आपका परिचय

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

सरोकार



रचना रस्तोगी  
प्राइवेट डेंटल एवं सरकारी डेंटल कोलिजों में
 इलाज के नाम पर  जिन्दा मनुष्यों पर 
अत्याचार क्यों? 

       यह शीर्षक पढ़कर आप निश्चित रूप से चौंक गये होंगे कि एक ओर 
जहाँ सरकार एवं कई जानी मानी हस्तियां पशुओं पक्षियों  के जीवन 
जीने के अधिकार के प्रति ना केवल जागरूक हैं बल्कि उनके अधिकार
की रक्षा के लिये संघर्षरत भी हैं और उसी का परिणाम है कि अब पशुओं
 का जीव विज्ञान प्रयोगशालाओं में विच्छेदन पर प्रतिबन्ध लग गया है,
और ऐसा नही प्रतिबन्ध पहले भी था लेकिन सजा का प्रावधान अभी हुआ 
है इसलिये इस कानून की तरह मान्यता मिल गयी है / इसी प्रकार भारत 
सरकार एवं राज्य सरकारों ने भी जिन्दा मनुष्यों के बीमारी की अवस्था में
 इलाज के लिये एक नियम  बनाया है ,कि इलाज करने के लिये डाक्टर वही
 मान्य होगा जो कि चाहे आयुर्वेदिक कायुन्सिल, होमियोपेथिक कायुन्सिल
 या मेडिकल कायुन्सिल या डेंटल कायुन्सिल में रजिस्टर्ड हो यहाँ तक कि
 यूनानी कायुन्सिल भी भारत में स्थापित है /अगर कोई व्यक्ति जो सम्बंधित 
कायुन्सिलों में रजिस्टर्ड नही है और चिकित्सा करता पकड़ा जाता है तो
 यह अपराध दंडनीय है/ लेकिन आपको यह पता चले कि अगर सरकारी 
सरंक्षण में ही झोला छाप प्रेक्टिस चल रही हो तो आप क्या कहेंगे ?
        सारे मेडिकल कोलिजों में चाहे वे सरकारी होँ या प्राईवेट ही क्यों ना होँ, 
उनमे मरीज का इलाज करने की आज्ञा केवल दो ही लोगों के पास है एक होते 
हैं टीचर जो छात्रों को चिकित्सा शिक्षा का ज्ञान देते हैं और दूसरे होते हैं 
सीनियर रेजिडेंट्स डाक्टर जो सम्बंधित पीजी कोर्स पास कर चुके हैं और 
सम्बंधित विषय में  मेडिकल कायुन्सिल में रजिस्टर्ड हो चुके हैं इनके अलावा 
मेडिकल कोलिजों में जूनियर रेजिडेंट्स होते हैं जो अभी पीजी कोर्स में 
शिक्षणरत हैं लेकिन मरीज का इलाज करने के लिये अनुमन्य नही हैं और 
दूसरे होते हैं एमबीबीएस  छात्र जिनका अभी इलाज से कोई मतलब नही है 
जब तक कि वे इंटर्नशिप पूरी करके कायुन्सिल में रजिस्टर्ड नही हो जाते/
यहाँ तक आपको बात समझ में आ गयी है और हर मेडिकल कोलिज में दो 
काम होते हैं एक शिक्षण और एक चिकित्सा जैसे मेरठ का मेडिकल कोलिज
 और दूसरा उसमे स्थित एक अस्तपताल यानी पढ़ाई और चिकित्सा अलग
 अलग संस्थाओं से /
         अब देखिये डेंटल  कोलिजों का हाल यहाँ तीसरे वर्ष से ही विद्यार्थी सीधे
 सीधे मरीज पर अपना हाथ साफ करता है और इंटर्नशिप तक यह कार्य 
बदस्तूर जारी रहता है और यदि पीजी भी करता है तो भी यही सब/और 
और तो और यूनिवर्सिटी की वार्षिक परीक्षाओं में भी जिन्दे मनुष्य पर
 इलाज करके दिखाया जाता है अगर इलाज ठीक हुआ तो विद्यार्थी पास 
वरना अगर इलाज गड़बड़ तो विद्यार्थी फेल / मैंने यही प्रश्न उठाया है कि
 इलाज सही या गड़बड़ किसका हुआ ?  क्या मरीज वहाँ अपना इलाज करने
 गया था या विद्यार्थी को इलाज सिखाने /
       डेंटल कायुन्सिल में भी नियम यही है कि इलाज केवल रजिस्टर्ड
 चिकित्सक ही करेगा तो फिर झोला छापों को क्यों पकड़ते हो ? टीचरों 
को तनख्वाह मिलती है पढ़ाने और  इलाज करने की लेकिन इलाज करता
है विद्यार्थी ही / सरकारी और प्राईवेट मेडिकल कोलिज में डेंटल विभाग है 
और वहाँ भी इलाज सरकारी चिकित्सक ही करते हैं जबकि शायद दो टीचर 
हैं  और उनके ही नाम पर ओ पी डी भी है क्योंकि यहाँ सिस्टम ठीक है और 
इलाज टीचर ही कर रहे हैं. लेकिन सरकारी डेंटल कोलिजों और प्राईवेट
 डेंटल कोलिजों में मरीज पर हाथ साफ़ विद्यार्थी कर रहे हैं और भी खुले 
आम/  डेंटल कायुन्सिल और केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की आपसी सूझबूझ 
और प्राईवेट  डेंटल कोलिजों के मेनेजमेंट के साथ उनके एक बहुत मधुर 
गठबंधन का खामियाजा उठाता है गरीब मरीज/उदहारण के तौर पर एक  
यूनिवर्सिटी के अंतर्गत कई प्राइवेट डेंटल कोलिज हैं और बिना यूनिवर्सिटी 
की अनुमति के डेंटल कायुन्सिल मान्यता हेतु संस्तुति प्रदान नही करती 
और कायुन्सिल की संस्तुति के बिना केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय मान्यता 
प्रदान नही करता लेकिन सबसे पहले राज्य सरकार प्राईवेट डेंटल कोलिज 
प्रबंधन ट्रस्ट से एक अनुबंध कराती है कि प्राईवेट डेंटल  कोलिज में सभी 
मरीजों का उपचार मुफ्त या बहुत ही कम मूल्य पर (इसकी मुझे जानकारी 
नही है)में होगा ना केवल डेंटल रोगों का ही बल्कि मेडिकल के रोगियों का भी/
 इसी कारण पर राज्य सरकार उस ट्रस्ट को डेंटल कोलिज खोलने की 
अनापत्ति सर्टिफिकेट प्रदान करती है/ डेंटल शिक्षा की पढ़ाई डेंटल कायुन्सिल
 के निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार चलाने की जिम्मेदारी एवं परीक्षा कराने 
की जिम्मेदारी सम्बंधित यूनिवर्सिटी की होती है लेकिन आपको दुःख होगा 
कि यूनिवर्सिटी इस काम में इतनी उदासीन रहती हैं कि जैसे पढ़ाई से उनका 
कोई लेना देना नही कहने को यूनिवर्सिटी हर वर्ष एक इंस्पेक्शन कराती है  
जिसमे वह अपने निरीक्षकों को भेजती है और निरीक्षण  कैसे होता है बताने 
की जरुरत ही नही है अगर ईमानदारी से होता तो शायद एक भी डेंटल कोलिज
 अनुमन्य नही होता/डेंटल कायुन्सिल भी हर वर्ष निरीक्षण कराती है और
 निरीक्षण भी लगभग वैसा ही होता है जैसे यूनिवर्सिटी का /हर प्राईवेट डेंटल  
कोलिज में एक सौ बिस्तरों वाला अत्याधुनिक उपकरणों से सुसज्जित एक 
अत्य आधुनिक अस्तपताल वो भी कार्यशील अवस्था में होना अनिवार्य है 
और उसने मरीजों की हर समय सत्तर प्रतिशत उपस्थति अनिवार्य भी होती है/
 लेकिन कितनी होती है ?और डेंटल कायुन्सिल के ही इन्स्पेक्टर इस 
मेडिकल अस्तपताल का इंस्पेक्शन करने आते हैं यानी डेंटल डाक्टरों को 
मेडिकल औजारों उपकरणों की अत्य आधुनिक जानकारी अवश्य होनी चाहिये
 तभी तो वे उनकी कार्यशीलता को परख सकेंगे ? लेकिन डेंटल कायुन्सिल कोई
 भी मेडिकल डाक्टर इन सौ बिस्तरों वाले अस्तपताल का निरीक्षण कराने नही 
भेजती और नाही डेंटल निरीक्षकों को इस बाबत कोई ट्रेनिंग ही देती  है/ अब 
सोचिये मरीज का इलाज कैसे होता होगा ? 
-------------------------------------------------------------------------------------
सोचने को मजबूर 
विषय -
(१) भारत सरकार,राज्य सरकारों,डेंटल कायुन्सिल आफ इण्डिया,युजीसी
 एवं सम्बंधित यूनिवर्सिटीज से अनुमति एवं मान्यता प्राप्त डेंटल कोलिजों 
में मरीज का शिक्षणरत  एवं  अनरजिस्टर्ड (जिनको अभी मरीज का उपचार 
करने की अनुमति नही है ) विद्यार्थियों द्वारा इलाज  
(२) यूनिवर्सिटी की बीडीएस एवं एमडीएस  की अंतिम वर्ष की वार्षिक 
मौखिक एवं प्रेक्टिकल परीक्षाओं में विद्यार्थियों का सीधे सीधे मरीज पर 
उपचार करके एक्सटर्नल परीक्षक को दिखाना 
(३)शिक्षण एवं उपचार का यह तरीका निश्चित रूप से मनुष्य के मौलिक
 जिन्दा रहने एवं स्वस्थ बने रहने में बाधक बनने के कारण उसका 
मानवाधिकार  का उलग्घं एवं उसकी जिंदगी से खिलवाड़ करने का अपराध
 ही क्यों ना माना जाय 
अभी हाल में ही एक फ़िल्मी कलाकार ने मेडिकल व्यवसाय पर आपत्ति
 दर्ज कराई थी और संसदीय कमेटी ने उनको दिल्ली बुलाया भी था लेकिन 
जरा इस ओर भी ध्यान दें, उपरोक्त  सन्दर्भ में यह बताना आवश्यक है कि 
भारत में इस समय लगभग तीन सौ पचास सम्बंधित कार्यालयों से मान्यता
 प्राप्त डेंटल कोलिज जिनमे अधिकाँश प्राईवेट मेनेजमेंट द्वारा संचालित हैं और
 काफी कम राज्य सरकारों द्वारा संचालित हैं और जिनसे भारत में लगभग तीस 
पैंतीस से लेकर चालीस  हजार डेंटल चिकित्सक (ग्रेजुएट एवं पोस्ट ग्रेजुएट 
दोनों मिलाकर) प्रति वर्ष तैयार होते हैं / इनकी संख्या कम ज्यादा भी हो सकती
 है लेकिन मेरे अनुमान में इतनी ही संख्या संभावित है / और कुछ डेंटल कोलिज 
अभी बीडीएस  और एमडीएस  पाठ्यक्रम संचालित करने की आज्ञा एवं मान्यता
 प्राप्त करने के अंतिम दौर में हैं जिससे भारत में डेंटल कोलिजों की संख्या एवं
 डेंटल चिकित्सकों की संख्या में निश्चित रूप से बढ़ोतरी ही  होगी / लेकिन यह 
सब किसके मूल्य पर हो रहा है उस पर भी ध्यान देने की बहुत ज्यादा जरुरत है 
क्योंकि भारतीय नागरिक इन डेंटल कोलिजों में एक  विशेषज्ञ से इलाज के लिये
 जाता है नाकि अपने ऊपर इलाज का परीक्षण के लिये जाता है / एक छात्र 
बीडीएस कोर्स की चार वर्ष की  सम्बंधित यूनिवर्सिटी  द्वारा संचालित मौखिक एवं लिखित परीक्षाओं को उत्तीर्ण करके और एक वर्ष की अनिवार्य इंटर्नशिप को पूरा 
करके ही यूनिवर्सिटी से डिग्री प्राप्त करने का अधिकारी  बनता है और इस डिग्री के 
आधार पर ही उसका अपने प्रदेश में स्थित डेंटल कायुन्सिल के कार्यालय में 
पंजीकरण होता है और उसको एक रजिस्ट्रेशन नंबर भी मिलता है, इतना सब 
होकर ही वह छात्र अब डेंटल सर्जन कहा जाता है और भारतीय  नागरिकों के 
डेंटल इलाज करने के योग्य माना जाता है, इस पंजीकरण से पहले उसको किसी 
भी सूरत में मरीज के इलाज करने की अनुमति नही होती है और अगर 
पंजीकरण से पहले अगर वह डेंटिस्ट मरीज का इलाज करता पकड़ा जाता है 
तो वह दंड का भागी माना जायेगा / इसी क्रम में अगर वह डेंटल ग्रेजुएट आगे 
पढ़ना चाहता है तो भी उसको एक प्रारम्भिक परीक्षा उत्तीर्ण करके तीन वर्षीय 
एमडीएस कोर्स में प्रवेश मिलता है जिसमे उसका एक डेंटिस्ट के रूप में 
पंजीकरण होना अनिवार्य है और जब वह तीन वर्षीय एमडीएस परीक्षा उत्तीर्ण
 कर लेता है तो भी उसका विशेषज्ञ के रूप में डेंटल कायुन्सिल में पंजीकरण 
कराना अनिवार्य होता है, यानी जिस विषय में वह एमडीएस डिग्री प्राप्त करता
 है उस विषय से सम्बंधित इलाज भी कायुन्सिल में विशेषज्ञ के रूप में 
पंजीकरण के बाद ही कर सकता है /यानी कायुन्सिल में विशेषज्ञ के रूप में 
पंजीकरण से पहले उसका एक  विशेषज्ञ के रूप में मरीज का इलाज करना 
उसको दंड का भागी बनाता है /मेरी जानकारी में शायद यही नियम है /
      ऐसा नही है कि ये नियम केवल डेंटल कायुन्सिल में ही मान्य है / 
मेडिकल कायुन्सिल भी एक एमबीबीएस छात्र को साढ़े चार वर्ष के 
पाठ्यक्रम एवं एक वर्षीय अनिवार्य इंटर्नशिप के बाद ही मेडिकल 
कायुन्सिल में रजिस्ट्रेशन के लिये पात्र मानती है यानी केवल एमबीबीएस 
की डिग्री ही पर्याप्त नही बल्कि मेडिकल कायुन्सिल में मेडिकल प्रेक्टिशनर
 के रूप में पंजीकरण भी अनिवार्य है और आगे यदि छात्र एमडी एमएस 
कोर्स की पढ़ाई करना चाहता है तो भो कायुन्सिल में एमबीबीएस का
 पंजीकरण अनिवार्य है और वहाँ भी तीन वर्ष के अध्यन के बाद पोस्ट 
ग्रेजुएट डिग्री लेने के बाद भी विशेषज्ञ के रूप में कायुन्सिल में रजिस्ट्रेशन
 अनिवार्य है/ कहने का तात्पर्य यह है कि बिना रजिस्ट्रेशन के कोई भी
 चिकित्सक मरीज का उपचार नही कर सकता /और पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद
 भी एमएस या एमडी  डिग्रीधारी सुपेर्स्पेशियेलिती का कोर्स जैसे डीएम 
या एमसीएच आदि भी करना चाहता है तो भी प्रक्रिया यही अपनाई जाती है/ 
पूरे एमबीबीएस कोर्स की पढ़ाई के दौरान छात्र केवल अपने अध्यापकों और 
सीनियर रेजिडेंट्स के द्वारा की गयी चिकित्सा पद्धति को बारीकी से देखता 
समझता है और वार्षिक परीक्षा में बैठता है लेकिन कहीं भी किसी भी स्तर 
पर वह छात्र किसी भी मरीज के उपचार को करने का अधिकारी नही है और 
करता भी नही है / यही क्रम पोस्ट ग्रेजुएशन पाठ्यक्रम में भी है ऐसा नही है
 कि अगर कोई छात्र नेत्र चिकित्सा में एमएस कर रहा है तो वह अपने 
अध्यापकों को किसी मरीज की आंख का आपेरशन करके दिखायेगा और 
पूछेगा कि ठीक हुआ कि नही ? या यूनिवर्सिटी की अंतिम वर्ष की परीक्षा में 
एक्सटर्नल को किसी मरीज की आंख का आपरेशन करके दिखायेगा और 
एक्सटर्नल छात्र द्वारा किये इलाज देखकर उसको फेल पास करेगा ? और 
यदि जनरल सर्जरी में एमएस कर रहा है तो अपने तीन साल तक अपने 
अध्यापकों या परीक्षा में एक्सटर्नल  को किसी मरीज के गाल ब्लेडर या 
अपेंडिक्स का आपेरशन करके दिखायेगा? अगर कार्डियोलोजी में डीएम 
कर रहा है तो मरीज में पेसमेकर लगाकर दिखायेगा या अगर न्यूरो सर्जरी 
में एमसीएच कर रहा है परीक्षा में दिमाग का आपेरशन करके दिखायेगा ? 
क्योंकि मेडिकल कायुन्सिल उसको ऐसा करने की अनुमति प्रदान नही 
करती / पूरी पढ़ाई के दौरान वह अपने अध्यापकों या सीनियर रेजिडेंट्स को
 ही काम करते देखता है उन्ही से सीखता है, उन्ही से पढ़ता है क्योंकि अभी 
वह छात्र मेडिकल कायुन्सिल में उस विषय के विशेषज्ञ के रूप में पंजीकृत 
नही है /  लेकिन जब एक भारतीय नागरिक मरीज बनकर किसी डेंटल 
कोलिज में जाता है तो उसका उपचार जानते है कौन करता है ? एक तीसरे
 वर्ष का बीडीएस का छात्र जिसने अभी तृतीय वर्ष के अकादमिक कोर्स  में 
सम्मिलित जनरल मेडिसिन और जनरल सर्जरी तक भी पढ़ाई नही की है 
वह भी मरीज का डेंटल उपचार ही नही करता बल्कि उसको दवा तक भी 
लिखकर देता है, जिसका ना उसको ज्ञान है और नाही उसने पढ़ा ही है ? 
बीडीएस  चतुर्थ वर्ष का छात्र और इन्टर्न सभी उस मरीज का उपचार करते
 है जबकि इन्टर्न भी अभी केवल छात्र अवस्था में ही है और डेंटल कायुन्सिल
 में डेंटिस्ट एक्ट के तहत रजिस्टर्ड भी नही है, प्रश्न यही है कि क्या वह छात्र
 मरीज के उपचार करने या मरीज को दवा लिखकर  देने का अधिकारी बनता
 है ?  यही क्रम एमडीएस पाठ्यक्रम में भी अपनाया जाता है / डेंटल इलाज में
 मरीज का दांत निकाला जाता है, दांत में चाँदी भारी जाती है, दांतों की सफाई
भी होती है, मसूड़ों का आपेरशन भी होता है, कृतिम दांत भी बनाये जाते हैं, 
रूट केनाल इलाज  भी होता है और भी कई इलाज है जैसे टेढ़े मेढ़े  दांतों को  
सीधा करने का तार लगाकर सीधा  करना इत्यादि. जिनको छात्र अवस्था के 
दौरान छात्र चाहे बीडीएस के होँ या एमडीएस के ही क्यों ना होँ ,  खुले आम 
करते हैं और अपने अध्यापकों को करके दिखाते है और पूछते हैं कि ठीक 
हुआ कि नही ? अगर ठीक हुआ तो बात अलग हुई और अगर इलाज गलत हो
 गया तो कौन मरा ?  दांत गलत निकल गया या चांदी गलत भारी गयी या
मसूड़े का आपेरशन  गलत हो गया तो सत्यानाश किसका हुआ ?  और 
सबसे बड़ी बात वहाँ मरीज अपने इलाज के लिये आया है या अपने ऊपर 
किसी को इलाज सिखाने के लिये आया है ?  क्या यह मरीज के  जिन्दा
 बने रहने के  मौलिक  अधिकार का अतिक्रमण नही है ? क्या यह  
मरीज  की जिंदगी से खिलवाड़ नही है ?  नियम अनुसार मरीज का 
इलाज  हर कीमत पर एक रजिस्टर्ड डाक्टर ही कर सकता है, कोई भी कानून
 जिन्दा मरीज पर परीक्षण करने की आज्ञा नही देता है / 
       यूनिवर्सिटी द्वारा संचालित बीडीएस  एमडीएस  अंतिम वर्षीय मौखिक
 एवं प्रेक्टिकल परीक्षा में विद्यार्थी सीधे सीधे मरीज का उपचार करके
एक्सटर्नल को दिखाता है, अगर इलाज  का तरीका एक्सटर्नल को उचित
 लगा तो छात्र उत्तीर्ण अगर इलाज ठीक नही हुआ तो छात्र फेल, अगर छात्र 
फेल हो गया तो भी उसके पास पुनः परीक्षा में बैठने का अवसर तो है, छः 
महीने बाद परीक्षा में सम्मिलित होकर उत्तीर्ण हो सकता है लेकिन जिस 
मरीज का इलाज गड़बड़ हुआ है उसका दर्द उसकी पीढ़ा कौन देखे? अगर 
दांत गलत निकल गया या चांदी गलत भरी गयी या मसूड़े का आपेरशन 
गलत हो  गया तो यह तो मरीज का हुआ? यानी किसी भी सूरत में मरीज 
के ऊपर परीक्षण कैसे जायज ठहराया जा सकता है ?
अब आगे देखिये और क्या क्या होता है, मरीज के साथ? सभी जानते हैं
 कि एक्स रे  विकिरण स्वास्थय  के लिये हानिकारक होते हैं, अगर किसी
मरीज को ज्यादा एक्स रे विकिरण दे दिए  जाते हैं तो मरीज का स्वास्थ्य
 खराब हो सकता है ? चूंकि डेंटल कोलिजों को डेंटल एक्स रे से पैसे मिलते 
हैं इसलिये भी कभी लालचवश या कभी उपचार के सन्दर्भ में भी मरीजों के 
डेंटल एक्स रे किये जाते हैं? ना तो छात्र को ही पता कि कितना रेडियेशन 
वह खुद खा रहा है और ना ही मरीज को पता कि क्यों उसका एक्स रे खीचा 
जा रहा है और कितना रेडियेशन मरीज खा रहा है ? अभी हाल में समाचार 
पत्रों में छपा था कि अमेरिका के डाक्टरों ने पाया है कि अगर डेंटल एक्स रे 
ज्यादा किये जाते हैं तो उसे मरीज को  ब्रेन ट्यूमर की सम्भावना दुगनी हो 
जाती है और अमेरिका के डाक्टरों ने यह भी पाया कि जिन मरीजों को ब्रेन 
ट्यूमर देखे थे उनमे से अधिक ने वर्ष में दो बार अपने डेंटल एक्स रे करवाए 
थे ? लेकिन डेंटल कोलिजों में इस सन्दर्भ में कोई जागरूकता  ही नही है, 
बीडीएस के तीसरे वर्ष, चतुर्थ वर्ष का छात्र और इन्टर्न सभी दमादम एक्स
 रे खीचते मिलेंगे नातो उनके पास कोई रक्षा कवच स्वयं का होता है और 
नाही मरीज के लिये ही ? अब कोई मरीज डेंटल कोलिजों में इलाज के लिये 
आया है या अन्य कोई बीमारी लेने  के लिये? इसका उत्तर शायद किसी भी 
डेंटल कोलिज के पास नही है और चूंकि पढ़ाई के दौरान छात्रों का शिक्षण ही 
जब  स्तरहीन हो तब येही छात्र अपनी प्रेक्टिस में भी इन्ही सिद्धांतों को 
अपनाते हैं / हर डेंटल क्लिनिक पर डेंटल एक्स रे खीचे जाते हैं  जिसका 
रेडियेशन ना केवल मरीज ,बल्कि मरीज के तीमारदार और स्वयं डेंटिस्ट 
खुद भी खाते हैं लेकिन किया क्या जा सकता है क्योंकि पढ़ाई ही नही कराई 
गयी है और डेंटल कोलिज में मरीज पर हाथ साफ़ ज्यादा इलाज पर कम 
ध्यान रहता है क्योंकि छात्रों को एक निश्चित कोटा भरना होता है, जैसे छात्र को 
पूरे दो वर्ष की पढ़ाई यानी तीसरे और चौथे वर्ष में सौ दांत निकालने हैं, दस 
मरीजों के जबड़े बनाने हैं, या अमुक संख्या में सफाई करनी है या अमुक संख्या
 के मरीजों के दांतों में तार लगान हैं या इतने रूट केनाल  करने हैं आदि आदि/
      डेंटल कायुन्सिल ने लगभग लगभग प्रत्येक  प्रायवेट डेंटल कोलिजों को प्रति 
वर्ष सौ प्रवेश बीडीएस पाठ्यक्रम हेतु  मान्यता दी  हुई है और हर मान्यता प्राप्त 
कोलिज को पोस्ट ग्रेजुएशन  हेतु हर विषय में तीन या चार या पांच सीटें एमडीएस
 में प्रवेश की मान्यता प्रदान की हुई है जिसके अनुपालन में अगर टीचरों की 
संख्या देखें तो सौ छात्र बीडीएस और चार छात्र एमडीएस के ऊपर केवल छः 
या सात टीचरों का स्टाफ ही मान्य किया हुआ है,  इसी से खुद ही डेंटल 
कायुन्सिल की नीयत स्पष्ट हो जाती है कि इलाज टीचरों ने नही बल्कि छात्रों
ने ही करना है / डेंटल कायुन्सिल के नियम कुछ ऐसे हैं जिनसे ऐसा प्रतीत 
होता है कि डेंटल कोलिज में पढ़ाई छात्रों को नही बल्कि टीचरों को ज्यादा 
करनी है/टीचरों के लिये वर्ष में दो बार की विषयात्मक  कोंफिरेंस में 
सम्मिलित होना , जरनलों में पेपर पब्लिश करना और इस कामों के लिये
 टीचरों को कुछ अंक दिए जाते हैं जिनसे उनकी कोलिज में नौकरी बनाये 
रखने के लिये प्राईवेट कोलिजों का दबाब बना रहे, कोई भी नियम ऐसा नही 
है जिसमे यह कहा गया हो कि एक टीचर को इतने घंटे पढ़ाना है जरुरी है, 
या इतने घंटे मरीज देखना जरुरी है या इतने मरीज को इलाज करना जरुरी है? 
टीचरों के लिये यह जरुरी है कि सप्ताह में चार दिन जरुर आना है और कुछ का
 तो पता ही नही कि कब आते हैं और कब नही ? इसके पीछे तर्क यह कि टीचर
 मिलते ही नही है और इस कारण प्राईवेट डेंटल कोलिजों में टीचरों की 
रिटायरमेंट आयु  सत्तर वर्ष कर दी गयी है , अब यह क्या किसी के गले उतर 
सकता है कि भारत में जहाँ बेरोजगारी का ग्राफ दिन रात बढ़ रहा हो वहाँ टीचर
 ना मिलें, लेकिन रखना ही उनको है जिनको कायुन्सिल का आशीरवाद प्राप्त हो  
तो क्या किया जा सकता है ? चूंकि डेंटल कोलिज में टीचरों को केवल पेपर
 पब्लिश करना और कोंफिरें अटेंड करना या कायुन्सिल का इंस्पेक्शन 
 करना या एक्सटर्नल के रूप में अन्य डेंटल कोलिजों में जाकर पैसे कमाना 
ही मुख्य काम रह गया है इस कारण मरीज देखने का काम  तो केवल छात्र 
ही करेंगे ? सरकार ने डेंटल कोलिज आखिर टीचरों के वेतन के लिये खोले थे
या मरीजो के उपचार के लिये या इलाज की गुणवता बनाये रखने के लिये? 
अगर टीचर कम है तो बीडीएस  की सीटें कम करो और एमडीएस की भी 
कम करो लेकिन मरीज का उपचार एक नौसिखिया वो भी एक छात्र और 
वो भी बिना पंजीकृत  किये हुए  कोई कैसे कर सकता है और कैसे अनुमति 
दी जा सकती है? कोई टीचर कम नही है केवल कहने भर का है थोड़े से नियम
 सरल करो तो  बहुत मिलेंगे ?
         चूंकि डेंटल कोलिजों में इलाज छात्र ही करते है इसलिये टीचर ज्यादातर 
कार्यलयों में ही बैठकर समय व्यतीत करते हैं, एक बात गौर करने की है कि 
डेंटल चिकित्सक को सदैव हाथों से ही काम करना होता है क्योंकि वह कोई 
फिजिशियन नही है कि केवल दवाई लिखकर ही इतिश्री कर लेगा,  दांत 
निकालना, चाँदी भरना, दांतों की सफाई करना ,रूट केनाल  करना, ये सब 
काम हाथों से ही करना होता है / ठीक है उपकरण जरुर प्रयोग होते हैं लेकिन 
उपकरण भी तो हाथ से ही पकड़ेंगे? डेंटल उपकरण बहुत सेनिस्टिव होते हैं 
और कमप्रेस्ड हवा के पेशर से बहुत तेजी की स्पीड से चलते हैं जिनसे कभी 
कभी होशियार डेंटल डाक्टरों  द्वारा भी मरीज के मूह में चोट पहुँच जाती है 
लेकिन उसके बाबजूद सब कुछ जानते हुए भी सेंसिटिव  उपकरणों को तीसरे 
चौथे वर्ष के बीडीएस छात्रों को मरीज पर चलाने की अनुमति देना क्या तर्क 
संगत प्रतीत होता दिखता है/ सत्तर वर्ष में व्यक्ति शायद भारत में बूढ़ा ही कहा 
जाता है, और सत्तर वर्ष के व्यक्ति का शरीर शिथिल भी पड़ ही जाता है और
डेंटल चिकत्सा में हाथ और दिमाग दोनों का प्रयोग होता  है तो भी चिकित्सीय
 शिक्षा प्रणाली जिसने हाथ का काम  ज्यादा हो सत्तर वर्ष  की रिटायर्मेंट आयु 
समझ से परे ही मानी जायेगी यह स्पष्ट संकेत देती है कि उस चिकित्सक को 
कोई काम नही करना बस कार्यालय में ही बैठना भर है / अब ऐसे डेंटल टीचर 
भला  किस काम के हैं?जो नातो पढ़ाएं और नाही कोई काम करें और नाही 
मरीज का उपचार ही करें बस कन्फिरेंस  में जाना ही उनकी डयूटी रह जाती है /
       डेंटल कोलिज में मरीज टीचर के पेपर पब्लिकेशन देखने या टीचर की 
कन्फिरेंस अटेंड करने की संख्या देखने नही बल्कि अपना उपचार कराने जाता 
है और इस सन्दर्भ में मरीज को छात्रों के हवाले कर दिया जाता है जहाँ उस 
मरीज पर डेंटल छात्र अपना अनुभव प्राप्त करता है और यूनिवर्सिटी वार्षिक
 परीक्षा में मरीज एक परीक्षण का माध्यम बनता है /
        भारत सरकार ने अब हाई स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा स्तर तक की 
सभी पाठ्यक्रमों में जंतुओं के विच्छेदन पर प्रतिबन्ध लगा रखा है, अगर
 कोई संस्थान ऐसा करते पकड़ा जाता है तो ना केवल उस पर आर्थिक  
जुर्माना ही होगा बल्कि सजा का भी प्रावधान किया हुआ है/ अगर सड़क
 चलते पशुओं पर भी कोई अत्याचार करता पकड़ा जाता है तो भी दंड 
का पशु क्रूरता अधिनियम के तहत कार्यवाही होगी / यहाँ तक कि  
मनुष्यों  को तो छोडो  अब चूहों पर भी कोई परीक्षण नही किया जा 
सकता अगर मानवरक्षार्थ भी  कोई परीक्षण आवश्यक है तो बाकेयेदा
 सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी/ मेडिकल कोलिजों तक में भी इलाज
 टीचर ही करते है और छात्र केवल अनुसरण ही करते है शायद ऐसा 
नही है कि कोई अंडरग्रेजुएट या पोस्टग्रेजुएट छात्र जिसका अभी 
कायुन्सिल में पंजीकरण नही हुआ हो, वह किसी भी स्थति में इलाज के 
लिये मान्य है / सारे ही मेडिकल कोलिजों में चाहे वे प्राइवेट होँ या सरकारी 
ही क्यों ना होँ .इलाज टीचर या सीनियर रेजिडेंट्स ही करते दिखेंगे नाकि 
कि छात्र ही इलाज  या आपेरशन करेंगे/ लेकिन डेंटल कोलिजों में छात्रों 
को सीधे सीधे मरीज सौप देना शायद मरीज के साथ अन्याय ही नही 
बल्कि अपराध ही कहा जायेगा/ दांत भी शरीर का एक बहुत ही महत्पूर्ण 
अंग है और जबड़े की हड्डी भी, और जीवित मरीज अपना उपचार कराने 
डेंटल कोलिजों में जाता है नाकि अपने ऊपर कोई परीक्षण कराने / 
       एक छात्र जिसने अभी तक जनरल मेडिसिन भी नही पढ़ी, जनरल 
सरजरी भी नही पढ़ी क्योंकि तीसरे वर्ष की वार्षिक परीक्षा में ही इन 
विषयों की परीक्षा में बैठेगा उसको सीधे मरीज देखने ही नही बल्कि 
उपचार करने की अनुमति  देना जरुर मरीज के लिये कष्टदायक होता है /
डेंटल कायुन्सिल से प्रार्थना  है कि इस सन्दर्भ में थोडा सा ध्यान  देने के 
कृपा करें/ डेंटल कायुन्सिल की कार्यप्रणाली पर मेरा कोई प्रश्न नही है 
लेकिन मरीज के स्वास्थय की दृष्टि से जो कुछ हो रहा है वह जरुर 
आपत्तिजनक  है/
     सम्बंधित यूनिवर्सिटी का भी यह धर्म बनता है कि छात्रों को डिग्री 
यूनिवर्सिटी देती है नाकि कायुन्सिल और छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ 
ना होने देना यूनिवर्सिटी का भी धर्म है/  सम्बंधित यूनिवर्सिटी अगर देखे कि 
सौ बीडीएस  छात्रों और एक विषय के चार पीजी छात्रों पर क्या छः टीचरों या 
सात टीचरों का स्टाफ क्या पर्याप्त  है? कायुन्सिल केवल शिक्षा का स्तर ही
 देखने के लिये अधिकारी है  जबकि शिक्षण कार्य यूनिवर्सिटी का है, परन्तु 
यूनिवर्सिटी अभी तक शायद यह नही देख पायी होगी कि इलाज टीचर नही 
बल्कि छात्र करते हैं /  छः सात टीचरों का स्टाफ आखिर कितने छात्रों पर 
निगाह रख सकता है जबकि एक क्लिनिकल पोस्टिंग में तीसरे वर्ष के भी
 छात्र हैं, चतुर्थ वर्ष के भी ,इन्टर्न  के भी और ये सब अभी छात्रावस्था में ही
 है और साथ में पोस्ट गेजुएट कोर्सों  के तीन साल के भी छात्र. इतने सरे 
छात्रों पर क्या कोई टीचर कितना ध्यान रख सकता है जबकि प्राईवेट डेंटल
 कोलिजों में टीचर की नौकरी ही एक तरह से हर समय मेनेजमेंट के हाथ 
में रहती है क्योंकि टीचर का ना कोई प्रोविडेंट फंड कटता है और नाही कोई 
ग्रेजुएटी   ही मिलनी है.टीचर का दिमाग तो पेपर पब्लिकेशन और कन्फिरेंस 
अटेंड करने या फिर एक्सटर्नल  एक्जामिनर बनने की कोशिश में ही लगा  
रहता है  /जिससे शिक्षण कार्य निश्चित रूप से प्रभावित होता होगा/ अगर नही 
होता है तो बहुत ही अच्छी बात है लेकिन मरीज कोई परीक्षण की वस्तु नही 
बल्कि जीता जगता इंसान है इसलिये इलाज तो उसका  पंजीकृत चिकित्सक  
से होना ही चाहिये चूंकि इंटर्नशिप से पहले छात्र पंजीकृत नही हो सकता 
इसलिये उसका एक्स रे करना और मरीज का इलाज करना निश्चित रूप से 
शायद मरीज के जिन्दा बने रहने  के अधिकार को प्रभावित करता है /
        भारत सरकार ने सभी चिकत्सकों को दवा की मार्केटिंग या बनाने 
वाली कंपनियों या मेडिकल औजार बनाने वाली कंपनियों  या इम्प्लांट 
बनाने वाली कंपनियों से किसी  भी तरह के उपहार लेने पर प्रतिबंध लगाया
 हुआ है लेकिन अधिकांश डेंटल अकादमिक जरनलों में इन्ही कंपनियों के
 विज्ञापन  छपे रहते हैं जिनसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जरनल इन्ही 
कंपनियों से प्रायोजित है यहाँ तक कि मिड टर्म या फुल टर्म कोंफिरेंसों तक 
के आवेदन प्रपत्रों पर इन्ही कंपनियों के विज्ञापन छपे रहते हैं/  नियमानुसार 
कोई भी कंपनी टीवी पर दवा का विज्ञापन नही डे सकती लेकिन कुछ दवाओं 
मंजनों या क्रीमों के विज्ञापन टीवी पर दिखाए जाते हैं /एक तरफ यह कहना कि 
दवा को एक रजिस्टर्ड  डाक्टर ही कि लिख सकता है और पर्चे पर लिखी दवा 
को ही केमिस्ट बेच सकता है तो ये विज्ञापन मरीजों के लिये हैं या डाक्टरों के 
लिये यह सरकार को स्पष्ट करना चाहिये/
आखिर भारत में मरीजों के हेसियत क्या है? भारत सरकार ने आज तक यही 
स्पष्ट नही किया कि एक बीडीएस डिग्रीधारी डेंटिस्ट की सीमायें क्या हैं? यानि 
एक सामान्य बी डी एस डिग्रीधारी डेंटिस्ट किन किन इलाजों को करने के लिये 
मान्य है? और चूंकि अब  एमडीएस डिग्रीधारी भी बहुत हैं और एमडीएस भी 
अब नौ विषयों में होता है तो सरकार ने यह भी स्पष्ट नही किया कि क्या एक
विषय से उत्तीर्ण एमडीएस डिग्रीधारी पोस्ट ग्रेजुएट डेंटिस्ट अगर अन्य किसी 
सुपर स्पेशिएलिटी कोर्स के अंतर्गत आने वाले इलाज को करता है तो उसपर 
दंड का क्या प्रावधान है ? अगर बीडीएस और एमडीएस डिग्रीधारी दोनों एक 
जैसे काम कर सकते हैं तो फिर एमडीएस का फायेदा ही क्या है ? आजकल 
डेंटल इम्प्लांट  डालने का भी नया फेशन शुरू हुआ है लेकिन अभी तह यही पता
 नही कि इनको डालने की योग्यता किस विषय वाले डेंटिस्ट को है? क्या एक 
सामान्य बीडीएस धारी डेंटिस्ट डेंटल इम्प्लांट डाल सकता है यह आज तक
 डेंटल कायुन्सिल ने स्पष्ट नही किया? होटलों में डेंटल इम्प्लांट डालने की विधि
 सिखाई जाती है क्या यही इलाज का नया तरीका इजाद हुआ है ?
       कोई भी चिकित्सा केम्प  सम्बंधित क्षेत्र के मुख्यचिकित्सा  अधिकारी की 
लिखित अनुमति  के बिना नही लगाया जा सकता/ सबसे ज्यादा केम्प  भी आँखों 
और दांतों के रोगों के ही लगते हैं लेकिन क्या  वहाँ खुले वातावरण में औजारों 
के पूर्ण स्टर्लायिजेशन का ध्यान रखा जाता है क्योंकि अक्सर देखा जाता है कि 
सेवलोन मिले  पानी के गिलास में कुछ डेंटल मिरर रख दिए जाते हैं और उनसे 
मरीजों के मुख परीक्षा चलते रहते हैं / क्या यही परीक्षण की गुणवत्ता है?
    अतः मानवाधिकार आयोग को इस तरफ ध्यान जरुर देना चाहिये कि आखिर
मरीज के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ चल रहा है? मेरा उद्देश्य किसी संस्था को 
दोषी ठहराने का नाही बल्कि समाज के ठेकेदारों को थोड़ा सा दर्द मरीज का भी 
अहसास कराने का जरुर है, क्योंकि गरीबी के कारण ही मरीज ऐसे चिकित्सा 
संस्थानों में जाकर अपने ऊपर परीक्षण करवाकर आता है/ अगर मरीजों का
इलाज नौसिखिये छात्रों द्वारा  होना ही उनकी नियति है तो कम से कम सभी 
ऐसे चिकित्सा  संस्थानों को अपने संस्थानों के गेट पर यह घोषणा लिखवा 
देनी चाहिये कि यहाँ इलाज छात्रों द्वारा किया जाता है, कम से कम फिर कोई
 गिला शिकवा तो नही रहेगा ? 

  • 189/9 ,Western Kutchery Road,Meerut UP 250001

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें