अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 6, अंक : 01-04, सितम्बर-दिसम्बर 2016
कमलेश सूद
थोड़े में जीवन को कहती क्षणिकाएँ
नरेश कुमार ‘उदास’ मूलतः हिन्दी भाषा के लेखक व कवि हैं। इनकी 14 पुस्तकें आ चुकी हैं और हाल ही में क्षणिका संग्रह ‘माँ आकाश कितना बड़ा है’’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में उदास जी ने जीवन के हर पहलू को उजागर किया है। यदि कहें कि इसमें उन्होंने ‘गागर में सागर भरने’ का काम किया है, तो अतिश्योक्ति न होगी। संग्रह की सभी 252 क्षणिकाओं का सृजन बड़े मनोयोग से किया गया है। उदास जी की सृजनात्मकता अनेक रचनाओं में देखने को मिलती है। ये पंक्तियाँ देखें- ‘‘मिटा सको तो/आपस के फासले/मिटाओ/वर्ना दूरियाँ/बढ़ती चली जाएँगी/दिलों में नफरत/बढ़ती जाएगी‘‘।
आज की ज्वलंत समस्याओं पर कई सारगर्भित प्रभावशाली रचनाएँ हैं। एक क्षणिका देखें- ‘‘भूख से लड़ती मां/भूख से लड़ता है बाप/भूख से लड़ते हैं बच्चे/भूख से लड़ता है/सारा घर’’। जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाया है कवि ने इस रचना में- ‘‘जीवन नश्वर है/सब जानते भी हैं/लेकिन फिर भी/जीते-जी/इस बात को/स्वीकार नहीं करते’’।
कवि को समाज में अपना स्थान बनाने के लिए प्रयत्न करती, जूझती, बनती, मिटती औरत की भी चिंता है, जिसे इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- ‘‘औरत कहीं कहीं/जूझ रही है/लड़ रही है/फिर भी/पीछे धकेली जा रही है’’। समाज में भ्रूण हत्या जैसे कुकृत्य से सामाजिक मूल्यों का खंडित होना कवि को दुखी कर जाता है। लड़के-लड़कियों के अनुपात में अंतर मादा‘भ्रूणों को मिटाने से ही आया है। कवि की चिंता देखें- ‘‘मादा भ्रूणों को/आए दिन/नष्ट किया जा रहा है/लड़कियों को/पैदा होने से पूर्व ही/मिटाया जा रहा है’’।
आज भारत के प्रत्येक बड़े शहर में हर पल डरती, सहमती, आगे बढ़ती दामिनी को देखा जा सकता है; जो कदम तो फूँक-फूँक कर रखती है पर मन में अनजाना सा डर उसे हर पल दहला देता है। यह डर सोते हुए भी उसका पीछा नहीं छोड़ता- ‘‘लड़की के सपनों में/बार-बार क्यों चले आ रहे हैं/बलात्कारी चेहरे/लड़की सोये-सोये/चीख उठती है/हर बार’’।
संग्रह की हर क्षणिका दिल को झकझोरकर यथार्थ के धरातल पर हमें निर्णयात्मक भूमिका निभाने के लिए छोड़ देती है। इसी भूमिका के तहत उदास जी समाज में बढ़ती नफरत और दिलों के फासलों को पाटने के लिए कई जगह आग्रह करते दिखते हैं। सामाजिक कुरीतियों, सामाजिक चेतना व पर्यावरण आदि जैसे विषयों पर भी कवि अपनी चिंता भी बेहद सादगी से रखता है।
मन के भीतर की पीड़ा व अपनों से बिछुड़ने का दर्द कवि अच्छे से समझता है। दर्दीले गीतों में फूटती उदास मन की व्यथा को इस क्षणिका में सटीक अभिव्यक्ति मिली हैं- ‘‘उदास दिनों में/अनायास ही/फूट पड़ते हैं/कंठ से/कुछ दर्दीले गीत/और मन बोझिल सा हो जाता है‘‘।
क्षणिकाओं की इस माला में दुःख-सुख, राजनीति, ममता, वात्सल्य, अनुशासन आदि कितने ही मोती हैं, जिनकी चमक असाधारण है। थोड़े शब्दों में जीवन को कह जाना, क्षणिका का एक बड़ा गुण है और इस संग्रह का भी। इस संग्रह में आपको जीवन के हर पहलू पर कवि के विचार मिलेंगे। इन्हें पढ़ते हुए आपका मन गहरे तक स्पंदित हुए बिना नहीं रहेगा। संग्रह की शीर्षक रचना में माँ की गोद को आकाश से भी बड़ा बताया गया है, जिसमें बालक का सम्पूर्ण संसार समाया होता है- ‘‘गोदी में/लेटे-लेटे/नन्हे मुन्ने ने/मचलते हुए/माँ से अचानक पूछा था/माँऽऽऽऽ आकाश कितना बड़ा है?/माँ ने उसे/प्यार से थपथपाते/आँचल में ढकते हुए कहा था/मेरी गोद से/छोटाऽऽ हैऽऽ रे’’।
पुस्तक का मुखपृष्ठ आकर्षक व मुद्रण त्रुटिहीन है। विश्वास है कि यह संग्रह पाठकों की आशाओं पर खरा उतरेगा और साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनायेगा।
माँ आकाश कितना बड़ा है : क्षणिका संग्रह : नरेश कुमार ‘उदास’। प्रकाशक : प्रगतिशील प्रकाशन, एन-3/25, प्रथम तल, मोहन गार्डन, उत्तम नगर, नई दिल्ली-59। मूल्य : रु. 150/- मात्र। पृष्ठ : 104। संस्करण : 2014।
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