आपका परिचय

बुधवार, 6 जनवरी 2016

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  :  5,   अंक  : 01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2015

।। कथा प्रवाह ।।

सामग्री : इस अंक में स्व. प्रो. पृथ्वीराज अरोड़ा, स्व. विक्रम सोनी, स्व. पारस दासोत, मधुकांत, प्रद्युम्न भल्ला, राधेश्याम भारतीय, सीमा जैन, चंद्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाएँ।



जाना लघुकथा के दो पुरोधाओं का
लघुकथा के लिए 2015 का जाना और 2016 का आना- दोनों ही आघात देने वाले सिद्ध हुए। 2015 के जाते-जाते प्रो. पृथ्वीराज अरोड़ा जी (20 दिसम्बर को) और 2016 के आते ही ‘लघु आघात’ जैसी महत्वपूर्ण और लघुकथा साहित्य में अमर हो चुकी पत्रिका के संपादक श्री विक्रम सोनी जी (04 जनवरी को) अपनी अंतिम यात्रा पर चले गए। लघुकथा साहित्य के सृजन और विकास में इन दोनों का महत्व कभी भुलाया नहीं जा सकता। प्रो. पृथ्वीराज अरोड़ा, यद्यपि पिछले कुछेक वर्षों से बीमार चल रहे थे, लेकिन समकालीन हिन्दी लघुकथा के आन्दोलन के समय से किसी न किसी रूप में जीवन पर्यन्त लघुकथा में सक्रिय रहे। ‘कथा नहीं’, कील आदि जैसी उनकी कई लघुकथाएँ बेहद चर्चित हुईं। तीन न तेरह, आओ इन्सान बनाएँ उनके लघुकथा संग्रह हैं। विक्रम सोनी जी एक लम्बे अर्से पूर्व अपना कार्यक्षेत्र बदलने के चलते और बाद में लम्बी अस्वस्थता के चलते लघुकथा के साथ प्रत्यक्ष रूप से जुड़े नहीं रह पाये थे, तदापि उनके द्वारा किया गया कार्य इतना महत्वपूर्ण था कि लघुकथा जगत ने सदैव उन्हें अपने साथ महसूस किया। लघुकथा आन्दोलन की एक-एक ईंट को रखने और उसकी समग्र विकास यात्रा को ऊर्जा प्रदान करने के साथ उसकी दिशा भी तय की थी ‘लघु आघात’ ने। ‘लघु आघात’ के साथ विक्रम सोनी साहब भी लघुकथा के इतिहास में अमर हो गये। दोनों ही महान विभूतियों को हम अविराम परिवार की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनकी एक-एक प्रतिनिधि लघुकथा यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।

स्व. प्रो. पृथ्वीराज अरोड़ा





भूख
      बहन ने भाई के समीप जाकर उसके माथे पर आये पसीने को अपनी साड़ी के छोर से पौंछ दिया और हँसकर बोली, ‘‘भैया, आप जल्दी-जल्दी भोजन क्यों निगल रहे हैं, धीरे-धीरे चबाकर खाइये। आपने आफिस तो जाना नहीं अब!’’
      वह भी हँस पड़ा। माथे पर आयी बालों की सफेद लट को हटाते हुए बोला, ‘‘मैं जानता हूँ भोजन निगलना नहीं चाहिये, परंतु आज भूख इतनी लगी है कि कोई नियम याद नहीं रहा। गुड्डो यह तुम्हारे कारण ही है।’’
      बहन, भाई के मुख से अपने बचपन का नाम सुनकर अभिभूत हो उठी, ‘‘यह कैसे भैया?’’
छायाचित्र : डॉ.बलराम अग्रवाल

      इस बीच खिलखिलाते उसका बेटा एक हाथ में चपाती की प्लेट और दूसरे में हैंड-बैग लिये प्रविष्ट हुआ और बोला, ‘‘पापा, आज आपकी बहू बहुत खुश है कि पापा ने काफी अर्से के बाद भरपेट खाया है।’’ बुआ की ओर उन्मुख होकर आगे बोला, ‘‘बुआ, अक्सर पापा एक-दो चपातियाँ खाकर बाकी चपातियाँ लौटा देते हैं।’’
      उसने एकाएक खाना बंद कर दिया। गर्दन ऊपर उठाई। उसके चेहरे पर तकलीफ-पगे ऐसे भाव थे, जिसे देखकर बेटा भी सकते में आ गया। उसके स्वर में भावना का थोड़ा तीखापन था, बहन को मुखातिब होकर कहा, ‘‘गुड्डो, बता अपने भतीजे को कि इस उमर में भूख तब लगती है, जब खिलाने वाली पास बैठकर खिलाए। भूख का ममत्व से गहरा सम्बन्ध होता है। केवल चपातियां-भरी थाली भेजने से भूख नहीं लगती.... नही लगती भूख ऐसे...!’’


स्व. विक्रम सोनी




अजगर 
   अपने सात वर्षीय बेटे को मुट्ठी भर गेहूँ के दाने लेकर बाहर जाते देखकर कृषक ने समझाते हुए कहा, ‘ये अन्न है बेटा। इसे फेंकते नहीं। जानते हो जितना खाना तूम खाते हो, उतना ही अन्न तुम्हारी बजह से जिस दिन नष्ट हो जायेगा, उस दिन तुम्हें उपवास करना ही पड़ेगा। थाली तुम्हारे सामने होगी, लेकिन किसी कारणवश तुम खा नहीं पाओगे।’
   बेटे ने मुट्ठी में बंद गेहूँ के दानों को एक बार फिर देखकर कहा. ‘इसे फेकूंगा नहीं बापू। मैंने इत्ते-इत्ते से.....!’
रेखाचित्र : महावीर रंवाल्टा
उसने हवा में दो चौकोर घेरे बनाये, और बोला, ‘खेत बनाये हैं। बनिये का छोरा खेत मांग रहा था। मैंने नहीं दिये। उसी में गेहूँ बोऊंगा। सिंचाई करूंगा।’

   ‘फिर.....?’ कृषक को हँसी आ गई।
   ‘पौधे उगेंगे। गेंहूँ फलेगा। पकेंगे तो खलिहान में लाऊँगा। बीज निकालूँगा।’
   ‘और फिर.....?’
   ‘एक मुट्ठी आपको लौटा दूँगा।’
   ‘बाकी.....!’
   ‘बाकी.....?’ पितृ स्नेह उछला।
   ‘आधी मुट्ठी चिडि़यों को खिला दूँगा। अपने लिये रखूँगा। लेकिन वो बनिये का लड़का है न बापू - वह लूटता है। उसे एक दाना भी नहीं दूगा।’ और वह बाहर निकल गया।

   ‘कृषक का भाग्य.....!’ वह बेटे के जाने के बाद बुदबुदाया, ‘तीन मुट्ठियों में कैद है बेटा। तू भूख, साहूकार और सरकार से परिचित नहीं है।’




स्व. पारस दासोत



दो लघुकथाएँ
आज ही
     गेंद खेलते-खेलते,....
     एक बच्चा, अपने साथियों से बोला-
     ‘‘मैं, मैं बड़ा होकर ‘कार’ बनाऊँगा!’’
     दूसरे ने कहा-
     ‘‘बस ऽऽ...! अरे, मैं बड़ा होकर रॉकेट बनाऊँगा,... रॉकेट!’’
     कुछ क्षणों बाद,
     दोनों बच्चों ने, अपने पास ही खड़े एक बच्चे से पूछा-
     ‘‘क्यों रे! तू बड़ा होकर क्या बनायेगा?’’
     ‘‘मैं,.... मैंने तो, आज ही एक गाड़ी बनाई है। देखो, देखो मेरी गाड़ी!’’
रेखाचित्र : स्व. पारस दासोत

     बच्चा अपने हाथ में, बाँस की खपचियों से बनी गाड़ी की डोर थामे था।
     अब,
     वे दोनों बच्चे, उसकी गाड़ी को घूर रहे थे और वह अपनी गाड़ी की डोर थामे, मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ता चला जा रहा था।

भूख
     अपने दौड़ते हुए बेटे को पकड़कर,...
     वह बोली- ‘‘नाश मिटे! तुझको मैंने कितनी बार बोला, ‘‘दौड़ा मत कर, कूदा मत कर! तू समझता क्यों नहीं!’’
     यह सब देख-सुनकर उसकी पड़ौसिन बोली-
     ‘‘अरी बहिन, बच्चा है, दौड़ने-कूदने दो! बहिन, क्या तुम्हें मालूम नहीं, दौड़ने-कूदने से भूख अच्छी लगती है! स्वास्थ्य अच्छा रहता है!’’
     .......
     वह, अपने बेटे को, पड़ोसिन से कुछ न कहते हुए, इस तरह पीट रही थी, मानो वह, उसे समझा रही हो-
     ‘‘भूख, दौड़ने-कूदने से अच्छी नहीं, अधिक लगती है!’’

  • परिवार संपर्क : श्री कुलदीप दासोत, प्लॉट नं.129, गली नं.9 (बी), मोतीनगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-301021 (राज.)



मधुकांत





{चर्चित साहित्यकार मधुकांत जी की मंचीय लघुकथाओं का संग्रह ‘‘कठपुतलियाँ’’ वर्ष 2014 में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह से हमारे पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी तीन प्रतिनिधि लघुकथाएं।}


दर्द
      ‘‘मम्मी, ये कवि क्या होता  है?’’ बच्ची ने जिज्ञासा प्रकट की।
      ‘‘जो कविता लिखता है उसे हम कवि कहते हैं...’’ मां ने उसे प्यार से समझाया।

      ‘‘क्यों लिखता है वह कविता....?’’
      ‘‘बेटी, उसका मन करता है... वह कुछ कहना चाहता है...।’’
      ‘‘क्या कहना चाहता है मम्मी...?’’
      ‘‘उसके दिल में एक दर्द होता है...’’ उसने प्रश्न को अपने पर ओढ़ लिया।
      ‘‘दर्द क्या होता है मम्मी... ब्लेड से कटी उंगली जैसा...?’’
      ‘‘नहीं बेटी, वो मन का दर्द होता है... अच्छा तू सो जा अब... बड़ी होगी तो सब अपने आप समझ जायेगी...’’ -कहते हुए बच्ची को उसने सीने से चिपका लिया।

छोटी किन्तु बड़ी सहायता
      गणतंत्र दिवस होने के कारण आज व्यस्तताएं कुछ कम हैं। घरवाले बार-बार नए जूते खरीदने का आग्रह कर चुके हैं और जूते के लिए तीन सौ रुपये मैंने अलग से जेब में रखे हुए हैं। बाजार गया और एक परिचित की दुकान से दो जोड़ी जूते यह सोचकर ले आया कि एक जोड़ी सबको दिखाकर पसन्द कर लेंगे तथा दूसरी जोड़ी वापस भिजवा देंगे।
      घर पहुँचा तो आकाशवाणी से भूकम्प का हृदय-विदारक समाचार सुना। सारा परिवार सकते में आ गया। दूरदर्शन से भी भूकम्प के समाचार आने लगे। यूं इतनी बड़ी त्रासदी का समाचार प्रसारित नहीं किया गया था परन्तु सबने चर्चा करके इसका अनुमान लगा लिया था।
 
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी
    मैंने तो साफ-साफ कह दिया, ‘‘अब मैं नए जूते नहीं लूंगा, पुरानों की मरम्मत करवा लूंगा और ये तीन सौ रुपये भूकम्प सहायता में दे दूंगा। दोनों जोड़ी जूते वापस दुकारनदार को भेज दूंगा।

      सायं मोची गली में आवाज लगा रहा था। मैंने उसे बुलाया और पुराना जूता उसके सामने कर दिया।
      ‘‘बाबू! दस रुपये लगेंगे!’’ बच्चे ने मासूमियत से कहा। ‘‘ठीक है, लेकिन काम अच्छा करना।’’ कहकर मैं भी उसी के पास बैठ गया और बतियाने लगा।
      ‘‘बाबू! इसमें कोई दम नहीं है।’’ उसका सूआ आरपार निकल गया था।
      ‘‘अरे पन्द्रह फरवरी की शादी है, बस तब तक काम चलना चाहिए। अगले महीने तो नया ही खरीद लूंगा। खरीदना तो इसी महीने था लेकिन इस बार जूतों का तीन सौ रुपया भूकम्प सहायता में दे दिया। उसे बताते हुए मैं अपने-आप पर गर्व अनुभव कर रहा था।
      ‘‘बाबूजी बड़ा भयंकर जलजला आया है, न जाने कितने आदमियों को लील गया।’’ मरम्मत करके जूता उसने मेरे पांव की ओर बढ़ा दिया।
      मैंने जेब से दस रुपये का सिक्का निकालकर उसको दे दिया। एक बार सिक्का उसने अपने हाथ में लिया और दूसरे ही क्षण लौटा दिया, ‘‘बाबूजी, मेरी बोहणी का यह दस रुपया भी आप जलजले की सहायता में भिजवा देना। मुझ अनपढ़ को तो मालूम नहीं, वहाँ कैसे भेजा जाता है।’’
      आश्चर्य से उस संवेदनशील बालक को देखता रह गया। सिक्का जेब में डालते हुए मुझे लगा- यह मेरे तीन सौ रुपये से भी भारी है।       

कर्जदार हरिया
      आज हरिया अपने घर के सामने पोते के साथ निश्चिन्त बैठा हुक्का गुड़-गुड़ा रहा था। कैसे-कैसे उसने साहूकारों के कर्ज से छुटकारा पाया, आज भी याद हो आता है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
      कभी-कभी रुपया दो रुपया की आवश्यकता हो तो उनका पोता (कालू) उन्हें अखबार पढ़कर सुना देता है।

आज भी अखबार लिए बैठा है।
      सुना बेटे कालू, आज अखबार में के लिख्या सै... हरिया ने हुक्का गुड़-गुड़ाया।
छायाचित्र : डॉ.बलराम अग्रवाल

      दादा, लिखा है भारत के प्रत्येक नागरिक पर तीन हजार रुपए का विदेशी कर्ज चढ़ा है। 
      सुनकर हरिया के हुक्के की गुड़-गुड़ाहट रुक गई।
      बेटा मन्नै एक बात समझा, अक यो कर्ज म्हारे पै भी सै के?
      दादा जी, यो तो सब पै सै।
      पर भाई हमने तो किसी विदेशी से कर्ज लिया नहीं, झूठ-मूठ ही साहूकार ने अपनी बही में लिख लिया होगा। हुक्का गुड़-गुड़ाते हुए अचानक उसकर स्वाद कषैला हो गया।

  • डॉ. अनूप बंसल ‘मधुकान्त’, 211-एल, मॉडल टाउन, डबल पार्क, रोहतक (हरियाणा) / मोबाइल : 09896667714


प्रद्युम्न भल्ला




पहाड़ का बेटा
     इस बार गर्मियों की छुट्टियों में पहाड़ों पर जाने का मन बना। बच्चों को लेकर बारह-चौदह घंटों की कठिन यात्रा कर जब पहाड़ों की गोद में कदम रखा तो खुशगवार ठण्डी हवा के मस्त झोंकों ने हमारा स्वागत किया।
     कुछ लोगों ने होटल के लिये घेर लिया तो कुछ अपनी खाने-पीने की दुकानों पर चलने का आग्रह करने लगे। सभी को किसी न किसी तरह टाला और एक तरफ बनी पुलिया पर बैठ सुस्ताने सा लगा।
     बच्चे भी चहक रहे थे। उन की माँ उनको ठण्ड लगने के भय से चिंतित थी। और चाहती थी कि जल्द से जल्द कमरे तक पहुँचा जाए। तभी एक बारह-तेरह साल का गठीले बदन का लड़का पास आ कर बोला।
     -बाबू जी, मैं आप का सामान उठा लूँ क्या? जो चाहे दे दीजिएगा?
     मुझे उसकी शालीनता व बात करने के सलीके ने प्रभावित किया।
रेखाचित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा

     -कितने पैसे लोगे? ऊपर हाली डे होम तक जाना है हमें।
      रेट तो बीस का है बाबू जी, मगर आप कुछ भी दे दीजिएगा। बाबू जी, सुबह से कोई काम नहीं मिला, अतः पेट में कुछ नहीं गया।
     तभी पत्नी ने बैग से बिस्कुटों का एक पैकेट निकालकर उसे जबर्दस्ती थमाते हुए कहा- इसे खा लो बेटे पहले...
     बच्चा पहले तो झिझका, फिर लेकर खाने लगा। मैंने देखा उसने चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया।
     -क्या नाम है तुम्हारा....
     -जी, पहाड़ का बेटा.... मां ने रखा यह नाम, पिता जी नहीं हैं, बहन बड़ी है, खेत में मजूरी करती है मां और बहन, छोटा सा गांव है हमारा।
     बच्चा एक बार में ही मानो पूरा घर खोल गया।
     -हमारे साथ चलोगे बेटे.... बहुत बड़ा घर है, खिलौने हैं। खाने-पीने की मौज है। चाहो तो पढ़ भी लेना।
     पत्नी क्या सोच रही थी, मैं अनुमान लगा चुका था। 
     -नहीं आंटी जी, मैं यहीं ठीक हूँ, शहर के लोग पहाड़ के बेटों को यूं ही फांस कर ले जाते हैं, नौकर रखते हैं, पूरा काम लेते हैं। और फिर...
     -फिर बेटे? मैंने पूछा।
     -और फिर.... चोरी का इल्जाम लगा कर भगा देते हैं। हमारे गांव में ऐसे कई बच्चे हैं बाबू जी। हमें तो पहाड़ ही रास आता है बाबू जी, काम भी देता है, प्यार भी करता है और शहरी लोगों की तरह दगाबाज और झूठा नहीं होता। क्यों बाबू जी?
     कहकर वह जवाब का इंतजार किए बिना एक ओर चला गया।
     हमारे पास मानों शब्द ही नहीं थे।

  • 508, सेक्टर-20, अर्बन एस्टेट, कैथल-136027 (हरि.) / मोबाइल : 0981209169



राधेश्याम भारतीय




छवि
    वह जम्मू से माता वैष्णो के दर्शन कर आज ही घर लौटा था। आते ही बच्चों ने घेर लिया और अपने लिए लाईं चीजों की मांग करने लगे। बच्चों को उनकी चीजें थमा दी गईं।
    पास ही माँ बैठी थी। उसने बैग से एक कश्मीरी शाल निकाल कर माँ को दी। शाल देते समय उसकी नजर माँ के चेहरे पर पड़ी। उसने देखा तो पाया कि माँ का चेहरा ऐसे नहीं खिला, जैसे खिलना चाहिए था। उसने माँ से पूछा, ‘‘माँ क्या बात है, तबीयत तो ठीक है न?’’
     ‘‘हाँ!’’ माँ ने इतना ही कहा।
    फिर उसने एक जर्सी और जैकेट निकालकर माँ को देते हुए कहा, ‘‘माँ यह रमेश के लिए और जैकेट सुरेश
रेखाचित्र : राजेन्द्र परदेसी
के लिए।’’

    इस बार भी उसने माँ का चेहरा पढ़ने की कोशिश की। पर, इस बार माँ के चेहरे पर प्रशन्नता की एक लहर दौड़ती-सी नजर आयी।
    माँ ने कहा, ‘‘बेटे! तुम्हारे भाई भले ही अलग-अलग रहने लगे हों, पर तू उनका कितना ख्याल रखता है।’’ माँ इतना कह सामान लेकर अपने कमरे में चली गई।
    अब पत्नी के व्यंग्य-वाण छूटे, ‘‘बस, भाइयों की चिंता रहती है...बच्चों को भूल जायेंगे....घरवाली को भूल जायेंगे, पर भाई....भाई न हुए मानो खुदा हो गए हों.....’’
     पत्नी बोले जा रही थी, पर वह तो दीवार पर टंगी पिताजी की तस्वीर का ओर देखे जा रहा था, जो उन्हें बचपन में ही छोड़कर चल बसे थे।

  • नसीब विहार कॉलोनी, घरोंडा, करनाल-132114, हरियाणा / मोबाइल : 9315382236



सीमा जैन





नौकरी
      ‘‘बेटी को 60 हज़ार और आने-जाने की लिए गाड़ी मिल रही है! कैसे पिता हो तुम खुश होने की जगह नाराज़ हो रहे हो?’’ उस दिन मेरा दिमाग सातवें आसमान पर था। मुझे वो नहीं दिख रहा था जो एक पिता देख पा रहे थे।
      बहुत गुस्से में थे वो बोले, ‘‘पीहू कोई ऑक्सफ़ोर्ड से पढ़ कर नहीं आई है। जो उसे मिल रहा है वो उसे उसके रूप के कारण मिल रहा है जो उसकी योग्यता से बहुत ज्यादा है।’’
      पीहू भी सहम गई थी पिता का गुस्घ्सा देखकर। पर मेरी बेवकूफी के साथ ने उसे पिता की बात का मर्म समझने ही नहीं दिया। और वो काम पर जाने लगी।
      आज सुबह पीहू ने कहा, ‘‘माँ रात में एक पार्टी में जाना है। मैं ऑफिस से ही चली जाऊँगी। देर हो जायेगी तुम चिंता मत करना।’’
      पिता बोले, ‘‘मुझे जगह बता दो मैं लेने आ जाऊँगा।’’
      बड़ा गुस्सा आया मुझे, ‘‘अरे, वह अब कोई बच्ची नहीं है। फिर उसके साथ उसके बॉस रहेंगे ना! वह छोड़ देंगे।’’
      रात का एक बज गया है। पीहू नहीं आई। उसका फोन भी बन्द है। किसी और का नम्बर हमारे पास नहीं था। पीहू के पिता कमरे में चक्कर लगा रहे थे। बहुत बेचैन थे। मुझसे भी लेटा या बैठा नहीं जा रहा था। मैंने उनका हाथ पकड़कर कहा, ‘‘बैठ जाइये ना!’’
      उन्होंने मेरा हाथ झटक दिया। उनकी आँखों में गुस्सा था...कुछ बोले नहीं वो। मैं किसी अनिष्ट की आशंका
से खुद को कोसने लगी।
रेखाचित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
      थककर मैं कुर्सी पर बैठी ही थी कि पीहू आ गई। हमने चैन की साँस ली। रात ढलान पर थी। वह अपने कमरे में जाकर सो गई।
      सुबह हुई तो पीहू मेरे पास आकर बोली, ‘‘माँ, पापा की बात सही थी, हम दोनों गलत।’’
      मैं घबरा गई। मैंने, उसकी आँखों में झाँककर कहा, ‘‘तू ठीक तो है।’’
      पीहू बोली, ‘‘एकदम ठीक, तुम्घ्हारी बेटी इतनी कमजोर तो नहीं हो सकती। लेकिन अब यह नौकरी... बिलकुल नहीं।’’
      मैंने देखा उसके पिता अखबार पढ़ते हुए मुस्घ्करा रहे थे।

  • 82, माधव नगर, 201, संगम अपार्टमेंट, विजया नगर, ग्वालियर-474002(म.प्र.)


चंद्रेश कुमार छतलानी




कीमत
     दिन उगते ही अखबार वाला हमेशा की तरह अखबार फैंक कर चला गया। देखते ही लॉन में बैठे घर के मालिक ने अपने हाथ की किताब को टेबल पर रखा और अख़बार उठा कर पढने लगा, चाय का स्वाद अख़बार के समाचारों के साथ अधिक स्वादिष्ट लग रहा था। लम्बे-चौड़े अख़बार ने गर्व भरी मुस्कान के साथ छोटी सी किताब को देखा, किताब ने चुपचाप आँखें झुका लीं।
     घर के मालिक ने अख़बार पढ़ कर वहीं रख दिया, इतने में अंदर से घर की मालकिन आयी और अखबार
रेखाचित्र : संदीप राशिनकर
को पढने लगी, उसने किताब की तरफ देखा भी नहीं। अखबार घर वालों का ऐसा व्यवहार देखकर फूल कर कुप्पा हो रहा था। हवा से हल्की धूल किताब पर गिरती जा रही थी।

     घर की मालकिन के बाद घर के बेटे और उसकी पत्नी ने भी अख़बार को पढ़ा। शाम तक अखबार लगभग घर के हर प्राणी के हाथ से गुज़रते हुए स्वयं को सफल और उपेक्षित किताब को असफल मान रहा था।
     किताब चुपचाप थी कि घर का मालिक आया और किताब से धूल झाड़ कर उसे निर्धारित स्थान पर रख ही रहा था कि किताब को पास ही में से कुछ खाने की खुशबू आई जो उसी अख़बार के एक पृष्ठ में लपेटे हुए थी और घर का सबसे छोटा बच्चा अख़बार के दूसरे पृष्ठ को फैंक कर कह रहा था, ‘‘दादाजी, इससे बनी नाव तो पानी में तैरती ही नहीं, डूब जाती है।’’
  • 3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) / फोन : 09928544749

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