अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 6, अंक : 05-06, जनवरी-फ़रवरी 2017
जितेन्द्र जौहर
मुक्तक
01.
किसी दरवेश के किरदार-सा जीवन जिया होता।
हृदय के सिंधु का अनमोल अमरित भी पिया होता।
नहीं होता तृषातुर मन, हिरन-सा रेत में व्याकुल
अगर अन्तःकरण का आपने मंथन किया होता।
02.
नहीं है आरजू कोई कि मुझको मालो-ज़र दे दे।
तू लम्बी ज़िन्दगी दे या कि मुझको मुख़्तसर दे दे।
मुझे जो भी दे, जैसा दे, सभी मंजूर है लेकिन
इनायत कर यही मुझ पर कि जीने का हुनर दे दे।
01.
किसी दरवेश के किरदार-सा जीवन जिया होता।
हृदय के सिंधु का अनमोल अमरित भी पिया होता।
नहीं होता तृषातुर मन, हिरन-सा रेत में व्याकुल
अगर अन्तःकरण का आपने मंथन किया होता।
02.
नहीं है आरजू कोई कि मुझको मालो-ज़र दे दे।
तू लम्बी ज़िन्दगी दे या कि मुझको मुख़्तसर दे दे।
मुझे जो भी दे, जैसा दे, सभी मंजूर है लेकिन
इनायत कर यही मुझ पर कि जीने का हुनर दे दे।
03.
मुकद्दर आज़माने से, किसी को कुछ नहीं मिलता।
फ़क़त आँसू बहाने से, किसी को कुछ नहीं मिलता।
हरिक नेमत उसे मिलती, पसीना जो बहाता है
कि श्रम से जी चुराने से किसी को कुछ नहीं मिलता।
मुकद्दर आज़माने से, किसी को कुछ नहीं मिलता।
रेखाचित्र : संदीप राशिनकर |
फ़क़त आँसू बहाने से, किसी को कुछ नहीं मिलता।
हरिक नेमत उसे मिलती, पसीना जो बहाता है
कि श्रम से जी चुराने से किसी को कुछ नहीं मिलता।
04.
जिधर देखो, उधर केवल, अँधेरा ही अँधेरा है।
निशा के जाल में उलझा हुआ, घायल सवेरा है।
बुरे हालात हैं ‘जौहर’, नगर से राजधानी तक
सियासत के दरख़्तों पर, उलूकों का बसेरा है।
जिधर देखो, उधर केवल, अँधेरा ही अँधेरा है।
निशा के जाल में उलझा हुआ, घायल सवेरा है।
बुरे हालात हैं ‘जौहर’, नगर से राजधानी तक
सियासत के दरख़्तों पर, उलूकों का बसेरा है।
- आई आर- 13/6, रेणुसागर, सोनभद्र-231218, उ.प्र./मोबा. 09450320472
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