अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 6, अंक : 11-12, जुलाई-अगस्त 2017
उषा अग्रवाल ‘पारस’
कंधे का सहारा
खबर मिली, पड़ोस की दादीजी का देहावसान हो गया। लगभग आठ दशक लाँघ चुकी दादीजी बेटे-बहू, पोते-पोती सब सुख देख चुकी थीं।
जल्दी-जल्दी काम निपटा मैं भी अंतिम विदाई में शामिल होने जा पहुँची। सारा परिवार, रिश्तेदार, अपने-अपने तरीके से व्यस्त दिखाई पड़ रहे थे। सांत्वना के दो बोल किससे बोलूँ, मैं नजर दौड़ा रही थी। तभी दीवार के सहारे चुपचाप उदास खड़ी कमलाबाई दिखाई दी। कहने को तो अनेकों बहुयें, पोताबहुयें थीं, लेकिन जबसे दादीजी ने बिस्तर पकड़ा, कमलाबाई ही उनका सब काम किया करती थी। मैंने उसके करीब जाकर जैसे ही कहा- ‘‘चलीं गईं दादीजी’’, कमला मेरे कंधे पर सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगी। उसका रुदन सुनकर कई लोग हमारी ओर आकर एकत्र हो गये। उन सबकी आँखों में भी आँसू आने लगे।
मैं कमला को चुप कराने लगी। कमला के आँसू पल भर को रुकते और वह सामान्य होने के प्रयास में धीरे-धीरे मेरे कंधे से सिर हटाकर आँसू पोंछती। तभी उसका सिर पुनः मेरे कंधे पर चला जाता और फिर से उसकी रुलाई फूट पड़ती।
मैं सोच रही थी, रोने के लिए कंधे का सहारा कितना जरूरी हो जाता है।
- 201, सांई रिजेन्सी, रविनगर चौक, अमरावती रोड, नागपुर-440033, महा./मो. 09028978535
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