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मंगलवार, 29 मई 2018

सरोकार

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  09-10,  मई-जून 2018 


हमारे सरोकार 


उमेश महादोषी





महाराणा प्रताप की शौर्यगाथा को पुनर्जीवित करता संग्रहालय
      हल्दीघाटी के बारे में अब तक मैंने केवल किताबों में ही पड़ा था। इसलिए जब इस बार सितम्बर (14-16) 2017 में श्री श्यामप्रकाश देवपुरा जी के निमंत्रण पर श्रीनाथद्वारा जाने का अवसर मिला, तो हल्दीघाटी की पवित्र भूमि के दर्शन करने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। श्रीनाथद्वारा में अग्रज श्री माधव नागदाजी से मुलाकात हुई और उन्हें अपनी मनोभावना से अवगत कराया तो उन्होंने अपना स्नेह उड़ेलते हुए कहा, आप समय निर्धारित कर लो, मैं गाड़ी लेकर आ जाऊँगा और स्वयं आपको हल्दीघाटी के दर्शन कराके लाऊँगा। इस प्रकार 16 सितम्बर को नागदाजी के स्नेहाबलम्बन से हल्दीघाटी की पावन भूमि का दर्शन-लाभ करने सौभाग्य
मिल गया। जाते समय बेहद सुहावना मौसस सोने पर सुहागा जैसा लग था। रास्ते में हरी-भरी पहाड़ियों के मध्य से गुजरते हुए लग ही नहीं रहा था कि मैं रेगिस्तानी समझे जाने वाले राजस्थान प्रदेश का भ्रमण कर रहा हूँ। जैसे ही हम अरावली पहाड़ियों के पीली मिट्टी से युक्त भाग में संकरे रास्ते पर पहुँचे, नागदाजी ने बताया, हम लोग हल्दीघाटी पहुँच चुके हैं। मैंने कहा, सर, हम यहाँ थोड़ी देर रुक लें। मेरा मन उस भूमि और वहाँ के
हल्दीघाटी स्थित चेतक स्मारक
(छायाचित्र : माधव नागदा)
हो रहा था। नागदा साहब ने जहाँ गाड़ी रोकी, वहाँ एक सुन्दर गुफा थी, जिसमें एक मन्दिर भी है। नागदाजी बोले, इस गुफा को तो मैं भी पहली बार देख रहा हूँ। संभवतः यह रामेश्वर मन्दिर कहलाता है और इसके अन्दर जाकर सुप्रसिद्ध प्रताप गुफा स्थित है, जहाँ महाराणा प्रताप गुप्त मंत्रणा किया करते थे। पन्द्रह-बीस मिनट वहाँ रुकने के बाद हम बादशाही बाग होते हुए चेतक स्मारक की ओर बढ़ गये। बादशाही बाग वह स्थान है, जहाँ मुगल सेना ठहरी थी। चेतक स्मारक के दर्शन करने के बाद हम महाराणा प्रताप संग्रहालय देखने पहुँचे। रक्ततलाई, जहाँ हल्दीघाटी का भीषण युद्ध हुआ था और वर्तमान में एक झील के रूप में स्थित है, के दर्शन भी इसी मार्ग पर स्थित होने के कारण हमें सहज सुलभ हो गए। 

      यद्यपि हल्दीघाटी के क्षेत्र में चेतक स्मारक, रक्त तलाई, मायरा की गुफा, बादशाही बाग, मचींद, चावण्ड, आदि कई दर्शनीय स्थल हैं, लेकिन महाराणा प्रताप के बारे में एकमुश्त जानकारी देने और उनकी गाथा को जीवंत रूप में प्रस्तुत करने के कारण विशेष आकर्षण का केन्द्र है महाराणा प्रताप संग्रहालय। यह संग्रहालय एक प्राइवेट और महाराणा प्रताप की स्मृतियों को संजोने वाला समर्पित उद्यम है। इसके संकल्पक-संस्थापक- संचालक एक सेवानिवृत अध्यापक हैं, जिन्होंने अपने जीवन की सम्पूर्ण पूँजी लगाकर अनेक व्यवधानों और मुश्किलों से जूझते हुए न सिर्फ इसे स्थापित किया, बल्कि हल्दीघाटी की भावनामय और देशभक्ति के ज्वार को जगाने वाली पवित्र भूमि को पर्यटकों के माध्यम से देश के तमाम हिस्सों से जोड़ने का काम भी किया है। पर्यटक इस भूमि को प्रणाम करने पहले भी आते थे, लेकिन उन्हें इस भूमि के इतिहास और महान गाथा से परिचित कराने का कोई माध्यम नहीं था, परिणामस्वरूप वे निराश होकर लौटते थे। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पर्यटकों के आने का कोई लाभ इस क्षेत्र को भी नहीं मिल पाता था। संग्रहालय की स्थापना से, इसमें काम करने वाले शताधिक लोगों को तो रोजगार मिला ही है, क्षेत्र में होनेवाली गुलाब की खेती और गुलाब से बनने वाले उत्पादों की बिक्री एवं अन्य कार्यों के लिए भी अवसर पैदा हो रहे हैं। इसका सकारात्मक प्रभाव स्थानीय लोगों की जीविका के विकास पर भी पड़ना स्वाभाविक है। और एक बात, अज्ञात कारणों से आजादी के इतने
माधव नागदा  के साथ
डॉ. मोहनलाल श्रीमाली जी
 
वर्षों के बाद भी जो काम सरकारों, स्वयंसेवी संस्थानों और राजनैतिक संगठनों ने नहीं किया, वह काम एक व्यक्ति, एक परिवार ने कर दिखाया है। संग्रहालय के ऐसे कर्मठ और दृढ़ इच्छाशक्ति के धनी संस्थापक डॉ. मोहनलाल श्रीमाली जी से भेंट का सौभाग्य भी हमें मिल गया। दरअसल लौटने से पहले हम लोग संग्रहालय में स्थित रेस्तरां में चाय पीने के लिए घुसे तो वहाँ श्रीमालीजी भोजन कर रहे थे। वह नागदा साहब के मित्र भी हैं सो उन्होंने नागदाजी को देखते ही अपने पास की कुर्सियों पर बुला लिया और आग्रहपूर्वक हमें चाय पिलवाई। नागदाजी ने मेरा परिचय कराया और बातों का सिलसिला आरम्भ हुआ तो लगभग पौने घंटे से अधिक का समय यूँ ही बीत गया। अपने पाठकों के लिए संग्रहालय की स्थापना और उसके पीछे श्रीमाली जी की भावना, समर्पण और योगदान को साझा करना मुझे सामाजिक दृष्टि से अत्यंत उपयोगी लग रहा है।

      19 अक्टूबर 1949 (अभिलेखों में 03 जुलाई 1951) को जन्में बी.ए. व बी.एड. तक शिक्षित डॉ. मोहन लाल श्रीमाली सरकारी शिक्षक थे। अपनी शिक्षा एवं शिक्षा के क्षेत्र में आने का पूरा श्रेय स्वनामधन्य स्वतंत्रता सेनानी श्री बलवन्त सिंह मेहताजी को देते हुए कहते हैं, ‘‘मेहता साहब महाराणा प्रताप के परम भक्त थे। हल्दीघाटी से जुड़ी मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि के दृष्टिगत उन्होंने मुझे प्रेरित किया कि मैं हल्दीघाटी को ही अपना कर्मक्षेत्र
संग्रहालय प्रांगण में मेवाड़ी संस्कृति की एक झाँकी
(छायाचित्र : उमेश महादोषी)
बनाऊँ। इसीलिए उन्होंने मुझे शिक्षा के क्षेत्र में आने में मदद की। उन दिनों पर्यटकों के मार्गदर्शन के लिए हल्दीघाटी के पाँच कि.मी. के पूरे क्षेत्र में कोई सुविधा नहीं थी। मेहता साहब ने इस कमी को पूरा करने के लिए मुझे कहा। 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने इस क्षेत्र का दौरा किया, तब यहाँ एक छोटे-से भवन का निर्माण कराया गया, जिसे बाद में पर्यटन विभाग को अन्तरित करके ‘मिड वे’ रेस्तरां में बदल दिया गया। लेकिन पर्यटन विभाग उसे चला नहीं पाया और उसे चलाने के लिए मेरे पिता श्री जमुनालाल श्रीमाली जी से अनुरोध किया। भवन का कोई किराया न लेने का वादा किया गया। पिताजी के अथक परिश्रम से जब वह कुछ चलने लगा तो भवन का किराया माँगा गया। लेकिन आय इतनी नहीं थी कि हम किराया दे पाते। अतः उसे बन्द करना पड़ा। लेकिन उस दौरान पर्यटकों को होने वाली परेशानियों से रूबरू होने और सरकार द्वारा इस क्षेत्र की निरंतर उपेक्षा ने मुझे कुछ करने को प्रेरित किया। शिक्षा विभाग में मेरे परिश्रम और ईमानदारी से किए गए कार्यों, जिनमें सरकारी मदद से कुछ स्कूलों का निर्माण भी शामिल था, के दृष्टिगत कई प्रशासनिक अधिकारियों, जिलाधिकारी रहे श्री सुभाष गर्ग, शिक्षा निदेशक रहे श्री ललित पंवार आदि ने मेरा उत्साह बढ़ाया। अन्ततः मैंने महाराणा प्रताप संग्रहालय बनाने की योजना बनाई। भूमि मेरे पास थी, लेकिन निर्माण के लिए धन नहीं था। बैंक से ऋण मिला नहीं। लेकिन इच्छाशक्ति और संकल्प था। पारिवारिक जमीन बेची, पत्नी के आभूषण बेचे और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति से मिला धन, सब लगा दिया। बाद में एक प्राइवेट बैंक से लगभग 30 लाख का ऋण मिला। इस प्रकार 1997 में आरम्भ किये गये इस संग्रहालय का उद्घाटन 2003 में महामहिम राज्यपाल श्री अंशुमान सिंह जी के कर-कमलों से सम्पन्न हुआ। यद्यपि विकास एवं निर्माण कार्य अभी भी जारी है।’’

   
कैप्शन जोसंग्रहालय प्रांगण में
हल्दीघाटी की यशोगाथा को दर्शाती एक झाँकी

(छायाचित्र : उमेश महादोषी)
  श्रीमालीजी के अनुसार, आरम्भ में पर्यटक संग्रहालय देखने में संकोच करते थे। उस समय दस रुपये प्रवेश शुल्क था। प्रबंधकगण पर्यटकों को इस आश्वासन पर संग्रहालय देखने को तैयार करते थे कि प्रवेश शुल्क संग्रहालय पसंद आने पर देखने के बाद दीजियेगा। लोगों को संग्रहालय अच्छा लगता और वे जाते समय शुल्क देकर जाते। इस प्रकार पर्यटकों का रुझान बढ़ता गया। पहले साल दर्शनार्थियों की संख्या दस हजार थी, जो अब तक एक लाख प्रति वर्ष तक पहुँच चुकी है। अक्टूबर-दिसम्बर व जन्माष्टमी आदि प्रमुख त्यौहारों के समय बड़ी संख्या में आते हैं। वर्तमान में संग्रहालय का शुल्क एक सौ रुपये प्रति दर्शनार्थी है।

     डॉ. मोहनलाल श्रीमाली द्वारा स्थापित यह संग्रहालय उनकी सात बीघा पैतृक भूमि पर चेतक स्मारक से थोड़ी ही दूरी पर खमनोर और बलीचा गाँवों के मध्य स्थित है। संग्रहालय में महाराणा प्रताप की स्मृतियों और धरोहर को बड़ी सिद्दत के साथ संजोया गया है। थियेटर भवन में प्रवेश करते ही स्वागत कक्ष में महाराणा प्रताप से जुड़े चित्रों और फाइबर निर्मित एक वृहद मानचित्र पर हल्दीघाटी के प्रमुख स्थलों और मार्गों का सांकेतिक प्रदर्शन किया गया है। एक संक्षिप्त फिल्म के माध्यम से इसी कक्ष में पर्यटकों को संग्रहालय की जानकारी दी जाती है। अगले कक्ष (थिएटर हॉल) में महाराणा प्रताप की शौर्यगाथा को लगभग 15 मिनट की फिल्म के माध्यम से दिखाया जाता है। आगे बढ़ने पर महाराणा से जुड़े कई प्रसंगों और घटनाओं को फाइबर से बनी विद्युत-सुसज्जित जीवंत झाँकियों के माध्यम से दर्शाया गया है। इस सबको आधुनिक स्वचालित तकनीक के माध्यम से इस प्रकार संचालित किया जाता है कि दर्शक मंत्रमुग्ध होकर देखता रहता है। संग्रहालय के इस प्रमुख भाग से बाहर आने पर गुलाब के उत्पादों की निर्माण-प्रक्रिया एवं स्थानीय संस्कृति को दर्शाने वाली कलात्मक मूर्तियों के साथ महाराणा प्रताप और हल्दीघाटी के युद्ध से जुड़े योद्धाओं व प्रसंगों को भी बड़ी और जीवंत मूर्तियों के माध्यम से खुले प्रांगण में प्रदर्शित किया गया है। इस प्रकार समूचा संग्रहालय हल्दीघाटी के युद्ध, महाराणा प्रताप के शौर्य और मेवाड़ी सांस्कृतिक धरोहर का एक यादगार और सजीव परिदृश्य प्रस्तुत करता है। प्रांगण में  गुलाब के स्थानीय उत्पाद पर्यटकों को बिक्री हेतु भी उपलब्ध हैं। संग्रहालय में पर्यटकों के भोजन एवं जलपान हेतु एक साफ-सुथरा रेस्तरां भी है। प्रवेश से लेकर विदा होने के क्षण तक दर्शक देशभक्ति और मेवाड़ की संस्कृति के प्रति सम्मोहित-सा बना रहता है।
      इतनी बड़ी परियोजना के निर्माण और संचालन में कठिनाइयाँ भी अवश्य आती हैं। निर्माण और स्थापना की कठिनाइयाँ तो आकर चलीं जाती हैं, लेकिन संचालन और भविष्य की आवश्यकताओं से जुड़ी चुनौतियों से जूझना बड़ा प्रश्न होता है। इस सन्दर्भ में डॉ. श्रीमालीजी का कहना है, पर्यटकों की बढ़ती संख्या और रुचि के दृष्टिगत स्थान की कमी और थियेटर की अल्पक्षमता सबसे बड़ी मुश्किल है। चूँकि सरकारी सहभागिता कीमत को कई गुना बढ़ा देती है, इसलिए सरकारी सहभागिता और मदद के बिना ही वह इसका विस्तार करना चाहते
डॉ. उमेश महादोषी  के साथ 
डॉ. मोहनलाल श्रीमाली जी
हैं। थियेटर की वर्तमान क्षमता 50 दर्शक से बढ़ाकर दोगुनी करना बहुत आवश्यक हो चुका है। अन्य सुविधाओं को भी समानुपात में बढ़ाना होगा। इसके लिए सरकार से दस बीघा भूमि कीमत देकर खरीदना चाहते हैं, जो नहीं मिल पा रही है। दूसरी बात, दक्षिण भारत व अन्य अहिन्दीभाषी क्षेत्रों से आने वाले पर्यटकों को समस्त जानकारी उनकी अपनी भाषा में मिल सके, इसकी अत्याधुनिक डिजीटल तकनीक भारत से बाहर उपलब्ध है, उसे लाने के प्रयास भी करने हैं। 

     एक समय पूरनपुर जिला पीलीभीत (उ.प्र.) में रहने वाले स्वनामधन्य महाकवि (स्व) पं. रामभरोसे लाल ‘पंकज’ जी ने ‘हिन्दूपति महाराणा प्रताप’ महाकाव्य लिखकर महाराणा प्रताप की स्मृतियों को बड़े स्तर पर संजोया था और उस पर सरकारी अनुग्रह स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। स्वक्षमताओं से किया जाने वाला श्रीमालीजी का यह कार्य भी निसंदेह महाराणा प्रताप की स्मृतियों को राष्ट्रीय फलक पर पुनर्जीवित करने वाला है। सरकारों को बिना हस्तक्षेप के उनका यथावांछित सहयोग करना ही चाहिए।

  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004

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