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बुधवार, 6 जनवरी 2016

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अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  :  5,   अंक  : 01-04,  सितम्बर-दिसम्बर  2015 



        {लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कालौनी, बदायूं रोड, बरेली, उ.प्र. के पते पर भेजें। समीक्षाएँ ई मेल द्वारा कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फॉन्ट में वर्ड या पेजमेकर फ़ाइल के रूप में ही भेजें।स्कैन करके या पीडीएफ में भेजी रचनाओं का उपयोग सम्भव नहीं होगा }


।।किताबें।।

सामग्री :  इस अंक में ‘‘पीले पंखों वाली तितलियाँ : रचनात्मक विविधिताओं से भरा संग्रह’’/डॉ. बलराम अग्रवाल के लघुकथा संग्रह एवं ‘‘समय का पहिया : अपने समय का लघुकथा’’/मधुदीप के लघुकथा संग्रह की डॉ. उमेश महादोषी द्वाा तथा ‘‘लघुकथा संकलन ‘मुट्ठी भर अक्षर’: एक पाठकीय प्रतिक्रिया’’/ नीलिमा शर्मा और विवेक कुमार संपादित लघुकथा संकलन की दीपक मशाल द्वारा परिचयात्मक समीक्षाएँ। 


डॉ. उमेश महादोषी



पीले पंखों वाली तितलियाँ : रचनात्मक विविधिताओं से भरा संग्रह

डॉ. बलराम अग्रवाल लघुकथा के उन शीर्षथ हस्ताक्षरों में से हैं, जिन्होंने लघुकथा में सृजन और समीक्षा-समालोचना के साथ लघुकथा का रूप-स्वरूप तय करने का काम भी किया है और उत्कृष्ट व संभावनाओं की तलाश करने वाले संपादन के माध्यम से भी लघुकथा को विभिन्न कोंणो से समृद्ध किया है। दूसरी बात उन्होंने अपने एकल संग्रहों की संख्या बढ़ाने की ओर ध्यान देने की बजाय लघुकथा विषयक ऐसे कामों को पुस्तकाकार रूप में लाने का प्रयास किया, जो लघुकथा पर शोध और संभावनाओं की तलाश के लिए जरूरी थे। शायद यही कारण रहा है कि लघुकथा जगत ‘सरसों के फूल’ के बाद उनकी लघुकथाओं के पुस्तकाकार रूप की प्रतीक्षा ही करता रहा। उनकी एक के बाद एक अनेक उत्कृष्ट लघुकथाएं विभिन्न माध्यमों से सामने आती रहीं लेकिन संग्रह के शीर्षक की तलाश अब जाकर ‘पीले पंखों वाली तितलियाँ’ के रूप में पूरी हुई है। 
      लम्बी प्रतीक्षा के दृष्टिगत इस संग्रह में आने से पूर्व ही उनकी अनेक लघुकथाएं बेहद चर्चित और लोकप्रिय हो चुकी हैं। मसलन कुंडली, बिना नाल का घोड़ा, बीती सदी के चोंचले, कंधे पर बेताल, लगाव आदि-आदि। डॉ. बलराम अग्रवाल जी ने किसी विषय विशेष को अपना प्रिय नहीं बनाया, अपितु मानवीय जीवन के तमाम पहलुओं को अपने सृजन में उजागर करने की कोशिश की है। उन्होंने अपने सृजन में संवेदना के नए-नए रूप तलाशने की कोशिश की है। ‘विंधे परिन्दे’, ‘प्यासा पानी’, ‘आधे घंटे की कीमत’ जैसी लघुकथाओं को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। यथार्थ की प्रस्तुति में तर्कसंगत विश्लेषण और अभिव्यक्ति की कलात्मकता का संयोजन अनेक लघुकथाओं में मिलेगा। यह संयोजन जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी साधारण चीजों में रचनात्मकता को तलाशनेे के लिए जरूरी होता है। खनक, सियाही, गरीब का गाल, तिरंगे का पाँचवां रंग. आहत आदमी जैसी अनेक उत्कृष्ट लघुकथाएं मानो क्रिकेट के मैदान पर गेंद को दो फील्डरों के बीच मामूली से गैप से निकालकर मारे गए चौके हैं। ‘वे दो’, ‘संकल्प’, ‘रमेश की मौत’, ‘बब्बन की बीवी’, ‘सलीम, मेरे दोस्त’ आदि लघुकथाएँ शिल्प के स्तर पर लघुकथा में आ रहे बदलावों का उदाहरण हैं। शीर्षक लघुकथा ‘पीले पंखों वाली तितलियाँ’ लघुकथा में बाल मनोविज्ञान की रचनात्मक प्रस्तुति का तो उत्कृष्ट उदाहरण है ही, कलात्मक प्रस्तुति का भी सुन्दर नमूना है। इस संग्रह को विषयगत विविधिता के साथ रचनात्मक व कलात्मक विविधिता को समझने के लिए पढ़ना तो रुचिकर होगा ही, लघुकथा में आ रहे बदलावों की दृष्टि से भी प्रभावशाली माना जायेगा।
पीले पंखों वाली तितलियाँ :  लघुकथा संग्रह :  डॉ.बलराम अग्रवाल। प्रका. :  राही प्रकाशन, एल-45, गली-5, करतारनगर, दिल्ली। मूल्य :  रु.300/-मात्र। पृष्ठ : 152। सं. : 2015।


समय का पहिया : अपने समय का लघुकथा संग्रह


कथाकार मधुदीप जी कथा साहित्य की तीनों विधाओं, उपन्यास, कहानी और लघुकथा में सृजन कर्म से जुड़े रहे हैं। लघुकथा में उन्होंने संपादन और विमर्श में पर्याप्त काम किया है। जब कोई रचनाकार सृजन के साथ संपादन-विमर्श से भी जुड़ा होता है, तो उसके सामने लेखन की कई चुनौतियां खड़ी होती हैं, जिन्हें स्वीकार करके लेखन के साथ न्याय करना कठिन हो जाता है। यदि आपके सृजन में कमजोरियां हैं तो आप संपादन व विमर्श में कई प्रश्नों से जूझेंगे और यदि आप संपादन और विमर्श में विधागत मापदंडों के साथ चल रहे हैं, समझौते नहीं कर रहे हैं, तो आपको अपने सृजन पर भी उसी तरह ध्यान देना पड़ेगा, जैसी दूसरों से अपेक्षा करते हैं अन्यथा सृजन कर्म से हटना पड़ेगा। मधुदीप जी ने दोनों ही क्षेत्रों में न सिर्फ पर्याप्त कार्य किया है, अपितु पूरा न्याय भी किया है। उनकी साहित्य साधना एक लम्बे मध्यान्तर के साथ दो पारियों में बंटी हुई है, लेकिन उनकी दोनों पारियों के बीच का मध्यान्तर उनके लेखन-संपादन-विमर्श में से किसी में भी किसी तरह की शिथिलता का कारण नहीं बना है। दूसरी पारी में ‘पड़ाव और पड़ताल’ संकलन को एक ऐतिहासिक श्रंखला में बदलकर जो काम उन्होंने किया है, उसे दोहरा पाना किसी अन्य के लिए शायद ही संभव हो पाये। लेकिन समान रूप से उन्होंने लघुकथा सृजन में भी महत्वपूर्ण काम किया है, जो ‘समय का पहिया’ के रूप में हमारे सामने है। 
      उनके इस संग्रह में उनकी पहली पारी यानी 1995 तक की 30 तथा इक्कीसवीं सदी, संभवतः पिछले कुछेक वर्षों में ही लिखी गईं 41 लधुकथाएं दो अलग-अलग खंडों में शामिल की गई हैं। दोनों खण्डों की लघुकथाओं को पढ़ने से दो बातें अत्यंत स्पष्ट हैं- पहली यह कि लम्बे अन्तराल, का उनके सृजन की गुणात्मकता पर न तो कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ा है और न ही ऐसा आभास मिलता है कि वह लघुकथा से उनकी कोई दूरी रही है। दूसरी बात, जो कुछ वरिष्ठ लघुकथाकार लघुकथा सृजन के पैटर्न को बदलते दृष्टिगोचर हो रहे हैं, उनमें मधुदीप जी भी शामिल दिखाई देते हैं। उन्होंने न सिर्फ अपने-आपको नई जमीन से जोड़ा है, नई जमीन की तलाश में भी स्वयं को शामिल किया है। नाट्य शैली में लिखी ‘समय के पहिया’ जैसी लघुकथा के माध्यम से उन्होंने लघुकथा में काल दोष की समस्या के समाधान की ओर ध्यान खींचा है। संभवतः लघुकथा में इस तरह का यह दूसरा उदाहरण है। चैटकथा, पिंजरे में टाइगर, ऑल आउट, मेरा बयान जैसी कई लघुकथाएं लघुकथा के लिए नई ज़मीन तोड़ती दिखाई देती हैं। अबाउट टर्न, अवाक्, मजहब, वजूद की तलाश, विषपायी, शोक उत्सव, सन्नाटों का प्रकाश पर्व, साठ या सत्तर से नहीं, हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ जैसी सशक्त लघुकथाएँ मधुदीप जी की दूसरी पारी को पहली पारी से जोड़ती हैं। निसंदेह ‘समय का पहिया’ कथा साहित्य में लघुकथा की उपस्थिति दर्ज कराता अपने समय का संग्रह है।
समय का पहिया :  लघुकथा संग्रह :  मधुदीप। प्रकाशक :  दिशा प्रकाशन, 138/16, त्रिनगर, दिल्ली। मूल्य : रु.300/-मात्र।  पृष्ठ : 152। संस्करण :  2015।

  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बीडीए कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली, उ.प्र. / मो. 09458929004


दीपक मशाल 



लघुकथा संकलन ‘मुट्ठी भर अक्षर’ :  एक पाठकीय प्रतिक्रिया 
लघुकथा हिन्दी साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा है जिसको कि पसन्द करने की पाठकों के पास कई अपनी-अपनी वजहें हैं। यह विधा कहानी से ठीक उतनी ही स्वतन्त्र है जितनी कि संस्मरण या यात्रा वृतान्त। अब चाहे वह शिल्प के मामले में हो या किसी और में। कहानी के समानान्तर ही लघुकथा के विकास की प्रक्रिया भी पिछले कुछ दशकों से चलती रही है और इसका आधुनिक स्वरुप सामने आया है। बीते दो दशकों में लघुकथा के क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं उसका श्रेय कई वरिष्ठ लघुकथाकारों को जाता है। 2010 के बाद के सिर्फ पाँच सालों को ही देखें तो लघुकथा लेखन-प्रकाशन में पर्याप्त तेजी आई है।
पंजाबी लघुकथा की पत्रिका मिन्नी हो या हिन्दी लघुकथा को समर्पित अविराम साहित्यिकी या संरचना वार्षिकी, दिशा प्रकाशन कीे लघुकथा की श्रृंखलाबद्ध समीक्षात्मक पुस्तक ‘पड़ाव और पड़ताल’ हो या फिर निर्वाचित लघुकथाएँ संकलन। ये सब लघुकथा के उल्लेखनीय कार्य में लगे हैं। इंटरनेट पर लघुकथा डाट कॉम एक मजबूत स्तम्भ की तरह स्थापित हो चुकी है, गद्यकोश व फेसबुक पर लघुकथा साहित्य का पृष्ठ दिनोंदिन समृद्ध हो रहा है। विगत दिनों हिन्दी-चेतना, अभिनव इमरोज़, द्वीप लहरी, सरस्वती-सुमन आदि पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांक तथा विश्व हिन्दी सचिवालय,मॉरिशस द्वारा अंतर्राष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता व कथादेश पत्रिका की लघुकथा प्रतियोगिता, ओपन बुक्स ऑनलाइन वेबसाइट लघुकथा गोष्ठी आदि भी उल्लेखनीय है। लघुकथा पर ऑडियो व फिल्मांकन भी हो रहा है। 
      ये लघुकथा की लोकप्रियता के कुछ उदाहरण मात्र हैं। इन्हीं में एक उदाहरण ‘मुट्ठी भर अक्षर’ के रूप में शामिल हुआ है। हिन्दयुग्म प्रकाशन के बैनर तले नीलिमा शर्मा और विवेक कुमार के सम्पादन में प्रकाशित यह लघुकथा संकलन कुछ माह पूर्व ही सामने आया है। दुनिया भर से 30 रचनाकारों की कुल 180 रचनाओं को शामिल किए यह संकलन धनात्मक और ऋणात्मक पक्ष, दोनों ही सिमेटे हुए है। 
    ग़ज़ल की तरह लघुकथा के लिए भी कहा जा सकता है कि ‘लघुकथा या तो होती है या नहीं होती’। फ़कऱ् सिर्फ यादगार और विस्मृत हो जाने वाली लघुकथाओं का होता है, पढ़ने पर दिल-दिमाग पर जो अपनी छाप इस तरह अंकित कर दें कि कभी न भूल सकें वो उत्तम लघुकथाएँ। एक पाठक के तौर पर मुझे इस संकलन से निराशा हुई इसलिए यह प्रतिक्रिया इसे लघुकथा संकलन की तरह स्वीकार नहीं कर पाती। जिस तरह थॉमस अल्वा एडिसन ने बल्ब के निर्माण की सफलता पर कहा था कि ‘‘भविष्य में बल्ब बनाने के और भी तरीके बताए जा सकते हैं लेकिन मैं वह 10,000 तरीके बता सकता हूँ जिनसे कि बल्ब नहीं बन सकता’’ ठीक वैसे ही इस संकलन की अधिकांश लघुकथाएँ कम से कम यह तो सिखाती ही हैं कि लघुकथा ऐसी नहीं होती। 
      संकलन ने 30 रचनाकारों को लघुकथा लेखन की कोशिश के लिए प्रेरित किया और नीलेश शर्मा की लघुकथाओं से परिचित कराया उसके लिए साधुवाद भी देता हूँ। नीलेश की दाल, बेटी, दोनों तरफ और कबूतर लघुकथाऐं अवश्य छाप छोड़ती हैं। उनके अतिरिक्त नीलिमा शर्मा, संध्या तिवारी एवं रेखा सुथार की रचनाओं को लघुकथा कह सकते हैं। अन्य रचनाकार कहानी, संस्मरण या यात्रा-वृतान्त तो लिख सकते हैं मगर उनकी रचनाओं को लघुकथा कह पाना फिलहाल मुश्किल है। पाठक को इन रचनाओं से यह सन्देश भी जाता है कि ‘मुट्ठी भर अक्षर’ के अधिकांश रचनाकार पठन और खासकर लघुकथा पठन में यक़ीन नहीं रखते बल्कि सिर्फ लिखने में विश्वास करते हैं जो कि एक बड़ी कमज़ोरी है। ‘संस्कारहीन’ शीर्षक से प्रकाशित प्रवीण झा की रचना मीरा चन्द्रा की लघुकथा ‘बच्चा’ को दोहराती भर है, इस दोहराने को कोई दूसरा नाम मैं देना नहीं चाहता। उम्मीद है कि ब्लॉग और सोशल साइट्स के माध्यम से इस संकलन के बाकी सभी रचनाकार इस विधा में खुद को माँजते रहेंगे, पढ़ते रहेंगे और अगला पत्थर ऐसी तबियत से उछालेंगे कि आसमान में छेद होगा ज़रूर। 
मुट्ठी भर अक्षर :  लघुकथा संकलन। संपादन :  नीलिमा शर्मा/विवेक कुमार। प्रका. :  हिन्दयुग्म प्रकाशन, दिल्ली । मूल्य :  रु.120/-मात्र। संस्करण :  2015।

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