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रविवार, 5 नवंबर 2017

अविराम वार्ता

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  11-12,  जुलाई-अगस्त  2017




।।कविता वार्ता ।।


{मित्रो, इस ब्लॉग पर ‘अविराम वार्ता’ शीर्षक इस नये स्तम्भ में विभिन्न विषयों पर साक्षात्कारों को शामिल/प्रकाशित किया जायेगा। अब तक साक्षात्कारों को ‘अविराम विमर्श’ स्तम्भ में दिया जाता रहा है, जिसके कारण कभी-कभी किसी विशेष साक्षात्कार को ढूँढ़ने में काफी श्रम करना पड़ता है। ‘अविराम वार्ता’ के रूप में ऐसे तमाम साक्षात्कार एक स्थान पर संकलित हो सकेंगे। चूँकि प्रत्येक साक्षात्कार का अलग लिंक भी होगा, अतः उसे ढूँढ़ना आसान हो जायेगा। पूर्व में प्रकाशित साक्षात्कारों को भी इस स्तम्भ के साथ जोड़ने का प्रयास किया जायेगा। इस आर प्रस्तुत है भाई चक्रधर शुक्लजी द्वारा लिया गया वरिष्ठ साहित्यकार श्री श्यामसुन्दर निगमजी का साक्षात्कार। यह सात्क्षााकार मूल रूप से अविराम साहित्यिकी के मुद्रित प्रारूप के अक्टूबर-दिसम्बर 2016 अंक में प्रकाशित हुआ था। 
      श्री श्यामसुन्दर निगम जी ने विगत तीन दशकों में कविता-कहानी में सृजन के सापेक्ष दूसरों के सृजन में से अपनी दृष्टि से महत्वपूर्ण चीजों को पकड़कर उन्हें स्थापित करने का कार्य कहीं अधिक और समर्पित भाव से किया है। यह चीज उन्हें अलग तरह का सृजक बनाती है। इस सन्दर्भ में चक्रधर जी से इस बातचीत में कुछ बिन्दुओं पर उनके अनुभव और विचार जानना दिलचस्प है। 




श्री श्यामसुंदर निगम 



न गाँव को मैं छोड़ पाया न गाँव मुझे 
श्यामसुन्दर निगम

चक्रधर शुक्ल : सबसे पहले आपने क्या लिखा, कविता या कहानी और कब? प्रेरणा कहाँ से मिली और आपके साहित्यिक गुरु कौन थे?

श्यासुन्दर निगम : मन संवेदनशील था ही और संवेदना के नाते ही इस तरह जितनी भी पीड़ा तक के संदर्भ स्वयं के जीवन में सामने आये या परिवेश में फैले देखे, वो भीतर-भीतर चलते-पुसते रहे। पके नहीं, मेरा अकेले का उनसे जूझना होता रहा। भोगता रहा, कुढ़ता रहा। जी फड़फड़ाता जरूर रहा
श्री चक्रधर शुक्ल 
कि इनका करूँ क्या? कैसे इनसे निजात मिले। वैसे तो जो अपने हैं, चाहे वो सुख हों, दुःख हों, व्यक्ति, स्थान, वस्तु हों, छोड़ने का मन नहीं करता; यह मनुष्य का स्वभाव है। पर, मेरी स्थितियाँ इससे थोड़ी भिन्न थीं, मुझे लगता था कि मुझसे जुड़े लोग भी इसके साझीदार बनें। यह अवसर आया साहित्यिक परिवेश मिलने पर, जो लगभग 1985 के आसपास शुरू होता है। फिर भी लेखन की कोई क्रमबद्धता या नियमबद्धता नहीं थी। अपने आप फोड़े को फोड़ लेना साफ कर लेना टीसन से निज़ात पाने जैसा डायरी में लिख लेने से होता रहा। विधिवत् लेखन और जिसे मैं ज्यादा चुनौती भरा मानता रहा- वह शुरू हुआ साहित्यिक संवाद की पत्रिका ‘निमित्त’ के शुरू करने के साथ। और तभी, कभी कविता ने ठक-ठक करना शुरू किया तो कभी कहानी ने। कथ्य ने भाषा अपने आप ग्रहण की। मैं आज तक यह नहीं तय कर पाया कि कहानी बन रही है या कविता। बस अपनी बात पूरी कर लेने की ललक-सी ही रहती है। तो आप यह समझिये कि लेखन 1990 के आसपास ऐसा आकार पा सका, जिसे साहित्यिक मित्रों ने सराहा और उत्साह बढ़ाया।

     साहित्यिक गुरु जैसी परम्परा पर मेरी आस्था नहीं है। हाँ, ऐसे मित्र हैं जिन्होंने साहित्यिक क्षेत्र के ऊँच-नीच के बारे में, तिकड़मबाजी के बारे में आगाह किया। उन्हें मैं उस स्तर पर गुरु ही कह करके सम्बोधित करता हूँ। जहाँ तक रचना में कुछ सुधार, सुझाव, विसंगतियों की ओर जो संकेत पाठक से मिलते हैं, वे किसी भी गुरु से ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं।

चक्रधर शुक्ल :   आपकी ज्यादातर कहानी गाँव की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं, ऐसा क्यों? क्या शहर के परिवेश ने आपको प्रभावित नहीं किया?

श्यासुन्दर निगम :  ग्रामीण परिवेश ऐसा है, 17 वर्ष की उम्र तक बेहद सघन अनुभव हुए, जिसमें प्यार, दुलार, दुत्कार, अपनों से ज्यादा औरों की मिली। गरीबी को बुराइयों की जड़ कहते सुना है किन्तु मेरे गाँव {मेरी रचनाओं में प्यारे पुरबा (बहरौली)} के लोग इतने सहृदय रहे कि मेरी गरीबी का सम्मान करते थे, अपवाद छोड़ दें तो जो भी मिलता था मेरे स्वास्थ्य, मेरी पढ़ाई के बारे में प्रश्न करता और कभी किसी परीक्षा में किसी सहपाठी से एक नम्बर कम होना उन्हें पता चलता तो मेरे माता-पिता से ज्यादा चिंतित होते थे। त्यौहारों में सबसे ज़्यादा दूध, दही या अन्य सामान मेरे घर में इकट्ठा हो जाता था। यह सब मेरे उन घावों को छिपा तो देते थे किन्तु उनका टीसना भीतर-भीतर होता ही रहता था, सहता था मैं और मेरी माँ। उन स्थितियों में गाँव के जितने दुःख-दर्द थे, मुझे अपने जैसे ही लगते थे। पीछा नहीं छोड़ा उन्होंने! शहर आ जाने के बाद भी मन गाँव-गाँव ही करता रहा। कथा के पात्र अधिकांश मुझसे सीधे जुड़े हुये लोग हैं- जीवित लोग यानी कि मेरे सामने भी एक भी शब्द झूठ न कह पाने की चुनौती। हाँ, कथा का रूप देते समय परिवेश गढ़ते समय मैं अपने को उससे अलग नहीं कर पाया; न गाँव को मैं छोड़ पाया, न गाँव मुझे। कह सकते हैं दुःख लम्बा साथी होता है, सुख की यात्रा बहुत ज्यादा स्मरण में नहीं बसती। उसका दर्द हो सकता है किन्तु दुःख साथ निभाता है। जहाँ तक स्त्री पात्रों की बात है, शायद हर किसी में माँ के कष्ट देखता रहा। घर में चार-चार दिन तक खाना न बनना, चोकर-चूनी या उसमें थोड़ा आटा मिलाकर रोटी बनाना, नहाते समय आधी धोती लपेटकर नहाना आधी सुखाना, पहला हिस्सा सूखने के बाद दूसरा आधा हिस्सा धोकर सुखाना। शायद यही सब दूसरी स्त्रियों में भी दिखने लगा। उनके दुःख माँ के दुःख जैसे दिखने लगे और जाने-अनजाने मेरी रचनाओं में स्त्री विमर्श के रूप में स्थान पाने लगे।

चक्रधर शुक्ल :   लघुकथा भी आपने लिखी कि नहीं...?

श्यासुन्दर निगम :  हमारे कथ्य ज्यादातर लम्बे और खिचते चले जाते से दर्द के हैं। मुझे लगता है कि मैं उसको आधे-अधूरे में छोड़कर सन्दर्भित पात्र के साथ न्याय नहीं कर पाऊँगा। जहाँ तक न्याय की बात है- मैं कौन...! पात्र स्वयं ही मुझको अपने ढँग से मोड़ता है, मुझसे बतियाता है, जिरह करता है, मैं जिद करूँ अपने जैसा करने की तो बदजुबानी पर उतर आता है। पात्र स्वयं अपनी भाषा मेरे हाथ में पकड़ा देता है, अपने परिवेश में मुझे घसीट ले जाता है। शायद लघुकथा में ऐसा निर्मित मैं न कर पाऊँ। बस...!

चक्रधर शुक्ल :   ‘खदबदाहट’ में कथाकार शैली का प्रभाव देखने-पढ़ने को मिला, कविता पर कहानी का प्रभाव निश्चित रूप से दिखाई देता है?

श्यासुन्दर निगम :  दरअसल मुख्यरूप से मेरी कविताएँ कथा तत्व पर ही आधारित हैं। भाषा उनको कविता की मिल पायी। यह कथ्य का सौभाग्य है, सौभाग्य इसलिए कहना पड़ रहा है कि कविता अधिकांश पाठकों के पास खड़ी मिलती है, कहानी के पास पाठक को चलकर जाना पड़ता है। कविता सहज ही अपने पाठक को आगोश में लेती है, कहानी पाठक को परखती है और तब जुड़ती है। और अगर जुड़ी तो पाठक को अपने साथ रहने को मजबूर करती है। काफी दिनों से कविता में कहानी और कहानी में कविता जैसी भाषा की ओर मेरे तमाम मित्र संकेतित करते हैं, इसको मैं स्वीकार करता हूँ और एक स्तर पर इसे अपनी शैली की विशेषता भी मानता हूँ। इसके पीछे केवल एक ही बात देखता हूँ, यह कि मेरे पाठक को जैसे भी हो, जिस भी रूप में हो- कहानी या कविता, पकड़ती तो है। 

चक्रधर शुक्ल :   ‘निमित्त’ पत्रिका के संपादन में आपको किन-किन स्थितियों से गुजरना पड़ा?

श्यासुन्दर निगम :  पहले तो ये कि ‘निमित्त’ निकालने की बात मेरे दिमाग में क्यों आई। तो, बहुत पीछे चलकर कथाकारों का सम्मेलन प्रथम संगमन कानपुर में मर्चेण्ट चैम्बर हाल में आयोजित हुआ। देश के शीर्ष कथाकार सम्मेलन में थे। मैं सबसे अनजान अपरिचित किसी के भी पास खड़ा होकर किसी भी तरह बातें सुन सकता था। यानी कि जो बातें मंच पर बैठकर नहीं कहते लोग, वह भी। इसी में शामिल था बहुतेरों का यह रोना कि आज हमें पढ़ता कौन है! बस इस बात की पड़ताल हो और वह सामने लायी जाये, जिसमें पाठक भी हों, लेखक भी हों और सम्पादक भी हों। इसी का प्रतिफलन था ‘निमित्त’ का प्रवेशांक, कहानी लेखक से पाठक तक। जिससे यह बात सामान्य पाठकों ने बहुत जोर देकर कही भी कि हमें कुछ पढ़ने लायक मिले तो हम पढ़ें। जहाँ तक मेरे सामने पत्रिका के प्रकाशन में कोई दिक्कत या कठिनाई आने का प्रश्न है, वह मैंने अर्थ के रूप में बिल्कुल महसूस नहीं किया। कारण मित्रों का सहयोग, दूसरा कारण बड़े पुण्य स्मरण के साथ कहना चाहता हूँ कि मैं ऐसे पिता का पुत्र हूँ जो जमींदार थे और उससे जुड़े सारे दुर्गुण जैसे कोई नशा न छूटना या सारे नशे करना, जुआँ खेलना और भी... यानी कि सब कुछ बर्बादी की ओर ले जाता हुआ, यह सब बातें माँ की पीड़ा के रूप में आकार लेकर मेरे सामने खड़ी हो जाती थीं। पत्रिका के संदर्भ में मैंने यहीं से एक हल निकाला कि मैं भी यह सब क्यों नहीं कर सकता और करूँ तो रोज कितना पैसा खर्च होगा? और छोड़ दूँ तो उतना बचेगा। फिर यह गणित कि एक दिन में इतना तो महीने भर में इतना और साल में इतना और बच जायेगा...। समस्या अपने आप हल हो गयी..। दूसरा संकट रचनाओं का रहा, साहित्यिक संवाद की पत्रिका थी, हर अंक में किसी न किसी साहित्यिक विषय पर बात होनी होती थी, जिसके लिए किसी भी रचनाकार को बैठकर अलग से लिखना होता था जो प्रायः बड़े रचनाकार नहीं करते थे। तो उतना उपादेय नहीं होता था किन्तु इसका ये मतलब नहीं कि किसी ने सहयोग नहीं किया। सहयोग न किया होता तो तेरह अंकों की यात्रा पूरी कैसे होती!

चक्रधर शुक्ल :   ‘निमित्त’ का प्रेमगीत अंक संयोजन, संपादन के दौरान गीत के विषय में कुछ कहते भाव आये- किसने आपको प्रभावित किया, क्या ‘अनुकथन’ गीतों की देन है?

श्यासुन्दर निगम :  गीत पढ़ने की लालसा ने ‘निमित्त का आत्मगंध प्रेमगीत’ निकालने को प्रेरित किया था। उस समय मुझे लगा कि मेरा अध्ययन गीत को पढ़े बिना अपूर्ण है; गीत की ताकत, गीत की गढ़न, गीत की कहन- अगर ईमानदारी से लिखे गये हैं- करिश्माई होते हैं; गीत हमारे संस्कारों में पूरी जीवन यात्रा में प्रविष्ट हैं। इसीलिए गीत का पाठ शुरू किया और जब शुरू किया तो स्वाभाविक रूप से कुछ प्रतिक्रियायें भी उठने लगीं तो गीत की समीक्षा का शऊर तो नहीं है फिर भी अपने मन की बात कहने को रोक भी न पाया, इसी को रूप दिया ‘अनुकथन’ में ‘कवि की कहन और मेरा पाठक मन’ के रूप में।
     अब, आज लगता है जीवन में रिक्तियों ने इतनी तिक्तता भर दी है, आस्थाओं में इतने प्रश्नों की गुंजाइश बना दी है, श्रद्धा ने एक वर्ग को इतना बददिमाग बना दिया है कि रचनाकारों का एक वर्ग इस पर अपने हाथ आजमा रहा है, जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है व्यंग्यकार। वह, जो बात हम कई पृष्ठ रंगने के बाद कह पाते हैं, वह एक तीर छोड़कर तिलमिलाने को मजबूर कर देता है- मन करता है और प्रश्न भी उठता है कि इन्हें विधिवत पढ़कर अपने को क्यों न जोड़ूँ.... इसलिए मैंने कानपुर के व्यंग्यकारों को अपने से जोड़ लिया। उन पर काम किया। ‘पहरुए: व्यंग्य एक, प्रतिध्वनियाँ अनेक’ आपके सामने है। हाँ, पहरुए पर मैंने एक बात को ध्यान रखा कि उन व्यंग्यकारों, जिनकी एक भी पुस्तक न आयी हो, को ही इसमें शामिल करूँ... मेरा प्रयास सफल रहा।

चक्रधर शुक्ल :   इस समय आपकी समालोचना की चर्चा शहर में हो रही है- कुछ कहना चाहेंगे?

श्यासुन्दर निगम :  वास्तव में समीक्षा की समझ मुझे बिल्कुल नहीं है, बात को एक वाकया से शुरू करता हूँ- मधुपराग के रचनाकार श्री अम्बिकेश शुक्ल जी पर विमर्श गोष्ठी थी। विद्वान अपने विचार व्यक्त कर चुके थे, पुस्तक मुझे वहीं पर मिली थी, पहले नहीं। मैंने संचालक से निवेदन कर एक मिनट का समय माँगा और केवल वहीं पर पलटकर देखे गये दो-तीन छंदों के आधार पर एक अप्रत्याशित-सा पत्थर जैसा फेंककर मार दिया कि... ‘‘क्षमा करें, जितने विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं, उन्होंने रचनाकार को  पढ़ा ही नहीं, केवल मात्रायें गिना रहे हैं, वर्ण गिना रहे हैं, छंद की किस्म बता रहे हैं। बस! रचनाकार की भावभूमि से, वैचारिकता से जुड़े ही नहीं, जो मेरी दृष्टि से विमर्श के लिए बहुत आवश्यक है और इसके बाद एक छंद की अपने तयीं छोटी सी व्याख्या की, जिसको वहाँ उपस्थित लोगों ने सराहा। सराहा इसलिए कहना पड़ रहा है कि उसमें अधिकांश मुझे जानते नहीं थे। वहीं मुझे लगा कि गीतों या अन्य रचनाएँ, जो अपनी पकड़ में आयें, उन पर ईमानदारीपूर्ण पाठकीय प्रतिक्रियायें सामने आना चाहिये। इसके बाद यह सिलसिला चल निकला।

चक्रधर शुक्ल :  आपने कहानी, कविताएँ, समालोचना, व्यंग्यकारों पर भी काम किया। आपकी अगली योजना क्या है- उपन्यास पर काम कर रहे हैं मालूम हुआ है, उस पर कुछ बताएँ..।

श्यासुन्दर निगम :  मेरे लेखन में योजना का दबाव नहीं है। हाँ, दबाव है अनुभवों का, अनुभूतियों का। कुछ भी सोचकर लिखना नहीं होता। जो परेशान करता है, वह लेखन में आता है। मेरे अन्दर बसे पात्र प्रायः मुझसे ही प्रश्न करने लगते हैं और मैं उनके उत्तर ढूँढ़ने की छटपटाहट में गुँथता जाता हूँ। जब यह गुँथन सुलझने जैसी होती है तो रचना का रूप ग्रहण करने की स्थिति में आती है, भूमिका वही दे जाता है। फिर अपनी रचनाओं में मैं कुछ न कुछ आज के अधिकांश लेखकों की रीति-नीति के विपरीत कुछ निष्कर्ष देने की मनःस्थिति बनाता हूँ। जहाँ तक आपका किसी बड़े काम का संकेत है, शायद वह कोई औपन्यासिक रचना के सम्बंध में है। हाँ, तो प्लॉट भी है, स्थितियाँ भी हैं पर जब पकड़ में आये और सध सके।
      हाँ, एक मेरी दौहित्रा ने अपनी माँ से प्रश्न किया कि मेरे आर्थिक विपन्नता के दौर में ऐसा क्या था... जो मेरे पास सबसे ज्यादा था। इस प्रश्न ने मुझे भी आत्मविश्लेषण का मौका दिया। जहाँ उसके प्रश्न और बड़े और कटीले और दुःखदायी लगे पर उनका निकालना ही एक हल सूझा- मैंने एक लम्बा पत्र- मेरे असत्यापित सत्य- करके लिखा और सभी परिवारीजनों के बीच पहुँचाया। अपेक्षा थी कि और भी इससे ज्यादा क्रूर प्रश्न आने चाहिए, मुझसे जवाब माँगे ही जाने चाहिए पर निराश ही हाथ आयी। क्या कहें, या तो मेरे जवाब उन्हें झूठे लगे, अविश्वसनीय लगे या -कैसे कहूँ- कि वे सबके सब संवेदनहीन निकले। बहरहाल, मैं खुद से परेशान था और फिर कई प्रश्न मेरे अन्दर ही उगने लगे। उलझन वही कि इनसे राह कैसे मिले, मैंने ही उनको आगे बढ़कर अंगीकार किया और एक बड़ी कृति का ‘पुलिन्दा’ (मेरे असत्यापित सत्य) बन पायी। जो साहित्यिक भी हो, सामाजिक ग्राहता भी हो और पाठक के रूप में मेरे जैसी स्थितियों वाले लोग उसमें अपने को ‘लिखत’ में पाते हैं।
      मेरा मानना है कि लिखने के लिए न लिखा जाए। जो अन्तर्भुक्त चीजें हैं, हम उन्ही के साथ ईमानदार रह सकते हैं। अभिव्यक्ति के तरह-तरह के खतरे होने के बावजूद अनुभूतियाँ भी तो फुफकारती ही रहती हैं, जहाँ तक नये रचनाकारों का प्रश्न है, जब भी कोई कथ्य आता है किसी रचनाकार के सामने- वह कितना भी पुराना क्यों न हो, उस कथ्य को लेकर नया ही होता है, भाषा शिल्प तथ्य अपने आप हाथ गहा देता है। हमें कुछ बनने-बनाने की जरूरत नहीं पड़ती। जब वह रचना व्यापक पाठक वर्ग के सामने आती है तो नया से नया रचनाकार परिपक्व दिखता और कई पुराने रचनाकार पिलपिले से। मतलब रचनाकार नया हो या पुराना हो, अपनी रचनाधर्मिता से ईमानदारी, पारदर्शिता बनाये रखता है, यही हमें साहित्य में लगे रह पाने में मदद करता है।

चक्रधर शुक्ल :   जो आपके अनुभव का हिस्सा नहीं है, विशेषकर प्रेम, उसमें कुछ कहें।

श्यासुन्दर निगम :  इसमें मैं एक कविता ‘सिलसिला’ और वृद्धावस्था के प्रेम को लिखी गयी ‘कुबेरी बिरिया’ का जिक्र करना चाहता हूँ। कुछ हद तक ‘साथी लम्बी रात का’ भी प्रेम में बींधता है। पहले की दोनों रचनाएँ नितांत अनुभूतियों में जाकर थी, यूँ कहिये कि परकाया प्रवेश करके लिखी गई हैं। जिनको मैंने कई-कई बार पढ़ा और आज तक एक भी शब्द बदलने की स्थिति में नहीं हूँ। यह सच है कि मेरा प्रेम का पक्ष जिन स्थूल अर्थों में लिया जाता है, अधूरा रहा। प्रेम के बिना क्या जीवन की स्थिति कुछ बनती है, प्रेम तो ईशतत्व की झांई है।

चक्रधर शुक्ल :   साहित्यकार कोश का जो आपने संकल्प लिया है, इसे कितने सालों में पूरा होने की उम्मीद है। आपके मन में इसका विचार कैसे आया और आपकी दृष्टि में इसकी उपयोगिता क्या है?

श्यासुन्दर निगम :  आपका यह प्रश्न मुझे, मुझको घेरे में लेता-सा लग रहा है? फिर भी... ‘साहित्य और साहित्यकार’ के पूरा होने की बात बाद में। पहले ये कि यह मेरा संकल्प नहीं, साधना है। कभी-कभी मैं महसूस करता हूँ कि मैं रचनात्मक लेखन में स्वयं को दोहराने लगा हूँ, संवेदनाएँ कुछ भौंथरी हैं। तो साहित्यिक सृजन बाधित हो रहा है या मेरे अनुसार ईमानदारी भरा नहीं रह रहा। और कुछ गढ़ लेने की ‘कला’ मुझमें है नहीं। तो साहित्यिक अनुष्ठान में सार्थक रूप से लगे रहने का यह एक माध्यम मन से चुना। यही प्रकारान्तर से मेरी साधना बन गया, मेरे निजी साहित्यिक हित साधन भी कह सकते हैं पर नितान्त अव्यवसायिक, आजकल मैं अधिकांश समय इसी में व्यस्त रहता हूँ। इसकी उपयोगिता थोड़े शब्दों में कहूँ तो यह है कि छोटे-बड़े हिन्दी के हजारों-हजार रचनाकारों की लेखकीय जन्मकुण्डली सी बनकर तैयार होगी। सभी आवश्यक विवरण/आंकड़े एक जगह पर ही किसी भी जिज्ञासु पाठक, शोधकर्ता को उपलब्ध हो सकेंगे। छोटे-बड़े सभी रचनाकार वर्णक्रम में अंकित होंगे। तथाकथित कुछ बड़ों को भले ही इसमें शामिल होना अटपटा लगे पर अपेक्षाकृत छोटे या कम महत्व के माने-जाने वाले सुधी रचनाकार अवश्य खुश होंगे। शायद गौरान्वित भी। विशेषतः वह लोग, जो चंदा लेकर (धंधा की तरह) संकलित किये जाने वाले कोशों में और या व्यापारिक प्रकाशकों द्वारा शुद्ध व्यापार की दृष्टि से तैयार किये जाने वाले कोशों में सम्मिलित नहीं हो पाते। उनके मन की खुशी भले ही ‘कुछ उपमेय: कुछ उपमान’ में सम्मिलित किये गये वरिष्ठ साहित्यकारों की आँखों में उगी अद्भुत चमक जैसी न हो पर जब यह संकलन प्रकाशित होकर आ जायेगा तो, मुझे विश्वास है कि कोश में लगी पूरी टीम को बड़ों का आशीर्वाद और छोटों से सम्मान अवश्य मिलेगा। इससे ज्यादा और क्या चाहिए, इस काम में लगे ‘अदने’ से लोगों को?
      जहाँ तक इसके पूरा होने का आपका प्रश्न है तो, मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इस अनुष्ठान में जो टीम लगी है (श्रीमती पूर्णिमा निगम, डॉ. संदीप त्रिपाठी, पंकज दीक्षित और चक्रधर शुक्ल) उसका उत्साह, तत्परता, वेकली इंगित करती है कि जैसा मैंने सोचा है, तीन वर्ष में यानि कि 2018-19 में आ ही जायेगा। शर्त यह है कि हम सब ठीक रहें। कार्य के प्रति अपनी क्षमताभर ईमानदार बने रहें, जो रहेगी...।

  • श्यामसुन्दर निगम, 1415, ’पूर्णिमा’. रतनलाल नगर, कानपुर-208022, उ.प्र./मोबा. 09415517469
  • चक्रधर शुक्ल, एस.आई.जीत्र-01, सिंगल स्टोरी, बर्रा-06, कानपुर-208027, उ.प्र./मोबा. 09455511337

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