


।।कविता अनवरत।।

सामग्री :  इस अंक में स्व. ज्ञान स्वरूप ‘कुमुद’, तथा सर्वश्री श्यामसुंदर निगम, नित्यानन्द गायेन, जगन्नाथ ‘विश्व’, खालिद हुसैन सिद्दीकी, अशोक अंजुम, देवी नागरानी, ख़याल खन्ना, प्रतिभा माही, डॉ. सुरेश उजाला, रोहित यादव एवं सजीवन मयंक की काव्य रचनाएँ।



स्व. ज्ञान स्वरूप ‘कुमुद’




{बरेली शहर के चर्चित वयोवृद्ध कवि श्री ज्ञान स्वरूप ‘कुमुद’ जी विगत 22 दिसम्बर को इस लोक से विदा ले गए। 06.06.1939 को जन्मे श्री कुमुद जी मूलतः कवि थे। अनेक प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं एवं 50 से अधिक संकलनों में उनकी काव्य रचनाएँ संकलित हुई हैं। कल्याण कुँज भाग-एक व भाग-दो, कल्याण-काव्य कलश, कल्याण-काव्य कुसुमाँजली, कल्याण-काव्य कदम्ब, कल्याण-काव्य कमलाकर -7 आदि आपकी मौलिक प्रकाशित काव्य कृतियाँ हैं। श्री चेतन दुबे ‘अनिल’ ने स्वसंपादित संकेत-13 का अंक आपके प्रेम गीतों पर केन्द्रित किया था। कुमुद जी कुछ पत्र-पत्रिकाओं व काव्य संकलनों के संपादन से भी संबद्ध रहे। कक्षा पांच के पाठ्यक्रम संबन्धी एक पुस्तक में रचना शामिल। देश भर की कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं मानद उपाधियों से अलंकृत। वह ‘कवि गोष्ठी आयोजन समिति’ बरेली के संस्थापक/महामंत्री थे। इस संस्था के माध्यम से वह बरेली में अनेक साहित्यिक गतिविधियों का संचालन करते रहे। हम कुमुद जी को अविराम परिवार की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनका एक गीत यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।}

रूप घुँघट में सजाना

स्वप्न आँखों में सजाना, याद में आँसू न लाना।
गीत का मधुरिम तराना, धड़कनों में तुम बसाना।।
रात की खामोशियों में
प्यार की मदहोशियों में।
डँस रहे हैं चाँद-तारे
कौर जीते कौन हारे?
कौन कर बैठा बहाना, रूप का घूँघट सजाना।
रेखाचित्र : रमेश गौतम

गीत का मधुरिम तराना, धड़कनों में तुम बसाना।।
चाँदनी मन भावनी है
सुरभि पूरित यामिनी है।
नयन क्यों भीगे हुए हैं
चरण क्यों धीमे हुए हैं।।
पाँव काँटों पर चलाना, प्रीत को हँसकर निभाना।
गीत का मधुरिम तराना, धड़कनों में तुम बसाना।।
विरह में मधुरिम जलन है
एक तीखी-सी चुभन है।
दूर हम जैसे किनारे
दूर तुम हो बेसहारे।।
चाँद का गज़रा बनाना, लाज का कज़रा लगाना।
गीत का मधुरिम तराना, धड़कनों में तुम बसाना।।


  • परिवार सम्पर्क : 301, कुँवरपुर, बरेली (उ.प्र.)



श्यामसुंदर निगम




सिलबिल्ली 
वह/चूहों को मिस-मिस कर रोटी खिलाती है 
परचूनिया/नुक्कड़वाला आँख दबाता है- पगली है।
वह खजहे-मरगिल्ले पिल्ले को नहलाती है-
      -चूमती-चाटती है/उसे लगाती है काला टीका।
धूप सेंकती औरतें ठिल्लहाव करती हैं- सिलबिल्ली है
पगली/सिलबिल्ली वह-
एक दिन सफाचट्ट खोपड़ी लिए
बांस में हंडिया टाँगे/घूम गयी टोले की हर गली 
रेखाचित्र : स्व. पारस दासोत

आवाज बदल गयी/बस्ती आवारा हो गयी 
आज पूरी मस्ती में है ...
सहसा चिपक गईं कई जोड़ी चिपड़ी आँखें/चिपचिपे बदन से।
इसके पहले कि/वह पता पूंछ पाती  
उसके आँगन की किलकारियां लील गए तूफान का 
दया दिखाते रास्तों ने चेहरा दूसरी तरफ घुमा लिया और 
रात/पी गयी उसकी खूबसूरती-देह समेत
अँधेरे में/अँधेरा घोलकर।

  • 1415,’पूर्णिमा’. रतनलाल नगर, कानपुर-208022, उ.प्र. / मोबा. 09415517469




नित्यानन्द गायेन





दो कविताएँ
01. भाई मेरे कपड़े नही, मेरा चेहरा देखो
उसके ठेले पर हर सामान है 
मतलब सुई-धागा से लेकर चूड़ी, बिंदी, नेल पालिस, आलता
कपड़े धोने वाला ब्रश
और उसके ग्राहक हैं -वही लोग, जो खुश हो जाते हैं 
किसी मेले की चमकती रौशनी से, लाउड स्पीकर के बजने से 
ये सभी लोग जो आज भी 
दिनभर की जी तोड़ मेहनत के बाद 
अपने शहरी डेरे पर पका कर 
खाते हैं दाल-भात और चोखा 
कभी-कभी खाते हैं 
माड़-भात नून से 

इनदिनों जब कभी मैं पहनता हूँ इस्त्री किया कपड़ा
छायाचित्र : आकाश अग्रवाल

शर्मा जाता हूँ उनके सामने आने से 
लगता है कहीं दूर चला आया हूँ अपनी माटी से 

आज मैं भी था उनके बीच बहुत दिनों बाद 
ठेले वाले से कहा उन्होंने- साहेब को पहले दे दो भाई। 
मेरे पैर में जूते थे, हाथ में लैपटाप का बैग 
मेरे कपड़े महंगे थे,
मुझे शर्म आई, सोचा कह दूँ- भाई मेरे कपड़े नही 
मेरा चेहरा देखो।

2. तानाशाह इतिहास नहीं पढ़ता 
तानाशाह इतिहास नहीं पढ़ता 
केवल भविष्य देखता है 
वह समझ नहीं पाता
कुछ देर बाद वहां 
गहरा अंधकार होता है ....
इतना गहरा कि 
वह खोज नहीं पाता 
खुद की परछाई भी।

  • 1093, टाइप-2, आर.के.पुरम, सेक्टर-5, नई दिल्ली-110022 / मोबाइल : 09030895116



जगन्नाथ ‘विश्व’





इतिहास में नया
नक्षत्र लो उदित हुआ आकाश में नया
इक पृष्ठ और जुड़ गया इतिहास में नया

हिंसा के बवंडर ने बुझाया चिराग तो
हमने दिया जला दिया आवास में नया
रेखाचित्र : कमलेश चौरसिया

जिसको पिलाया दूध उसी नाग ने डसा
विष-दंश दे गया कोई विश्वास में नया

बारूद से जली है एकता-अखण्डता
आतंक और बढ़ गया संत्रास में नया

अब डगमगायेगी नहीं ये नाव ज्वार में
सौभाग्य से केवट खड़ा है पास में नया

  • मनोबल, 25, एम.आई.जी., हनुमान नगर, नागदा जं-456335 (म.प्र.) / मोबाइल : 09425986386


खालिद हुसैन सिद्दीकी

ग़ज़ल
हिन्दू बुरा है न मुसलमान बुरा है
आज के दौर का इंसान बुरा है

आपस में मिलकर रहो सभी वतन में
रेखा चित्र : संदीप राशिनकर

अलगाव की सोच का अंजाम बुरा है

सब धर्म सिखाते हैं प्यार की भाषा
नफरत को बढ़ाये वो फरमान बुरा है

जन्नत मिलेगी तुम्हें नेक अमल से
दोज़ख में ले जाये वही काम बुरा है

जल्द शोहरतें मिलेंगी गलत काम से
दिल जो दुखाये वो शैतान बुरा है

अपनी एकता से देश महान बनेगा
‘खालिद’ इसे तोड़े वो हैवान बुरा है

  • एबी-56, संचार विहार कॉलोनी, (आई.टी.आई. लि.), मनकापुर, जिला गोण्डा-271308, उ.प्र. / मोबाइल : 09453946951


अशोक अंजुम 



ग़ज़ल
हादिसातों की कहानी कम नहीं
हौसलों में भी रवानी कम नहीं

मेरे बाजू हैं मुसलसल काम पर
यूँ समन्दर में भी पानी कम नहीं

साथ तेरे जो गुजारी है कभी
रेखा चित्र : उमेश महादोषी

चार दिन की जि़न्दगानी कम नहीं

प्यार हमको आपसे था ही नहीं
आपकी ये सचबयानी कम नहीं

हम अँधेरों की कहानी क्यों कहें
साथ में यादें सुहानी कम नहीं

  • गली-2, चन्द्रविहार कॉलोनी, (नगला डालचंद), क्वारसी रोड बाईपास, अलीगढ़-202001(उ.प्र.) / मोबा. : 09258779744


देवी नागरानी




तीन कविताएँ
01. भय 
निडरता वहीं दफ़्न हो जाती है
जहाँ कहीं भी 
अपने भीतर का डर
ख़तरा बनकर
सामने मंडराता है !
भय तन से ज्यादा 
मन के कमज़ोर कोनों में 
अपनी धाक जमा बैठता है।  
02. हादसा
वार हुआ
हाथ अद्रश्य
आँखें पथराई सी
रेखाचित्र : सिद्धेश्वर

होंठ सिले हुए!                                                                                                 पूछा गया- ‘क्या हुआ?’
कहा गया- 
‘हमने कुछ नहीं देखा 
कुछ नहीं सुना.’
पर 
सिसकियाँ कहती रहीं
‘शायद वो हादसा था’
03. नींव 
रिश्तों की बुनियाद
सुविधाओं पर रखी गईं हों, तो 
रिश्ते अपंग हो जाते हैं
अर्थ सुविधा के लिए स्थापित हों, तो  
रिश्ते लालच की लाली में रंग जाते हैं
और अगर...
रिश्ते साथ निभाने की नींव पर टिके हों, तो  
जीवन मालामाल हो जाता है!

  • 9-डी. कॉर्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुंबई-400050 / मोबा . : 09987938358



ख़याल खन्ना



ग़ज़ल

हज़ार, पाँव में छाले दिखाई देते हैं
बढ़े चलो कि उजाले दिखाई देते हैं

जहाँ-जहाँ भी उजाले दिखाई देते हैं
तुम्हारे चाहने वाले दिखाई देते हैं

ये किसने हक़-ओ-सदाक़त1 की दास्ताँ छेड़ी
सभी के हाथ में भाले दिखाई देते हैं

सवाल आता है जब मेरी बे-गुनाही का
रेखाचित्र : शशिभूषण बड़ोनी

तो उनके होटों पे ताले दिखाई देते हैं

इन अहले-फ़न2 के दिलों में भी झाँककर देखो
ये लोग दर्द के पाले दिखाई देते हैं

ज़रूर उनमें कोई इनफि़रादियात3 है ‘खयाल’
जो भीड़ में भी निराले दिखाई देते हैं
1सच्चाई और यथार्थ    2कलाकार    3विलक्षणता  

  • 1090, जनकपुरी, बरेली-243122 (उ.प्र.)



प्रतिभा माही






ग़ज़ल

सितारों ने कहा मुझसे अभी तो रात बाकी है।
ज़रा सुन लो हमारी तुम अभी तो बात बाकी है

पुकारोगे उसे दिल से सुनेगा हाल वो हरदम
घटायें जोड़ता अम्बर अभी बरसात बाकी है

छुरा भौंका है सीने में बुलाकर प्यार से तूने
छायाचित्र : उमेश महादोषी

मिटाऊँगा तेरी नफ़रत अभी औकात बाकी है

समर्पित कर दिया खुद को तेरे दरबार में आकर
मिलेगा फल सुकर्मों का अभी सौगात बाकी है

पुकारेगा मुझे ‘माही’ मैं सब कुछ छोड़ जाऊँगी
छुपाया प्यार का दरिया अभी ज़जबात बाकी है

  • मकान नं. 4/127, शिवाजी नगर, नियर बत्रा हॉस्पीटल, गुड़गाँव-122001 / मोबाइल : 09350672355



डॉ. सुरेश उजाला





बदलाव

मुखौटे से ढके- चेहरे
वक़्त के खुले- पृष्ठ
बिना शीर्षक- जीवन

शब्द सत्ता
तर्क-वितर्क करते लोग
रेखाचित्र : कमलेश चौरसिया

कथ्य में विखराव

अलख जगाते
वंचित लोगों के
दुःख-दर्द

जहाँ धड़कती है- सिर्फ
ख़ौफ की नब्ज़

फिर भी
जारी है- जंग
बदलाव के लिए।

  • 108-तकरोही, पं. दीनदयालपुरम मार्ग, इन्दिरा नगर, लखनऊ (उ.प्र.) / मोबाइल : 09451144480


रोहित यादव





दोहे

1.
करता क्यों बदनाम है, मुझको मेरे मित्र।
मैंने तो खींचे सदा, यहाँ प्यार के चित्र।।
2.
बातचीत होती रहे, जब तक हैं हम-आप।
आये ना कटुता कभी, छोड़ें ऐसी छाप।।
3.
रेखाचित्र : सिद्धेश्वर
सन्नाटा है गाँव में, गलियाँ भी वीरान।
घर-घर अब अलगाव का, घूम रहा शैतान।।
4.
जीवन की कविता हुई, बिना छंद-लय-तान।
देख गरीबी, बेबसी, मचा रही तूफान।।
5.
तव्वे पर रोटी नहीं, आटा नहीं परात।
कैसे कटे गरीब की, भूख बिलखती रात।।

  • सैदपुर, मंडी अटेली-123021 (हरियाणा) / मोबाइल : 09416331110



सजीवन मयंक



लीक से हटकर चलना...

लीक से हटकर चलना अक्सर मुश्किल होता है
गंवा चुके अवसर का मिलना मुश्किल होता है।

जो भी है खुद्दार बात का पक्का होता है
मुँह से निकली बात बदलना मुश्किल होता है

अपना दामन अपनी इज्जत अपने हाथों में
दामन के दागों का धुलना मुश्किल होता है

साफ रास्तों पर जीवन में सब चल लेते हैं
छायाचित्र : आकाश अग्रवाल

शूल भरी राहों पर चलना मुश्किल होता है

पल दो पल के लिये सितारे लाखों चमक रहे
पर सूरज के जैसा जलना मुश्किल होता है

कच्ची मिट्टी से मनचाही मूरत बन जाती है
पक्की मिट्टी से कुछ ढलना मुश्किल होता है

होनी तो होकर रहती है चाहे जो कर लो
होनी के अवसर का टलना मुश्किल होता है

अगर दोस्ती में खटास कुछ भी पड़ जाती है
नीर-क्षीर सा मिलना घुलना मुश्किल होता है

धोखे से गिर करके अक्सर लोग सम्हल जाते 
खुद ही गिरकर पुनः सम्हलना मुश्किल होता है
  • 251, शनिचरा वार्ड-1, नरसिंह गली, होशंगाबाद-461001 (म.प्र.) /  मोबाइल : 09425043627

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  :  5,   अंक  : 01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2015

।। कथा प्रवाह ।।

सामग्री : इस अंक में स्व. प्रो. पृथ्वीराज अरोड़ा, स्व. विक्रम सोनी, स्व. पारस दासोत, मधुकांत, प्रद्युम्न भल्ला, राधेश्याम भारतीय, सीमा जैन, चंद्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाएँ।



जाना लघुकथा के दो पुरोधाओं का
लघुकथा के लिए 2015 का जाना और 2016 का आना- दोनों ही आघात देने वाले सिद्ध हुए। 2015 के जाते-जाते प्रो. पृथ्वीराज अरोड़ा जी (20 दिसम्बर को) और 2016 के आते ही ‘लघु आघात’ जैसी महत्वपूर्ण और लघुकथा साहित्य में अमर हो चुकी पत्रिका के संपादक श्री विक्रम सोनी जी (04 जनवरी को) अपनी अंतिम यात्रा पर चले गए। लघुकथा साहित्य के सृजन और विकास में इन दोनों का महत्व कभी भुलाया नहीं जा सकता। प्रो. पृथ्वीराज अरोड़ा, यद्यपि पिछले कुछेक वर्षों से बीमार चल रहे थे, लेकिन समकालीन हिन्दी लघुकथा के आन्दोलन के समय से किसी न किसी रूप में जीवन पर्यन्त लघुकथा में सक्रिय रहे। ‘कथा नहीं’, कील आदि जैसी उनकी कई लघुकथाएँ बेहद चर्चित हुईं। तीन न तेरह, आओ इन्सान बनाएँ उनके लघुकथा संग्रह हैं। विक्रम सोनी जी एक लम्बे अर्से पूर्व अपना कार्यक्षेत्र बदलने के चलते और बाद में लम्बी अस्वस्थता के चलते लघुकथा के साथ प्रत्यक्ष रूप से जुड़े नहीं रह पाये थे, तदापि उनके द्वारा किया गया कार्य इतना महत्वपूर्ण था कि लघुकथा जगत ने सदैव उन्हें अपने साथ महसूस किया। लघुकथा आन्दोलन की एक-एक ईंट को रखने और उसकी समग्र विकास यात्रा को ऊर्जा प्रदान करने के साथ उसकी दिशा भी तय की थी ‘लघु आघात’ ने। ‘लघु आघात’ के साथ विक्रम सोनी साहब भी लघुकथा के इतिहास में अमर हो गये। दोनों ही महान विभूतियों को हम अविराम परिवार की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनकी एक-एक प्रतिनिधि लघुकथा यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।

स्व. प्रो. पृथ्वीराज अरोड़ा





भूख
      बहन ने भाई के समीप जाकर उसके माथे पर आये पसीने को अपनी साड़ी के छोर से पौंछ दिया और हँसकर बोली, ‘‘भैया, आप जल्दी-जल्दी भोजन क्यों निगल रहे हैं, धीरे-धीरे चबाकर खाइये। आपने आफिस तो जाना नहीं अब!’’
      वह भी हँस पड़ा। माथे पर आयी बालों की सफेद लट को हटाते हुए बोला, ‘‘मैं जानता हूँ भोजन निगलना नहीं चाहिये, परंतु आज भूख इतनी लगी है कि कोई नियम याद नहीं रहा। गुड्डो यह तुम्हारे कारण ही है।’’
      बहन, भाई के मुख से अपने बचपन का नाम सुनकर अभिभूत हो उठी, ‘‘यह कैसे भैया?’’
छायाचित्र : डॉ.बलराम अग्रवाल

      इस बीच खिलखिलाते उसका बेटा एक हाथ में चपाती की प्लेट और दूसरे में हैंड-बैग लिये प्रविष्ट हुआ और बोला, ‘‘पापा, आज आपकी बहू बहुत खुश है कि पापा ने काफी अर्से के बाद भरपेट खाया है।’’ बुआ की ओर उन्मुख होकर आगे बोला, ‘‘बुआ, अक्सर पापा एक-दो चपातियाँ खाकर बाकी चपातियाँ लौटा देते हैं।’’
      उसने एकाएक खाना बंद कर दिया। गर्दन ऊपर उठाई। उसके चेहरे पर तकलीफ-पगे ऐसे भाव थे, जिसे देखकर बेटा भी सकते में आ गया। उसके स्वर में भावना का थोड़ा तीखापन था, बहन को मुखातिब होकर कहा, ‘‘गुड्डो, बता अपने भतीजे को कि इस उमर में भूख तब लगती है, जब खिलाने वाली पास बैठकर खिलाए। भूख का ममत्व से गहरा सम्बन्ध होता है। केवल चपातियां-भरी थाली भेजने से भूख नहीं लगती.... नही लगती भूख ऐसे...!’’


स्व. विक्रम सोनी




अजगर 
   अपने सात वर्षीय बेटे को मुट्ठी भर गेहूँ के दाने लेकर बाहर जाते देखकर कृषक ने समझाते हुए कहा, ‘ये अन्न है बेटा। इसे फेंकते नहीं। जानते हो जितना खाना तूम खाते हो, उतना ही अन्न तुम्हारी बजह से जिस दिन नष्ट हो जायेगा, उस दिन तुम्हें उपवास करना ही पड़ेगा। थाली तुम्हारे सामने होगी, लेकिन किसी कारणवश तुम खा नहीं पाओगे।’
   बेटे ने मुट्ठी में बंद गेहूँ के दानों को एक बार फिर देखकर कहा. ‘इसे फेकूंगा नहीं बापू। मैंने इत्ते-इत्ते से.....!’
रेखाचित्र : महावीर रंवाल्टा
उसने हवा में दो चौकोर घेरे बनाये, और बोला, ‘खेत बनाये हैं। बनिये का छोरा खेत मांग रहा था। मैंने नहीं दिये। उसी में गेहूँ बोऊंगा। सिंचाई करूंगा।’

   ‘फिर.....?’ कृषक को हँसी आ गई।
   ‘पौधे उगेंगे। गेंहूँ फलेगा। पकेंगे तो खलिहान में लाऊँगा। बीज निकालूँगा।’
   ‘और फिर.....?’
   ‘एक मुट्ठी आपको लौटा दूँगा।’
   ‘बाकी.....!’
   ‘बाकी.....?’ पितृ स्नेह उछला।
   ‘आधी मुट्ठी चिडि़यों को खिला दूँगा। अपने लिये रखूँगा। लेकिन वो बनिये का लड़का है न बापू - वह लूटता है। उसे एक दाना भी नहीं दूगा।’ और वह बाहर निकल गया।

   ‘कृषक का भाग्य.....!’ वह बेटे के जाने के बाद बुदबुदाया, ‘तीन मुट्ठियों में कैद है बेटा। तू भूख, साहूकार और सरकार से परिचित नहीं है।’




स्व. पारस दासोत



दो लघुकथाएँ
आज ही
     गेंद खेलते-खेलते,....
     एक बच्चा, अपने साथियों से बोला-
     ‘‘मैं, मैं बड़ा होकर ‘कार’ बनाऊँगा!’’
     दूसरे ने कहा-
     ‘‘बस ऽऽ...! अरे, मैं बड़ा होकर रॉकेट बनाऊँगा,... रॉकेट!’’
     कुछ क्षणों बाद,
     दोनों बच्चों ने, अपने पास ही खड़े एक बच्चे से पूछा-
     ‘‘क्यों रे! तू बड़ा होकर क्या बनायेगा?’’
     ‘‘मैं,.... मैंने तो, आज ही एक गाड़ी बनाई है। देखो, देखो मेरी गाड़ी!’’
रेखाचित्र : स्व. पारस दासोत

     बच्चा अपने हाथ में, बाँस की खपचियों से बनी गाड़ी की डोर थामे था।
     अब,
     वे दोनों बच्चे, उसकी गाड़ी को घूर रहे थे और वह अपनी गाड़ी की डोर थामे, मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ता चला जा रहा था।

भूख
     अपने दौड़ते हुए बेटे को पकड़कर,...
     वह बोली- ‘‘नाश मिटे! तुझको मैंने कितनी बार बोला, ‘‘दौड़ा मत कर, कूदा मत कर! तू समझता क्यों नहीं!’’
     यह सब देख-सुनकर उसकी पड़ौसिन बोली-
     ‘‘अरी बहिन, बच्चा है, दौड़ने-कूदने दो! बहिन, क्या तुम्हें मालूम नहीं, दौड़ने-कूदने से भूख अच्छी लगती है! स्वास्थ्य अच्छा रहता है!’’
     .......
     वह, अपने बेटे को, पड़ोसिन से कुछ न कहते हुए, इस तरह पीट रही थी, मानो वह, उसे समझा रही हो-
     ‘‘भूख, दौड़ने-कूदने से अच्छी नहीं, अधिक लगती है!’’

  • परिवार संपर्क : श्री कुलदीप दासोत, प्लॉट नं.129, गली नं.9 (बी), मोतीनगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-301021 (राज.)



मधुकांत





{चर्चित साहित्यकार मधुकांत जी की मंचीय लघुकथाओं का संग्रह ‘‘कठपुतलियाँ’’ वर्ष 2014 में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह से हमारे पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी तीन प्रतिनिधि लघुकथाएं।}


दर्द
      ‘‘मम्मी, ये कवि क्या होता  है?’’ बच्ची ने जिज्ञासा प्रकट की।
      ‘‘जो कविता लिखता है उसे हम कवि कहते हैं...’’ मां ने उसे प्यार से समझाया।

      ‘‘क्यों लिखता है वह कविता....?’’
      ‘‘बेटी, उसका मन करता है... वह कुछ कहना चाहता है...।’’
      ‘‘क्या कहना चाहता है मम्मी...?’’
      ‘‘उसके दिल में एक दर्द होता है...’’ उसने प्रश्न को अपने पर ओढ़ लिया।
      ‘‘दर्द क्या होता है मम्मी... ब्लेड से कटी उंगली जैसा...?’’
      ‘‘नहीं बेटी, वो मन का दर्द होता है... अच्छा तू सो जा अब... बड़ी होगी तो सब अपने आप समझ जायेगी...’’ -कहते हुए बच्ची को उसने सीने से चिपका लिया।

छोटी किन्तु बड़ी सहायता
      गणतंत्र दिवस होने के कारण आज व्यस्तताएं कुछ कम हैं। घरवाले बार-बार नए जूते खरीदने का आग्रह कर चुके हैं और जूते के लिए तीन सौ रुपये मैंने अलग से जेब में रखे हुए हैं। बाजार गया और एक परिचित की दुकान से दो जोड़ी जूते यह सोचकर ले आया कि एक जोड़ी सबको दिखाकर पसन्द कर लेंगे तथा दूसरी जोड़ी वापस भिजवा देंगे।
      घर पहुँचा तो आकाशवाणी से भूकम्प का हृदय-विदारक समाचार सुना। सारा परिवार सकते में आ गया। दूरदर्शन से भी भूकम्प के समाचार आने लगे। यूं इतनी बड़ी त्रासदी का समाचार प्रसारित नहीं किया गया था परन्तु सबने चर्चा करके इसका अनुमान लगा लिया था।
 
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी
    मैंने तो साफ-साफ कह दिया, ‘‘अब मैं नए जूते नहीं लूंगा, पुरानों की मरम्मत करवा लूंगा और ये तीन सौ रुपये भूकम्प सहायता में दे दूंगा। दोनों जोड़ी जूते वापस दुकारनदार को भेज दूंगा।

      सायं मोची गली में आवाज लगा रहा था। मैंने उसे बुलाया और पुराना जूता उसके सामने कर दिया।
      ‘‘बाबू! दस रुपये लगेंगे!’’ बच्चे ने मासूमियत से कहा। ‘‘ठीक है, लेकिन काम अच्छा करना।’’ कहकर मैं भी उसी के पास बैठ गया और बतियाने लगा।
      ‘‘बाबू! इसमें कोई दम नहीं है।’’ उसका सूआ आरपार निकल गया था।
      ‘‘अरे पन्द्रह फरवरी की शादी है, बस तब तक काम चलना चाहिए। अगले महीने तो नया ही खरीद लूंगा। खरीदना तो इसी महीने था लेकिन इस बार जूतों का तीन सौ रुपया भूकम्प सहायता में दे दिया। उसे बताते हुए मैं अपने-आप पर गर्व अनुभव कर रहा था।
      ‘‘बाबूजी बड़ा भयंकर जलजला आया है, न जाने कितने आदमियों को लील गया।’’ मरम्मत करके जूता उसने मेरे पांव की ओर बढ़ा दिया।
      मैंने जेब से दस रुपये का सिक्का निकालकर उसको दे दिया। एक बार सिक्का उसने अपने हाथ में लिया और दूसरे ही क्षण लौटा दिया, ‘‘बाबूजी, मेरी बोहणी का यह दस रुपया भी आप जलजले की सहायता में भिजवा देना। मुझ अनपढ़ को तो मालूम नहीं, वहाँ कैसे भेजा जाता है।’’
      आश्चर्य से उस संवेदनशील बालक को देखता रह गया। सिक्का जेब में डालते हुए मुझे लगा- यह मेरे तीन सौ रुपये से भी भारी है।       

कर्जदार हरिया
      आज हरिया अपने घर के सामने पोते के साथ निश्चिन्त बैठा हुक्का गुड़-गुड़ा रहा था। कैसे-कैसे उसने साहूकारों के कर्ज से छुटकारा पाया, आज भी याद हो आता है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
      कभी-कभी रुपया दो रुपया की आवश्यकता हो तो उनका पोता (कालू) उन्हें अखबार पढ़कर सुना देता है।

आज भी अखबार लिए बैठा है।
      सुना बेटे कालू, आज अखबार में के लिख्या सै... हरिया ने हुक्का गुड़-गुड़ाया।
छायाचित्र : डॉ.बलराम अग्रवाल

      दादा, लिखा है भारत के प्रत्येक नागरिक पर तीन हजार रुपए का विदेशी कर्ज चढ़ा है। 
      सुनकर हरिया के हुक्के की गुड़-गुड़ाहट रुक गई।
      बेटा मन्नै एक बात समझा, अक यो कर्ज म्हारे पै भी सै के?
      दादा जी, यो तो सब पै सै।
      पर भाई हमने तो किसी विदेशी से कर्ज लिया नहीं, झूठ-मूठ ही साहूकार ने अपनी बही में लिख लिया होगा। हुक्का गुड़-गुड़ाते हुए अचानक उसकर स्वाद कषैला हो गया।

  • डॉ. अनूप बंसल ‘मधुकान्त’, 211-एल, मॉडल टाउन, डबल पार्क, रोहतक (हरियाणा) / मोबाइल : 09896667714


प्रद्युम्न भल्ला




पहाड़ का बेटा
     इस बार गर्मियों की छुट्टियों में पहाड़ों पर जाने का मन बना। बच्चों को लेकर बारह-चौदह घंटों की कठिन यात्रा कर जब पहाड़ों की गोद में कदम रखा तो खुशगवार ठण्डी हवा के मस्त झोंकों ने हमारा स्वागत किया।
     कुछ लोगों ने होटल के लिये घेर लिया तो कुछ अपनी खाने-पीने की दुकानों पर चलने का आग्रह करने लगे। सभी को किसी न किसी तरह टाला और एक तरफ बनी पुलिया पर बैठ सुस्ताने सा लगा।
     बच्चे भी चहक रहे थे। उन की माँ उनको ठण्ड लगने के भय से चिंतित थी। और चाहती थी कि जल्द से जल्द कमरे तक पहुँचा जाए। तभी एक बारह-तेरह साल का गठीले बदन का लड़का पास आ कर बोला।
     -बाबू जी, मैं आप का सामान उठा लूँ क्या? जो चाहे दे दीजिएगा?
     मुझे उसकी शालीनता व बात करने के सलीके ने प्रभावित किया।
रेखाचित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा

     -कितने पैसे लोगे? ऊपर हाली डे होम तक जाना है हमें।
      रेट तो बीस का है बाबू जी, मगर आप कुछ भी दे दीजिएगा। बाबू जी, सुबह से कोई काम नहीं मिला, अतः पेट में कुछ नहीं गया।
     तभी पत्नी ने बैग से बिस्कुटों का एक पैकेट निकालकर उसे जबर्दस्ती थमाते हुए कहा- इसे खा लो बेटे पहले...
     बच्चा पहले तो झिझका, फिर लेकर खाने लगा। मैंने देखा उसने चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया।
     -क्या नाम है तुम्हारा....
     -जी, पहाड़ का बेटा.... मां ने रखा यह नाम, पिता जी नहीं हैं, बहन बड़ी है, खेत में मजूरी करती है मां और बहन, छोटा सा गांव है हमारा।
     बच्चा एक बार में ही मानो पूरा घर खोल गया।
     -हमारे साथ चलोगे बेटे.... बहुत बड़ा घर है, खिलौने हैं। खाने-पीने की मौज है। चाहो तो पढ़ भी लेना।
     पत्नी क्या सोच रही थी, मैं अनुमान लगा चुका था। 
     -नहीं आंटी जी, मैं यहीं ठीक हूँ, शहर के लोग पहाड़ के बेटों को यूं ही फांस कर ले जाते हैं, नौकर रखते हैं, पूरा काम लेते हैं। और फिर...
     -फिर बेटे? मैंने पूछा।
     -और फिर.... चोरी का इल्जाम लगा कर भगा देते हैं। हमारे गांव में ऐसे कई बच्चे हैं बाबू जी। हमें तो पहाड़ ही रास आता है बाबू जी, काम भी देता है, प्यार भी करता है और शहरी लोगों की तरह दगाबाज और झूठा नहीं होता। क्यों बाबू जी?
     कहकर वह जवाब का इंतजार किए बिना एक ओर चला गया।
     हमारे पास मानों शब्द ही नहीं थे।

  • 508, सेक्टर-20, अर्बन एस्टेट, कैथल-136027 (हरि.) / मोबाइल : 0981209169



राधेश्याम भारतीय




छवि
    वह जम्मू से माता वैष्णो के दर्शन कर आज ही घर लौटा था। आते ही बच्चों ने घेर लिया और अपने लिए लाईं चीजों की मांग करने लगे। बच्चों को उनकी चीजें थमा दी गईं।
    पास ही माँ बैठी थी। उसने बैग से एक कश्मीरी शाल निकाल कर माँ को दी। शाल देते समय उसकी नजर माँ के चेहरे पर पड़ी। उसने देखा तो पाया कि माँ का चेहरा ऐसे नहीं खिला, जैसे खिलना चाहिए था। उसने माँ से पूछा, ‘‘माँ क्या बात है, तबीयत तो ठीक है न?’’
     ‘‘हाँ!’’ माँ ने इतना ही कहा।
    फिर उसने एक जर्सी और जैकेट निकालकर माँ को देते हुए कहा, ‘‘माँ यह रमेश के लिए और जैकेट सुरेश
रेखाचित्र : राजेन्द्र परदेसी
के लिए।’’

    इस बार भी उसने माँ का चेहरा पढ़ने की कोशिश की। पर, इस बार माँ के चेहरे पर प्रशन्नता की एक लहर दौड़ती-सी नजर आयी।
    माँ ने कहा, ‘‘बेटे! तुम्हारे भाई भले ही अलग-अलग रहने लगे हों, पर तू उनका कितना ख्याल रखता है।’’ माँ इतना कह सामान लेकर अपने कमरे में चली गई।
    अब पत्नी के व्यंग्य-वाण छूटे, ‘‘बस, भाइयों की चिंता रहती है...बच्चों को भूल जायेंगे....घरवाली को भूल जायेंगे, पर भाई....भाई न हुए मानो खुदा हो गए हों.....’’
     पत्नी बोले जा रही थी, पर वह तो दीवार पर टंगी पिताजी की तस्वीर का ओर देखे जा रहा था, जो उन्हें बचपन में ही छोड़कर चल बसे थे।

  • नसीब विहार कॉलोनी, घरोंडा, करनाल-132114, हरियाणा / मोबाइल : 9315382236



सीमा जैन





नौकरी
      ‘‘बेटी को 60 हज़ार और आने-जाने की लिए गाड़ी मिल रही है! कैसे पिता हो तुम खुश होने की जगह नाराज़ हो रहे हो?’’ उस दिन मेरा दिमाग सातवें आसमान पर था। मुझे वो नहीं दिख रहा था जो एक पिता देख पा रहे थे।
      बहुत गुस्से में थे वो बोले, ‘‘पीहू कोई ऑक्सफ़ोर्ड से पढ़ कर नहीं आई है। जो उसे मिल रहा है वो उसे उसके रूप के कारण मिल रहा है जो उसकी योग्यता से बहुत ज्यादा है।’’
      पीहू भी सहम गई थी पिता का गुस्घ्सा देखकर। पर मेरी बेवकूफी के साथ ने उसे पिता की बात का मर्म समझने ही नहीं दिया। और वो काम पर जाने लगी।
      आज सुबह पीहू ने कहा, ‘‘माँ रात में एक पार्टी में जाना है। मैं ऑफिस से ही चली जाऊँगी। देर हो जायेगी तुम चिंता मत करना।’’
      पिता बोले, ‘‘मुझे जगह बता दो मैं लेने आ जाऊँगा।’’
      बड़ा गुस्सा आया मुझे, ‘‘अरे, वह अब कोई बच्ची नहीं है। फिर उसके साथ उसके बॉस रहेंगे ना! वह छोड़ देंगे।’’
      रात का एक बज गया है। पीहू नहीं आई। उसका फोन भी बन्द है। किसी और का नम्बर हमारे पास नहीं था। पीहू के पिता कमरे में चक्कर लगा रहे थे। बहुत बेचैन थे। मुझसे भी लेटा या बैठा नहीं जा रहा था। मैंने उनका हाथ पकड़कर कहा, ‘‘बैठ जाइये ना!’’
      उन्होंने मेरा हाथ झटक दिया। उनकी आँखों में गुस्सा था...कुछ बोले नहीं वो। मैं किसी अनिष्ट की आशंका
से खुद को कोसने लगी।
रेखाचित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
      थककर मैं कुर्सी पर बैठी ही थी कि पीहू आ गई। हमने चैन की साँस ली। रात ढलान पर थी। वह अपने कमरे में जाकर सो गई।
      सुबह हुई तो पीहू मेरे पास आकर बोली, ‘‘माँ, पापा की बात सही थी, हम दोनों गलत।’’
      मैं घबरा गई। मैंने, उसकी आँखों में झाँककर कहा, ‘‘तू ठीक तो है।’’
      पीहू बोली, ‘‘एकदम ठीक, तुम्घ्हारी बेटी इतनी कमजोर तो नहीं हो सकती। लेकिन अब यह नौकरी... बिलकुल नहीं।’’
      मैंने देखा उसके पिता अखबार पढ़ते हुए मुस्घ्करा रहे थे।

  • 82, माधव नगर, 201, संगम अपार्टमेंट, विजया नगर, ग्वालियर-474002(म.प्र.)


चंद्रेश कुमार छतलानी




कीमत
     दिन उगते ही अखबार वाला हमेशा की तरह अखबार फैंक कर चला गया। देखते ही लॉन में बैठे घर के मालिक ने अपने हाथ की किताब को टेबल पर रखा और अख़बार उठा कर पढने लगा, चाय का स्वाद अख़बार के समाचारों के साथ अधिक स्वादिष्ट लग रहा था। लम्बे-चौड़े अख़बार ने गर्व भरी मुस्कान के साथ छोटी सी किताब को देखा, किताब ने चुपचाप आँखें झुका लीं।
     घर के मालिक ने अख़बार पढ़ कर वहीं रख दिया, इतने में अंदर से घर की मालकिन आयी और अखबार
रेखाचित्र : संदीप राशिनकर
को पढने लगी, उसने किताब की तरफ देखा भी नहीं। अखबार घर वालों का ऐसा व्यवहार देखकर फूल कर कुप्पा हो रहा था। हवा से हल्की धूल किताब पर गिरती जा रही थी।

     घर की मालकिन के बाद घर के बेटे और उसकी पत्नी ने भी अख़बार को पढ़ा। शाम तक अखबार लगभग घर के हर प्राणी के हाथ से गुज़रते हुए स्वयं को सफल और उपेक्षित किताब को असफल मान रहा था।
     किताब चुपचाप थी कि घर का मालिक आया और किताब से धूल झाड़ कर उसे निर्धारित स्थान पर रख ही रहा था कि किताब को पास ही में से कुछ खाने की खुशबू आई जो उसी अख़बार के एक पृष्ठ में लपेटे हुए थी और घर का सबसे छोटा बच्चा अख़बार के दूसरे पृष्ठ को फैंक कर कह रहा था, ‘‘दादाजी, इससे बनी नाव तो पानी में तैरती ही नहीं, डूब जाती है।’’
  • 3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) / फोन : 09928544749