आपका परिचय

गुरुवार, 31 जनवरी 2013

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2,  अंक : 5,   जनवरी 2013 

।।कथा प्रवाह।। 

सामग्री : इस अंक में प्रतापसिंह सोढ़ी, पारस दासोत, डॉ. कमल चोपड़ा' सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा एवं गोवेर्धन यादव की लघुकथाएं।


प्रतापसिंह सोढ़ी



(वरिष्ठ लघुकथाकार श्री प्रतापसिंह सोढ़ी का 2008 में प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘शब्द संवाद’ हमें हाल ही में पढ़ने को मिला। प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से सोढ़ी साहब की दो प्रतिनिधि लघुकथाएँ।)

आत्म विश्वास

    आग लगने से निरंजनसिंह के लकड़ी के पीठे की सारी इमारती लकड़ी कोयला बन गई। इस दर्दनाक हादसे की वजह से मास्टरजी उनके लड़के पप्पू को कई दिनों तक पढ़ाने नहीं आए। निरंजनसिंह ने अपने नौकर को भेज उन्हें घर से बुलाया। सहमे-सहमे नज़रें झुकाये मास्टरजी खड़े रहे। निरंजनसिंह ने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, ‘‘मास्टरजी आप इतने उदास क्यों हैं? कई दिनों से आप पप्पू को पढ़ाने भी नहीं आए।’’ दबी-दबी सी आवाज़ में मास्टरजी ने उत्तर दिया, ‘‘पापाजी आपका इतना भारी नुकसान हो गया और ऐसे में मैं.....’’ आगे वह कुछ कह नहीं पाया।
रेखांकन : के रविन्द्र 
    निरंजनसिंह समझ गये कि मास्टरजी ने यह सोचा होगा कि अब उन्हें ट्युशन से हटा दिया जायेगा। बड़े प्यार से उन्होंने कहा, ‘‘पुत्तर पढ़ाने आया करो। हर माह तुम्हें ट्यूशन के पैसे दिये जायेंगे। धंधे में नफा-नुकसान तो होता ही रहता है। पाँच हजार रुपये में मैंने जलाऊ लकड़ी की टाल लगा धंधा शुरू किया था। वाहे गुरुजी की कृपा और अपनी मेहनत के बल पर धीरे-धीरे मैंने इमारती लकड़ी का पीठा खड़ा किया। इमारती लकड़ी जलने से जो कोयला बना है, उसकी कीमत भी एक लाख रुपये से कम नहीं है। उस कोयले को बेचकर मैं फिर से धंधा शुरु करूँगा।’’ आत्मविश्वास से भरे निरंजनसिंह के विचारों को सुन मास्टरजी सोचने लगे असली गुरु मैं नहीं यह निरंजनसिंह है।

आत्मीयता

    बस में मेरी सीट के पास बैठी पच्चीस-छब्बीस वर्षीय युवती से कंडक्टर ने पूछा, ‘‘कहाँ का टिकिट बना दूँ?’’
    वह चुप रही और खिड़की से बाहर झाँकने लगी।
    कंडक्टर ने फिर दोहराया, ‘‘मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि कहाँ जाना है?’’ आँखें झुकाये वह खामोश बैठी रही।
    झुंझलाते हुए कंडक्टर बोला, ‘‘आप सोचकर रखिये तब तक मैं दूसरे यात्रियों को टिकिट देकर आता हूँ।’’
    पास बैठी मैं सब सुन रही थी। मैंने उससे पूछा, ‘‘कहाँ जाना है बिटिया तुम्हें। मैं तुम्हारी माँ के समान हूँ, मुझसे संकोच न करो।’’ उसका सिर मेरे कंधे से टिक गया और उसकी आँखों से बहते आँसुओं ने मेरे ब्लाउज की बाहों को गीला कर दिया। मेरा मन भी संवेदना से भीग गया। 
    ‘‘बिटिया अपनी वेदना को शब्दों द्वारा बाहर निकाल दो, मन हल्का हो जायेगा।’’ मैंने उसे समझाया।
    इस बार अपना मौन तोड़ते हुए वह बोली, ‘‘कहाँ जाना है इसका तो मुझे भी पता नहीं। मेरे पति ने मुझे घर से बाहर निकाल दिया।’’ साड़ी के पल्लू से अपना चेहरा ढाँकते हुए वह सिसक पड़ी। उसे अपने पास खींचते हुए मैंने पूछा, ‘‘क्या कसूर था तुम्हारा?’’
    ‘‘कसूर सिर्फ इतना सा था कि हर बार की तरह इस बार जब मैंने अपने पिताजी से रुपये लाकर उसे नहीं दिये तो उसने मुझे पीटा और घर के बाहर निकाल दिया।’’
    इतने में परिचालक आ गया और उस युवती से बोला, ‘‘अब तक आपने सोच लिया होगा कि कहाँ जाना है।’’
    वह फिर गुमसुम रही।
    परिचालक भड़क उठा, ‘‘लगता है आपकी दिमागी हालत ठीक नहीं है। मजबूर होकर मुझे तुम्हें बस से उतारना होगा।’’ दर्द में लिपटी उसकी खामोशी ने मेरे संवेदन तंतुओं को गहरे तक झंकृत कर दिया। मेरे हृदय का कलश ममता और दया से भर गया। दृढ़तापूर्वक मैंने परिचालक से कहा, ‘‘इसे मेरे साथ इन्दौर जाना है।’’

  • 5, सुख-शान्ति नगर, बिचौली हप्सी रोड, इन्दौर-452016 (म.प्र.)


पारस दासोत




{सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लघुकथाकार श्री पारस दासोत की प्रतीकात्मक लघुकथाओं का संग्रह ‘मेरी मानवेतर लघुकथाएँ’ वर्ष 2011 में प्रकाशित एवं बेहद चर्चित हुआ। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दासोत जी की दो लघुकथाएँ।}

पेट की रोटी

    पेट खाली था और काम अत्यधिक, परिणाम यह हुआ, पेट अचानक बेहोश हो गया।
    तोंद अपने बंगले पर पेट को बेहोश देख पहले घबराई, फिर आरामकुर्सी पर लेट उसके होश में आने का इंतजार करने लगी।
    थोड़ी देर में पेट को होश आ गया।
    तोंद अपने साथ पेट को लेकर उसके झोंपड़े पर खड़ी थी।
    ‘‘हमारे धन्य भाग्य! आप हमारे झोंपड़े पर पधारे! भोजन का समय हो रहा है, आप भोजन ग्रहण करावें!’’
    पेट ने, जब अपने रोटी के डिब्बे में झाँका, देखा- ‘‘केवल तीन रोटियाँ ही अपना धर्म निभाने हेतु उपस्थित है।’’ यह देख, उसने शीघ्र ही नमक-मिर्च में थोड़ा पानी मिलाकर चटनी बनाई और तोंद को, आदर भाव के साथ एक कागज पर चटनी के साथ तीनों रोटियाँ परोस दीं।
    अब
    तोंद, भोजन निवृत्ति के बाद अपने हाथ धोते हुए बोली- ‘‘किसी ने सच ही कहा है-‘हमें, दूसरे के यहाँ पर भोजन अधिक लगता है।’ देखो न, अपने बँगले पर तो मैं एक फुलका ही खा पाती हूँ, पर यहाँ मैं नमक-मिर्च के पानी से तेरी मोटी-मोटी तीन रोटियाँ चट कर गई!’’

कुर्सी और कौआ
रेखाचित्र : पारस दासोत 

    एक दिन कौआ, कुर्सी पर आ जमा।
    कुर्सी घबराई, यह सोच घबराई-
    ‘‘कौआ जिस पर बैठ जाता है, वह जल्द मर जाता है।’’
    उसने अगर टोटका नहीं किया तो वह जल्द ईश्वर को प्यारी हो जाएगी।
    कुर्सी ने टोटका करने के लिए अपने सभी साथी-सम्बन्धियों को शोक पत्र लिख भेजे- ‘‘कुर्सी मर गई।’’
    बेचारे सभी गला फाड़-फाड़ कर रोये-
    ‘‘कुर्सीऽऽ! हाय री कुर्सी! कितनी प्यारी थी, कुर्सी!’’
    इस घटना को हुए आज पन्द्रह वर्ष हो गये हैं।
    कुर्सी, जिन्दा है और कौआ उस पर जमा है। 

  • प्लाट नं. 129, गली नं 9 बी, मोतीनगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-302021 (राज.)



डॉ. कमल चोपड़ा




बात इतनी सी

    मटन शॉप से निकला तो उसका चेहरा लटका हुआ था। जितने पैसे उसके पास थे दुकानदार ने उसे थोड़े से पीस कागज में लपेटकर दे दिये थे। डाक्टर ने उसे खुराक में मीट अण्डा लेने की सलाह दी थी। पर आज उसे लगा कि पेट भर खाना ही मिल जाये वही गनीमत! अच्छी खुराक तो उसकी पहुंच के बाहर की चीज हो गई है। बीमारी की वजह से छूटी हुई नौकरी। परदेस की ठोकरें और बदहाली।
रेखांकन : मनीषा सक्सेना 
    मीट के गीलेपन से मीट के ऊपर लिपटा कागज फटने लगा था और मीट नीचे गिरने को हो गया था। वह रुककर उसे संभालने लगा तो उसने देखा पीछे-पीछे एक कुत्ता उसके हाथ में पकड़े मीट वाले पैकेट पर नजर जमाये चला आ रहा है। बस उस पर झपट पड़ने को हो रहा था। उसने कुत्ते को दुरदुराया पर उसकी दुत्कार का कुत्ते पर कोई असर नहीं हुआ उल्टा वह उस पर भौंकने लगा। कुत्ते की ढीठ कुत्तई देख उसकी हड़बड़ाहट में वह सामने से आते हुए एक आदमी से जा टकराया और दोनों गिर पड़े। थोड़ा संभलने के बाद उसने देखा कि जिस आदमी से वह टकराया वह नजदीक ही के एक मंदिर के पंडित जी थे। मीट का पुलिंदा उन्हें छूता हुआ दूर जा गिरा था। पंडित जी के हाथ में पकड़ी हुई हवन सामग्री घूल में जा गिरी थी। उसकी रूह कांप उठी- हिन्दुओं का इलाका है, इतनी भयंकर भूल हो गई है। अब मेरी खैर नहीं। मेरी तो बोटी-बोटी नोंच ली जायेगी। बात का बतंगड़ और दंगा हो जायेगा।
    थरथराते हुए वह पंडित जी को उठाने के लिये आगे बढ़ा- मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया- अल्ला कसम।
    वहां जुट आये तीन चार लोगों के चेहरे तमतमा कर रह गये- मतलब ये मुसलमान है। जानबूझकर ही किया है उसने... इसके पीछे कोई साजिश है। उधर मेरठ में एक हिन्दू की साईकिल एक मुसलमान औरत से भिड़ गई, बस्स हो गया दंगा। इधर ये... इसमें भी कोई साजिश है! पंडित जी को अपवित्र कर दिया..... इन सालों को सबक सिखाना पड़ेगा। मारो साले को....
     उन्होंने उसे पकड़ लिया। पंडित जी आगे आ गये- छोड़ दो इसे... मैं तो गंगाजल से नहा लूंगा और हवन सामग्री भी और आ जायेगी पर तुम आगे से ऐसी चीजें ढक कर ले जाया करो.... इससे पहले कि बात आगे बढ़े तुम यहां से खिसक लो.... इतनी सी बात से हमारे महान धर्म पर कुछ भी आंच आने वाली नहीं है। 

  • 1600/114, त्रिनगर, दिल्ली-110035



सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा




पारखी  

    ‘‘कबीर साहब, लड़की तो कमाल की एक्ट्रेस है..... एक दिन जरुर टाप की अदाकार बनेगी।’’
    ‘‘स्क्रीन-टेस्ट लिया क्या?’’
    ‘‘ऐसे ही थोड़े कह रहा हूँ, फोटोजेनिक होने के साथ-साथ डायलाग डिलीवरी और एक्सप्रेशन भी परफेक्ट देती है, बिलकुल नेचूरल। लगता ही नहीं कि एक्टिंग कर रही है.... परफेक्ट हिरोइन है हमारे नए एड के लिए।’’
    ‘‘नसीम, तुम्हें पता है न कि नया एड देहात की बेकग्राऊन्ड पर बेस्ड है। क्या उसे देहात की कास्ट्यूम में टेस्ट किया है?’’
    ‘‘वह भी कर लेंगे, खालिस हिंदुस्तानी फिगर है। टंग और टोन दोनों ठेठ देहात की।’’
    ‘‘ठीक है, बुलाओ उसे। अभी चेक कर लेते हैं और तुम्हारी रीडिंग ठीक हुई तो फाइनल समझो’’
    ‘‘ओ. के. सर’’
    ‘‘मैडम, हमें ऐसी लड़की चाहिए जो गाँव की बैक-ग्राउंड को अपनी एक्टिंग और ड्रेस में उभार सके।’’
    ‘‘सर, आप चांस देकर देखिये, निराश नहीं करूंगी ।’’
रेखाचित्र : नरेश उदास 
    ‘‘ओ. के. आप यह देहाती कास्ट्यूम पहन लीजिये।’’
    ‘‘ठीक है, वाश-रूम किधर है?’’
    ‘‘इस चेम्बर को ही आप सब कुछ समझ सकती हैं, यहाँ हमारे अलावा और कोई नहीं है....आप यहीं चेंज कर सकती हैं।’’
    ‘‘वह देहात की अबोध बाला की तरह उन दोनों पारखिओं को पढ़ने का प्रयास करने लगी।’’
    ‘‘बेबी, कोई क्वेरी है क्या?’’
    ‘‘नो, सर। इट इज ईजी।’’
     जैसे-जैसे वह अपने नये लिबास में उतरती गई, दोनों पारखी उसकी एक्टिंग अप्रूव करते गये।
    ‘‘नसीम, लड़की वाकई टेलेंटेड है, एक दिन जरुर बड़ी अदाकार बनेगी।’’

  • डी-184, श्याम पार्क एक्सटेंशन, साहिबाबाद-201005 (उ.प्र.)


गोवर्धन यादव





प्रतियोगिता


         चित्रकला प्रतियोगिता चल रही थी। कई चित्रों में से दस चित्रों को अलग छांटकर रख दिया गया था। इन्हीं दस में से किसी एक चित्र को पुरस्कृत किया जाना था। इन दस चित्रों में एक चित्र ऐसा था जो सभी का ध्यान आकर्षित कर रहा था। सबसे ज्यादा संभावना थी कि वही प्रथम घोषित किया जाएगा।
         जब परिणाम घोषित हुआ तो उस प्रतियोगी का नाम लिस्ट से ही गायब था।


  • 103, कावेरी नगर, छिन्दवाडा (म.प्र.) 480001



छायाचित्र : उमेश महादोषी 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आत्मविश्वास, बात इतनी सी और कुर्सी और कौआ आदि लघुकथाएँ अच्छी हैँ।
    "----"-----
    http://yuvaam.blogspot.com/2013_01_01_archive.html?m=0

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  2. सभी लघुकथाएँ प्रेरक व रोचक हैं ।लघुकथाओं का चयन यत्नपूर्वक किया गया है ।

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  3. सभी लघुकथाएँ प्रेरक व रोचक हैं ।लघुकथाओं का चयन यत्नपूर्वक किया गया है ।

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