अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 6, अंक : 11-12, जुलाई-अगस्त 2017
नारायण सिंह निर्दाेष
ग़ज़लें
01.
ज़िन्दगी ने जितना सँवारा काफ़ी है।
हम कर सके जितना गवारा काफ़ी है।
होता नहीं है जब कोई भी रूबरू
लफ़्ज़ों का एक पल सहारा काफ़ी है।
जब खुद किनारे टूट जाते हैं नदी में
तब नाव का टूटा किनारा काफ़ी है।
ज़िन्दगी! फिर लौट आने के लिये
जिस जगह पर तूने मारा काफ़ी है।
किधर चलें, के मंज़िलें पा सकें
हवा का कुछ कुछ इशारा काफ़ी है।
टूट कर मंज़र सभी बिखरे पड़े हैं
जो आँख ने देखा नज़ारा काफ़ी है।
इस बहाने कुछ गुबार निकला है
सर पे मेरे उड़ता गुब्बारा काफ़ी है।
02.
सब कुछ तुम पर छोड़ देते हैं।
अपनी... आँखें निचोड़ देते हैं।
रेत के, अपने सब घरौंदे हम
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी |
बना लो महल... तोड़ देते हैं।
सुना है... उदास चेहरे छीन के
आप... चेहरे हँसोड़ देते हैं।
मँहगी ...पतलूनें ...पहनते हैं
हमें, ...कब करने होड़ देते हैं।
दईया ...बहुत दर्द होवे जब
आप ...बईयाँ मरोड़ देते हैं।
- सी-21, लैह (LEIAH) अपार्टमेन्ट्स, वसुन्धरा एन्क्लेव, दिल्ली-110096/मो. 09810131230
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