अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 7, अंक : 01-04, सितम्बर-दिसम्बर 2017
राजेन्द्र परदेसी
वाउचर
लॉन में बैठे अपने साहब को देखकर रतनलाल ने सोचा, ‘‘मिलता चलूँ, नहीं तो सोचेंगे मुझे देखकर मुँह घुमा लिया।’’ और थैलालिए ही वह बँगले के अन्दर चले गये।
देखते ही साहब ने पूछा- ‘‘कहो रतनलाल, कैसे आना हुआ?’’
‘‘बाजार जा रहा था, सोचा आपसे मिलता चलूँ।’’
‘‘अच्छा किया, पप्पू को भी साथ लेते जाओ। जो कहे, दिला देना।’’
‘‘ठीक है सर..’’ इतना ही रतनलाल कह पाये थे कि साहब ने बेटे को आवाज दी- ‘‘पप्पू ऽ ओ पप्पू ऽऽ’’
‘‘क्या है डैडी?’’ बेटे ने आकर पूछा।
‘‘देखो, अंकल बाजार जा रहे हैं। तुम्हें भी तो बाजार जाकर कुछ लेना है न?’’ फिर सलाह के लहजे में बोले- ‘‘इन्हीं के साथ चले जाओ। ये सामान तुम्हें दिलवा देंगे।’’
‘‘तो क्या आप नहीं चलेंगे?’’ पप्पू ने पूछा।
‘‘मुझे बहुत काम हैं।’’
‘‘ठीक है’’ कहकर पप्पू रतनलाल के साथ बाजार चला गया।
बाजार में वह फरमाइश करता जाता और रतनलाल भुगतान करके हाथ में उठाते जाते। खरीद समाप्त हुई तो बंगले की ओर लौट पड़े।
सामान रखकर रतनलाल जब वापस जाने लगे तो साहब ने टोका, ‘‘क्यों रतनलाल! तुमने बताया नहीं, कितने पैसे हुए?’’
‘‘बता दूँगा, सर!’’
‘‘यह ठीक नहीं, तुम्हारे भी तो बाल-बच्चे हैं, रतनलाल।’’ फिर सोचकर बोले- ‘‘ऐसा करो, हजार का वाउचर बना लो और मुझसे कल पास कराकर पेमेंट ले लो।’’
‘‘ठीक है, सर!’’
‘‘भूलना मत। कल जरूर पास करा लेना। और सुनो- जब भी बाजार जाया करो, इधर भी हो लिया करो।’’
- 44, शिव विहार, फरीदीनगर, लखनऊ-226015, उ.प्र./मो. 09415045584
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