आपका परिचय

बुधवार, 4 मार्च 2015

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 05-06,  जनवरी-फरवरी 2015



।।कविता अनवरत।।



सामग्री : इस अंक में 'कुछ उपमेय :  कुछ उपमान' से  स्व.  डॉ. कृष्णचन्द्र तिवारी (डॉ. राष्ट्रबन्धु), स्व. श्री रामचरण सिंह ‘अज्ञात’, सुश्री रमा मेहरोत्रा, अम्बिका प्रसाद शुक्ल ‘अम्बिकेश’,  रविशंकर मिश्र, कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’, डॉ. सूर्य प्रसाद शुक्ल, डॉ. विद्या चौहान, कुँवर प्रदीप निगम व विष्णु त्रिपाठी तथा अन्य में श्री सुशान्त सुप्रिय व श्री गणेश भारद्वाज ग़नी की काव्य रचनाएँ। 




यह दुःखद सूचना
 इस बार के ब्लॉग पोस्ट करते-करते किसी वजह से फेस बुक पर जाना पड़ा। जाते ही इस दुःखद समाचार से सामना हुआ कि कानपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, जिन्होंने बच्चों के लिए काफी लिखा है, कल यानी 03 मार्च 2015 को श्रद्धेय डॉ. राष्ट्रबन्धु का रेलयात्रा के दौरान निधन हो गया। उनकी साठ से अधिक पुस्तके प्रकाशित हैं। आद. श्यामसुन्दर निगम जी द्वारा संपादित पुस्तक ‘कुछ उपमेय : कुछ उपमान’ में हाल ही उन्हें पढ़ा था। और उनकी सुप्रसिद्ध कविता ‘काले मेघा पानी दे’ इस अंक में शामिल करने के लिए कम्पोज कर चुका था। मैं व्यक्तिगत रूप से और ‘अविराम साहित्यिकी’ परिवार की ओर से श्रद्धेय कवि को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। डॉक्टर साहब का साहित्य में अमूल्य योगदान है, जो उन्हें सर्वदा अमर रखेगा और नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करेगा!

'कुछ उपमेय :  कुछ उपमान' से 
{सुप्रसिद्ध साहित्यकार-समीक्षक  श्री श्याम सुन्दर निगम जी ने अपने सहयोगियों श्री चक्रधर शुक्ल एवं डॉ. संदीप त्रिपाठी के साथ मिलकर वर्ष 2013 में कानपुर शहर से जुड़े 70 वर्ष से अधिक आयु वाले साहित्यकारों के व्यक्तित्व व कृतित्व के प्रति सम्मान की दृष्टि से ‘कुछ उपमेय :  कुछ उपमान’ पुस्तक संपादित की थी, जिसे वी.पी. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, नौबस्ता, कानपुर ने प्रकाशित किया था। इस पुस्तक में एक ओर जहाँ कानपुर के वरिष्ठ साहित्यकारों को एक मंच पर लाकर सम्मान देने, उनके प्रति बाद की पीढ़ी की ओर से कृतज्ञता ज्ञापित करने और साहित्य में विनम्रता और आदर-भाव की परम्परा की कड़ी को जोड़ने का प्रयास दिखाई देता है, वहीं वरिष्ठ जनों के प्रेरणाशील व्यक्तित्व और उनकी रचनाधर्मिता से नई पीढ़ी के समक्ष कुछ सीख के उदाहरण रखने का जज्बा भी। नि:सन्देह यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है, जिसमें संपादकों का एक ऐसा समर्पण देखने को मिलता है, जो अन्य प्रान्तों, शहरों में नई पीढ़ी को अपनी वरिष्ठ पीढ़ी और उनके अवदान के प्रति विनम्रता, स्मरण और सम्मान की भावना आत्मसात करने की प्रेरणा बन सकता है। पुस्तक में सत्तर पार के करीब 80 साहित्यकारों का संक्षिप्त परिचय, साक्षात्कार आधारित आत्मकथ्य और कुछ प्रतिनिधि रचनाएं शामिल की गई हैं। यहाँ हम इस पुस्तक के काव्य पक्ष से उदाहरणस्वरूप दस साहित्यकारों की एक-एक काव्य रचना अपने पाठकों के लिए रख रहे हैं।}


डॉ. कृष्णचन्द्र तिवारी (डॉ. राष्ट्रबन्धु)




काले मेघा पानी दे

काले मेघा पानी।
पानी दे गुड़धानी दे।।

लड्डू बरसे खेत में
बच्चे हरसें रेत में
मेघों की अगवानी में
उछलें कूदें पानी में
सबको नाना नानी दे।
हर दिन एक कहानी दे।।

कंजूसों को दानी दे
सिक्कों की निगरानी दे
रानी को हैरानी दे
घर घर मच्छर दानी दे
सब पशुओं को सानी दे।

छाया चित्र :
उमेश महादोषी 
मानवता की निशानी दे।।

अपनी जैसी बानी दे
उलझन में आसानी दे
दुश्मन पानी माँग उठें
ऐसा हमको पानी दे
परंपरा बलिदानी दे।
धरती धानी धानी दे।।

  • पारिवारिक संपर्क : 109/309, रामकृष्ण नगर, कानपुर-208012, उ.प्र. 

रामचरण सिंह ‘अज्ञात’




गीत
रूप-नाम का गर्व जहाँ, हम कैसे वहाँ रुकें।
स्वयं स्वार्थ की सिद्धि हेतु, हम कैसे भला झुकें।।

रूप-नाम के भवनों में हम, सदियों रुके रहे।
रूपसियों-षोड़सियों के, चरणों में झुके रहे।।
रजत राज्य के रनिवासे में, हम हैं बहुत रहे।
क्षणिक वासना की बयार में, हम हैं बहुत बहे।।
कामातुरा कल्पनाओं ने, नित-प्रति हमें ठगा,
खड़ा महल जो बालू पर, हम कैसे वहाँ टिकें।
स्वयं स्वार्थ की सिद्धि हेतु, हम कैसे भला झुकें।।

लौकिक अन्तःपुरियों से है, क्या लेना-देना।
देती ही रहती जो हमको, लगातार ठेना।।
जीते युद्ध अनेकों पर हम, हारे के हारे।
हम तो ऐसे हुए, कि जैसे, वन के बन्जारे।।
ऊपर-नीचे आते-जाते, साँसें बहुत थकीं,
विषम बीथियों में चल-चल हम, कैसे नहीं थकें।
स्वयं स्वार्थ की सिद्धि हेतु, हम कैसे भला झुकें।।

टूटी छत तो गौरैया का, थलकुर भी न बचा।
छाया  चित्र : डॉ. सुरेश पाण्डेय 

बचा न वह भी विश्व, जिसे हमने था स्वयं रचा।।
हमने भी तो एकाकी, जीवन जीना सीखा। 
हर पदार्थ लगता हमको, अब तो तीखा-तीखा।
जहाँ गये हम वहीं सुधा में, मदिरा हमें मिली,
ऐसी ही बातें हैं वे, जिनको हम कह न सकें।।
स्वयं स्वार्थ की सिद्धि हेतु, हम कैसे भला झुकें।।
  • पारिवारिक संपर्क : एल.आई.जी. 66, बर्रा-5, कानपुर-208027, उ.प्र.



रमा मेहरोत्रा






ये गीत

गिरें बिजली, झरें बादल, मगर-
ये गीत- जलते हैं न बहते हैं।
भरी जो आग है इनमें,
भरा इनमें जो पानी है।
नहीं वो आग बिजली में, 
न बादल इनका सानी है।
ये वो आगी है जो अन्तर
की ज्वाला ही लपेटे है।
ये वो पानी है जो जग की
सभी पीड़ा समेटे है।
इसी से तो कहा है कि-
गिरें बिजली, झरें बादल, मगर-
ये गीत- जलते हैं न बहते हैं।

सदा ही गीत किलके हैं,
गोद तूफान की जाकर।
सदा ही पीर महकी है,
घने झंझा को अपनाकर।
ये जाने कैसे पागल हैं,
जो पथ शूलों के चलते हैं।
ये वो शिशु हैं नियम से,
जोकि आँसू पी के पलते हैं।
इसी से तो कहा है कि-
गिरें बिजली, झरें बादल, मगर-
ये गीत- जलते हैं न बहते हैं।

ये वैसे तो बड़े कोमल,
छाया चित्र : श्रद्धा पाण्डेय 

मगर हैं क्या कभी टूटे।
वरन् जोड़ा ही है उनको
कि जिनके साथ हैं छूटे।
है इनका तन खिलौने सा,
हिमालय हैं मगर मन के।
पिया विष-घूंट जिस शिव ने,
बने मंदिर सदा उनके।
इसी से तो कहा है कि-
गिरें बिजली, झरें बादल, मगर-
ये गीत- जलते हैं न बहते हैं।

  • 404, गंगोत्री अपार्टमेन्ट, 7/261, स्वरूप नगर, कानपुर, उ.प्र. / मोबाइल : 09956311307 



अम्बिका प्रसाद शुक्ल ‘अम्बिकेश’




मज़दूर
वह सड़क पर जा रहा था
एक नर कंकाल सा वह,
विश्व का भूचाल सा वह,
सभ्यता का शत्रु सा,
शोषित क्षुधित बंगाल सा वह।
शुष्क-दृढ़ निज युग करों से,
प्राण छाती में दबाये,
मौज से कुछ गा रहा था।
वह सड़क पर जा रहा था।।

माघ के दिन तीव्र ठिठुरन,
तीर सा लगता समीरन,
मस्त सुख की गोद में,
करते किलोलें ये धनिक जन।
किन्तु बेपरवाह सा वह,
लाज लत्तों में लपेटे,
श्रम जनित सुख पा रहा था।
वह सड़क पर जा रहा था।।

सहज सम्भव डग बढ़ाता, 
नींव वैभव की हिलाता,
पद-प्रकम्पन मात्र ही,
इतिहास कुछ का कुछ बनाता।
वह मनीषी, विप्लवी, विध्वंसकारी,
विश्व के सारे प्रलोभन,
शान से ठुकरा रहा था।
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 

वह सड़क पर जा रहा था।।

जग उसे मज़दूर कहता,
और उससे दूर रहता,
किन्तु संश्रति के सृजन में,
वह लगा भरपूर रहता।
क्रान्ति युग के इन क्षणों मे,
हर कदम उसका स्वयं ही,
एक नव युग ला रहा था।
वह सड़क पर जा रहा था।।

  • 121/1, डबल कॉलोनी, साइट नं. 1, किदवई नगर, कानपुर-208011, उ.प्र. / मोबाइल : 09795621207




रविशंकर मिश्र
(उर्दू लेखन में ‘रवि अदीब’)




गीत 
शांति दूत कह उड़ा दिया था तुमने जिसको नील गगन में
देखो नोचे पंखों वाला वही सफ़ेद कबूतर हूँ मैं
वही सफ़ेद कबूतर हूँ मैं...

मैं लोहू में लिथड़ा घायल देख रहा यह धरती सूखी,
मधुऋतु के सपनों को छलती जीती जगती लपटें लू की
बरसों जिसकी फ़सल से तुमने पेट भरे दस्तावेजों के
देखो देखो वही खेत हूँ और आज तक बंजर हूँ मैं
वही सफ़ेद कबूतर हूँ मैं...

सच्चाई की शोभा यात्रा में छाले पड़ गये पाँव में,
‘जय-जय’ करते सूखे कंठों को न मिला जल किसी गाँव में
आसमान से चित्र उतारे, तुमने जिसकी खुशहाली के
उसी भूमि का बासी अब तक भूखा-नंगा-बेघर हूँ मैं
छाया चित्र : 
उमेश महादोषी 
वही सफ़ेद कबूतर हूँ मैं...

धरम-करम तक बस था अपना, फल पर कुछ अधिकार नहीं था
निश्छल मन था, निर्मल तन था, लिप्सा का व्यापार नहीं था
लेकिन तुम सबके उत्तेजक नंगा नाच दिखाया जिसका-
उसी सियासत से मजबूरन आज हुआ हमबिस्तर हूँ मैं
वही सफ़ेद कबूजर हूँ मैं...

  • 111 ए/198, अशोक नगर, कानपुर-208012, उ.प्र. / मोबाइल :  09336109585




कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’




स्वर तुम्हारा, बांसुरी मैं

एक स्वर पाकर तुम्हारा, 
बन गया हूँ बांसुरी मैं।

मौन विजड़ित-बाँस सा मैं,
पड़ा था बेसुध अजाना।
किन्तु तन-मन छेड़ तुमने
कर लिया अपना न माना।
दर्द पीने को तुम्हारा,
बन गया हूँ आंजुरी मैं।

अधर क्या तुमने मिलाये,
हुए रसमय भाव मेरे।
गीत अगणित सप्त-स्वर में,
गा उठे सब घाव मेरे।
मधु अधर छूकर तुम्हारा, 
बन गया हूँ मधुकरी मैं।
छाया चित्र  :
कमलेश चौरसिया 


यदि न देते वेदना तुम,
भावना क्यों जन्म लेती।
शब्द केवल शब्द रहते,
चिन्तना यदि लय न देती।
कल्पने होकर तुम्हारा,
बन गया हूँ नभचरी मैं।

एक स्वर पाकर तुम्हारा, 
बन गया हूँ बांसुरी मैं।

  • 29 ए/2, कर्मचारी नगर, पी.ए.सी. रोड, कानपुर-208007, उ.प्र. / मोबाइल :  09307455504



डॉ. सूर्य प्रसाद शुक्ल





भगत सिंह

सिंह था भगत सिंह नर सिंह नाहर था,
क्रान्तिकारिता का वो कुशाग्र कान्तिकारी था।
दूर अति वासना विषै से वो सदा ही रहा
छाया चित्र :
अभिशक्ति 
वीर था प्रवीर था अपूर्व अविकारी था।
अम्ब-जगदम्ब का वो प्राण प्रहरी था और-
नहीं था सुरारी- असुरों का असुरारी था।
था तो वो अकेला पर गोरे शासकों के लिए,
भारतीय भान था हिमालय सा भारी था।

  • 119/501, सी-3, दर्शनपुरवा, कानपुर-208012, उ.प्र. / मोबाइल :  09839202423




डॉ. विद्या चौहान





गीत

इस हँसते रोते जीवन में-
कुछ दर्द भी है, कुछ प्यार भी है।
जब धवल हंस से पंख जोड़
उड़ते फिरते बादल नभ में।
जब मेघ आवरण खोल खोल
रवि आनन हँसता पल-पल में।
देखा करती हूँ मौन तभी-
कुछ धूप भी है, कुछ छाँव भी है।
जब मिलन स्वप्न सा अनचाहे
आ जाता है पुलकित चंचल।
तब विरह कल्पना धीरे से
फैला देती अपना आँचल।
लगता है मेरे मानस में-
रेखा चित्र :
अनुप्रिया 
कुछ तृप्ति भी है, कुछ प्यास भी है।
तट को लक्षित कर जीर्ण तरी
लहरों पर जब लहराती है।
तट कट कर जल में गिर जाता
दूरी बढ़ती ही जाती है।
तब स्थिर नयनों में लगता-
कुछ अश्रु भी हैं, कुछ हास भी है।
  • 109/417 बी, नेहरू नगर, कानपुर-208012, उ.प्र. / फोन :  0512-2554613




कुँवर प्रदीप निगम






गीत
टूटकर बिखरी पड़ी है
काँच की दीवार।
खिलखिलाकर हँस रही है
सामने तलवार।।

आँख में रंगीन सपने,
पैर फिसलन में।
उम्र प्यासी रह गई है,
भरे सावन में।
आस्था के केश खींचे,
मन सरे बाजार।।

है हमारे द्वार पर,
संदेह का पहरा।
इस सदी का साथ,
लपटों से बड़ा गहरा।
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल 

हर तरफ है हो रहा,
अब खून का व्यापार।।

आदमी गुमसुम खड़ा है,
लुट गए हैं स्वर।
जैसे पक्षी के किसी ने,
काट डाले पर।
अर्थ क्या है जिंदगी का
और क्या है सार।।

  • 205 एफ, पनकी, कानपुर-208020, उ.प्र. / मोबाइल :  07376976744




विष्णु त्रिपाठी




गीत

कहाँ, कहाँ जुड़ें
कहाँ टूट जाएँ 
घड़े भरे-अधभरे
सब फूट जाएँ

सम्भावनाएँ सभी जिन्हें
सदा दिखें बाँझ
सुबह कभी दिखे नहीं
सदा दिखे साँझ
दिखने में जिन्दा जो
सचमुच हैं मुर्दा
मिला नहीं जिगर जिन्हें
मिला नहीं गुर्दा
राम करे जीतेजी
मरे हुए लोग छूट जाएँ
कहाँ, कहाँ जुड़ें
कहाँ टूट जाएँ। 

स्वयं चरें चरागाह चरवाहे
रेखा चित्र : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा

रेवड़ को चरैवेति, चरैवेति टेरते
करमम् करु कर्मत्वं
करमम् करु कर्मत्वं
मंत्र मोह निर्दयी
कोल्हू को पेरते
पेशेवर देशभक्त
बँसरी चैन की बजाएँ
कहाँ, कहाँ जुड़ें
कहाँ टूट जाएँ। 

  • 13/94, परमट, कानपुर-208001, उ.प्र. / फोन :  0512-2536749


कुछ  और रचनाएँ 


सुशान्त सुप्रिय




तीन कविताएँ 

01. सबसे अच्छा आदमी

सबसे अच्छा है
वह आदमी
जो अभी पैदा ही नहीं हुआ

उसने हमें कभी नहीं छला
प्रपंचों पर वह कभी नहीं पला
हमें पीछे खींच कर
वह आगे नहीं चला

बची हुई है अभी
वे सारी जगहें
जिन्हें घेरता
उसका अस्तित्व
अपनी परछाईं से
बची हुई है अभी
उन सारी जगहों की
आदिम सुंदरता
उसके हिस्से की रोशनी में
नहाती हुई

बची हुई है
अब भी निर्मल
उसके हिस्से की
धूप पानी हवा
आकाश मिट्टी
बचा हुआ है अभी फ़िज़ा में
उसके हिस्से का ऑक्सीजन
राहत की बात है कि
इसी बहाने थोड़ी कम है अभी
वायुमंडल में
कार्बन डायऑक्साइड की मात्रा
रेखा चित्र : संदीप राशिनकर


नहीं बनी है एक और सरल रेखा
वक्र रेखा अभी
बची हुई है बेहतरी की
कुछ संभावनाएँ अभी

कि उपस्थित के बोझ से
कराह रही धरती को
अनुपस्थित
अच्छे आदमी से मिली है
थोड़ी-सी राहत ही सही

02. कहा पिताजी ने

जब नहीं रहेंगे
तब भी होंगे हम-
कहा पिताजी ने

जिएँगे बड़के की क़लम में
कविता बन कर

चित्र बन कर जिएँगे
बिटिया की कूची में

जिएँगे हम
मँझले के स्वाभिमान में
रेखा चित्र : उमेश महादोषी


छोटे के संकल्प में
जिएँगे हम

जैसे हमारे माता-पिता जिये हममें
और अपने बच्चों में जिएँगे ये
वैसे ही बचे रहेंगे हम भी
इन सब में-

कहा पिताजी ने
माँ से

03. केवल रेत भर

वर्षों बाद
जब मैं वहाँ लौटूँगा
सब कुछ अचीन्हा-सा होगा
पहचान का सूरज
अस्त हो चुका होगा

मेरे अपने
बीत चुके होंगे
मेरे  सपने
रीत चुके होंगे
अंजुलि में पड़ा जल
बह चुका होगा
प्राचीन हो चुका पल
ढह चुका होगा

बचपन अपनी केंचुली उतार कर
गुज़र गया होगा
यौवन अपनी छाया समेत
बिखर गया होगा

मृत आकाश तले
वह पूरा दृश्य
एक पीला पड़ चुका
पुराना श्वेत-श्याम चित्र होगा
दाग़-धब्बों से भरा हुआ
छाया चित्र : अभिशक्ति

जैसे चींटियाँ खा जाती हैं कीड़े को
वैसे नष्ट हो चुका होगा
बीत चुके कल का हर पल

मैं ढूँढ़ने निकलूँगा
पुरानी आत्मीय स्मृतियाँ
बिना यह जाने कि
एक भरी-पूरी नदी वहाँ
अब केवल रेत भर बची होगी

  • द्वारा श्री एच. बी. सिन्हा, 5174, श्यामलाल बिल्डिंग, बसंत रोड, (निकट पहाड़गंज), नई दिल्ली-110055 / मोबाइल : 09868511282 / 08512070086



गणेश भारद्वाज ग़नी




सृजन की ओर

कभी-कभी चलचित्र हो जाते हैं
स्मृतियों के चांदी के बरके
जुजुराणा के पंखों-सी ही तो हैं
स्मृतियां बचपन की।

सोचता हूं कितना बेरंग
और नीरस हो चला है जीवन अब
जब कि कुछ नहीं बदला है
सिवाए तुम्हारे।

आज भी सूरज और चांद
उसी गति से हैं गतिमान
आज भी बीज की प्रकृति है उगना
और फिर वृक्ष बनना
वृक्ष से निसृत धूप और छांव
परिकल्पना है
तुम्हारे और मेरे अहसास की।

तुमने चाहा ही नहीं
मेरे हिस्से की धूप-छांव
तुम्हें मिल सकती थी
मेरे अहाते के वृक्ष की छांव
तुम्हें भी मालूम है
पहुंचती है दोपहर बाद
तुम्हारे आंगन में।

हो सके तो आंगन बुहार लो
मेरी तरफ से आती धूप-छांव को
कर लें हम सांझा
जीवन उजाले की धूप ही नहीं 
शान्त मन की चांदनी भी 
कर सकते हैं उसी तरह आधी-आधी
हो सके तो खिड़कियां खोलकर
गुज़र जाने दो मेरे से बहती
चांदनी की आभा
तुम्हारे हृदय तक।

तब कहीं उसी तरह तरतीब बार 
हमारे अहातों की धूप-छांव
चांदनी की सुगन्ध
गुज़र जाएगी एक अनन्त तक 
छाया चित्र : रितेश गुप्ता

अनवरत बिना रूके
मेरे और तुम्हारे से 
सांझा होकर सृजन की ओर।

कभी-कभी चलचित्र हो जाते हैं
स्मृतियों के चांदी के बरके
जुजुराणा के पंखों-सी ही तो है
स्मृतियां बचपन की।
  • एम.सी. भारद्वाज हाऊस, भुटी कालोनी,  डा. शमशी, जिला कुल्लू (हि.प्र.)-175126 / मोबाइल :  09736500069

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