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मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

किताबें

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष :  03,  अंक : 03-04, नवम्बर-दिसम्बर 2013


{इस अंक में  श्री संतोष सुपेकर की लघुकथाओं के संग्रह 'भ्रम के बाजार में' की श्री राजेन्द्र नागर ‘निरंतर’ द्वारा  लिखित समीक्षा  रख रहे हैं। लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर भेजें।}


राजेन्द्र नागर ‘निरंतर’

भविष्य की संभावनाएँ तलाशती लघुकथाएँ

    स्वतंत्र और अनिवार्य विधा के रूप में स्थापित हो चुकी लघुकथा अब समाज के हर क्षेत्र में अपनी गहरी पैठ बना चुकी है। नई पीढ़ी के रचनाकार अपने सम्पूर्ण समर्पण भाव से लघुकथा सृजन में जुटे हुए हैं। श्री संतोष सुपेकर ऐसे ही सृजनशील रचनाकारों में से हैं। उनका सद्यः प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘भ्रम के बाजार में’ पाठकों को बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर जाता है। भूत, भविष्य और वर्तमान की चिंताओं से लबरेज इन लघुकथाओं के माध्यम से श्री सुपेकर बहुत कुछ कहना चाहते हैं। ‘इस सदी तक आते आते’, ‘तीसरा पत्थर समूह’, ‘टर्निंग पाईंट’, ‘हम बेटियाँ हैं न’, ‘छूटा हुआ पक्ष’ आदि इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ लघुकथाएँ कहीं जा सकती हैं, जो पाठकों को यकायक झकझोर देती हैं। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि श्री सुपेकर की सोच अपने समय से काफी आगे की है। 153 लघुकथाएँ और 168 पृष्ठ में कुल मिलाकर लेखक ने बहुत अच्छा ताना-बाना बुना है। धर्म, अर्थव्यवस्था, सामाजिक परिवेश और चिथड़े होती राजनीति पर बहुत कड़े प्रहार बड़े ही संवेदनशील तरीके से इस पुस्तक में किए गए हैं। चाहे सरकारी कार्यालयों में बढ़ती अकर्मण्यता की बात हो, चैनलों में बढ़ती फालतू की प्रतियोगिता हो, सिक्कों-प्याज का द्वन्द्व हो, भूख से पीड़ित समाज का एक अछूता वर्ग हो, अंध विश्वास हो या मजहबी जुनून, सभी विषयों पर बड़े ही व्यवस्थित ढंग से कहने की कोशिश श्री सुपेकर ने इस संग्रह के माध्यम से की है। ‘व्हेरी गुड’, ‘उसी मां ने’, ‘इसीलिए’, ‘अर्थ ढूंढ़ती सिहरन’,
समीक्षक : राजेन्द्र नागर  'निरंतर'
‘दिलासा’, ‘कातर’, ‘आंखों वाली सीढ़ी’, ‘बड़ी वजह’, ‘मीठा आघात’, ‘सिला’, ‘मिट्टी में गड़े सांप’ आदि ऐसी अनेकों लघुकथाएँ हैं, जिनमें सुनहरे भविष्य की संभावनाएँ तलाशी जा सकती हैं। इन्हें पढ़कर लेखक की संपूर्ण क्षमता का परिचय मिल जाता है। संग्रह में कुछ लघुकथाएँ पुराने ढर्रे पर लिखी गईं हैं तो कुछ मात्र 
लघुकथाओं की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से पुस्तक में शामिल की गई प्रतीत होती हैं। लेखक को अनावश्यक विस्तार के साथ-साथ शीर्षकों के निर्धारण में भी विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
    अंत में यही कहूँगा कि श्री सुपेकर में अत्यन्त धनात्मकता है। पाठकों का प्रेम भी उन्हें भरपूर मिल रहा है। इस संग्रह के द्वारा अपनी प्रतिबद्धताओं को उन्होंने पूरे मनोयोग से उभारा है। घर की हो शासकीय लायब्रेरी, हर जगह इस संग्रह को यथासंभव स्थान मिलना ही चाहिए।

भ्रम के बाजार में :  लघुकथा संग्रह। लेखक :  संतोष सुपेकर। प्रकाशक :  सरल काव्यांजलि, 31, सुदामानगर, उज्जैन, म.प्र.। मूल्य :  रु. 220/- मात्र। पृष्ठ : 168। संस्करण :  2013।
  • 16, महावीर एवेन्यू पार्ट-1, मक्सी रोड, उज्जैन, म.प्र.

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