अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 7, अंक : 09-10, मई-जून 2018
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डॉ. सन्ध्या तिवारी
‘लघुकथा प्रदर्शिनी’ जैसा कोलाज
यूँ तो वर्तमान में लघुकथा एक स्थापित विधा है और विविध मानवीय पक्षों की अभिव्यक्ति-कला की दृष्टि से कथा साहित्य में केन्द्रीय भूमिका प्राप्त करने की दिशा में निरन्तर अग्रसर भी है। दूसरी ओर इस विधा में नई प्रतिभाओं की खोज एवं उन्हें प्रोत्साहित-स्थापित करने के प्रयास, समय-समय पर साहित्यिक गोष्ठियों, कार्यशालाओं व सम्मान-समारोह आदि के आयोजन इस विधा को उसका स्वरूप देने के ज्वलंत उदाहरण है। ऐसे अनेक उपायों में से एक उपाय है शीर्षस्थ रचनाकारों की रचनाओं का संकलन एवं समीक्षा। हरिशंकर शर्माजी ने ‘लघुकथा: एक कोलाज’ में यह कार्य बखूबी किया है। उन्होंने लिखा है, ‘लघुकथा नयी विधा नहीं है।’ फिर प्रो. निशांत केतु के हवाले से उन्होंने कहा है कि लघुकथा के बीज तो ऋगवेद में पहले से ही
मौजूद हैं। पहले पहल इनका स्वरूप नीतिकथा, बोधकथा आदि की तरह था, धीरे-धीरे अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाकर आज यह स्वतन्त्र एवं रुचिकर विधा के रूप में जनमानस में दोलायमान है।
मौजूद हैं। पहले पहल इनका स्वरूप नीतिकथा, बोधकथा आदि की तरह था, धीरे-धीरे अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाकर आज यह स्वतन्त्र एवं रुचिकर विधा के रूप में जनमानस में दोलायमान है।
इन्सटेन्ट युग की इन्सटेन्ट रचना! बौद्धिक भूख का झटपट भोजन! लेकिन यह झटपट भोजन जितना खाने में स्वादिष्ट है उतना बनाने में नहीं। इसे रचने वाले ही जानते हैं कि दाँतो तले पसीना आना किसे कहते हैं। शर्मा जी ने एक जगह लिखा है कि लघुकथा का लेखक ‘ब्रहा साधना’ करता है, लेकिन मैं कहना चाहूँगी कि लघुकथाकार ‘शव-साधना’ करता है। ‘ब्रह्म’ तो साधना में किसी गलती के फलस्वरूप भले ही माफ कर दे, परन्तु ‘शव-साधना’ में तो गलती के फलस्वरूप शव ही साधक को निगल जाता है। ठीक यही हाल लघुकथा का भी है, सधी तो, वाह, वाह!! नहीं सधी तो, जा, जा। एकाध शब्द की हेराफेरी मात्र से लघुकथा कितनी वीभत्स हो सकती है, इसका अंदाजा स्वयं सृजक ही लगा सकता है।
यहाँ मैं एक बात और कहना चाहूँगी कि पैनी लघुकथा का प्रभाव इतना गहरा होता है कि एक के बाद दूसरी लघुकथा पढ़ने के लिये एकाध घंटे का अन्तराल लेना ही पड़ता है बशर्ते कि वह कथा ब्रह्मास्त्र सी अमोघ हो। ऐसी कुछ रचनाओं को भी इसमें संकलित किया गया है। इस कोलाज में लघुकथा के मूर्धन्य लेखक हैं, उनकी कथायें, उनकी शैली, उनका शिल्प, उन कथाओं की पैनी धार सीधे मर्म पर वार करती है। शर्मा साहब ने कथाओं के साथ ही लघुकथा का स्वरूप कैसा हो से लेकर कुंठित समाज की लघुकथायें, लघुकथा में औरत का होना आदि कई मुद्दों पर अपनी स्पष्ट राय रखी है। वह अपनी मंशा जाहिर करते हुए कहते हैं- ‘‘लघुकथा की उत्पत्ति, भाषा, शिल्प, शैली विस्तारादि के मकड़जाल में न फँसते हुए मैं लघुकथा की साफ सुथरी छवि पाठकों तक पहुँचाना चाहता हूँ।’’
लघुकथा के तमाम शीर्ष रचनाकारों की कथाओं, टिप्पणियों, आलेखों, उद्धरणों से सजा यह कोलाज मेरी नज़र में एक कोलाज नहीं वरन पूरी ‘लघुकथा प्रदर्शिनी’ है।
लघुकथा एक कोलाज : लघुकथा विमर्श : हरिशंकर शर्मा। प्रका.: बोधि प्रकाशन, एफ-77, से.-9, रोड नं.11, करतारपुरा इंड.एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर। मू.: रु.100/- । सं.: 2017।
- 41, बेनी चौधरी, पीलीभीत-262001, उ0प्र0/मोबा. 09410464495
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