अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 7, अंक : 01-04, सितम्बर-दिसम्बर 2017
प्रतापसिंह सोढ़ी
मुराद
मेरे पुराने रिजेक्टेड सोफे को देखने के बाद कबाड़े वाले ने पूछा- ‘‘साहब, कितने तक देंगे?’’
‘‘पाँच सौ रुपये तो लग गये हैं इसके।’’
चेहरे पर फैली पसीने की बूँदों को अपनी मैली कमीज की आस्तीन से पोंछते हुए वह बोला- ‘‘पाँच सौ रुपये देने की मेरी हैसियत नहीं है, साहब।’’
मैंने पूछा- ‘‘तुम लोग तो कबाड़े का सामान अपने सेठ को ले जाकर देते हो?’’
‘‘हाँ साहब, लेकिन यह सोफा मैं अपने लिए खरीदना चाहता हूँ।’’
‘‘तुम्हारे घर में इसे रखने की जगह है?’’
‘‘नहीं साहब, एक खोली में रहता हूँ। इसे ठीक करवा के अपनी लड़की की शादी में दूँगा।’’
उसने दो सौ रुपये मेरी ओर बढ़ाये।
मैं कभी उन रुपयों को, कभी अपने पुराने सोफे को और कभी कबाड़वाले की आँखों में झलक आई दीनता को देख रहा था। मेरे संवेदन तंतुओं में दया और सहानुभूति की प्रबल ध्वनियाँ झंकृत हो रही थीं। मैंने अपना निर्णय सुनाया- ‘‘मेरी तरफ से इस सोफे को अपनी बिटिया के विवाह में उपहार दे देना।’’
उसकी आँखें नम हो आईं। दो सौ रुपये मेरी हथेली पर रखते हुए रुँधे कंठ से उसने निवेदन किया- ‘‘साहब, अपनी कमाई से ही अपनी बिटिया को यह सोफा दूँगा। आपने इस गरीब की मुराद पूरी कर दी। आपके इस उपकार को मैं जीवन भर याद रखूँगा।’’
उसके कदम मेरी ओर बढ़े। उसने मेरे पाँव छुए और ठेले पर सोफा रख खुशी-खुशी चल दिया।
- 5, सुखशांति नगर, बिचौली-हप्सी रोड, इन्दौर (म0प्र0)/मोबाइल: 09039409969
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें