प्रेमचंद और लघुकथा विमर्श
- भगीरथ परिहार
प्रेमचंद के लघुकथा साहित्य के संदर्भ में समकालीन लघुकथाओं की पड़ताल करना समीचीन होगा ! प्रेमचंद ने मुश्किल से बीस लघुकथाएं लिखी हैं । जो विभिन्न कहानी संग्रहों में प्रकाशित हुई है । इन कथाओं का कलेवर कहानी से छोटा है ,इस छोटे कलेवर में मामूली लेकिन महत्वपूर्ण कथ्यों को अभिव्यक्त किया गया है ।
आधुनिक हिंदी लघुकथा के जिस आदर्श रूप की परिकल्पना हम करते हैं, प्रेमचंद की लघुकथाएं कमोवेश उसमें फिट बैठती है । 'राष्ट्र सेवक ' चरित्र के विरोधाभास को खोलती है, कथनी - करनी के भेद को लक्ष्य कर राष्ट्र सेवक पर व्यंग्य करती है, इस तकनीक में लिखी सैकड़ो लघुकथाएं आज के लघुकथा साहित्य में मिल जायेगी !
'बाबाजी का भोग'एक बेहतरीन लघुकथा है जिसमें परजीवी साधुओं के पाखंड को बेनकाब किया गया है । धर्म भीरू मेहनतकश गरीब लोग उनके शिकार हो जाते हैं । गरीब लोगों के मुहँ का निवाला छीनकर स्वयं छ्क कर भोग लगाते हैं । प्रेमचंद धैर्य पूर्वक कथा कहते हैं । इनकी कथाएं तीव्रता से क्लाइमेक्स की ओर नहीं बढ़ती बल्कि धीरे - धीरे शिखर का आरोहण करती हैं जबकि आधुनिक लघुकथाएं तीव्रता से शिखर की ओर बढ़ती हैं , जिससे उनमें कथारस की कमी आ जाती है ।
'देवी' लघुकथा में गरीब अनाथ विधवा के उदात्त चरित्र को उकेरा गया है और यह एक मुकम्मिल लघुकथा बन गयी है । 'बंद दरवाजा ' बाल मनोविज्ञान अथवा उनकी स्वाभाविक मनोवृत्तियॉ को व्यक्त करती है । बच्चा कभी चिड़िया की ओर आकर्षित होता है ,तो कभी गरम हलवे की महक की ओर ,तो कभी खोंचे वाली की तरफ , लेकिन इनसे भी ऊपर उसे अपनी स्वतंत्रता प्यारी है । वह जगत की ओर उन्मुख है, उसे टटोलता है लेकिन बंद दरवाजा उसकी इस स्वाभाविक वृति पर रोक लगाता है उसने फ़ाऊंटेन पेन फेंक दिया और रोता हुआ दरवाजे की ओर चला क्योंकि दरवाजा बंद हो गया था ।
''यह भी नशा वह भी नशा '' में दो स्थितियों में तुलनात्मक दृष्टि से विरोधाभास को उकेरा है भांग का नशा हो या शराब का , नशे का परिणाम एक ही है लेकिन एक को पवित्र और दूसरे को अपवित्र मानना पांखड पूर्ण है आज का कथाकार इस कथा को लिखता तो उसका कलेवर और भी छोटा होता है लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि प्रेमचंद कहानीकार हैं उस समय लघुकथा विस्तार पूर्वक लिखने से इसमें लघुकथा की दृष्टि से कसाव की कमी है आधुनिक हिन्दी लघुकथा में इस तरह की तुलनात्मक स्थितियां बहुत सी कथाओं मिल जायेगी ।
प्रेमचंद की कई कथाएं कहानी का आभास देती है क्योंकि वे धीरे-धीरे विकसित होती है! वें प्रासंगिक प्रसंग भी जोड लेती है कुछ विस्तार भी पा लेती है और लघुकथा के कलेवर को लांघ भी जाती है! इससे उसमें कसाव की कमी आती है वे एक आयामी रहते हुए भी अन्य प्रसंग जुडने से बहुआयामी हो जाती है तब वे लघुकथा की सीमा ही लांघ जाती है!
"ठाकुर का कुँआ " मूल रुप से लघुकथा है लेकिन कुएँ पर खडी दो स्त्रियों की बातचीत ,ठाकुर के दरवाजे पर जमा बेफिक्र लोगो के जमघट जैसे प्रसंग उसे कहानी का ही आभास देते हैं ये कथा से प्रासंगिक होते हुए भी लघुकथा की दृष्टि से अनावश्यक है । स्त्रियों की बातचीत के प्रसंग को अलग लघुकथा में भी व्यक्त किया जा सकता था । इस तरह यह रचना बहुआयामी हो गयी है लेकिन जोर मूल कथ्य पर ही है और पाठक उसी कथ्य को ही पकड़ता है इसलिए इसे लघुकथा कहना अनुचित नहीं होगा । वैसे इन दो प्रसंगो को हटा दे तो एक बेहतरीन सुगठित लघुकथा प्रकट हो जायेगी ।
प्रेमचंद कहानी की तरह लघुकथा लिखते हैं उनकी बहुत सी कथाओं में उत्सुकता बनी रहती है जो पाठक को अंत तक बांधे रखती है, कथा के आरम्भ से आप कथ्य का अनुमान नहीं कर सकते , जबकि आज की लघुकथाओं में आरंभ या शीर्षक से ही कथ्य का अनुमान लगाया जा सकता है , जिससे उत्सुकता का तत्व ही समाप्त हो जाता है । कथा एक रहस्य को बुनती है जो अंत मे जाकर खुलता है । इस संदर्भ में ''गमी'' कथा विशेष तौर पर दृष्टव्य है लेकिन इसकी भाषा शैली और तेवर हास्य- व्यंग्य का है जो हास्य- व्यंग्य कालम के लिए फिट है । 'शादी की वजह ' खालिस व्यंग्य है इसे कथा की श्रेणी में रखना मुश्किल है क्योंकि इसमें कोई मुकम्मिल कथा उभरकर नहीं आती । बहुत से बहुत व्यंग्यात्मक टिप्पणी कहा जा सकता है ।
'दूसरी शादी' निश्चित ही कथा है जो प्रचलित विषय को लेकर लिखी गयी है । इस कथा को इसके क्लाइमेक्स पर ही समाप्त हो जाना चाहिए , क्योंकि कथा यहीं पर अपना मंतव्य अभिव्यक्त कर देती है । लेकिन अन्तिम तीन पैरा "दूसरी शादी" के दूसरे आयाम को अभिव्यक्त करते हैं इस तरह यह रचना कहानी की ओर अग्रसर हो जाती है लेकिन कहानी बनती नहीं है । आधुनिक लघुकथाएं अकसर क्लाइमेक्स पर ही समाप्त हो जाती है ।लघुकथा में एक ही कथ्य व एक ही क्लाइमेक्स सम्भव है। कई क्लाइमेक्स कहानी / उपन्यास मे हो सकते हैं । अत: एक आयामी कथ्य लघुकथा की आत्यंतिक विशेषता है ।
'कश्मीरी सेव' का पहला पेराग्राफ प्रस्तावना के रुप में है जो निरर्थक न होते हुए भी लघुकथा के लिए आवश्यक नहीं है । ऐसे ही विवरणों से लघुकथा एक कहानी होने का अहसास देती है । कथा को पहले पेराग्राफ के बाद से पढ़े और 'दुकानदार ने जानबुझकर मेरे साथ धोखेबाजी का व्यवहार किया । इसके बाद इस घटना पर लेखक की टिप्पणी है इस तरह कश्मीरी सेव भी विस्तार का शिकार हुई है ।
ललकारने वाली वाणी और मुद्रा से भिक्षावृति करने वाले साधुओं का चित्रण 'गुरुमंत्र' मे है । धर्म भीरू लोग उन्हें डर के मारे कुछ न कुछ दे देते हैं । वे भिक्षा को भी अधिकार रूप मे मांगते हैं । वे ऐसे मांगते हैं जैसे हफ्ता नहीं देने पर गुंडा अनिष्ट करने की धमकी देता है प्रेमचंद पाखंड को उधाड़ने में माहिर हैं । आध्यात्मिक ज्ञान से शून्य ये साधु केवल गांजे की चिलम खींचने मे उस्ताद है यह कथा एक आयामी होने से लघुकथा ही है । दो - चार अनावश्यक पंक्तियों के अलावा विस्तार नहीं है ।
"दरवाजा" मनुष्य जीवन का साक्षी है वह अपने अनुभव ऐसे व्यक्त करता है ।जैसे सजीव पात्र हो ! दरवाजा मनुष्य की प्रवृत्तियों पर टिप्पणी करता है इस टिप्पणी का अंत आध्यात्मिक तेवर लिए हुए है। 'सीमित और असीमित के मिलन का माध्यम हूँ कतरे को बहर से मिलाना मेरा काम है मैं एक किश्ती हूँ मृत्यु से जीवन को ले जाने के लिए '! इस तरह की लघुकथाएँ आधुनिक लघुकथा साहित्य में बहुत कम उपलब्ध है। सौन्दर्य शास्त्र की दृष्टि से यह अच्छी लघुकथा है जो पाठकों को सुकून देती है !
दो बहनों के बीच हुए सम्वाद के माध्यम से कथा 'जादू' विकसित होती है पहले तकरार फ़िर तनुक मिजाजी फ़िर द्वेषता और अंत में दोनों के बीच रिश्ता बनता है!सम्वाद तकनीक में रचित सैकडों रचनाएँ आधुनिक लघुकथा में उपलब्ध हो जायगी ! भले ही उनमें नाटकीयता की कमी हो यह नाटकीयता सम्वाद पर आधारित कथाओं की जान है प्रेमचंद की इस कथा मे नाटकीयता खूब है !
'बीमार बहन' बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी निश्चित ही बच्चों को ध्यान में रख कर लिखी रचना है! पर इसे किसी भी दृष्टि से लघुकथा नहीं माना जा सकता वस्तुत: यह कथा है ही नहीं ! इसमें कोई द्वन्द्व नहीं कोई शिखर या अंत नहीं ! सीधे - सीधे बीमार बहन के प्रति भाई की चिंता ,बहन की सेवा के माध्यम से व्यक्त है !
वैसे तो प्रेमचंद की कहानियो/लघुकथाओं में काव्य का अभाव ही रहता है लेकिन 'बांसुरी' में केवल काव्य तत्व का सौंदर्य ही है ! रात के सन्नाटें में 'बासुरी ' की स्वरलहरी को काव्यात्मक अंदाज में अभिव्यक्त किया गया है; लगता है जैसे कहानी के किसी भाग का टुकडा भर हो! यह लघुकथा नहीं है! (आदरणीय भगीरथ जी के ब्लॉग 'अतिरिक्त' से साभार)
- 228, नयाबाजार कालोनी, रावतभाटा-323307 (राजस्थान)।
सावधान! लघुकथा कहीं हमारे अपने हाथों ही न खो जाए!
- पारस दासोत
{म.प्र. लघुकथा परिषद, जबलपुर (म.प्र.) के २६वें वार्षिक सम्मेलन, दिनांक २०-२-११ को वरिष्ठ लघुकथाकार श्री पारस दासोत जी ने अपना एक लेख पढ़ा था, जिसमें उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर लघुकथाकारों का ध्यान आकर्षित किया । हम इस पूरे आलेख को अपने पाठको के लिए यहां रख रहे हैं। यह आलेख यद्यपि दासोत जी ने सीधे भी भेजा है, आद. भगीरथ परिहार जी के ब्लाग ‘ज्ञानसिन्धु’ पर भी उपलब्ध है।}
मैं यहॉं ‘सावधान’ शब्द का उपयोग, इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि मैं, अपने हाथों ही अहम को ओढ़ लूँ। मैं आपका साथी हूँ आपके कन्धे से अपना कन्धा मिलाकर चलने वाला प्यारा साथी।साथियों ! मैं आज, जो लघुकथा यात्रा में देख रहा हूँ, वो शायद आप भी देख रहे होगें। मुझे विश्वास है- आप मेरी इस दृष्टि से, थोडी देर बाद ही सही, पर सहमत अवश्य होंगे। हमारी लघुकथा, आज अपना धर्म, अपना लक्षण/विशेषताएं छोडती नजर आ रही है। कई लघुकथाकारों की लघुकथाएं (उन लघुकथाकारों में मैं भी शामिल हूँ) पढ़ने से ऐसा ज्ञात होता है कि हमें शायद इसका आभास नहीं है कि हम, जाने-अनजाने अपना लघुकथा सृजन, उसकी तासीर अनुसार नहीं कर रहे हैं। हम बोधकथा,
दृष्टांत, नीतिकथा, प्रेरक प्रसंग की ओर मुड़ रहे हैं। साथ ही हमने, कहीं-कहीं वर्णात्मक तत्व को भी स्थान देना प्रारम्भ कर दिया है।
हमने, लघुकथा की यात्रा का समय-समय पर काल-विभाजन करते समय उसकी यात्रा को कई काल खण्डों में विभाजित किया है, पर ऐसा लगता है, क्षमा करें! मुझे ऐसा लगता है कि लघुकथा ने अभी अपने कदम शिशु अवस्था से बाल अवस्था की ओर बढ़ाएं हैं। दो कदम ही बढ़ाएं है। हम सब साथी लघुकथाकार उसकी इसी अवस्था के ही साथी है। हम इसे स्वीकारें, न स्वीकारें, पर यह सत्य है कि अभी सामान्य पाठक ही नहीं, स्वयं लघुकथाकार भी ’लघुकथा’ की परिभाषा से पूर्ण परिचित नहीं हो पाया है। यहाँ मैं इसके साथ यह भी कहना चाहूँगा कि अभी लघुकथा के साथ ‘आधुनिक’ शब्द को जोडना या ‘आधुनिक लघुकथा’ कहना गलत है। लघुकथा को आधुनिक लघुकथा बोलकर, हम ‘प्राचीन लघुकथा’ की ओर भी इशारा कर देते हैं। मुझे क्षमा करे! यह चूक हमसे, इस कारण हो रही है कि हम, लघुकथा की यात्रा का काल विभाजन करते समय (जैसे हम, जब ‘मानव की यात्रा का वर्णन करते समय, प्रजाति, जाति, आदिमानव ही नहीं कोशिका तक पहुँच जाते हैं, तब हम जाने-अनजाने मानव की यात्रा का नहीं, कोशिका की यात्रा का अध्ययन करने लगते हैं) एक दृष्टि से इतनी दूरी तक का अध्ययन या कि काल विभाजन अवांछनीय कहा जा सकता है। क्या, लघुकथा की विकास यात्रा में दन्त कथा तक पहुंचना सही कहा जा सकता है? इस अवांछनीय काल-विभाजन ने कई मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाले हैं। हम भारतीय हैं। इस प्रतीक रूपी आदम को, बन्दर को, अपने पूर्वजों को आदर देते हैं। उन्हें पूज्य मानते हैं। यही कारण है कि हम, हमेशा पीछे मुड़कर देखते रहते हैं।
मैं कहना चाहूँगा कि लघुकथा की यात्रा या उसका काल विभाजन करते समय, हमें केवल ‘कथा-आकार’ को ही अपना आधार नहीं बनाना चाहिए, हमें कथा रूप की यात्रा या कि उसका काल विभाजन नहीं करना चाहिए, पर हम करते यही आ रहे हैं । इसके कई मनोवैज्ञानिक प्रभाव हमारी यात्रा पर पडें हैं। हम हर क्षण पीछे मुड़कर देखते रहते हैं। अपनेपन के तहत हम पीछे मुड़कर केवल देखते ही नहीं, अपने कदम उस ओर बढ़ा भी देते हैं। हम यदि लघुकथा विधा पर किये गये शोधों का अध्ययन करें तो, पाऐंगे कि शोधार्थियों ने लघुकथा यात्रा की दृष्टि से काल विभाजन में एक पूरा का पूरा बढ़ा सा अध्याय प्राचीन विधाओं को सौंपा हैं। हम लघुकथा की यात्रा का वर्णन करते समय क्यों इन पूज्य प्राचीन कथाओं को अनुचित स्थान पर रखते रहे हैं? क्षमा करे, क्या बोधकथा अपनी यात्रा करते-करते लघुकथा के रूप में हमारे सामने पहुंची है? हम बोधकथा या अन्य विधा की यात्रा का काल विभाजन करते रहते हैं। यदि ऐसा है तो, गलत है। यदि मेरा यह मानना गलत है तो फिर क्यों हम पहली और पहली लघुकथा को ढूँढते फिर रहे हैं? कथा के बीज, बोधकथा, दृष्टांतो, नीतिकथा, जातककथा, प्रेरक-प्रसंगों में मिलते हैं। यह कहानी ने भी स्वीकारा है, हम भी स्वीकरते हैं, पर लघुकथा की यात्रा का अध्ययन करते समय, लघुकथा की दृष्टि से कथा बीज पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना, हमें एक गलत सोच की ओर धकेल रहा है। हमने कथाबीज की दृष्टि से, लघुकथा का आकार तो उन कथाओं से लिया है पर लघुकथा का रूप-चरित्र हमने, उसकी तासीर, उसके लक्षण, उसका धर्म, उसका समाज के संघर्ष और समय की मांग को ध्यान में रखकर अंगीकार किये हैं। हमको बीज एवं आधार भूमि का अर्थ व उनके अन्तर को भी ध्यान में रखना होगा। लघुकथा की यात्रा, ‘लघुकथा-बीज’ से नहीं, लघुकथा की आधार भूमि से स्वीकारना होगी। (‘लघुकथा-बीज’ लघुकथा-यात्रा की दृष्टि से यह शब्द अर्थहीन कहा जा सकता है, कारण, बीज की जो विशेषताएं होगी, वहाँ पेड़ की होगी, उसके अतिरिक्त नहीं, पर भूमि, जिस पर भवन खढ़ा है हम उसे भवन का बीज नहीं कह सकते)। जिन छोटी कथाओं में लघुकथा के अधिक लक्षण (पूर्ण लक्षण नहीं) उपस्थित हैं, जैसे ........ सम्मानीय कहानीकारों की पूज्य छोटी कथाओं को ‘लघुकथा’ मान्य करना भ्रम पैदा कर रहा है। इसका मनौवैज्ञानिक प्रभाव हमें उस चरित्र अनुशासन में अपनी रचनाएं सृजन करने की छूट देता है। अतः ऐसी रचनाओं को ‘लघुक्था की आधार भूमि की कथाएं’ कहना ही न्यायोचित होगा, लघुकथा नहीं। पहली लघुकथा को ढूंढते समय शायद, हम कहानी, शॉर्ट स्टोरी व बोधकथा की परिभाषा को, उसके अन्तर को, उसकी तासीर को ध्यान में रख पा रहे हैं। हम, जब भी पहली लघुकथा को खोजने निकलते है, शार्ट-स्टोरी/कहानी को पकड़ लेते है और जाने-अनजाने कथाकार के सृजन की ओर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं। मेरी दृष्टि से यह गलत ही नहीं, एक अपराध है। हम लघुकथा के समीप जो भी शॉर्ट स्टोरी या कि कथाएं पाते है, उन्हें हम ‘लघुकथा परम्परा के कथा आधार’ कह सकते है। लघुकथा नहीं। (शॉर्ट स्टोरी को शॉर्ट स्टोरी, कहानी को कहानी विधा में ही शोभित रखते हुए) साथ ही एक कथा रचना ‘कहानी’ के साथ-साथ ‘लघुकथा’ कैसे हो सकती है? क्षमा करें हमें अभी पहली लघुकथा को खाजने के लिए/प्राप्त करने के लिए और ....और प्रयास करने होगें।
कोई कथा यदि आकार की दृष्टि से लघु आकार की है तो क्या उसको लघुकथा कहा जा सकता है। नहीं, कभी नहीं कहा जा सकता! लघुकथा का यह आकार अन्य कुछ विधाओं के पास भी मिलता है, पर लघुकथा का धर्म, उसकी तासीर, उसका लक्षण ,जिसे आम पाठक ने मान्यता दी है/उसको प्यार से स्वीकारा है/उसको अपनापन दिया है/उसे हइसा-हइसा बोलकर प्रोत्साहित किया है, वही उसका धर्म है। हमें लघुकथा के धर्म को नहीं भूलना चाहिए। यह सच है कि हर रचना में बोध, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उपस्थित रहता है। लघुकथा में उसकी अप्रत्यक्ष होने की है और वह भी भोथरी !
लघुकथा के जन्म की कथा, ‘मुर्गी और अण्डा’ वाली कथा नहीं है, न ही इसे किसी राजनैतिकवाद ने जन्म दिया है। उसे जन्म दिया है तो, क्षण की संवेदना ने, जीवन के दुख-दर्दाे ने, संघर्ष ने, प्रतिक्रिया ने, आक्रमकता ने, सशक्तिकरण ने। यही कारण रहा कि लघुकथा में, यथार्थ, लघुकथा की पहचान, व्यंग्य उसकी धड़कन, संवेदना उसका सौंदर्य, सकारात्मकता उसके कदम और समाज के संघर्ष के प्रति उसकी सही दृष्टि, उसका धर्म है। मैं कहना चाहूँगा कि सकारात्मक सोच को हम एक अलग दृष्टि से क्यों देखते हैं, क्या यथार्थ या कि व्यंग्य में सवेंदना की, जीवन मूल्य की दृष्टि नहीं होती ? क्या इसके लिए बदलते युग में उपदेश , बोध, नीति की ओर कदम बढाना आवश्यक है? क्या हमने अपने लघुकथा सृजन-धर्म को इसलिए चुना है ? क्या विश्व के राजनैतिक फलक पर किसी वाद का कमजोर पड़ जाना या कि किसी वाद का अधिक शक्तिशाली हो जाना, हमारी विधा के धर्म को या कि उसकी यात्रा की दिशा को मोड़ देगा? हम यदि, यहाँ सावधान नहीं हुए तो, हम अपनी पहचान, पाठकों का प्यार, उनका अपनापन, धीरे-धीरे खो देंगे। इसका परिणाम ये होगा कि हम हमारे- अपने समाज की वाणी को मौन दे देंगे, उसके रक्त को शिथिल कर देंगे। मुझे क्षमा करें! यहाँ भी मैं, इस अशोभनीय कार्य में सम्मिलित हूँ। साथियों, हमें मालूम ही न हो पायेगा कि कब हमने अपने ही हाथों लघुकथा की हत्या कर दी। उसे खो दिया। हमने समयानुसार अपने समाज के प्रति अपने दायित्व की हत्या कर दी और हम कब बोधक के साथ खड़े हो गये!
अब हमारे संतुलित कदम, लघुकथा-धर्म के साथ-साथ कलात्मकता की ओर तीव्र गति से बढें। हमारी लघुककथा एक कृति नहीं, एक कलाकृति हो। हमें हमारे पाठकों ने समय, की पत्र-पत्रिकाओं ने, यहाँ तक कि अन्य विधाओं के सृजनधर्मियों ने, अपना पूर्ण सहयोग/प्रोत्साहन दिया है। यही कारण है कि आज अकादमिक स्तर पर लघुकथा विधा पर ही नहीं, लघुकथाकारों को सम्मान प्रदान करते हुए उनके साहित्य पर शोध कार्य हो रहे हैं। हमारा प्रयास होना चाहिए कि लघुकथा, स्कूल व विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में ससम्मान शामिल हो, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ लघुकथा को समझ सके, उसे अपना प्यार दे सके, समय-समय पर उसको सम्भाल सके। पत्र-पत्रिकाओं के सम्मानीय सम्पादकगण, लघुकथा की दिशा की दृष्टि से सम्पादन करते ‘क्यू.सी.’(क्वालिटि कन्ट्रोलर) की भूमिका कठोरता से निभाकर लघुकथा को उसकी सही दिशा में चलने के लिए प्रेरित कर, उसे अनुशासित बनाए रखें विश्वास है, जब समय आएगा/मंच पर समीक्षकों की भूमिका आवश्यक होगी, समीक्षक अपना धर्म बखूबी निभाएंगे। हमें अभी आवश्यकता है- ‘लघुकथा वर्कशापों’ के आयोजनों की, अपने स्तर पर अपने साथियों को सम्भालने की, उनकी रचनाओं पर उन्हें एक पोस्टकार्ड पर अपनी प्रतिक्रिया सौंपने की, पत्र-व्यवहार बनाए रखने की, अपने कदमों को समर्पण के साथ सम्भालने की। सही दिशा में बढने की।
अंत में मैं कहना चाहूँगा कि लघुकथा, सृजनधर्मी के नाखून से समाज की दीवार पर खरोंचकर रखी गई लघुआकारीय कथा है, जिसमें हम लघुकथाकार के ही नहीं, समय के, समाज के रक्तकणों को, उसके संघर्ष को एक झलक मात्र में ही पा जाते हैं।
संपर्क : प्लाट नं. 129, गली नं 9 बी, मोतीनगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-302021 (राज.)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें