विराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 8, अप्रैल 2013
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में डॉ. रश्मि बजाज, शेर सिंह, पूजा भाटिया प्रीत, अमित ‘अहद’, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, सजीवन मयंक, धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’ एवं अशोक भारती ‘देहलवी’ की काव्य रचनाएँ।
डॉ. रश्मि बजाज
{सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ. रश्मि बजाज का कविता संग्रह ‘स्वयं सिद्धा’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में बाह्य जगत की क्रियायें हों या परिवेशगत अन्तर्विरोध, संग्रह की अधिकांश कविताओं में उन्होंने स्त्री की वास्तविक पहचान को कुरेदकर अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी कुछ प्रतिनिधि कविताएँ।}
सीता नाम सत्य है
सीता नाम भी
सत्य है उतना
राम नाम
सच है जितना
सच जानो तो
सीता नाम ही
सदा सत्य है-
जाँचा, परखा
तपा, मंजा
अग्नि-परीक्षा
से गुज़रा
धरती के
आँचल से जुड़ा....
एक अज़ान
जोड़ोगे जब
अपने साथ
औरत की भी
एक अज़ान
सच जानो
तब ही तुमको
फल पाएंगे
रमज़ान, कुरान
खोलो बंद
किवाड़, हुजूर
आए भीतर
खुदा का नूर!
आदम के बच्चे!
हव्वा की
बच्ची को
कब तक
रख पाएगा
तू अल्लाह
से दूर?
स्वयंसिद्धा
सुन लो
तुम सब
बुद्ध, प्रबुद्ध
उसे न करना
‘धम्मपद’ सिद्ध!
तुमने जो
खोजा है
मरण में
स्त्री ने
ढूँढ़ लिया
जीवन में
स्त्री है
नृत्य है
स्त्री संगीत
स्त्री रसधार
है स्त्री
है प्रीत
बँधे वो
शास्त्र में
कैसे भला
स्त्री होती है
स्वयंसिद्धा!
जिंक्सड
इनाम है
पैदा होने पर
इनाम है
शाला जाने पर
इनाम है
ब्याह रचाने पर
इतने ‘इंसैटिव’
दे कर भी
नहीं बढ़ती
मेरी ‘प्रोडक्शन’
मैं हूँ
ईश्वर का
‘जिंक्सड आइटम’....
शेर सिंह
नया अंदाज
जुबान में चाशनी
कदमों में ठहराव
फिर कोई नई चाल?
कुशलक्षेम, राम-राम
अचानक गलबांहे डालते
कोई नया पंछी जाल में?
सर्द, गर्म
बदले बोल, व्यवहार
क्या गजब नया अंदाज?
है चतुर खिलाड़ी
सभी समझते, जानते
आंखें होते हुए भी अंधे सब?
पूजा भाटिया प्रीत
पुरुष मन
दशरथ की पीर का अनुमान
किसे न था ?
कौशल्या के मन का भान
किसे न था?
राम के बनवास का त्रास
किसे न दिखा?
सीता की वेदना
किसने न महसूस की ?
भरत का घाव
किसने न भोगा ?
हनुमान का भक्ति भाव
किस से अनछुआ रहा?
उर्मिला का विरह क्रंदन
किस से छुपा रहा?
यहाँ तक की चंद विराट हृदय लोगो ने
मंथरा और कैकई को भी
समझा या समझने का प्रयत्न किया
सबने सब महसूस किया
अपनी-अपनी सीमा तक
क्या अनछुआ रह गया रामायण में?
क्या किसी ने लक्ष्मण के अथाह मन को समझा?
क्यों अपना संसार मोह छोड़
वो चल दिया राम संग?
उर्मिला को विरह विछोह उपहार में दे?
क्या पाना ध्येय था उसका?
क्या भान था उसे राम के भगवान होने का?
क्या चौदह सालों में एक पल भी
विरह न सहा उसने?
क्यूँ नकार दिया हमने पुरुष में
छिपे स्त्री मन को?
जो तड़पा भी होगा कभी
अपनी उर्मी की याद में?
क्यों अनछुआ, अनकहा रह गया
लक्ष्मण का मन?
क्या इस लिए की लक्ष्मण पुरुष हैं?
क्या पुरुष नहीं होते भावुक?
क्या उन्हें नहीं सताती विरह-वेदना?
सोचिये.....
सोचिये..... क्यों कि ....
प्रश्न सोचनीय तो है.....
अमित ‘अहद’
ग़ज़ल
कुछ न कुछ तो जरूर होता है
इश्क का जब सरूर होता है
आप से दूर जब भी जाता हूँ
दर्द दिल में हुजूर होता है
बात सच्ची अगर कहे भी तो
आइना चूर-चूर होता है
इन्साँ कोई बुरा नहीं होता
वक्त का सब क़ुसूर होता है
जब नज़र से नज़र टकरातीी है
चर्चा फिर दूर-दूर होता है
प्यार उससे खुदा नहीं करता
‘अहद’ जिसको गरूर होता है
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
कुंडलियां
1.
अपनी अपनी अहमियत, सूई या तलवार।
उपयोगी हैं भूख में, केवल रोटी चार।।
केवल रोटी चार, नहीं खा सकते सोना।
सूई का कुछ काम, न तलवारों से होना।।
‘ठकुरेला’ कविराय , सभी की माला जपनी।
छोटा हो कि लघुरूप , अहमियत सबकी अपनी।।
2.
नहीं समझता मंदमति, समझाओ सौ बार।
मूरख से पाला पड़े, चुप रहने में सार।।
चुप रहने में सार, कठिन इनको समझाना।
जब भी जिद लें ठान , हारता सकल जमाना।।
‘ठकुरेला’ कविराय , समय का डंडा बजता।
करो कोशिशें लाख, मंदमति नहीं समझता।।
3.
मानव की कीमत तभी, जब हो ठीक चरित्र।
दो कौड़ी का भी नहीं, बिना महक का इत्र।।
बिना महक का इत्र, पूछ सदगुण की होती।
किस मतलब का यार, चमक जो खोये मोती।।
‘ठकुरेला’ कविराय , गुणों की ही महिमा सब।
गुण, अवगुण अनुसार असुर सुर, मुनि-गण, मानव।।
सजीवन मयंक
{वरिष्ठ कवि श्री सजीवन मयंक का ग़ज़ल संग्रह ‘बीमार उजाले दिखते हैं’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इस संग्रह से दो ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
1. जिसके साथ दुआ चलती है
जिसके साथ दुआ चलती है
उसके साथ हवा चलती है
हर मरीज जिन्दा है तब तक
जब तक साथ दवा चलती है
उम्र कैद का यह मतलब है
जब तक सांस सजा चलती है
सच्चाई हो भले अकेली
सर को सदा उठा चलती है
पूरी बस्ती जान चुकी जब
घर की बात पता चलती है
आंधी के आने पर देखा
बूढ़े पेड़ गिरा चलती है
चंदन की खुश्बू तो हरदम
उसके साथ सदा चलती है
2. पक्के रिश्ते कच्चे घर में
पक्के रिश्ते कच्चे घर में
अपनापन बूढ़े छप्पर में
जीवन भर का साथ मिल गया
अनायास ही किसी सफर में
जिसको तुम सागर कहते हो
रहता है मेरी गागर में
प्रेम कहानी लिखी हुई है
किसी पहाड़ी के पत्थर में
दुनियां भर के लिये उजाला
है सूरज की एक नज़र में
मिली एक नवजात बालिका
सड़क किनारे कचरे-घर में
धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’
ग़ज़ल
क्यूँ न काँपें फूस की ये बस्तियाँ
तेज़ बारिश और तड़पती बिजलियाँ
इक कसक-सी दिल में उठती है मेरे
देखता हूँ जब गुलों पर तितलियाँ
भर गयी सब्ज़ों से घर की हर दरार
अबके यूँ सावन में बरसी बदलियाँ
एक ईश्वर और कितने धर्म हैं
एक साहिल और कितनी कश्तियाँ
लिख रहा था ख़त में ‘साहलि’ सच उसे
काँपती जाती थीं मेरी उँगलियाँ
अशोक भारती ‘देहलवी’
किसको पता
फिर तेरे रहने गुजर जाने का है किसको पता!
ये अलाव हुई बस्तियाँ यूं उजड़ेंगी किसको पता!
इन दरख्तों पर लटके हैं ढेरों दुपट्टे आज तक,
ऐसी भी सूली चढेंगी बेटियाँ किसको पता!
बहला-फुसला कर हवाएँ ले गई मजलूम को,
इस तरह मछली फंसेगी जाल में किसको पता!
आज भी बस धूप के रस्ते में दहशत बड़ी,
कब झुलस दे ज़िन्दगी सूरज ही किसको पता!
आशियां हमने बनाने में लगा दी ज़िन्दगी,
पूछती फिरती है फिर से आंधियाँ घर का पता!
जब मिला वो मुस्करा कर ही गले मेरे लगा,
दर्द इक बहता था उसके अन्दर भी किसको पता!
ना जाने क्या फितूर में कह गया अच्छी बुरी,
कि जहर से भी तेज है बातों का असर किसको पता!
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में डॉ. रश्मि बजाज, शेर सिंह, पूजा भाटिया प्रीत, अमित ‘अहद’, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, सजीवन मयंक, धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’ एवं अशोक भारती ‘देहलवी’ की काव्य रचनाएँ।
डॉ. रश्मि बजाज
{सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ. रश्मि बजाज का कविता संग्रह ‘स्वयं सिद्धा’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में बाह्य जगत की क्रियायें हों या परिवेशगत अन्तर्विरोध, संग्रह की अधिकांश कविताओं में उन्होंने स्त्री की वास्तविक पहचान को कुरेदकर अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी कुछ प्रतिनिधि कविताएँ।}
सीता नाम सत्य है
सीता नाम भी
सत्य है उतना
रेखाचित्र : के. रविन्द्र |
राम नाम
सच है जितना
सच जानो तो
सीता नाम ही
सदा सत्य है-
जाँचा, परखा
तपा, मंजा
अग्नि-परीक्षा
से गुज़रा
धरती के
आँचल से जुड़ा....
एक अज़ान
जोड़ोगे जब
अपने साथ
औरत की भी
एक अज़ान
सच जानो
रेखाचित्र : हिना फिरदोस |
तब ही तुमको
फल पाएंगे
रमज़ान, कुरान
खोलो बंद
किवाड़, हुजूर
आए भीतर
खुदा का नूर!
आदम के बच्चे!
हव्वा की
बच्ची को
कब तक
रख पाएगा
तू अल्लाह
से दूर?
स्वयंसिद्धा
सुन लो
तुम सब
बुद्ध, प्रबुद्ध
उसे न करना
रेखाचित्र : राजेन्द्र सिंह |
‘धम्मपद’ सिद्ध!
तुमने जो
खोजा है
मरण में
स्त्री ने
ढूँढ़ लिया
जीवन में
स्त्री है
नृत्य है
स्त्री संगीत
स्त्री रसधार
है स्त्री
है प्रीत
बँधे वो
शास्त्र में
कैसे भला
स्त्री होती है
स्वयंसिद्धा!
जिंक्सड
इनाम है
पैदा होने पर
इनाम है
शाला जाने पर
रेखाचित्र : बी मोहन नेगी |
ब्याह रचाने पर
इतने ‘इंसैटिव’
दे कर भी
नहीं बढ़ती
मेरी ‘प्रोडक्शन’
मैं हूँ
ईश्वर का
‘जिंक्सड आइटम’....
- विभागाध्यक्ष, अंग्रेजी विभाग, वैश्य पी.जी.कॉलेज, भिवानी (हरियाणा)
शेर सिंह
नया अंदाज
जुबान में चाशनी
कदमों में ठहराव
फिर कोई नई चाल?
रेखाचित्र : राजेन्द्र परदेशी |
कुशलक्षेम, राम-राम
अचानक गलबांहे डालते
कोई नया पंछी जाल में?
सर्द, गर्म
बदले बोल, व्यवहार
क्या गजब नया अंदाज?
है चतुर खिलाड़ी
सभी समझते, जानते
आंखें होते हुए भी अंधे सब?
- के.के.-100 कविनगर, गाजियाबाद-201 001(उ.प्र.)
पूजा भाटिया प्रीत
पुरुष मन
दशरथ की पीर का अनुमान
किसे न था ?
कौशल्या के मन का भान
किसे न था?
राम के बनवास का त्रास
किसे न दिखा?
सीता की वेदना
किसने न महसूस की ?
भरत का घाव
किसने न भोगा ?
रेखाचित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
हनुमान का भक्ति भाव
किस से अनछुआ रहा?
उर्मिला का विरह क्रंदन
किस से छुपा रहा?
यहाँ तक की चंद विराट हृदय लोगो ने
मंथरा और कैकई को भी
समझा या समझने का प्रयत्न किया
सबने सब महसूस किया
अपनी-अपनी सीमा तक
क्या अनछुआ रह गया रामायण में?
क्या किसी ने लक्ष्मण के अथाह मन को समझा?
क्यों अपना संसार मोह छोड़
वो चल दिया राम संग?
उर्मिला को विरह विछोह उपहार में दे?
क्या पाना ध्येय था उसका?
क्या भान था उसे राम के भगवान होने का?
क्या चौदह सालों में एक पल भी
विरह न सहा उसने?
क्यूँ नकार दिया हमने पुरुष में
छिपे स्त्री मन को?
जो तड़पा भी होगा कभी
अपनी उर्मी की याद में?
क्यों अनछुआ, अनकहा रह गया
लक्ष्मण का मन?
क्या इस लिए की लक्ष्मण पुरुष हैं?
क्या पुरुष नहीं होते भावुक?
क्या उन्हें नहीं सताती विरह-वेदना?
सोचिये.....
सोचिये..... क्यों कि ....
प्रश्न सोचनीय तो है.....
- 365-बी सूर्यदेव नगर, अन्नपूर्णा रोड, इंदौर 452009
अमित ‘अहद’
ग़ज़ल
कुछ न कुछ तो जरूर होता है
इश्क का जब सरूर होता है
आप से दूर जब भी जाता हूँ
दर्द दिल में हुजूर होता है
बात सच्ची अगर कहे भी तो
छाया चित्र : रामेश्वर कम्बोज हिमांशु |
इन्साँ कोई बुरा नहीं होता
वक्त का सब क़ुसूर होता है
जब नज़र से नज़र टकरातीी है
चर्चा फिर दूर-दूर होता है
प्यार उससे खुदा नहीं करता
‘अहद’ जिसको गरूर होता है
- ग्राम व पोस्ट: मुजफ्फराबाद-247129, जिला: सहारनपुर (उ.प्र.)
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
कुंडलियां
1.
अपनी अपनी अहमियत, सूई या तलवार।
उपयोगी हैं भूख में, केवल रोटी चार।।
केवल रोटी चार, नहीं खा सकते सोना।
सूई का कुछ काम, न तलवारों से होना।।
‘ठकुरेला’ कविराय , सभी की माला जपनी।
छोटा हो कि लघुरूप , अहमियत सबकी अपनी।।
2.
नहीं समझता मंदमति, समझाओ सौ बार।
मूरख से पाला पड़े, चुप रहने में सार।।
चुप रहने में सार, कठिन इनको समझाना।
जब भी जिद लें ठान , हारता सकल जमाना।।
‘ठकुरेला’ कविराय , समय का डंडा बजता।
करो कोशिशें लाख, मंदमति नहीं समझता।।
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
3.
मानव की कीमत तभी, जब हो ठीक चरित्र।
दो कौड़ी का भी नहीं, बिना महक का इत्र।।
बिना महक का इत्र, पूछ सदगुण की होती।
किस मतलब का यार, चमक जो खोये मोती।।
‘ठकुरेला’ कविराय , गुणों की ही महिमा सब।
गुण, अवगुण अनुसार असुर सुर, मुनि-गण, मानव।।
- बंगला संख्या-एल-99,रेलवे चिकित्सालय के सामने, आबू रोड-307026 (राज.)
सजीवन मयंक
{वरिष्ठ कवि श्री सजीवन मयंक का ग़ज़ल संग्रह ‘बीमार उजाले दिखते हैं’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इस संग्रह से दो ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
1. जिसके साथ दुआ चलती है
जिसके साथ दुआ चलती है
उसके साथ हवा चलती है
हर मरीज जिन्दा है तब तक
जब तक साथ दवा चलती है
उम्र कैद का यह मतलब है
जब तक सांस सजा चलती है
सच्चाई हो भले अकेली
सर को सदा उठा चलती है
पूरी बस्ती जान चुकी जब
घर की बात पता चलती है
आंधी के आने पर देखा
बूढ़े पेड़ गिरा चलती है
चंदन की खुश्बू तो हरदम
छायाचित्र : रोहित काम्बोज |
2. पक्के रिश्ते कच्चे घर में
पक्के रिश्ते कच्चे घर में
अपनापन बूढ़े छप्पर में
जीवन भर का साथ मिल गया
अनायास ही किसी सफर में
जिसको तुम सागर कहते हो
रहता है मेरी गागर में
प्रेम कहानी लिखी हुई है
किसी पहाड़ी के पत्थर में
दुनियां भर के लिये उजाला
है सूरज की एक नज़र में
मिली एक नवजात बालिका
सड़क किनारे कचरे-घर में
- 251, शनिचरा वार्ड-1, नरसिंह गली, होशंगाबाद-461001 (म.प्र.)
धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’
ग़ज़ल
क्यूँ न काँपें फूस की ये बस्तियाँ
तेज़ बारिश और तड़पती बिजलियाँ
इक कसक-सी दिल में उठती है मेरे
देखता हूँ जब गुलों पर तितलियाँ
भर गयी सब्ज़ों से घर की हर दरार
छाया चित्र : पूनम गुप्ता |
अबके यूँ सावन में बरसी बदलियाँ
एक ईश्वर और कितने धर्म हैं
एक साहिल और कितनी कश्तियाँ
लिख रहा था ख़त में ‘साहलि’ सच उसे
काँपती जाती थीं मेरी उँगलियाँ
- के 3/10 ए, माँ शीतला भवन, गायघाट, वाराणसी-221001(उ.प्र.)
अशोक भारती ‘देहलवी’
किसको पता
फिर तेरे रहने गुजर जाने का है किसको पता!
ये अलाव हुई बस्तियाँ यूं उजड़ेंगी किसको पता!
इन दरख्तों पर लटके हैं ढेरों दुपट्टे आज तक,
ऐसी भी सूली चढेंगी बेटियाँ किसको पता!
बहला-फुसला कर हवाएँ ले गई मजलूम को,
इस तरह मछली फंसेगी जाल में किसको पता!
आज भी बस धूप के रस्ते में दहशत बड़ी,
कब झुलस दे ज़िन्दगी सूरज ही किसको पता!
छायाचित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
आशियां हमने बनाने में लगा दी ज़िन्दगी,
पूछती फिरती है फिर से आंधियाँ घर का पता!
जब मिला वो मुस्करा कर ही गले मेरे लगा,
दर्द इक बहता था उसके अन्दर भी किसको पता!
ना जाने क्या फितूर में कह गया अच्छी बुरी,
कि जहर से भी तेज है बातों का असर किसको पता!
- 562, पॉकेट-2, सेक्टर-4, निकट बालकराम अस्पताल, तिमारपुर, दिल्ली-110054
अच्छी रचनाएँ।
जवाब देंहटाएंसमस्त रचनाकारोँ को धन्यवाद।
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