अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 6, अंक : 11-12, जुलाई-अगस्त 2017
महावीर रंवाल्टा
दिल्ली
सारी की सारी दिल्ली
लगा रही होती है दौड़
और वह
उस दौड़ में अकेला होता है।
गाँव के लोग
गाँव के संस्कार
समाए होते हैं उसके भीतर
और वह
दिल्ली में होता है।
दिल्ली उसकी नहीं सुनती
देखती भर है उसे
टटोलती है जैसे जेब
और वह
उदासी में घिरा होता है।
पहली बार
भागम-भाग में होती है
उसके लिए दिल्ली
और दिल्ली के लोग
और वह
उन्हें समझने की कोशिश में
रेखाचित्र : कमलेश चौरसिया |
बगलें झाँकता है
पर दिल्ली मुँह मोड़ती है।
भले ही उसकी
अनदेखी करती हो दिल्ली
लेकिन घर लौटने पर भी
उसके साथ होती है दिल्ली
दिल्ली की सड़कें
दिल्ली के लोग
यानि पूरी की पूरी दिल्ली।
मेरी कविता
तमाम अर्थों में
मेरी कविता
दिनभर पसीना बहाते
खेतिहर मजदूरों की
कमजोर कविता है
जिसमें सुगन्धित ‘परफ्यूम’ की जगह
पसीने की दुर्गन्ध है
जो
आधुनिक सभ्य कहलाने वाले
इंसान के लिए
असह्य भी है और इम्तेहान लेवा भी।
मेरी कविता
अस्पताल की खुली दिनचर्या में
मरीजों को लगाये जाने वाले
तमाम इन्जेक्शनों का असर है
मरीजों की कतार की आपाधापी के बीच
मेरे प्रति
कडुवाहट उगलते शब्द है।
मेरी कविता
मरीजों को बाँटी जाने वाली
छायाचित्र : शशिभूषण बडोनी |
जिनसे
किसी को आराम मिलता है
किसी को तसल्ली
और किसी को सिवा भ्रम के
कुछ नहीं मिलता।
- संभावना, महरगाँव, पत्रा. मोल्टाड़ी, पुरोला, जनपद उत्तरकाशी-249185,उ.खंड/मो. 09411834007
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें