अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 6, अंक : 05-06, जनवरी-फ़रवरी 2017
डॉ. उमेश महादोषी
बरेली शहर का यथार्थ चेहरा
वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरिशंकर शर्मा जी ने ‘शहर की पगडंडियाँ’ के माध्यम से बरेली (बाँस बरेली) शहर के चेहरे को इतिहास और वर्तमान के सन्दर्भ में पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास किया है। इसके माध्यम से उन्होंने शहर की गलियों-बस्तियों-चौराहों के चित्र खींचे हैं, शहर की विरासत को याद किया है, उसकी खूबियों पर लिखा है, इतिहास से लेकर वर्तमान तक उन सामाजिक-सांस्कृतिक -साहित्यिक रेखाओं को अपनी तूलिका की स्याही प्रदान करने की चेष्टा की है, जो शहर के चेहरे को चमक प्रदान करती दिखाई देती हैं। उन्होंने साहित्य से लेकर संगीत, गायन, अभिनय, पत्र-पत्रिकाओं व पुस्तकालयों के साथ
धार्मिक स्थलों की स्थिति, प्रकाशन व्यवयाय और उस पर बाजार के प्रभाव पर भी प्रकाश डाला है, इन सबमें रची-बसी सुगन्ध को पाठकों के अन्तर्मन तक पहुँचाने का समर्पित प्रयास किया है। लेकिन यह सब करते हुए उनके अपने अन्तर्मन में शायद कई चीजें घूमती रही हैं, जिनमें अच्छी चीजों के सुफल को देखने की जिज्ञासा के साथ कहीं न कहीं बरेली की आधुनिक प्रगति में संस्कारों और विरासत की उपेक्षा का दर्द भी शामिल है। पं. राधेश्याम कथावाचक जी, साहित्यिक पत्रिका ‘भ्रमर’ और निरंकार देव सेवक जी का जिस तरह एकाधिक प्रसंगों में स्मरण किया गया है, वह सिर्फ उन्हें स्मरण करना भर नहीं है, अपितु उनके बाद के खालीपन की कचोट को महसूस करना भी है। आधुनिक बरेली शहर निसन्देह भौतिक सुख-सुविधाओं की दृष्टि से काफी आगे बढ़ रहा है, लेकिन उसकी प्रगति अपूर्ण है क्योंकि उसमें अपने संस्कारों और विरासत की सुगंध का अभाव है। भावार्थ की दृष्टि से ‘प्रगति’ में मानक जीवन की सहजता के अनुरूप वर्तमान की तार्किक और भविष्य की अनुमानित आवश्यकताओं की पूर्ति के संकल्पों के साथ बीते हुए और बीत रहे समय की सकारात्मक महत्वपूर्ण चीजों का संरक्षण भी शामिल होता है।
धार्मिक स्थलों की स्थिति, प्रकाशन व्यवयाय और उस पर बाजार के प्रभाव पर भी प्रकाश डाला है, इन सबमें रची-बसी सुगन्ध को पाठकों के अन्तर्मन तक पहुँचाने का समर्पित प्रयास किया है। लेकिन यह सब करते हुए उनके अपने अन्तर्मन में शायद कई चीजें घूमती रही हैं, जिनमें अच्छी चीजों के सुफल को देखने की जिज्ञासा के साथ कहीं न कहीं बरेली की आधुनिक प्रगति में संस्कारों और विरासत की उपेक्षा का दर्द भी शामिल है। पं. राधेश्याम कथावाचक जी, साहित्यिक पत्रिका ‘भ्रमर’ और निरंकार देव सेवक जी का जिस तरह एकाधिक प्रसंगों में स्मरण किया गया है, वह सिर्फ उन्हें स्मरण करना भर नहीं है, अपितु उनके बाद के खालीपन की कचोट को महसूस करना भी है। आधुनिक बरेली शहर निसन्देह भौतिक सुख-सुविधाओं की दृष्टि से काफी आगे बढ़ रहा है, लेकिन उसकी प्रगति अपूर्ण है क्योंकि उसमें अपने संस्कारों और विरासत की सुगंध का अभाव है। भावार्थ की दृष्टि से ‘प्रगति’ में मानक जीवन की सहजता के अनुरूप वर्तमान की तार्किक और भविष्य की अनुमानित आवश्यकताओं की पूर्ति के संकल्पों के साथ बीते हुए और बीत रहे समय की सकारात्मक महत्वपूर्ण चीजों का संरक्षण भी शामिल होता है।
पुस्तक में संगीत, साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े परिवेश पर काफी लिखा गया है। जो जानकारी दी गई है, वह इन क्षेत्रों में बरेली के योगदान को रेखांकित करने के लिए महत्वपूर्ण है। लेकिन यही जानकारी महत्वपूर्ण प्रश्न भी उठाती है कि ये महत्वपूर्ण चीजें सामान्य उपलब्धता और सामान्य ज्ञान के दायरे में आकर लोगों के आकर्षण का माध्यम क्यों नहीं बन पाईं? ऐसी आधारभूमि के होते हुए भी बरेली साहित्य-संगीत के राष्ट्रीय फलक पर अपना स्थान क्यों नहीं बना पाया? आज भी साहित्य और संगीत से जुड़े कई महत्वपूर्ण व्यक्तित्व बरेली शहर में उपस्थित हैं, उनकी पहुँच और प्रभाव भी है, लेकिन इसके बावजूद शहर की विरासत को प्रदर्शित करने वाला कोई प्रतीक चिन्ह शहर के प्रमुख सार्वजनिक स्थलों पर सामान्यतः दिखाई नहीं देता। नई प्रतिभाओं में ऊर्जा का संचार नहीं हो पा रहा है, यह प्रतिभा या जागरूकता की कमी का मामला हो या प्रोत्साहन का अभाव, लेकिन इतना तय है कि यदि नई प्रतिभाएँ राष्ट्रीय फलक पर नहीं आयेंगी तो शहर की तमाम नामचीन हस्तियाँ अपनी परम्परा स्वयं बनकर रह जायेंगी। साहित्य की उभरती हुई विधा ‘लघुकथा’ पर दो-दो अखिल भारतीय सम्मेलनों का मेजबान शहर भाई सुकेश साहनी जी के आधे कद का भी कोई दूसरा लघुकथाकार पैदा नहीं कर पाया! जैसा कि यह पुस्तक भी संकेत करती है, ‘भ्रमर’ के बाद कोई स्तरीय नियमित लघु पत्रिका बरेली शहर नहीं दे पाया है। वर्तमान में ‘मंदाकिनी’ नियमित नहीं हो पा रही है। ‘गीतप्रिया’ (जिसकी चर्चा पुस्तक में नहीं है) नियमित रूप से निकल रही है, लेकिन एक तो वह केवल गीत विधा पर केन्द्रित है, दूसरे संभवतः सहयोग एवं मार्गदर्शन के अभाव में व्यापक भूमिका का निर्वाह नहीं कर पा रही है।
हमें यह बात समझनी होगी कि किसी भी क्षेत्र की सांस्कृतिक-साहित्यिक-सामाजिक प्रगति प्रतिभाओं के उभार और उसके सतत प्रवाह के बिना संभव नहीं है। नई प्रतिभाओं को भी संघर्ष और समर्पण के रास्तों के साथ अपनी क्षमताओं की पहचान करनी होगी। लेकिन वातावरण बनाने में बड़ों की भूमिका होती है, वह उस तरह दिख नहीं रही है। ऐसी चीजों के पीछे के कारणों पर पुस्तक में भले प्रत्यक्षतः प्रश्न न उठाया गया हो, लेकिन पुस्तक के पीछे की अन्तर्भावना को तो समझना ही पड़ेगा। कई चीजों को शर्मा साहब ने बड़े परिश्रम और समर्पण भाव से खोजबीन कर प्रस्तुत किया है, किन्तु वे चीजें व्यवहार के धरातल पर भी अपने प्रभाव और दमक के साथ दिखाई दें, तो कुछ बात बने। श्री हरिशंकर शर्मा जी मूलतः बरेली के हैं, उनके अन्तर्मन में इस शहर के प्रति अगाध प्रेम और समर्पण का भाव है, जो पुस्तक के शब्द-शब्द में झलक रहा है।
पुस्तक में शामिल सभी आलेख काफी पहले लिखे गये व प्रकाशित हैं, इसलिए उन्हें किसी न किसी रूप में अद्यतन किए जाने की आवश्यकता थी। आवश्यकतानुसार आलेखों के अंत में नोट लगाए जा सकते थे या भूमिका में प्रमुख परिवर्तनों पर लिखा जा सकता था। बरेली के बारे में मुझे बहुत सघन-सूक्ष्म जानकारी नहीं है, लेकिन सिटी शमशान भूमि पर स्थित चंदन का वृक्ष वर्षों पूर्व तस्करों की भेंट चढ़ चुका है। वह अब केवल एक किंवदंती भर है। शहर के चेहरे को नोंचने जैसा यह कृत्य क्या स्थानीय शह के बिना संभव हो पाया होगा? थोड़े से पैसों के लिए शहर की अमूल्य निधि को बेच-खाने वालों के पेट की भूख कितने दिनों के लिए मिटी होगी! मुझे नहीं पता कि उस चन्दन वृक्ष की हत्या पर इस शहर की आँखें कितना नम हुई होंगी? हाँ, शर्मा साहब और बरेली के तमाम वासियों से क्षमा याचना के साथ इतना अवश्य कहूँगा जो शहर एक खूबसूरत और जीवन की अंतिम यात्रा को सुगन्धित करने वाले शहर की पहचान बन चुके और महामहिम राष्ट्रपति के हाथों रोपित पवित्र वृक्ष को नहीं बचा पाया, वह अपनी संस्कृति और विरासत के प्रति कितना प्रतिबद्ध और समर्पित हो सकेगा!
शहर के जो लोग बड़े बन गये हैं, भले ही अपने परिश्रम से बने हैं, शहर को भी उतना ही बड़ा बनाने के बारे में सोच सकें, तो निसंदेह आने वाला समय उन्हें महान कहेगा, उनकी महानता के गुण गायेगा। श्री हरिशंकर शर्मा जी ने बरेली से दूर जाकर भी अपने शहर के लिए अपनी क्षमताओं के अनुरूप अपना एक कदम बढ़ाया है, देखते हैं आज भी इस शहर की दाल-रोटी खाने वाले कितने कदम आगे बढ़ाते हैं!
शहर की पगडंडियाँ : आलेख संग्रह : हरिशंकर शर्मा। प्रकाशन : नारवाल प्रकाशन, मेन मार्केट, रतनलाल रूंगटा के पास, पिलानी, राज.। मूल्य : रु. 250/- मात्र। संस्करण : 2016।
- 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004
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