अविराम ब्लॉग संकलन : वर्ष : 1, अंक : 10, जून 2012
शोभा भारती : आपके विचार से हिन्दी की पहली लघुकथा किसे कहा जाना चाहिए और क्यों?
बलराम अग्रवाल : इस प्रश्न के विस्तृत उत्तर के लिए आप कृपया मेरा लेख ‘पहली हिन्दी लघुकथा’ पढ़ लें। यह ‘समांतर’ पत्रिका के लघुकथा विशेषांक जुलाई-सितम्बर, 2001 में प्रकाशित हुआ था और इंटरनेट पर भी उपलब्ध है। लिंक है — http://www.laghukatha-varta.blogspot.com/2009/01/1.html
शोभा भारती : लघुकथा के उद्भव को लेकर कुछ लोगों का मानना है कि इसका मूल पंचतंत्र, हितोपदेश और जातक कथाओं में है, जबकि कुछ लोग कहते हैं कि यह वर्तमान जीवन की विसंगतियों से उद्भूत है। आप क्या सोचते है?
बलराम अग्रवाल : मेरा सुझाव है कि लघुकथा से सम्बन्धित कुछ बारीकियों को आसानी से समझ लेने के लिए सभी को नहीं तो कम-से-कम लघुकथा विषयक शोधों से जुड़े लोगों को बारीक-सी एक विभाजन अवश्य स्वीकार कर लेना चाहिए। यह कि सन् 1970 तक की सभी लघ्वाकारीय कथा-रचनाएँ, वे चाहे दृष्टांत परम्परा की हों चाहे भाव परम्परा की हों, गम्भीर कथ्य परम्परा की हों या व्यंग्यात्मक पैरोडी परम्परा की, ‘लघुकथा’ हैं; और सन् 1971 से अब तक की लघुकथाएँ ‘समकालीन लघुकथा’ हैं। यह बात ‘लघुकथा’ के शनैः शनैः परिवर्तित व परिवर्द्धित स्वरूप के मद्देनज़र कही जा रही है। लघुकथा में यह परिवर्तन व परिवर्द्धन यद्यपि सन् 1965 के आसपास से दिखाई देना प्रारम्भ हो जाता है तथापि बहुलता के साथ यह सन् 1971 के बाद ही प्रकट होता है। इसलिए जिस लघु-आकारीय कथा-रचना का मूल पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथाएँ अथवा अन्य पुरातन कथा-स्रोत बताए जाते हैं वह (इने-गिने अपवादों को छोड़कर, घनीभूतता के साथ सन् 1970 तक तथा विरलता के साथ 1975-76 तक भी) ‘लघुकथा’ है और जिसका उद्भव वर्तमान जीवन की विसंगतियों से बताया जा रहा है, वह पूर्व-कथित उसी ‘लघुकथा’ का विकसित स्वरूप ‘समकालीन लघुकथा’ है जिसका प्रादुर्भाव लगभग सभी लघुकथा-आलोचक 1971 से स्वीकार करते हैं।
शोभा भारती : कथाकुल में जन्मी लघुकथा को आप उपविधा मानते हैं या विधा?
बलराम अग्रवाल : रचनात्मक साहित्य में मैं ‘उपविधा’ जैसे किसी भी प्रकार को प्रारम्भ से ही नहीं मानता। डॉ॰ उमेश महादोषी के इसी सवाल के जवाब में सन् 1988 में मैंने कहा था-“यह लघुकथा में लेखन के स्तर पर चुक गए कुण्ठित लोगों द्वारा छोड़ा गया शिगूफा है...” (देखें- लघुकथा विशेषांक ‘सम्बोधन’: सं॰ क़मर मेवाड़ी/पृष्ठ99)।
शोभा भारती : आरम्भिक लघुकथाओं और आज की लघुकथाओं में आप क्या अन्तर पाते हैं?
बलराम अग्रवाल : आरम्भिक लघुकथाएँ आम तौर पर उपदेश और उद्बोधन की मुद्रा में नजर आती हैं या फिर व्यंग्य व कटाक्षपरक पैरोडी कथा के रूप में, जबकि समकालीन लघुकथा मानवीय संवेदना को प्रभावित करने वाली बाह्य भौतिक स्थिति अथवा आन्तरिक मनःस्थिति के चित्रण मात्र से पाठक मन में आकुलता उत्पन्न करने का, मस्तिष्क में द्वंद्व उत्पन्न करने का दायित्व-निर्वाह करती है। अध्ययन से सिद्ध होता है कि समकालीन लघुकथा पाठक के समक्ष सिर्फ निदान प्रस्तुत करती है, समाधान नहीं।
शोभा भारती : लघुकथा के उत्कर्ष के लिए लघुकथाकारों, संपादकों और प्रकाशकों द्वारा किए गये प्रयास क्या आपको पर्याप्त लगते हैं?
बलराम अग्रवाल : लघुकथा के उत्कर्ष के लिए मात्र लघुकथाकारों ने ही नहीं अन्य साहित्यकारों ने भी खासे प्रयास किए हैं। कथाकारों-कवियों में असगर वजाहत, विष्णु नागर, प्रेमपाल शर्मा, चित्रा मुद्गल, महेश दर्पण, प्रेमकुमार मणि आदि, आलोचकों में डॉ॰ कमल किशोर गोयनका, डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक, डॉ॰ सुरेश गुप्त, डॉ॰ रत्नलाल शर्मा, कृष्णानन्द कृष्ण आदि तथा संपादकों में कमलेश्वर, अवध नारायण मुद्गल, राजेन्द्र यादव, रमेश बतरा, प्रभाकर श्रोत्रिय, हसन जमाल, क़मर मेवाड़ी, अवध प्रताप सिंह, महाराज कृष्ण जैन व उर्मि कृष्ण, प्रकाश जैन व मोहिनी जैन, शैलेन्द्र सागर, बलराम, अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, सतीशराज पुष्करणा, कमल चोपड़ा, डॉ॰ रामकुमार घोटड़ आदि के अवदान को नकारना असम्भव है। प्रिंट क्षेत्र के प्रकाशकों में अयन प्रकाशन के स्वामी श्रीयुत भूपाल सूद ने काफी लघुकथा संग्रह व संकलन प्रकाशित किए हैं। दिशा प्रकाशन, किताबघर व भावना प्रकाशन ने भी लघुकथा के संग्रह व संकलन वरीयता से प्रकाशित किए हैं। बावजूद इस सबके लघुकथा के उन्नयन का भाव किसी प्रकाशक के मन में रहा हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। बलराम द्वारा संपादित ‘विश्व लघुकथा कोश’ सन्मार्ग प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था, लेकिन वह विशुद्ध व्यापारिक एप्रोच का मामला प्रतीत होता है। लघुकथा के उन्नयन का अत्यन्त महत्वपूर्ण और साफ-सुथरा काम रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ व सुकेश साहनी की टीम ने ‘लघुकथा डॉट कॉम’ नाम से वेबसाइट संपादित करके किया है। इस कार्य में वे धन और बल दोनों खपा रहे हैं।
शोभा भारती : कहानी और लघुकथा में आकार के अलावा क्या अंतर आप देखते हैं?
बलराम अग्रवाल : सबसे पहले तो यह जान लेना आवश्यक है कि अनेक कथा-रचनाएँ छोटे आकार की होते हुए भी कहानी ही होती हैं, लघुकथा नहीं। इसलिए आकार में छोटी होने-मात्र के कारण ही किसी कथा-रचना को लघुकथा मान लेना न्यायसंगत नहीं है और न ही यह कि केवल लघु-आकार ही लघुकथा की पठनीयता और जनप्रियता का कारण है। कहानी सामाजिक विसंगतियों, असंगत मानवीय क्रिया-कलापों व मानसिक व्यापारों के कारणों और कारकों की पड़ताल तथा उनका खुलासा करती हुई पाठकीय संवेदना को छूने-जगाने का प्रयास करती है जबकि लघुकथा सामाजिक विसंगतियों, असंगत मानवीय क्रिया-कलापों व मानसिक व्यापारों को पाठक के सामने सीधे प्रस्तुत कर देती है तथा कथा-संप्रेषण में वांछनीय कारणों व कारकों का आभास कराती हुई उन्हें कथा के नेपथ्य में बनाए भी रखती है। कहानी को केन्द्रीय कथ्य के आजू-बाजू भी अनेक स्थितियों के दर्शन कराने, चित्रण करने की छूट प्राप्त है जबकि लघुकथा में यह अवांछित है क्योंकि ऐसा करने से लघुकथा के शैल्पिक-गठन में छितराव आ जाने का खतरा बराबर बना रहता है।
शोभा भारती : लघुकथा अक्सर समाज की विसंगतियों की ओर ही इशारा करती है। क्या आपको लगता है कि इसमें मनुष्य की सकारात्मक भावनाओं का अंकन भी उतनी ही तीव्रता से सम्भव है?
बलराम अग्रवाल : अलग-अलग कालखण्ड में सामाजिक आवश्यकताएँ, मानवीय प्राथमिकताएँ और साहित्यिक अपेक्षाएँ अलग-अलग ही हुआ करती हैं। निःसंदेह समकालीन लघुकथा का प्रारम्भिक काल समाज की विसंगतियों की ओर इशारा करने को वरीयता देने वाला ही रहा होगा। इस तथ्य को उस समय की अनेक सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं-दुर्घटनाओं के अध्ययन के द्वारा आसानी से जाना-समझा जा सकता है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि लघुकथाकारों का ध्यान मनुष्य की सकारात्मक भावनाओं की ओर अथवा मानवीय संवेदनशीलता के उत्कृष्ट पक्ष की ओर कभी गया ही नहीं। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘ऊँचाई’, रूप देवगुण की ‘जगमगाहट’, सुकेश साहनी की ‘ठडी रजाई’, पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘बेटी तो बेटी होती है’, स्वयं मेरी (यानी बलराम अग्रवाल की) ‘गोभोजन कथा’, श्यामसुंदर अग्रवाल की ‘संतू’, श्यामसुंदर दीप्ति की ‘हद’, अशोक भाटिया की ‘कपों की कहानी’, सुभाष नीरव की ‘अपने घर जाओ न अंकल’, विपिन जैन की ‘कंधा’ आदि अनगिनत लघुकथाएँ हैं जिनमें मनुष्य की सकारात्मक भावनाओं का, मानवीय संवेदनशीलता का अंकन सफलतापूर्वक हुआ है।
शोभा भारती : कब कोई लघुकथा मात्र चुटकुला बनकर रह जाती है?
बलराम अग्रवाल : लघुकथा ही नहीं, कोई कहानी भी चुटकुला बनकर रह जा सकती है, अगर कथ्य-संप्रेषण की ओर कथाकार गंभीरता से अपने कदम न बढ़ाए और रचना-समापन में यथेष्ट सावधानी न बरते। अन्तर केवल यह है कि आकारगत लघुता वाली रचना को चुटकुला कह देना आसान होता है जबकि लम्बी रचना को चुटकुला न कहकर हास-परिहास की रचना कह दिया जाता है।
शोभा भारती : आज के समय में जब साहित्य अपना सामाजिक आधार खोता जा रहा है, क्या आपको लगता है कि लघुकथा अपनी पठनीयता के चलते साहित्य की प्रासंगिकता को वापस ला सकती है?
बलराम अग्रवाल : समाज से कटा हुआ साहित्य ही अपना सामाजिक आधार खोता है, समूचा साहित्य नहीं। तुलसी, कबीर, खुसरो, ग़ालिब, प्रेमचंद, शरत् चंद्र आदि की रचनाएँ अपना सामाजिक आधार कभी खोएँगी, ऐसा लगता नहीं हैं। समकालीन हिन्दी लघुकथा में आपको मात्र ‘पठनीयता’ का गुण दिखाई देता है जबकि मुझे ‘सम्प्रेषणीयता’ का गुण भी भरपूर नजर आता है। ऐसे समय में, जब अधिकतर साहित्यिक विधाओं के सरोकार कुछेक क्लिष्ट अभिव्यक्तियों और नारेबाजियों में उलझकर आम आदमी से दूर महसूस होते हैं, समकालीन लघुकथा सहज और ग्राह्य कथन-शैली व शिल्प के चलते आम आदमी के एकदम निकट की विधा है और अपना साहित्यिक दायित्व बखूबी निभा रही है।
शोभा भारती : चैतन्य त्रिवेदी के लघुकथा संग्रह ‘उल्लास’ को आर्य स्मृति सम्मान प्रदान करते हुए स्व॰ कमलेश्वर जी ने कहा था कि आज लघुकथा एक विधा के रूप में स्थापित हो गई है। आप इस स्थापना से कितने सहमत हैं?
बलराम अग्रवाल : इस प्रश्न के जवाब में आप कृपया प्रस्तुत पंक्तियाँ भी पढ़िए और निश्चित करने का यत्न कीजिए कि लघुकथा 16अप्रैल 1989 में प्रो॰ निशान्तकेतु के आधार लेख की प्रस्तुति के उपरान्त पटना में ‘विधा’ स्वीकृत हुई, 16 दिसम्बर, 2000 को कमलेश्वर की घोषणा के बाद दिल्ली में ‘विधा’ स्वीकृत हुई या डॉ॰ रमेश कुन्तल मेघ की अध्यक्षता व डॉ॰ फूलचन्द ‘मानव’ की उपस्थिति में पंचकुला(हरियाणा) में 06 दिसम्बर २००९ को सम्पन्न गोष्ठी में? अपने एक लेख ‘बिहार का हिंदी लघुकथा संसार’ (पुस्तक- ‘भारत का हिंदी लघुकथा संसार’ सं॰ डॉ॰ रामकुमार घोटड़/पृष्ठ 57) में डॉ॰ सतीशराज पुष्करणा लिखते हैं-“1989 का वर्ष लघुकथा के लिए एक ऐतिहासिक वर्ष रहा। 16 अप्रैल 1989 को पटना लघुकथा लेखक-आलोचक सम्मेलन ’89 में प्रो॰ निशान्तकेतु द्वारा प्रस्तुत आधार लेख ‘लघुकथा’ की विधागत शास्त्रीयता के बाद विधा-उपविधा का विवाद समाप्त हो गया...” अर्थात लघुकथा को ‘विधा’ की मान्यता मिल गई। इस सम्बन्ध में अगर यह कहा जाय कि विधा-उपविधा का विवाद पटना में पैदा होकर लघुकथा-आलोचना से जुड़े विद्वत-समाज से किसी भी प्रकार के समर्थन के अभाव में प्रो॰ निशान्तकेतु के लेख की आड़ लेकर वहीं दफन होने को विवश हो गया तो अनर्गल नहीं होगा।
शोभा भारती : आपकी दृष्टि में लघुकथा के समीक्षात्मक मानदंड क्या हैं?
बलराम अग्रवाल : मेरी दृष्टि में ‘लघुकथा’ समसामयिक सरोकारों से जुड़ी कथा-रचना है। यह तो स्पष्ट ही है कि यहाँ जिस कथा-रचना को हम ‘लघुकथा’ कह रहे हैं, वह लघु-आकारीय गद्यात्मक कथा-रचना है। उसकी भाषा कितनी ही काव्यात्मक अथवा नाटकीय गुण-सम्पन्न क्यों न हो, वह गद्यगीत अथवा निरी काव्यकृति नहीं है। दूसरी बात यह कि एक लघुकथा किसी एक-ही संवेदन-बिंदु को उद्भासित करती होनी चाहिए, अनेक को नहीं। कथ्य-प्रस्तुति की आवश्यकतानुरूप उसमें लम्बे कालखण्ड का आभास भले ही दिलाया गया हो, लेकिन उसका विस्तृत ब्योरा देने से बचा गया हो। ‘लघुकथा’ में जिसे हम ‘क्षण’ कहते हैं वह द्वंद्व को उभारने वाला या पाठक मस्तिष्क को उस ओर प्रेरित करने वाला होना चाहिए न कि सूत्र-रूप में प्रस्तुत होकर कथाकार्य की इति मान बैठने वाला। कथ्य की प्रस्तुति के अनुरूप कोई कथाकार अनेक शिल्पों व शैलियों का प्रयोग करने को स्वतन्त्र है, लेकिन इस स्वतंत्रता का मनमाना दुरुपयोग न करके उसे विधा को आयाम देने हेतु प्रयासरत नजर आना चाहिए। लघुकथा की भाषा सहज ग्राह्य तथा प्रवाहमयी हो तथा पाठक को चमत्कृत करने मात्र की बजाय कथा कहने के नये मुहावरे गढ़ती-सी लगती हो।
शोभा भारती : लघुकथा के विचार-पक्ष पर आप क्या कहना चाहेंगे?
बलराम अग्रवाल : लघुकथा का विचार-पक्ष इस समय काफी पुष्ट है। शुरुआती दौर में रमेश बतरा, अवध नारायण मुद्गल, शंकर पुणताम्बेकर, भगीरथ, जगदीश कश्यप, कृष्ण कमलेश आदि ने लघुकथा के विचार-पक्ष को मजबूती के साथ रखना प्रारम्भ किया था। उसी दौर की अगली कड़ी के रूप में डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक, कृष्णानन्द कृष्ण, निशांतकेतु, डॉ॰ कमल किशोर गोयनका आदि ने इसके विचार-पक्ष पर शोधपरक लेखों व साक्षात्कारों के माध्यम से इसे पुष्ट किया। परन्तु प्रारम्भ से लेकर अद्यतन हालत यह है कि प्रिंट-मीडिया की बहुत-सी वे पत्रिकाएँ जो लगातार लघुकथाएँ प्रकाशित करती आ रही हैं, इसके विचार-पक्ष को प्रस्तुत करने से कन्नी काट रही है; लेकिन संतोष और प्रसन्नता की बात यह है कि पूर्व में लगभग सभी लघु-पत्रिकाएँ तथा वर्तमान में लगभग सभी ई-पत्रिकाएँ तथा इंटरनेट ब्लॉग्स लघुकथाओं के साथ-साथ इसके विचार-पक्ष को भी ससम्मान स्थान दे रहे हैं। अतः विचार-पक्ष की प्रस्तुति में निर्वात की स्थिति नहीं है।
शोभा भारती : क्या आप भी मानते हैं कि हिन्दी आलोचना ने लघुकथा को अपेक्षित तवज्जो नहीं दी?
बलराम अग्रवाल : हिन्दी आलोचना अन्य विधाओं की भी समस्त उल्लेखनीय कृतियों पर अपेक्षित तवज्जो कब दे पा रही है? यों भी, एकांकी आदि नयी उद्भूत विधाओं को आलोचकों के बीच अपनी स्थापना के लिए लम्बा संघर्ष पूर्व में भी करना पड़ा है, अब भी करना पड़ रहा है और आगे भी करते रहना पड़ेगा।
शोभा भारती : बीसवीं सदी की लघुकथा में आप क्या दुर्बलताएँ देखते हैं जिन्हें आने वाले समय में दूर किया जाना जरूरी है?
बलराम अग्रवाल : मैं समझता हूँ कि बीसवीं सदी की लघुकथा ने निरंतर अपने-आप को परिष्कृत किया है और इसका जो रूप आज इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे दशक के पहले वर्ष में आप देख रही हैं, वह इस बात का प्रमाण है कि इस कथा-विधा से जुड़े कथाकारों में स्व-विवेक की कमी कभी रही नहीं। दुर्बलताएँ समय-सापेक्ष भी होती हैं। रचना-विधा का जो पक्ष आज प्रशंसनीय है, जरूरी नहीं कि आने वाले कल तक वह प्रसंशनीय ही बना रहेगा। इसलिए मैं समझता हूँ कि इस दिशा में मुझे ही नहीं, किसी को भी मसीहाई अंदाज़ अपनाते हुए सुझाव-विशेष देने की आवश्यकता नहीं है।
शोभा भारती : पहली लघुकथा आपने कब लिखी?
बलराम अग्रवाल : मेरी पहली प्रकाशित लघुकथा ‘लौकी की बेल’ थी जो श्रीयुत अश्विनी कुमार द्विवेदी के संपादन में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली कथा-पत्रिका ‘कात्यायनी’ के जून 1972 अंक में प्रकाशित हुई थी।
शोभा भारती : किस विधा में लिखकर आपको सबसे ज्यादा संतोष मिलता है?
बलराम अग्रवाल : निश्चित रूप से लघुकथा में, लेकिन कभी-कभी कविता व कहानी में भी।
शोभा भारती : लघुकथा की रचना के पीछे रचनाकार की मनःस्थिति के विषय में आप क्या बताना चाहेंगे? यानी वह क्या चीज़ होती है कि आप किसी कथ्य-विशेष को कविता या कहानी के बजाय लघुकथा में व्यक्त करना चाहते हैं?
बलराम अग्रवाल : मेरा मानना है कि विश्वभर का मानव समुदाय आदम के ज़माने से ही किस्से-कहानियाँ सुनने-कहने में गहरी रुचि लेता है। एक उर्दू कहावत है- कम खर्च बाला नशीं; लघुकथाकार के लिए इससे तात्पर्य है- शाब्दिक मितव्ययता बरतते हुए आनन्दित रहना और मूछों पर ताव दिये घूमना। मन में कौन छोटी-सी बात गहरे चुभ जायेगी और समूचे अस्तित्व को हिलाकर रख देगी अथवा कौन-सा बड़ा हादसा धरती को हिलाकर रख देगा लेकिन मस्तिष्क को छू तक नहीं पायेगा- एकाएक कुछ कहा नहीं जा सकता। मैं यद्यपि कविता में भी अभिव्यक्त होता रहता हूँ और गाहे-बगाहे कहानी में भी, लेकिन लघुकथा-लेखन जितना अभ्यस्त अन्य विधाओं में नहीं हूँ इसलिए इस विधा में अभिव्यक्त होना मुझे मारक भी महसूस होता है और संतोषप्रद भी।
शोभा भारती : क्या आप कुछ ऐसे लघुकथाकारों के नाम लेना चाहेंगे जो आपको सचमुच लघुकथा के लिए वरदान लगते हैं?
बलराम अग्रवाल : ऐसे लघुकथाकारों की दो श्रेणियाँ सक्रिय रही हैं, ऐसा मेरा मानना है। पहली श्रेणी में मैं उन लोगों के नाम लेना चाहूँगा जिन्होंने लघुकथा के रचनात्मक और आलोचनात्मक- दोनों पक्ष आम तौर पर साहित्यिक राजनीति से विलग रहते हुए गम्भीरतापूर्वक सुधारे-सँवारे हैं और वैसा ही काम अब भी कर रहे हैं। वे हैं- भगीरथ, डॉ॰ सतीश दुबे, कमल चोपड़ा, सुकेश साहनी, सूर्यकांत नागर, अशोक भाटिया व बलराम। इनमें विक्रम सोनी व स्व॰ रमेश बतरा का नाम भी ससम्मान जोड़ा जाना चाहिए। कुछ अन्य सम्माननीय नाम कहने से छूट भी गये हो सकते हैं। दूसरी श्रेणी में वे लोग हैं जिन्होंने लघुकथा के रचनात्मक और आलोचनात्मक- दोनों पक्षों पर काम तो यथेष्ट किया लेकिन व्यावहारिक स्तर पर वे स्वयं को मर्यादित न रख सके जिसके कारण लघुकथा की विधापरक प्रतिष्ठा, गरिमा और सम्मान- तीनों ही, विद्वत् आलोचक-वर्ग के बीच लगातार क्षत हुए। यद्यपि मैं उनके नामों का उल्लेख करना यहाँ उचित नहीं समझ रहा हूँ तथापि लघुकथा से जुड़े वरिष्ठ हस्ताक्षर बिना बताए भी उन नामों को जानते हैं अतः पहचान लेंगे।
शोभा भारती : एक लघुकथाकार के रूप में आप हिन्दी समाज से क्या कहना चाहेंगे?
बलराम अग्रवाल : लघुकथाकार के रूप में मैं केवल हिन्दी समाज से ही नहीं समूचे मानव समुदाय से मुखातिब हूँ और अपनी बात को ‘प्रवचन’, ‘सैद्धांतिक आदेश’ या ‘नैतिक निर्देश’ के रूप में बोलने की बजाय रचनात्मक लघुकथा के रूप में ही रखना ज्यादा पसन्द करूँगा
।
।।सामग्री।।
हिन्दी लघुकथा का विकास एवं मूल्यांकन’ से जुड़े प्रमुख चिंतन-बिंदुओं पर वरिष्ठ लघुकथा चिन्तक श्री बलराम अग्रवाल से जामिया मिलिया इस्लामिया वि.वि., नई दिल्ली में शोध हेतु सुश्री शोभा भारती की बातचीत
शोभा भारती : आपके विचार से हिन्दी की पहली लघुकथा किसे कहा जाना चाहिए और क्यों?
बलराम अग्रवाल : इस प्रश्न के विस्तृत उत्तर के लिए आप कृपया मेरा लेख ‘पहली हिन्दी लघुकथा’ पढ़ लें। यह ‘समांतर’ पत्रिका के लघुकथा विशेषांक जुलाई-सितम्बर, 2001 में प्रकाशित हुआ था और इंटरनेट पर भी उपलब्ध है। लिंक है — http://www.laghukatha-varta.blogspot.com/2009/01/1.html
शोभा भारती : लघुकथा के उद्भव को लेकर कुछ लोगों का मानना है कि इसका मूल पंचतंत्र, हितोपदेश और जातक कथाओं में है, जबकि कुछ लोग कहते हैं कि यह वर्तमान जीवन की विसंगतियों से उद्भूत है। आप क्या सोचते है?
बलराम अग्रवाल : मेरा सुझाव है कि लघुकथा से सम्बन्धित कुछ बारीकियों को आसानी से समझ लेने के लिए सभी को नहीं तो कम-से-कम लघुकथा विषयक शोधों से जुड़े लोगों को बारीक-सी एक विभाजन अवश्य स्वीकार कर लेना चाहिए। यह कि सन् 1970 तक की सभी लघ्वाकारीय कथा-रचनाएँ, वे चाहे दृष्टांत परम्परा की हों चाहे भाव परम्परा की हों, गम्भीर कथ्य परम्परा की हों या व्यंग्यात्मक पैरोडी परम्परा की, ‘लघुकथा’ हैं; और सन् 1971 से अब तक की लघुकथाएँ ‘समकालीन लघुकथा’ हैं। यह बात ‘लघुकथा’ के शनैः शनैः परिवर्तित व परिवर्द्धित स्वरूप के मद्देनज़र कही जा रही है। लघुकथा में यह परिवर्तन व परिवर्द्धन यद्यपि सन् 1965 के आसपास से दिखाई देना प्रारम्भ हो जाता है तथापि बहुलता के साथ यह सन् 1971 के बाद ही प्रकट होता है। इसलिए जिस लघु-आकारीय कथा-रचना का मूल पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथाएँ अथवा अन्य पुरातन कथा-स्रोत बताए जाते हैं वह (इने-गिने अपवादों को छोड़कर, घनीभूतता के साथ सन् 1970 तक तथा विरलता के साथ 1975-76 तक भी) ‘लघुकथा’ है और जिसका उद्भव वर्तमान जीवन की विसंगतियों से बताया जा रहा है, वह पूर्व-कथित उसी ‘लघुकथा’ का विकसित स्वरूप ‘समकालीन लघुकथा’ है जिसका प्रादुर्भाव लगभग सभी लघुकथा-आलोचक 1971 से स्वीकार करते हैं।
शोभा भारती : कथाकुल में जन्मी लघुकथा को आप उपविधा मानते हैं या विधा?
बलराम अग्रवाल : रचनात्मक साहित्य में मैं ‘उपविधा’ जैसे किसी भी प्रकार को प्रारम्भ से ही नहीं मानता। डॉ॰ उमेश महादोषी के इसी सवाल के जवाब में सन् 1988 में मैंने कहा था-“यह लघुकथा में लेखन के स्तर पर चुक गए कुण्ठित लोगों द्वारा छोड़ा गया शिगूफा है...” (देखें- लघुकथा विशेषांक ‘सम्बोधन’: सं॰ क़मर मेवाड़ी/पृष्ठ99)।
शोभा भारती : आरम्भिक लघुकथाओं और आज की लघुकथाओं में आप क्या अन्तर पाते हैं?
बलराम अग्रवाल : आरम्भिक लघुकथाएँ आम तौर पर उपदेश और उद्बोधन की मुद्रा में नजर आती हैं या फिर व्यंग्य व कटाक्षपरक पैरोडी कथा के रूप में, जबकि समकालीन लघुकथा मानवीय संवेदना को प्रभावित करने वाली बाह्य भौतिक स्थिति अथवा आन्तरिक मनःस्थिति के चित्रण मात्र से पाठक मन में आकुलता उत्पन्न करने का, मस्तिष्क में द्वंद्व उत्पन्न करने का दायित्व-निर्वाह करती है। अध्ययन से सिद्ध होता है कि समकालीन लघुकथा पाठक के समक्ष सिर्फ निदान प्रस्तुत करती है, समाधान नहीं।
शोभा भारती : लघुकथा के उत्कर्ष के लिए लघुकथाकारों, संपादकों और प्रकाशकों द्वारा किए गये प्रयास क्या आपको पर्याप्त लगते हैं?
बलराम अग्रवाल : लघुकथा के उत्कर्ष के लिए मात्र लघुकथाकारों ने ही नहीं अन्य साहित्यकारों ने भी खासे प्रयास किए हैं। कथाकारों-कवियों में असगर वजाहत, विष्णु नागर, प्रेमपाल शर्मा, चित्रा मुद्गल, महेश दर्पण, प्रेमकुमार मणि आदि, आलोचकों में डॉ॰ कमल किशोर गोयनका, डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक, डॉ॰ सुरेश गुप्त, डॉ॰ रत्नलाल शर्मा, कृष्णानन्द कृष्ण आदि तथा संपादकों में कमलेश्वर, अवध नारायण मुद्गल, राजेन्द्र यादव, रमेश बतरा, प्रभाकर श्रोत्रिय, हसन जमाल, क़मर मेवाड़ी, अवध प्रताप सिंह, महाराज कृष्ण जैन व उर्मि कृष्ण, प्रकाश जैन व मोहिनी जैन, शैलेन्द्र सागर, बलराम, अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, सतीशराज पुष्करणा, कमल चोपड़ा, डॉ॰ रामकुमार घोटड़ आदि के अवदान को नकारना असम्भव है। प्रिंट क्षेत्र के प्रकाशकों में अयन प्रकाशन के स्वामी श्रीयुत भूपाल सूद ने काफी लघुकथा संग्रह व संकलन प्रकाशित किए हैं। दिशा प्रकाशन, किताबघर व भावना प्रकाशन ने भी लघुकथा के संग्रह व संकलन वरीयता से प्रकाशित किए हैं। बावजूद इस सबके लघुकथा के उन्नयन का भाव किसी प्रकाशक के मन में रहा हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। बलराम द्वारा संपादित ‘विश्व लघुकथा कोश’ सन्मार्ग प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था, लेकिन वह विशुद्ध व्यापारिक एप्रोच का मामला प्रतीत होता है। लघुकथा के उन्नयन का अत्यन्त महत्वपूर्ण और साफ-सुथरा काम रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ व सुकेश साहनी की टीम ने ‘लघुकथा डॉट कॉम’ नाम से वेबसाइट संपादित करके किया है। इस कार्य में वे धन और बल दोनों खपा रहे हैं।
शोभा भारती : कहानी और लघुकथा में आकार के अलावा क्या अंतर आप देखते हैं?
बलराम अग्रवाल : सबसे पहले तो यह जान लेना आवश्यक है कि अनेक कथा-रचनाएँ छोटे आकार की होते हुए भी कहानी ही होती हैं, लघुकथा नहीं। इसलिए आकार में छोटी होने-मात्र के कारण ही किसी कथा-रचना को लघुकथा मान लेना न्यायसंगत नहीं है और न ही यह कि केवल लघु-आकार ही लघुकथा की पठनीयता और जनप्रियता का कारण है। कहानी सामाजिक विसंगतियों, असंगत मानवीय क्रिया-कलापों व मानसिक व्यापारों के कारणों और कारकों की पड़ताल तथा उनका खुलासा करती हुई पाठकीय संवेदना को छूने-जगाने का प्रयास करती है जबकि लघुकथा सामाजिक विसंगतियों, असंगत मानवीय क्रिया-कलापों व मानसिक व्यापारों को पाठक के सामने सीधे प्रस्तुत कर देती है तथा कथा-संप्रेषण में वांछनीय कारणों व कारकों का आभास कराती हुई उन्हें कथा के नेपथ्य में बनाए भी रखती है। कहानी को केन्द्रीय कथ्य के आजू-बाजू भी अनेक स्थितियों के दर्शन कराने, चित्रण करने की छूट प्राप्त है जबकि लघुकथा में यह अवांछित है क्योंकि ऐसा करने से लघुकथा के शैल्पिक-गठन में छितराव आ जाने का खतरा बराबर बना रहता है।
शोभा भारती : लघुकथा अक्सर समाज की विसंगतियों की ओर ही इशारा करती है। क्या आपको लगता है कि इसमें मनुष्य की सकारात्मक भावनाओं का अंकन भी उतनी ही तीव्रता से सम्भव है?
बलराम अग्रवाल : अलग-अलग कालखण्ड में सामाजिक आवश्यकताएँ, मानवीय प्राथमिकताएँ और साहित्यिक अपेक्षाएँ अलग-अलग ही हुआ करती हैं। निःसंदेह समकालीन लघुकथा का प्रारम्भिक काल समाज की विसंगतियों की ओर इशारा करने को वरीयता देने वाला ही रहा होगा। इस तथ्य को उस समय की अनेक सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं-दुर्घटनाओं के अध्ययन के द्वारा आसानी से जाना-समझा जा सकता है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि लघुकथाकारों का ध्यान मनुष्य की सकारात्मक भावनाओं की ओर अथवा मानवीय संवेदनशीलता के उत्कृष्ट पक्ष की ओर कभी गया ही नहीं। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘ऊँचाई’, रूप देवगुण की ‘जगमगाहट’, सुकेश साहनी की ‘ठडी रजाई’, पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘बेटी तो बेटी होती है’, स्वयं मेरी (यानी बलराम अग्रवाल की) ‘गोभोजन कथा’, श्यामसुंदर अग्रवाल की ‘संतू’, श्यामसुंदर दीप्ति की ‘हद’, अशोक भाटिया की ‘कपों की कहानी’, सुभाष नीरव की ‘अपने घर जाओ न अंकल’, विपिन जैन की ‘कंधा’ आदि अनगिनत लघुकथाएँ हैं जिनमें मनुष्य की सकारात्मक भावनाओं का, मानवीय संवेदनशीलता का अंकन सफलतापूर्वक हुआ है।
शोभा भारती : कब कोई लघुकथा मात्र चुटकुला बनकर रह जाती है?
बलराम अग्रवाल : लघुकथा ही नहीं, कोई कहानी भी चुटकुला बनकर रह जा सकती है, अगर कथ्य-संप्रेषण की ओर कथाकार गंभीरता से अपने कदम न बढ़ाए और रचना-समापन में यथेष्ट सावधानी न बरते। अन्तर केवल यह है कि आकारगत लघुता वाली रचना को चुटकुला कह देना आसान होता है जबकि लम्बी रचना को चुटकुला न कहकर हास-परिहास की रचना कह दिया जाता है।
शोभा भारती : आज के समय में जब साहित्य अपना सामाजिक आधार खोता जा रहा है, क्या आपको लगता है कि लघुकथा अपनी पठनीयता के चलते साहित्य की प्रासंगिकता को वापस ला सकती है?
बलराम अग्रवाल : समाज से कटा हुआ साहित्य ही अपना सामाजिक आधार खोता है, समूचा साहित्य नहीं। तुलसी, कबीर, खुसरो, ग़ालिब, प्रेमचंद, शरत् चंद्र आदि की रचनाएँ अपना सामाजिक आधार कभी खोएँगी, ऐसा लगता नहीं हैं। समकालीन हिन्दी लघुकथा में आपको मात्र ‘पठनीयता’ का गुण दिखाई देता है जबकि मुझे ‘सम्प्रेषणीयता’ का गुण भी भरपूर नजर आता है। ऐसे समय में, जब अधिकतर साहित्यिक विधाओं के सरोकार कुछेक क्लिष्ट अभिव्यक्तियों और नारेबाजियों में उलझकर आम आदमी से दूर महसूस होते हैं, समकालीन लघुकथा सहज और ग्राह्य कथन-शैली व शिल्प के चलते आम आदमी के एकदम निकट की विधा है और अपना साहित्यिक दायित्व बखूबी निभा रही है।
शोभा भारती : चैतन्य त्रिवेदी के लघुकथा संग्रह ‘उल्लास’ को आर्य स्मृति सम्मान प्रदान करते हुए स्व॰ कमलेश्वर जी ने कहा था कि आज लघुकथा एक विधा के रूप में स्थापित हो गई है। आप इस स्थापना से कितने सहमत हैं?
बलराम अग्रवाल : इस प्रश्न के जवाब में आप कृपया प्रस्तुत पंक्तियाँ भी पढ़िए और निश्चित करने का यत्न कीजिए कि लघुकथा 16अप्रैल 1989 में प्रो॰ निशान्तकेतु के आधार लेख की प्रस्तुति के उपरान्त पटना में ‘विधा’ स्वीकृत हुई, 16 दिसम्बर, 2000 को कमलेश्वर की घोषणा के बाद दिल्ली में ‘विधा’ स्वीकृत हुई या डॉ॰ रमेश कुन्तल मेघ की अध्यक्षता व डॉ॰ फूलचन्द ‘मानव’ की उपस्थिति में पंचकुला(हरियाणा) में 06 दिसम्बर २००९ को सम्पन्न गोष्ठी में? अपने एक लेख ‘बिहार का हिंदी लघुकथा संसार’ (पुस्तक- ‘भारत का हिंदी लघुकथा संसार’ सं॰ डॉ॰ रामकुमार घोटड़/पृष्ठ 57) में डॉ॰ सतीशराज पुष्करणा लिखते हैं-“1989 का वर्ष लघुकथा के लिए एक ऐतिहासिक वर्ष रहा। 16 अप्रैल 1989 को पटना लघुकथा लेखक-आलोचक सम्मेलन ’89 में प्रो॰ निशान्तकेतु द्वारा प्रस्तुत आधार लेख ‘लघुकथा’ की विधागत शास्त्रीयता के बाद विधा-उपविधा का विवाद समाप्त हो गया...” अर्थात लघुकथा को ‘विधा’ की मान्यता मिल गई। इस सम्बन्ध में अगर यह कहा जाय कि विधा-उपविधा का विवाद पटना में पैदा होकर लघुकथा-आलोचना से जुड़े विद्वत-समाज से किसी भी प्रकार के समर्थन के अभाव में प्रो॰ निशान्तकेतु के लेख की आड़ लेकर वहीं दफन होने को विवश हो गया तो अनर्गल नहीं होगा।
इस सम्बन्ध में प्रो॰ रूप देवगुण के एक लेख ‘हरियाणा का लघुकथा संसार’ (भारत का हिंदी लघुकथा संसार: संपादक-डॉ॰ राम कुमार घोटड़/पृष्ठ 84) की ये पंक्तियाँ भी दृष्टव्य हैं- ‘06 दिसम्बर, 2009 को साहित्य संगम संस्था, पंचकुला के सौजन्य से पंचकुला में डॉ॰ रमेश कुन्तल मेघ की अध्यक्षता में डॉ॰ फूलचन्द ‘मानव’ (पंजाब) के द्वारा एक लघुकथा गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी में ‘लघुकथा का शिल्प और संरचना’ विषय पर प्रो॰ अशोक भाटिया, डॉ॰ सुरेन्द्र मंथन, रामकुमार आत्रेय, रतनचन्द ‘रत्नेश’, योगेश्वर कौर, डॉ॰ ज्ञानचंद शर्मा व मोहिन्द्र राठौड़ द्वारा एक सार्थक चर्चा की गई और डॉ॰ शशि प्रभा, चन्द्र भार्गव, विष्णु सक्सेना ने अपनी-अपनी लघुकथाएँ पढ़ीं। इस आयोजन में पधारे कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों ने पहली बार लघुकथा के अस्तित्व को स्वीकारा और माना कि लघुकथा भी साहित्य की एक स्वतंत्र विधा है।’ मैं समझता हूँ कि इस वक्तव्य में प्रो॰ रूप देवगुण का इशारा उक्त गोष्ठी के अध्यक्ष डॉ॰ रमेश कुन्तल मेघ व डॉ॰ फूलचंद ‘मानव’ सरीखे विद्वानों की ओर है जो 06 दिसम्बर, 2009 से पहले तक लघुकथा की विधागत अस्मिता से या तो परिचित नहीं थे या उसे स्वीकारने की स्थिति में स्वयं को नहीं पा रहे थे।
और अन्त में आपके अभिमत पर विचार करते हैं। हिन्दी लघुकथा को गरिमापूर्ण साहित्यिक मंच प्रदान करने वाले संपादकों में कमलेश्वर निःसंदेह सर्वाेपरि रहे हैं। उनकी जिस उद्घोषणा की बात आपने की है वह 16 दिसम्बर, 2000 को सम्पन्न ‘आर्य स्मृति सम्मान समारोह’ में कही गई थी। उनकी घोषणा में आए ‘आज’ शब्द का अर्थ वह दिन-विशेष न मानकर काल-विशेष मानना चाहिए। यह ‘काल’ मुख्यतः सन् 1971 से लेकर उनके द्वारा की गई घोषणा वाले दिन और समय-विशेष तक फैला हुआ है। लघुकथा से जुड़े अधिकतर कथाकार, संपादक, आलोचक व शोधकर्ता उस दिन और उस समय-विशेष के बहुत पहले से लघुकथा को ‘विधा’ मानते चले आए हैं। ऐसा न होता तो सन् 1976 में जयपुर विश्वविद्यालय ‘हिन्दी लघुकथा’ को शोध-विषय हेतु पंजीकृत न करता और न ही ‘आर्य स्मृति सम्मान समारोह’ के आयोजकों (किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली) द्वारा सन् 1999 में ही सन् 2000 के सम्मान हेतु ‘लघुकथा’ की पांडुलिपियाँ आमन्त्रित करने सम्बन्धी घोषणा ही की जाती और न कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव और चित्रा मुद्गल सरीखे वरिष्ठ कथाकार व कथा-विचारक निर्णायक बनने हेतु अपनी सहमति प्रदान करते।
बलराम अग्रवाल : मेरी दृष्टि में ‘लघुकथा’ समसामयिक सरोकारों से जुड़ी कथा-रचना है। यह तो स्पष्ट ही है कि यहाँ जिस कथा-रचना को हम ‘लघुकथा’ कह रहे हैं, वह लघु-आकारीय गद्यात्मक कथा-रचना है। उसकी भाषा कितनी ही काव्यात्मक अथवा नाटकीय गुण-सम्पन्न क्यों न हो, वह गद्यगीत अथवा निरी काव्यकृति नहीं है। दूसरी बात यह कि एक लघुकथा किसी एक-ही संवेदन-बिंदु को उद्भासित करती होनी चाहिए, अनेक को नहीं। कथ्य-प्रस्तुति की आवश्यकतानुरूप उसमें लम्बे कालखण्ड का आभास भले ही दिलाया गया हो, लेकिन उसका विस्तृत ब्योरा देने से बचा गया हो। ‘लघुकथा’ में जिसे हम ‘क्षण’ कहते हैं वह द्वंद्व को उभारने वाला या पाठक मस्तिष्क को उस ओर प्रेरित करने वाला होना चाहिए न कि सूत्र-रूप में प्रस्तुत होकर कथाकार्य की इति मान बैठने वाला। कथ्य की प्रस्तुति के अनुरूप कोई कथाकार अनेक शिल्पों व शैलियों का प्रयोग करने को स्वतन्त्र है, लेकिन इस स्वतंत्रता का मनमाना दुरुपयोग न करके उसे विधा को आयाम देने हेतु प्रयासरत नजर आना चाहिए। लघुकथा की भाषा सहज ग्राह्य तथा प्रवाहमयी हो तथा पाठक को चमत्कृत करने मात्र की बजाय कथा कहने के नये मुहावरे गढ़ती-सी लगती हो।
शोभा भारती : लघुकथा के विचार-पक्ष पर आप क्या कहना चाहेंगे?
बलराम अग्रवाल : लघुकथा का विचार-पक्ष इस समय काफी पुष्ट है। शुरुआती दौर में रमेश बतरा, अवध नारायण मुद्गल, शंकर पुणताम्बेकर, भगीरथ, जगदीश कश्यप, कृष्ण कमलेश आदि ने लघुकथा के विचार-पक्ष को मजबूती के साथ रखना प्रारम्भ किया था। उसी दौर की अगली कड़ी के रूप में डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक, कृष्णानन्द कृष्ण, निशांतकेतु, डॉ॰ कमल किशोर गोयनका आदि ने इसके विचार-पक्ष पर शोधपरक लेखों व साक्षात्कारों के माध्यम से इसे पुष्ट किया। परन्तु प्रारम्भ से लेकर अद्यतन हालत यह है कि प्रिंट-मीडिया की बहुत-सी वे पत्रिकाएँ जो लगातार लघुकथाएँ प्रकाशित करती आ रही हैं, इसके विचार-पक्ष को प्रस्तुत करने से कन्नी काट रही है; लेकिन संतोष और प्रसन्नता की बात यह है कि पूर्व में लगभग सभी लघु-पत्रिकाएँ तथा वर्तमान में लगभग सभी ई-पत्रिकाएँ तथा इंटरनेट ब्लॉग्स लघुकथाओं के साथ-साथ इसके विचार-पक्ष को भी ससम्मान स्थान दे रहे हैं। अतः विचार-पक्ष की प्रस्तुति में निर्वात की स्थिति नहीं है।
शोभा भारती : क्या आप भी मानते हैं कि हिन्दी आलोचना ने लघुकथा को अपेक्षित तवज्जो नहीं दी?
बलराम अग्रवाल : हिन्दी आलोचना अन्य विधाओं की भी समस्त उल्लेखनीय कृतियों पर अपेक्षित तवज्जो कब दे पा रही है? यों भी, एकांकी आदि नयी उद्भूत विधाओं को आलोचकों के बीच अपनी स्थापना के लिए लम्बा संघर्ष पूर्व में भी करना पड़ा है, अब भी करना पड़ रहा है और आगे भी करते रहना पड़ेगा।
शोभा भारती : बीसवीं सदी की लघुकथा में आप क्या दुर्बलताएँ देखते हैं जिन्हें आने वाले समय में दूर किया जाना जरूरी है?
बलराम अग्रवाल : मैं समझता हूँ कि बीसवीं सदी की लघुकथा ने निरंतर अपने-आप को परिष्कृत किया है और इसका जो रूप आज इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे दशक के पहले वर्ष में आप देख रही हैं, वह इस बात का प्रमाण है कि इस कथा-विधा से जुड़े कथाकारों में स्व-विवेक की कमी कभी रही नहीं। दुर्बलताएँ समय-सापेक्ष भी होती हैं। रचना-विधा का जो पक्ष आज प्रशंसनीय है, जरूरी नहीं कि आने वाले कल तक वह प्रसंशनीय ही बना रहेगा। इसलिए मैं समझता हूँ कि इस दिशा में मुझे ही नहीं, किसी को भी मसीहाई अंदाज़ अपनाते हुए सुझाव-विशेष देने की आवश्यकता नहीं है।
शोभा भारती : पहली लघुकथा आपने कब लिखी?
बलराम अग्रवाल : मेरी पहली प्रकाशित लघुकथा ‘लौकी की बेल’ थी जो श्रीयुत अश्विनी कुमार द्विवेदी के संपादन में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली कथा-पत्रिका ‘कात्यायनी’ के जून 1972 अंक में प्रकाशित हुई थी।
शोभा भारती : किस विधा में लिखकर आपको सबसे ज्यादा संतोष मिलता है?
बलराम अग्रवाल : निश्चित रूप से लघुकथा में, लेकिन कभी-कभी कविता व कहानी में भी।
शोभा भारती : लघुकथा की रचना के पीछे रचनाकार की मनःस्थिति के विषय में आप क्या बताना चाहेंगे? यानी वह क्या चीज़ होती है कि आप किसी कथ्य-विशेष को कविता या कहानी के बजाय लघुकथा में व्यक्त करना चाहते हैं?
बलराम अग्रवाल : मेरा मानना है कि विश्वभर का मानव समुदाय आदम के ज़माने से ही किस्से-कहानियाँ सुनने-कहने में गहरी रुचि लेता है। एक उर्दू कहावत है- कम खर्च बाला नशीं; लघुकथाकार के लिए इससे तात्पर्य है- शाब्दिक मितव्ययता बरतते हुए आनन्दित रहना और मूछों पर ताव दिये घूमना। मन में कौन छोटी-सी बात गहरे चुभ जायेगी और समूचे अस्तित्व को हिलाकर रख देगी अथवा कौन-सा बड़ा हादसा धरती को हिलाकर रख देगा लेकिन मस्तिष्क को छू तक नहीं पायेगा- एकाएक कुछ कहा नहीं जा सकता। मैं यद्यपि कविता में भी अभिव्यक्त होता रहता हूँ और गाहे-बगाहे कहानी में भी, लेकिन लघुकथा-लेखन जितना अभ्यस्त अन्य विधाओं में नहीं हूँ इसलिए इस विधा में अभिव्यक्त होना मुझे मारक भी महसूस होता है और संतोषप्रद भी।
शोभा भारती : क्या आप कुछ ऐसे लघुकथाकारों के नाम लेना चाहेंगे जो आपको सचमुच लघुकथा के लिए वरदान लगते हैं?
बलराम अग्रवाल : ऐसे लघुकथाकारों की दो श्रेणियाँ सक्रिय रही हैं, ऐसा मेरा मानना है। पहली श्रेणी में मैं उन लोगों के नाम लेना चाहूँगा जिन्होंने लघुकथा के रचनात्मक और आलोचनात्मक- दोनों पक्ष आम तौर पर साहित्यिक राजनीति से विलग रहते हुए गम्भीरतापूर्वक सुधारे-सँवारे हैं और वैसा ही काम अब भी कर रहे हैं। वे हैं- भगीरथ, डॉ॰ सतीश दुबे, कमल चोपड़ा, सुकेश साहनी, सूर्यकांत नागर, अशोक भाटिया व बलराम। इनमें विक्रम सोनी व स्व॰ रमेश बतरा का नाम भी ससम्मान जोड़ा जाना चाहिए। कुछ अन्य सम्माननीय नाम कहने से छूट भी गये हो सकते हैं। दूसरी श्रेणी में वे लोग हैं जिन्होंने लघुकथा के रचनात्मक और आलोचनात्मक- दोनों पक्षों पर काम तो यथेष्ट किया लेकिन व्यावहारिक स्तर पर वे स्वयं को मर्यादित न रख सके जिसके कारण लघुकथा की विधापरक प्रतिष्ठा, गरिमा और सम्मान- तीनों ही, विद्वत् आलोचक-वर्ग के बीच लगातार क्षत हुए। यद्यपि मैं उनके नामों का उल्लेख करना यहाँ उचित नहीं समझ रहा हूँ तथापि लघुकथा से जुड़े वरिष्ठ हस्ताक्षर बिना बताए भी उन नामों को जानते हैं अतः पहचान लेंगे।
शोभा भारती : एक लघुकथाकार के रूप में आप हिन्दी समाज से क्या कहना चाहेंगे?
बलराम अग्रवाल : लघुकथाकार के रूप में मैं केवल हिन्दी समाज से ही नहीं समूचे मानव समुदाय से मुखातिब हूँ और अपनी बात को ‘प्रवचन’, ‘सैद्धांतिक आदेश’ या ‘नैतिक निर्देश’ के रूप में बोलने की बजाय रचनात्मक लघुकथा के रूप में ही रखना ज्यादा पसन्द करूँगा
- शोभा भारती, 1773/31, शान्तिनगर, त्रिनगर, दिल्ली-110035
- बलराम अग्रवाल, 70, उल्धनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली
।
बलराम अग्रवाल जी के विचारों का स्वागत है।
जवाब देंहटाएंएक ही प्रवाह में पूरी बात -चीत पढ़ गयी। लघुकथा का सन्दर्भ, कहीं कोई धुंध नहीं तकनीकों पर , स्पष्ट चिंतन से भरा आपका हर दृष्टिकोण सहायक है लघुकथा को जानने के लिए। एक चीज़ आज आपने यहाँ स्पष्ट की है कि ,// सन् 1970 तक की सभी लघ्वाकारीय कथा-रचनाएँ, वे चाहे दृष्टांत परम्परा की हों चाहे भाव परम्परा की हों, गम्भीर कथ्य परम्परा की हों या व्यंग्यात्मक पैरोडी परम्परा की, ‘लघुकथा’ हैं; //---इसके बाद पूर्व लिखित कथाओं पर कहीं कोई प्रश्न ही नहीं बचता है। आभार आपको इन तथ्यों को हम सबके लिए यहां प्रकाशित करने के लिए। सादर।
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