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रविवार, 28 अगस्त 2016

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  5,   अंक  :  05-12,  जनवरी-अगस्त  2016




।। कथा प्रवाह ।।

सामग्री : इस अंक में 
पड़ाव और पड़ताल से श्री भगीरथडॉ. बलराम अग्रवाल एवं  लघुकथा : अगली पीढ़ी में ज्योत्सना कपिल की लघुकथाएँ।




पड़ाव और पड़ताल 

{लघुकथा की सुप्रसिद्ध श्रंखला ‘पड़ाव और पड़ताल’ 16 वें एवं उससे आगे के खण्डों में संयोजक-संपादक मधुदीप जी ने प्रमुख  लघुकथाकारों की एकल प्रस्तुति पर केन्द्रित किया है। 16 वां खण्ड में भगीरथ की 66 लघुकथाओं की, जबकि 17 वां खण्ड डॉ. बलराम अग्रवाल की 66 लघुकथाओं की प्रस्तुति एवं उनकी पड़ताल करता है। भगीरथ की लघुकथाओं की समालोचनात्मक पड़ताल क्रमशः डॉ. पुरुषोत्तम दुबे एवं डॉ. उमेश महादोषी ने की है, जबकि डॉ. बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं की समालोचनात्मक पड़ताल क्रमशः डॉ. ऋषभदेव शर्मा, प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा, डॉ. व्यासमणि त्रिपाठी एवं निशांतर ने की है। दोनों संकलनों के संपादक हैं मधुदीप। हम इस अंक में इन्ही दोनों पुस्तकों में क्रमशः संकलित दानों वरिष्ठ लघुकथाकारों की तीन-तीन लघुकथाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं।}


भगीरथ




‘भगीरथ की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल’ से तीन लघुकथाएँ


आत्मकथ्य

      तीस वर्षों से मैं बिजलीघरों के दैत्याकार टावरों को खड़ा करता आया हूँ। वे अब मुझे दबोचने लगे हैं। जिन शानदार अट्टालिकाओं के फर्श पर पॉलिश करते हुए अपने को कीचड़ में साना था, आज वही चमकता फर्श मुझ पर हँस रहा था। मैंने अपनी शारीरिक कमज़ोरी के बावजूद रक्तदान देकर, दूसरे को जीवन दिया। नतीजतन, दूसरे ही दिन चक्कर खाकर चिमनी से गिर पड़ा। 
      फिर भी मैंने मशीनों को चलने से नहीं रोका। मैं उत्पादन बढ़ाने में लगा था। निर्माण के गीत गाने में लगा था। क्योंकि मैं समझता था- यह निर्माण, यह उत्पादन मेरे अपने लिए है। ये मिलें मेरे लिए कपड़ा बना रही हैं। इन स्कूलों में मेरे बच्चे पढ़ने वाले हैं। इन अस्पतालों में मेरा इलाज होगा। ये कारखाने, दफ्तर, न्यायालय और बैंक मेरे बेहतर भविष्य के लिए आकाश की ओर उठकर विस्तार पा रहे हैं। इसलिए मैंने मशीन से हाथ कटने, बिजली के शॉक से मर जाने, आँखों की रौशनी खत्म हो जाने, दमा और टी.बी. लग जाने की परवाह नहीं की।
      लेकिन क्या हुआ? सारा निर्माण मुझे आक्रान्त किए बैठा है। मुझे खुलेआम गाली दी जा रही है। मुझे कामचोर, निकम्मा और फोगटिया कहा जा रहा है। मुझे अराजकता और राष्ट्रद्रोह का मसीहा करार कर दिया गया है। जब निहित स्वार्थों की बात की जाती है, इशारा मेरी ही तरफ होता है।
      राष्ट्र क्या है?
      मैं अज्ञान रहा हूँ। मैंने सोचा था; मेरे तमाम प्रश्नों के उत्तर वही देगा जिसने बार-बार मुझसे अपील की है।
      मैंने फिर भी गरीबी की शिकायत नहीं थी, क्योंकि मैं जानता था, गरीबी मिटाना जादू नहीं है।
छायाचित्र : अभिशक्ति 
      लेकिन आज, जब मेरे बच्चे अस्पताल से बाहर पड़े साँसें तोड़ रहे हैं। मेरी छटनी के कारण मेरा परिवार दुःख से आक्रान्त है। कड़ाके की सर्दी और तपती लू आज भी मेरे बच्चों के प्राण ले लेती है। तब? यानी तमाम निर्माण मेरी हत्या के षणयन्त्र में लगा है। आज जब यह महसूस कर मैंने करवट लेना आरम्भ किया है तो मेरे हाथ बाँध दिए जाते हैं, गले में कपड़ा ठूँस दिया जाता है।
      और फिर मेरे श्रम को खरीदने से इनकार कर; मेरे जीने के नैसर्गिक अधिकार को छीन लिया जाता है।
      तब वातावरण में झुनझुने बजने की आवाज जोर-जोर से आने लगती है।
      लेकिन मैं जानता हूँ, झुनझुने मेरे प्रश्न के उत्तर नहीं हैं।

तिलचट्टे

      मैं हड़बड़ाकर उठ बैठता हूँ।
      सारे शरीर पर तिलचट्टे दौड़ रहे थे। मानो रोमकूप से शरीर में प्रवेश करने की अथक कोशिश कर रहे हों। मैं इधर-उधर हाथ मारता हूँ। कुछ तिलचट्टे मर जाते हैं, उनके शरीर से निकला मवाद फर्श पर फैल जाता है। मैं नज़र हटाने का प्रयास करता हूँ लेकिन पलकों पर तिलचट्टे आ झूलते हैं। मुझे भयानक कोफ्त होती है और सड़ाक से बायाँ हाथ आँख पर पड़ता है। शायद कुछ तिलचट्टे नीचे गिरकर तड़फने लगे हैं।
      मैं अँधेरी कोठरी में जहाँ-तहाँ हाथ मारता हूँ। हर जगह तिलचट्टे सरसराते हुए महसूस होते हैं। कटोरदान, पीपी, डिब्बा-डिब्बी, जहाँ भी हाथ पड़ा, पूरी सेना की सेना बाहर निकली। कई दिनों की भूख के बावजूद यदि कोई भोज्य पदार्थ मिल भी जाए तो निगलने को मन नहीं करे। जब तक इन तिलचट्टों का सफाया न हो जाय तब तक कैसे कोई कौर निगल सकता है!
      इस वीरान राजकोठी में नहीं आता तो अच्छा था, लेकिन भूख हर रास्ता तय करवा देती है। मैं जब
इसकी जंगी दीवार पर चढ़ा था, तो वे ही शिकारी कुत्ते, भेड़िए, वाघ, चीते और जानलेवा कोबरा। किन्तु मेरा हथियार मेरे पास था। मैं जल्दी-जल्दी गलियारों से भागता हुआ जब इस शाही रसोईघर में घुसा था, समूची
छायाचित्र :
डॉ. बलराम अग्रवाल 
राजकोठी में खतरे की घंटियाँ बज उठी थीं और सभी दरवाजों पर तैनात सिपाही सीटियाँ बजाने लगे थे।
      भूख की आग मौत के भय से अधिक तीव्र थी। मैं खतरे की घंटियों और सीटियों की आवाजों से बेपरवाह इधर-उधर हाथ डालने लगा, किन्तु हर जगह तिलचट्टे-ही-तिलचट्टे। उनकी लिजलिजाहट से परेशान मैं बदहवास-सा हवा में हाथ-पैर चलाने लगा। बहुत देर की खोज के बाद एक मुट्ठी भुने हुए चने हाथ में आए, मुँह में डाले और जल्दी-जल्दी निगल गया। लगा, कुछ तिलचट्टे अन्दर चले गए हैं। चबाते वक्त कसैला-सा रस महसूस हुआ था मसूड़ों के इर्द-गिर्द। थूकने की बजाय निगल गया।
      तिलचट्टे बड़ी तेजी से आँतों में दौड़ने लगे हैं। आँतों की दीवारों को अपनी नुकीली सूँड से कुतर देना चाहते हैं। मैं छटपटा उटता हूँ। मैं सोचता हूँ- भीतर और बाहर के इन तिलचट्टों का सफाया करना ही होगा। मैं अपने हथियार को सम्हाले अपने साथियों की तलाश में दौड़ पड़ता हूँ। लगता है, घण्टियों और सीटियों की आवाजों के बीच कीलदार बूटों की आवाजें मेरा पीछा कर रही हैं। 

सपने नहीं दे सकता

      पुत्रियाँ इतनी जल्दी युवा क्यों हो जाती हैं! युवा होकर सपने क्यों देखती है! सपने भी इन्द्रधनुषी! सपनों में वे हिरनियों-सी कूदती-फाँदती, किलोल करती, मदन-मस्त विचरण करती है। हिरनी जैसी आँखों को देखकर सपनों का राजकुमार पीछा करता है। वह रोमांचित हो उठती है। अंग-प्रत्यंग मस्ती में चूर। इस उमर में इतनी मस्ती आती कहाँ से है! 
घोड़े पर सवार राजकुमार फिर उसके सपने में आता है। वे वन में अठखेलिया कर रहे हैं। आँख-मिचौनी खेल रहे हैं। राजकुमार, आँख पर पट्टी बँधी अपनी राजकुमारी को आलिंगन में ले लेता है। 
      ‘बेटी, सपना देख, लेकिन सपने में राजकुमार को मत देख।’ किन्तु युवती का सपनों पर वश नहीं है। वे आते हैं और आते ही चले जाते हैं। एक रोमानी खुमारी और मीठी चुभन छोड़ जाते हैं। वह सपनों के बाहर नहीं आ पाती, सपनों का सौंदर्य और माधुर्य अलौकिक है। रोमांस भरे दृश्य उसकी आँखो में तैरते हैं। वह खुली आँखो से सपने देखती है। 
      इन सपनों में वह पति नहीं, चिर प्रेमी को देखती है। बस एक आकर्षण है, भविष्य के सपने हैं, लेकिन
छायाचित्र : उमेश महादोषी 
भविष्य के परिणाम से निश्चिन्त है, वह अतीत में नहीं है, भविष्य में भी नहीं है। सिर्फ वर्तमान में है, सपने में है । उसे लग रहा है जैसे पूरा अस्तित्व उसके साथ उत्सव मना रहा हो, प्रेम में परिपूर्ण आनन्द है । 
      पिता चिंतित है क्योंकि उन्होनें उसकी आँखो में सपना देख लिया है। पिता समझाते हैं, सच देख, सपने नहीं। ‘‘मैं तुम्हें सपने नहीं दे सकता। स्त्री यहाँ सपने नहीं देखती, वह सपनों में भी यथार्थ देखती है। अपना हौसला बुलंद कर कि सपनों में यथार्थ देख सके। समाज में औरत की नियति देख। परिवार में औरत की नियति देख।’’
      सपने टूटने लगते हैं, और टूटते ही चले जाते हैं। कहीं आत्मा के चटखने की आवाज भी सुन लेती है युवती। एक आत्महीन युवती का जीवन सामाजिक यथार्थ बन जाता है।...लेकिन सपने देखने वाले ही सामाजिक यथार्थ को बदलते हैं। ‘‘नहीं, तू देख सपने और मुस्तैदी से देख, कि तू औरत की नियति बदल सके।’’

  • 228, नयाबाजार कालोनी रावतभाटा, राजस्थान पिन- 323307/मोबाइल : 09414317654


डॉ. बलराम अग्रवाल





‘बलराम अग्रवाल की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल’ से तीन लघुकथाएँ



अँगूठी

      ‘‘...मकान-दुकान, जमीन-जायदाद...नौकरी-छोकरी, रुपिया-पैसा...मुकद्दमा हो या मारधाड़...भूत-बाधा हो या आपसी रंजिश...’’ बूढ़े बाजीगर ने ज़मूरे के सीने पर रखी ताँबे की अँगूठी को उठाया और बोलना जारी रखा, ‘‘यह...यह तांत्रिक अँगूठी अपने पास रखिए...विपदाओं से रक्षा करके यह आपकी मदद करेगी।’’
      इसके बाद उसने अँगूठी को वैसे ही जमूरे के सीने पर रखकर कुछ और भीड़ जुटा लेने की गरज से पुनः बाँसुरी वादन शुरू किया। उसी पल, मजमे में खड़े लोगों के बीच से निकलकर बारह-चौदह साल का एक लड़का उस अँगूठी पर झवठ पड़ा। 
      ‘‘अबे रुक...अबे रुक!’’ बाँसुरी वादन को बीच में रोककर बूढ़ा उस तेज-तर्रार लड़के की ओर लपका।
      पाँव के अँगूठे से लेकर सिर के बालों तक जगह-जगह पैबन्द लगी एक काली चादर से ढँके पड़े जमूरे की तिलिस्मी बेहोशी भी इस आकस्मिक हलचल से टूट गई। चादर को एक ओर फेंककर वह लोगों के बीच से
बाहर निकल भागने की कोशिश में उस शैतान लड़के को पकड़ने के लिए दौड़ पड़ा। इधर-उधर दो-चार पैंतरे बदलकर उम्र और ताकत में कहीं अधिक उस जमूरे ने अन्ततः उस लड़के को दबोच ही लिया और क्रोधपूर्वक दनादन कई धौल उसके कमर पर जमा डाले।
      ‘‘नहीं दूँगा...नहीं दूँगा यह अँगूठी...।’’ बन्द मुट्ठी को अपन डण्डा जाँघों के बीच फँसाकर लड़का चिल्लाया, ‘‘भुखमरी के दिनों में सेरभर चावल जबरन हमारे घर डालकर साहूकार मेरी बहन को उठा ले गया था। माँ उसी दिन से पागल गई है।... सब डरपोंक हैं... मुझे साहूकार के खिलाफ लड़ना है... मुझे...।’’
      बूढ़ा बाजीगर, गुस्सैल जमूरा और अपाहिज भीड़- सबके बीच से हलचल छूमंतर हो गई। मजमे के बीच में से उठकर लड़का तेजी से गाँव की ओर भाग खड़ा हुआ।


नई पौध
  
    ‘‘च्यूँठ कुल हेयवय भाईजी?’’1
      घूमकर देखा- करीब चौदह बरस का एक लड़का कमर पर झल्ली-भर पौधे लादे मेरे पीछे खड़ा था। रुई के फाहे-सा चिट्टा और कोमल, पनीली आँखें, बारीक होंठ और गालों से छलक-छलक पड़ती सुर्खी। हिन्दुस्तान में मैं जहाँ-जहाँ भी गया- स्वेटर, जर्सी, कम्बल या हींग बेचते बेवतन तिब्बती मुझे जरूर मिले। उनकी विवशता और दयनीयता को हम लोगों ने उनकी नियति मानकर पचा लिया है। लेकिन यह कश्मीरी किशोर! वहाँ का सेब तो दुनियाभर में जरूर बेचा और खरीदा जाता है, परन्तु पौध...!!
      ‘‘प्योर क्अशुर छु भाई जी... म्यूठ फल दीयी।’’2 वह पुनः बोला।
      ‘‘फल का कोई नमूना है तुम्हारे पास?’’ मैंने उससे पूछा, फिर कहा, ‘‘और सुनो, हिन्दी प्लीज।’’
      ‘‘फल का नमूना अब कहाँ भाईजी...’’ वह दुःखी स्वर में बोला, ‘‘घर के बाहर एक पौधा यूँ ही रोप दिया था मम्मी ने... बड़ा होने पर खूब फल आए उस पर... मैंने, मेरी छोटी बेनी3 और दादी ने बड़े चाव से खाए।’’
      ‘‘और तुम्हारे मम्मी-पापा ने?’’
      ‘‘मम्मी बेनी के जन्म के समय ही चल बसी थीं।’’ किशोर की आँखों में आँसू छलक आए, ‘‘उन्हीं को याद कर पापा हर बार फसल के आधे सेब देशी-विदेशी सैलानियों को बाँटते रहे। एक भी फल कभी बाजार में नहीं भेजा उन्होंने।’’
      ‘‘तो क्या वह पेड़ अब...’’ मैंने सशंक पूछा। मेरे सवाल के जवाब में लड़का कुछ पल चुप खड़ा रहा।
रेखाचित्र : बी. मोहन नेगी 
आँखों में छलक आए आँसुओं को बाहर ठेलकर मोटे-मोटे दो और आँसू उसकी आँखों में आ डटे।
      ‘‘पेड़ तो हैं भाईजी।’’ गले में रुक गए बाकी आँसुओं को गटकते हुए वह धीरे-से बोला, ‘‘महीनों पहले कुछ हथियारबन्द लोग हमारे घर में घुस आए थे। बोले कि हमारे साथ मिलकर आजादी की जंग लड़ो या वतन छोड़कर भाग जाओ... कहा कि हफ्ता-दो हफ्ता खूब सोच लो, हम फिर आएँगे।’’
      ‘‘फिर?’’
      ‘‘उसके बाद वे बार-बार पापा को डराते-धमकाते रहे... पापा पुराने फौजी थे, उनकी कोई बात नहीं माने। आखिर एक दिन...’’ यह कहते हुए वह वहीं बैठ गया और जोर-से रोने लगा। आसपास से गुजरते लोग उसका विलाप सुनकर रुकने लगे।
      ‘‘क्या हुआ, भाई साहब?’’ भीड़ में से किसी ने पूछा।
      ‘‘कुछ नहीं।’’ मैंने लापरवाहीपूर्वक जवाब दिया और किशोर के समीप ही उकडूँ बैठकर उससे पूछा, ‘‘तुम कैसे बचे?’’
      ‘‘मैं स्कूल गया था उस वक्त।’’ रोते-रोते ही उसने बताया, ‘‘बेनी को वे अपने साथ उठा ले गए शायद... घर पर सिर्फ दादी-पापा की लाशें थीं। स्कूल से मेरे लौटने तक पुलिस उन्हें ले जा चुकी थी... उस पूरे दिन मैंने पेड़ से पके फलों को उतारकर इस झल्ली में भरा और दिल्ली आ रहे एक जत्थे के साथ यहाँ भाग आया।’’ 
      ‘‘तब... वह पौध?’’ मैंने पूछा।
      ‘‘साथ लाए सेबों को खाया या बेचा नहीं मैंने- सड़ा डाला।’’ उसने बताना शुरू किया, ‘‘उसके बाद उनसे बीज निकालकर यह पौध तैयार की उस नस्ल की। हिन्दुस्तान के हर घर में एक पौध इस मीठी नस्ल की पहुँचा देना चाहता हूँ भाईजी, लेंगे?’’
      ‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं।’’ मैं शीघ्रतापूर्वक उसके पास से उठ खड़ा हुआ, ‘‘मेरे साथ चलो। ये सारे पौधे मेरी दुकान पर रखो। हाथों-हाथ बिकेंगे।’’
      ‘‘दुकानवालों ने ही तो कश्मीर की फिजाँ का यह हाल किया है भाईजी।’’ लड़का भी इस बार झटककर उठ खड़ा हुआ। अपनी कलाई से उसने गालों पर खिंच आई आँसुओं की लकीर को पोंछ डाला, बोला, ‘‘घर-घर पौध पहुँचाने का यह काम तो हम कश्मीरियों को खुद ही करना पड़ेगा। आप एक पौधा लेंगे?’’ और तुरन्त ही मेरी ओर से मुँह फेरकर उसने भीड़ में दूसरी ओर खड़े लोगों को पूछना शुरू किया- ‘‘आप?... आप? ...आप?’’
{1 सेब की नई पौध लेंगे भाईजी? 2 शुद्ध कश्मीरी है भाईजी, मीठा फल देगा। 3 छोटी बहन।}


जहाँ मैं खड़ा हूँ


      आजादी के इतने अधिक वर्षों बाद भी यह कैसा दुर्योग है! जिस जगह पर मैं खड़ा हूँ, उसके दाईं ओर भव्य और आलीशान कोठियाँ हैं। खा-खा और पी-पीकर अघाए हुए लोग हैं। बाईं ओर जमीन को छूती घास-फूस, टीन-टप्पर और लकड़ी-पॉलीथीन जैसे कबाड़ से बनाई छानवाली निरी मिट्टी से बनी खोलियाँ हैं। दिनभर खटते-खटाते और रातभर पिटते-पिटाते एक-दूसरे से उलझते, सो जाते लोग हैं। बीच में सड़क है। सड़क पर नंग-धड़ंग या चीथड़ लटकाए लीचड़ बच्चे हैं। उछलते-कूदते। खेलते। सड़क बीच का रास्ता है। अमीरजादों को यह अपनी बपौती नजर आती है। झोंपड़पट्टी के बच्चों के लिए यह सड़क एक सच है, जिसके इस पार उनका यथार्थ है और उस पार कल्पनालोक। अनेक रंगों से पुती अनेक आकार और प्रकार की दीवारें। उन दीवारों के भीतर की दुनिया को ये अपनी हैसियत और जरूरतों के मुताबिक बुनते और उधेड़ते रहते हैं।
      झोंपड़पट्टी के बच्चों के लिए सड़क खुला इलाका है। इस पर वे जैसे चाहें खेल सकते हैं। जितनी दूर तक चाहें दौड़ सकते हैं। कारें हालांकि आती हैं लेकिन कॉलोनी का पिछला इलाका होने के कारण कुछ कम ही आती हैं। बाकी ट्रैफिक का भी खास मतलब नहीं। सड़क पर खेलते बच्चे कार की आहट-भर से ही किनारे हो जाने का कौशल जानते हैं। कारें यहाँ हमेशा ही सर्र से गुजरती हैं। साल-दो-साल में एकाध मुआ कुचल भी जाता है, लेकिन कुछ नहीं। ले-देकर फैसला हो जाता है। बवाल नहीं बनता।
      सड़क को बाप ने हमारे सैर-सपाटे के लिए बनवाया है। हरामजादे ये झोंपड़पट्टी वाले इसके किनारे बसे ही क्यों हैं? ये साले चलते भी क्यों हैं इस पर। -कारवाले सोचते हैं।
      कोठियों में कैद तालाबन्द बच्चे गेट के सरियों को पकड़कर इस पार झाँकते हैं। वे इन बच्चों का उछलना-कूदना-खेलना देखते हैं और उल्लसित होते हैं। वे देखते हैं कि खेलते-खेलते ये बच्चे एक-दूसरे से गुँथ गए हैं लेकिन खिलखिला रहे हैं। ये रोने-चिल्लाने लगे हैं लेकिन खिलखिला रहे हैं। उन्हें लगता है कि वहाँ होते तो वे भी खेलते। गुँथते। खिलखिलाते। लेकिन नहीं। यह मुमकिन नहीं। मम्मी कहती हैं कि रेलिंग के उस पार मत झाँका करो। ये गन्दे लोग उठाईगीरे होते हैं। छोटे बच्चों को भी उठा ले जाते हैं।
      तो ये सब-के-सब क्या उठाए हुए बच्चे हैं?
      नहीं। ये तो इनके अपने बच्चे हैं। उठाए हुए बच्चों को ये बेच आते हैं। उसी पैसे से आटा-दाल लाते हैं।
      यह सब याद आते ही कोठियोंवाले के बच्चे काँप उठते हैं। रेलिंग छोड़कर वे उससे बित्ताभर पीछे खड़े हो जाते हैं।  
      क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बेचने की बजाय ये लोग उन्हें अपने साथ ही रख लें। अपने बच्चों के साथ
छायाचित्र : उमेश महादोषी 
खाने दें। खेलने दें। गुँथने दें। खिलखिलाने दें।
      ‘‘सुनो भैया!’’ खेलते-खेलते रेलिंग के पास आ फटके झोंपड़पट्टी के बच्चों को पुकारकर वे अनायास ही बोल उठते हैं, ‘‘किडनेपिंग के बाद बेच देना जरूरी है क्या?’’
      गरीब बच्चे उनकी बात को समझ नहीं पाते हैं। एक अनजाना विश्वास कि ये ऊँची-ऊँची दीवारें, ये फाटक, ये रेलिंग- सब उन गरीबों की हड्डियों पर खड़े हैं, जाग उठता है। उनकी बातें सुनते ही वे खिलखिलाते-कूदते दूर भाग जाते हैं।
      कोठीवाले बच्चे रेलिंग को जकड़कर अपना सिर उसमें फँसा लेते हैं और उदास व ललचाई नजरों से उन्हें देखते रहते हैं।         

  • एम-70, उल्धनपुर, दिगम्बर जैन मन्दिर के पास, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32/मोबाइल: 08826499115

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लघुकथा : अगली पीढ़ी
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{लघुकथाकारों की नई पीढ़ी में कई उभरते हुए रचनाकार सामने आए हैं। बरेली निवासी ज्योत्सना कपिल भी अपनी लघुकथाओं के माध्यम से प्रभावित करती हैं। यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी चार लघुकथाएँ।}


ज्योत्सना कपिल 



चार लघुकथाएँ 


लिखी हुई इबारत 

      बड़ी बेसब्री से बेटे की पसन्द देखने का इंतज़ार करती डॉक्टर शिल्पा उस लड़की को देखकर बुरी तरह से चौंक गई, ‘‘ये क्या, शिशिर को यही मिली थी पूरी दुनिया में?’’ 
      सात वर्ष पहले वह किसी सम्बन्धी की ज़बरदस्ती का शिकार हई थी। उसे गर्भ से डॉक्टर शिल्पा ने ही छुटकारा दिलाया था।
      ‘‘माना कि उसमें इसकी कोई गलती नहीं थी, पर यह मेरे ही बेटे के साथ क्यों?’’ रसोई में आकर वह बड़बड़ाई। उसका मन कसैला हो उठा था।
      ‘‘आप फ़िक्र मत करिये, मैं कोई बहाना बनाकर शिशिर को शादी से इंकार कर दूँगी।’’

रेखाचित्र : रमेश गौतम 
      पृष्ठ से उभरे स्वर को सुनकर शिल्पा चौंक गई। उसने पलटकर देखा तो रसोई में उस लड़की को मौजूद पाया। अवसाद की काली छाया उसके चेहरे पर देख वह यकायक कुछ नहीं कह पाई। कुछ पल संशय में रही शिल्पा। फिर उसे ध्यान से देखती हुई बोली, ‘‘नहीं... कुछ मत कहना शिशिर से... माँ हूँ न, इसलिए भूल गई थी कि तुम कोई कागज का टुकड़ा नहीं जिसपर एक बार कोई इबारत लिख दी गई तो वो बेदाग न रहा। किसी आदमी की दुष्टता की सज़ा बेकसूर नारी क्यों भुगते?’’



दंड
      बहुत आत्म विश्वास के साथ धीरज ने अपना चेहरा मोबाइल में देखा। नोटों से भरे सूटकेस को हल्के से थपथपाया। एक और तथाकथित ईमानदार अधिकारी के ईमान को खरीदने के संकल्प के साथ उसके होठों पर एक स्मित खेल गई। 
      ‘‘सर! शहर में एक नई अधिकारी आई है। उसने हमारे होटल की अवैध रूप से बनी चार मंज़िलों को गिरा देने का आदेश जारी कर दिया है।’’  सुबह ही उसके मैनेजर ने उसे सूचित किया था।
      ‘‘इतना घबरा क्यों रहे हो वर्मा? कुछ पैसों की ज़रूरत होगी बेचारी को।’’ उसने मामले को बहुत हल्के में लेते हुए कहा।
      ‘‘नहीं सर, सुना है वह बहुत ईमानदार और कड़क है। किसी की नहीं सुनती।’’
      ‘‘यहाँ हर चीज़ बिकाऊ है वर्मा, बस कीमत सही लगनी चाहिए।’’ उसने घमण्ड से कहा और उससे मिलने चल दिया।
      पी.ए. के इशारा करने पर बहुत ही आत्मविश्वास के साथ वह अधिकारी के कक्ष में दाखिल हो गया। अधिकारी का तेज़ाब से विकृत चेहरा देखकर उसका दिल दहल गया। इस विकृत चेहरे को वह कैसे भूल सकता था? प्रेम अस्वीकृति का ‘दंड’ ये विकृत चेहरा उसी की ही तो देन था। 

मुफ्त शिविर

      बेटी की दोनों किडनियाँ खराब होने बारे पता चला तो परमेसर सिहर उठा। बेटी के तो बच्चे भी अभी बहुत छोटे हैं। दो वक्त की रोटी के लिए भी बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। ऐसे में उसकी जान पर मंडराता संकट। उसने तुरंत फैसला कर लिया कि वह अपनी एक किडनी देकर बेटी के जीवन को बचाएगा। उसके बच्चों को रुलने नहीं देगा। 
ष्तुम तो पहले ही अपनी एक किडनी निकलवा चुके हो, अब क्या मजाक करने आये हो यहाँ?ष् डॉक्टर ने रुष्ट होकर कहा। 
      ‘‘जे का बोल रे हैं डागदर साब, हम भला काहे अपनी किटनी निकलवाएंगे। ऊ तो हमार बिटिया की जान पर बन आई है। छोटे-छोटे दो लरिका हैं ऊ के, सो हमन नै सोची की एक उका दे दैं।’’
      ‘‘पर तुम्हारी तो अब एक ही किडनी है, और ये देखो ऑपरेशन के निशान भी हैं।’’
      ‘‘अरे ऊ कौनो किटनी न निकलवाई हमने। ऊ तो मुआ नसबन्दी का आपरेसन हुआ था। ऊ जा साल सूखा पड़ा था, तबहीं एक सिविर लगा था। सबका मुफत में नसबन्दी का आपरेसन करके हज्जार रुपैया और खाने का इश्टील का डब्बा दे रै थे। तबहिं हमन नै करवा के हज्जार रुपया .....’’ कहत-कहते यकायक भय से उसकी आँखें फ़ैल गईं। 



दंश
      बाबूजी बहुत उमंग में थे। आतुरता से दरवाजे पर लगा घण्टी का बटन दबाया। सोच रहे थे, उन्हें अचानक सामने देखकर बिटिया कितनी खुश होगी। कितना समय हो गया उससे मिले। 
      कुछ देर बाद लड़खड़ाते हुए जमाई बाबू ने दरवाजा खोला। मुँह से एक तेज बदबूदार भभका निकला। उसके हाथ में शायद कोई आभूषण था। प्रणाम की मुद्रा में जुड़े हाथ यूँ ही रह गए।
      ‘‘बाबूजी, आप!’’
      बेटी पर निगाह पड़ी तो कलेजा मुँह को आ गया। तन पर मारपीट के निशान, शरीर पर आभूषण के नाम पर नाक की कील तक न थी। आँखों के नीचे पड़े स्याह घेरे अपनी कहानी खुद कह रहे थे। उसकी दशा देखकर बहुत देर तक पछताते रहे। फिर बोले, ‘‘तू चल मेरे साथ, इस नर्क में अब मैं तुझे एक पल भी नही रहने दूँगा।’’
      ‘‘नही बाबूजी, अब तो यही तकदीर है मेरी, जिसे आपने चुना है मेरे लिए।’’
रेखाचित्र : नरेश उदास 
      ‘‘मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई बेटी।’’
      ‘‘माँ-बाप से कहीं कभी कोई गलती होती है बाबूजी!’’ कहते हुए अश्रु उसकी आँखों से निकल कर गालों से ढलक पड़े। 
      ‘‘बेटी तुमने कभी बताया भी नहीं कि...’’
      ‘‘बताती भी तो कौन सुनता मेरी... पहले भी मेरी कहाँ सुनी आपने... विकास दिल की गहराईयों से चाहता था मुझे, पर वह जात-बिरादरी का न था... यह आपकी जात-बिरादरी के हीरे जैसे वर हैं, मुझे तो अब इसी हीरे की चमक में रिसना है जिंदगी भर!’’


      ‘‘नहीं बेटी, नहीं। हर भूल को सुधारा जा सकता है। इस भूल को भी सुधारेंगे हम।’’

  • 18-ए, विक्रमादित्यपुरी, स्टेट बैंक कालोनी, बरेली, उ.प्र./मो. 09412291372   

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