आपका परिचय

गुरुवार, 24 मई 2012

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  संयुक्तांक : 08-09,  अप्रैल-मई 2012  

।।कथा प्रवाह।।  

सामग्री : सुकेश साहनी, डॉ. कमल चोपड़ा, डॉ. सतीश राज पुष्करणा, जितेन्द्र सूद, सीताराम गुप्ता, मोहन लोधिया एवं दिलीप भटिया की लघुकथाएं। 



सुकेश साहनी






विजेता


   “बाबा, खेलो न!”
   “दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँ तुम्हें ढूँढ रही होगी।”
   “माँ को पता है- मैं तुम्हारे पास हूँ। वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। पकड़म-पकड़ाई ही खेल लो न !”
   “बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है।”
   “मुझे नहीं खेलना उनके साथ। वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते। ”अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला, “मेरा खाना तो माँ बनाती है, तुम्हारी माँ कहाँ है?”
   “मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गयी थी।” नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कराकर कहा ।
   “बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नज़दीक आकर उसका झुर्रियों भरा चेहरा अपने नन्हें हाथों में भर लिया, ”अब तुम्हें अपना खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मै माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!”
   “दोस्त!” बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, “अपना काम खुद ही करना चाहिए.....और फिर......अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ......है न !”
   “और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।”
   “तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें।” बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा। बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।
   कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गये। बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पट्टी बाँधने लगा ।
रेखांकन : बी.मोहन नेगी 
   पट्टी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया- मोतियाबिन्द के आपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिल्कुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।
   “बाबा,पकड़ो......पकड़ो!” बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था,
   उसने बच्चे को हाथ पकड़ने के लिए हाथ फैलाए तो एक विचार उसके मस्तिक में कौंधा- जब दूसरी आँख से भी अंधा हो जाएगा......तब?......तब?......वह......क्या करेगा?......किसके पास रहेगा?......बेटों के पास? नहीं......नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया......हर बार अपमानित होकर लौटा है......तो फिर?......
   “मैं यहाँ ह......मुझे पकड़ो!”
   उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए......हाथ से टटोलकर देखा......मेज......उस पर रखा गिलास......पानी का जग......यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई......और...और......यह रहा बिजली का स्विच......लेकिन......तब......मुझ अंधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?......होगी......तब भी रोशनी की ज़रुरत होगी......अपने लिए नही......दूसरों के लिए......मैंने कर लिया......मैं तब भी अपना काम खुद कर लूँगा!”
   “बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए......तुम हार गए......तुम हार गए!” बच्चा तालियाँ पीट रहा था।
    बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होंठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।



  • 193/21, सिविल लाइन्स, बरेली-243001 (उत्तर प्रदेश)



डॉ. कमल चोपड़ा






बहुत बड़ी लड़ाई


    बच्चा अपनी दुनियाँ में खुश था। सीढ़ियों के नीचे बैठा कपड़े की रंग-बिरंगी लीरों से बनी गुड़िया से खेल रहा था। कोठी की सफाई करती हुई उसकी माँ उसे खेलता देखकर निहाल हुई जा रही थी।
    उनकी खुशी पर पत्थर गिराती हुई मालकिन आकर चिल्लाने लगी- दुलारी कितनी बार कहा है तुझे, अपने बच्चे को काम पर अपने साथ मत लाया कर! तेरा बच्चा जिस गुड़िया से खेल रहा है न उस पर मेरे बेटे टीनू की नज़र पड़ गई है। जिद कर रहा है ये गुड़िया लूँगा। धेले की सही पर मन आ गया तो आ गया....देख तो इसने कैसी रोनी सी सूरत बना ली है....।
    एकदम चुप थी दुलारी। नज़र पड़ गई है तो हम क्या करें? जो चीज इन्हें अच्छी लगे, इन्हें मिल जाये जरूरी है? मालकिन आग-बबूला होने लगी- दुलारी सुनती नहीं? तेरा बच्चा तो मजे से खेल रहा है और टीनू इसे देख-देखकर परेशान हो रहा है। ऐसा कर ये गुड़िया इस बच्चे से लेकर टीनू को दे दे....।
    किलसकर रह गई दुलारी। दोनों बच्चों की उम्र लगभग बराबर सी थी। तीन साढ़े-तीन के बीच। न चाहते हुए भी दुलारी ने अपने बच्चे से गुड़िया टीनू को दे देने के लिए कहा। गुड़िया पर पकड़ मजबूत कर...उसे छाती से चिपकाते हुए बच्चे ने कहा- मैं नईं....मैं कों दू? गुलिया मेली है।
    उसने अपने बच्चे को बहलाने की बहुत कोशिश की पर नहीं माना। उसने उसे डांटा और गुड़िया उससे छीनकर टीनू को देनी चाही पर बच्चा बुरी तरह चीखने-चिल्लाने लगा। गुड़िया वापिस अपने बच्चे के हाथ में देनी पड़ी उसे।
    मालकिन ने अन्दर से महंगे खिलौने लाकर टीनू को दिये- ये गुड़िया तो गंदी-सी है। दफा कर इसे ये सुन्दर-सुन्दर खिलौने ले ले छोड़ इसे। देख तो कितने बढ़िया खिलौने हैं?
    टीनू टस से मस नहीं हुआ- यही गुड़िया लूंगा।
    मालकिन ने वे महंगे खिलौने नौकरानी के बच्चे को देकर उससे वो गुड़िया लेनी चाही पर उस बच्चे ने भी वे महंगे खिलौने ठुकरा दिये।
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
    टीनू फर्श पर लेटकर पैर पटकने लगा। उसे रोता हुआ देखकर मालकिन बल खाकर रह गई। एकाएक अमीर और मालकिन होने का घमण्ड मालकिन की आवाज में उतर आया- दुलारी ये ले पचास का नोट और गुड़िया अपने बच्चे से छीनकर दे।
    कुछ समझ नहीं आ रहा था दुलारी को। उसने फर्श पर पड़े पचास के नोट की ओर देखा और समझाने लगी अपने बच्चे को- देख बेटे, अपने भैया को ये गुड़िया दे दे! मैं तेरे को और बना दूंगी। पर बच्चा नहीं माना। टीनू के लिए भैया संबोधन सुनकर मौके की नजाकत को देखते हुए ताव खा कर रह गई मालकिन। दुलारी ने टीनू को समझाया- मैं कल आपके लिए इससे भी बढ़िया बनाकर ला दूंगी।
    टीनू लगातार रोये जा रहा था। मालकिन खीझ गई- तुझे जरा सी शर्म या लिहाज है या नहीं? मैं तुझे कह रही हूँ, अपने बच्चे से गुड़िया छीनकर दे दे। तुझे और पैसा चाहिये तो ले ले। सुना कि नहीं?
   जवाब में दुलारी को ज्यों का त्यों देखकर मालकिन भड़क गई- तू इसी वक्त अपने बच्चे को लेकर कोठी से बाहर हो जा!
    दुलारी मुस्कुराती हुई अपने बच्चे को लेकर बाहर आ गई। तिलमिलाती रह गई मालकिन।
    रास्ते में अपने बच्चे पर गर्व हो आया था कि वह उन लोगों के लालच या धौंस में नहीं आया। अपनी गुड़िया के लिये अड़ा रहा। हमेशा तो हम लोग मन मारकर रह जाते हैं। इनको भी तो पता चले मन मारकर रह जाना कितना कष्टप्रद होता है!

  • 1600/114, त्रिनगर, दिल्ली-110035





डॉ. सतीश राज पुष्करणा








दिया और तूफान


    प्रताड़ना सहने की जब सीमा पार कर गई, तो मेघना ने घर छोड़ दिया। मायके में केवल माँ थी। माँ दुखी हुयी कि बेटी घर से बेघर हो गयी लेकिन उसे खुशी भी थी कि चलो जिन्दा तो है......नहीं तो जाने अभी इसके आगे और क्या होता! मेघना का स्वास्थय बुरी तरह गिरा हुआ था। माँ ने अपने फेमिली डॉक्टर को फोन कर दिया।
    डॉक्टर ने मेघना का चेक-अप आरंभ कर दिया। चेक-अप करने के बाद मेघना से पूछा, ‘‘क्या तुम नशे के इंजेक्शन भी लेती रही हो?’’
    ‘‘वे लोग मुझे नशे के इंजेक्शन दे-देकर.... मुझे पागल सिद्ध करना चाहते थे....उनकी इन्हीं बातों से तंग आकर तो मैं यहाँ.... मैं ठीक तो हो जाऊँगी न अंकल?’’
    ‘‘हाँ! थोड़ा टाइम लगेगा, किन्तु एकदम ठीक हो जाओगी। नशीली चीज का प्रभाव तुम्हारे खून में शामिल हो गया है....दवाओं से उस प्रभाव को समाप्त करना है, बस!’’ प्रेसक्रिप्शन लिखकर उसकी माँ के हाथ में देते हुए डॉक्टर लौट गए।
    डॉक्टर के जाते ही मेघना उदास हो गयी। उसकी खामोशी देखकर माँ ने पूछा, ‘‘बेटी क्या बात है?’’
    ‘‘माँ! मेरे बच्चे! वे दोनो वहीं हैं, उनके बिना मैं कैसे रह पाऊँगी?’’
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
    ‘अरे हाँ! तुम्हारी यह हालत देखकर तो मैं बच्चों के बारे में पूछना तक भूल गयी थी...तुम चिन्ता मत करो। पहले तुम अपने को स्वस्थ कर लो....फिर सोचना....यों भी चिन्ता की क्या बात है, वे हैं तो अपने बाप एवं दादा-दादी के साथ....।’’
    ‘‘फिर भी...।’’ मेघना ने अभी इतनी ही बात कही थी कि बिजली गुल हो गई।
    ‘ये एकाएक बिजली गुल हो गयी....’’ इतना कहने के साथ माँ मोमबत्ती या दीया आदि कुछ ढूँढ़ने लगी....बिजली की स्थिति काफी समय से ठीक थी, किन्तु आज एकाएक....।’’
   ‘‘माँ! अभी चार दिन पहले दीपावली थी...दीये पड़े होंगे।’’ मेघना की बात सुनकर माँ ने जला हुआ दीया ढूँढ़ निकाला और उसमें सरसों का तेल डालकर जली बत्ती को ठीक करके दीया जला दिया और माँ दरवाजे के खटखटाने की आवाज़ पर दरवाजे़े की ओर बढ़ गयी।
    दीया जलाया ही था कि जोर से हवा चलने लगी...मेघना की दृष्टि दीये पर जाकर केन्द्रित हो गयी....वह देखने लगी कि इतनी तेज़ हवा में दीया अपने अस्तित्व को बचाने हेतु किस तरह से संघर्ष कर रहा है....उसे मानो संघर्ष का गुरु-मंत्र मिल गया हो। बच्चे उसकी स्मृति में आकर उससे बातें करने लगे....उसे पता ही न चला कि कब उसके मुँह से निकल गया, ‘‘चिंता मत करो मेरे बच्चो! एक दिन मैं तुम दोनों को प्राप्त करके ही दम लूँगी।’’



  • लघुकथानगर, महेन्द्रू, पटना-800006 (बिहार)





जितेन्द्र सूद


अपराध


    उधर सूर्यदेव अस्त हुए और इधर किरण ने घर में कदम रखा। किराए के एक कमरे के उस घर में एक कोने में माँ दुबकी बैठी थी और बदरंग चादर से ढकी चारपाई पर उसके पिता तने बैठे थे। किरण को देखते ही उन्होंने गम्भीर-भारी स्वर में पूछा, ‘अब तक कहाँ थी तू?’ सहमी माँ को देखकर, सिर झुकाकर किरण ने कहा, ‘पिताजी, आज सोहन ने अपने जन्म-दिन की पार्टी दी थी, उसी कारण देरी हो गई।’
    पिता एक भरपूर नज़र बेटी को देखकर कठोरता से बोला, मैंने तुम्हें अनेक बार समझाया कि धनवानों द्वारा दी जातीं पार्टियाँ, मनाए जाते जश्न ग़रीबों की सन्तानों को बहकाने-भटकाने के खूबसूरत साधन हैं। तुम्हें इनसे दूर रहना है।’
    ‘मन को कैसे समझाऊँ, अपने दिल को कैसे बहलाऊँ?’ आँखों में छलछला आए आँसुओं को टपकने से रोकते हुए किरण ने कहा।
   ‘क्या मतलब?‘ पहले से भी अधिक सख्त स्वर में पिता ने पूछा।
    माँ पर एक दृष्टि डालकर और सिर झुकाकर धीमी आवाज में किरण बोली, ‘जब लड़कियाँ हर रोज़ बदल-बदलकर सुन्दर-सुन्दर कपड़े पहनकर आती हैं तो मेरा दिल भी उनकी तरह सजने-सँवरने को करता है। जब लड़कियाँ अपने मित्रों के संग खिलखिलाती हुई कॉफी की चुस्कियाँ लेती हैं, उनसे बतियाती हुई ‘नूडल्ज’ और ‘डोसा’ खाती हैं तो मेरा मन बुरी तरह ललचा जाता है, मेरी भूख अधिक तेज हो जाती है और मेरी नज़रें उन पर ही मँडराती रहती हैं। महीनों से मैं अपनी इस क्षुधा-अग्नि को दबाए रही परन्तु एक दिन जब सोहन ने अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाया तो मेरी इच्छाएँ बेकाबू हो गयीं और मैंने चुपचाप उसका थाम लिया। मैं हर रोज़ के हालात का सामना करते-करते थक-हार गई माँ। यही मेरा अपराध है पिताजी, आप इसके लिए मुझे कड़ी से कड़ी सजा दें।’ इतना कहकर किरण फफक-फफककर रो पड़ी। अब माँ भी अपनी रुलाई को रोक नहीं पाई। उसने किरण को अपनी बाँहों में समेट लिया। पिता ने एक बार भरी-भरी आँखों से माँ-बेटी को देखा और फिर सिर झुका दिया ताकि उसके आँसू फ़र्श में पड़ी दरारों में गिरकर छिप जाएँ।

  • 31, बैंक कॉलोनी, अम्बाला शहर (हरियाणा)





सीताराम गुप्ता






गिरेबान


    एचओडी राउण्ड पर थे। राउण्ड पर जाना ज़्ारूरी भी था क्योंकि कमरे के अंदर बहुत सर्दी थी। बाहर धूप खिली हुई थी। कई दिनों के बाद आज सूर्यदेव के दर्शन हुए थे इसलिए बाहर खुले में बहुत अच्छा लग रहा था। एचओडी बीस-पच्चीस मिनट तक लॉन में फूल-पत्तियों का निरीक्षण करते हुए माली को आवश्यक निर्देश देते रहे। उसके बाद कमल किशोर वहाँ आ उपस्थित हुए और गुनगुनी धूप में एचओडी उनसे संस्थान की समस्याओं पर चर्चा करने में व्यस्त हो गए।
     चर्चा की समाप्ति के बाद परिसर का राउण्ड शुरु हुआ। जैसे ही एचओडी लैब में पहुँचे वहाँ देखा काम के साथ-साथ चाय की चुस्कियाँ भी ली जा रही हैं। एचओडी ने इसे बड़ी गंभीरता से लेते हुए कहा, ‘‘जब देखो तब चाय। अरे कोई समय भी होता है कि नहीं किसी काम का? अपने गिरेबान में झाँककर देखो क्या तुम्हें यहाँ आकर चाय पीने के लिए ही मोटी-मोटी तनख़्वाहें दी जाती हैं? डिसिप्लिन का ध्यान रखिए। आगे से किसी भी तरह का इंडिसिप्लिन टॉलरेट नहीं किया जाएगा। एंड एक्सन मस्ट बी टेकन अगेंस्ट डिफॉल्टर्स।’’  एचओडी एक्शन को एक्सन बोलना ही पसंद करते हैं।
     एचओडी एक्सन की बात कर ही रहे थे कि इतने में चपरासी वहाँ आया और बेहद अदब से उनसे बोला, ‘‘सर चाय तैयार है। कमल किशोर सर आपका इंतज़्ाार कर रहे हैं। कह रहे हैं साहब को ज़्ारा जल्दी बुला लाओ। बहुत सर्दी है चाय ठंडी हो जाएगी।’’ एचओडी ने बस इतना ही कहा कि इस के के को चाय के सिवा कुछ और काम है कि नहीं और फिर राउण्ड बीच में ही छोड़ कर लंबे-लंबे डग भरते हुए अपने कमरे की तरफ़ हो लिए जहाँ चाय उनका इंतज़्ाार कर रही थी।

  • ए.डी.‘106-सी, पीतमपुरा, दिल्ली-110034



मोहन लोधिया










माँ की बेबसी


   दीनदयाल को स्वर्गवासी हुए आज एक वर्ष हो गया। दीनदयाल के तीन पुत्र हैं। बड़ा बेटा 40 वर्ष पार कर चुका अपाहिज और बेरोजगार है। दोनों बेटे शामिल परिवार में रहकर नौकरी करते हैं। दीनदयाल ने एक गाय पाली थी, जो अब बूढ़ी हो चली थी, परन्तु कभी बछिया या बछड़े को जन्म नहीं दिया था। इससे गाय पर व्यर्थ ही खर्च हो रहा है, सोचकर दोनों नौकरी पेशा बेटों ने उसे कसाई को बेच दिया। दोनों बेटे पैसे गिन रहे थे। कसाई गाय को घसीटकर ले जा रहा था। गाय मुड़-मुड़कर देखती जा रही थी, इसी बीच मां (दीनदयाल की पत्नी) आ गयी। एक बेबस मां कभी दूसरी ओर बैठे बेरोजगार अपाहिज बेटे को, कभी जाती हुई गाय को टुकुर-टुकुर देख रही थी।



  • 135/136, ‘मोहन निकेत’, अवधपुरी, नर्मदा रोड, जबलपुर-482008 (म.प्र.)









दिलीप भटिया












नाटक


    कविता बेटी, स्नेह। परेशान क्यों होती हो ? तुम्हारी मम्मी के इस संसार छोड़ने के पश्चात नाते-रिश्ते बदल गए हैं, नहीं पूछ रहे हैं, तो कोई बात नहीं। समझ लो, तुम्हारे मेरे जीवन की कहानी में उनका रोल इतना ही था। कुछ नए भैया-भाभी भी तो जुड़ गए हैं ना। जीवन के नाटक में जिन पात्रों का रोल समाप्त हो जाता है, वे रंगमंच से नीचे उतर जाते हैं। कुछ नए पात्र स्टेज पर आ जाते हैं, इसे स्वीकारो। मैं तो हूँ ना। चिन्ता मत करो, बेटी। प्यार।
पापा - संजय



  • 372/201, न्यूमार्केट, रावतभाटा-323307 (राजस्थान)






1 टिप्पणी:

  1. कुछ लघुकथाएँ अमिट छाप छोड़ने वाली हैं |विजेता में निराशा के घने बादलों के बीच भी चाँद मुस्करा रहा है |बहुत बड़ी लड़ाई में -पैसे के बल पर दूसरों को जीतने का सपना देखने वालों के लिए अच्छी खुराक है |दिया और तूफान -सकारात्मक सोच लिए नारी संघर्ष की कहानी है |अपराध -अभावों की दुनिया में रहने वालों की मनोदशा का अति मार्मिक चित्रण है |

    इनसे एक बातऔर स्पष्ट है कि लघुकथाओं के माध्यम से विभिन्न विषय पर गहन व सार्थक लेखन संभव है|

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