अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 1, अंक : 10, जून 2012
।।व्यंग्य वाण।।
सामग्री : ललित नारायण उपाध्याय का व्यंग्यालेख 'हे पटवारी! तुष्टिमान हों, प्रसन्न हों'।
ललित नारायण उपाध्याय
उसे सरकारी जमीन पर एक टब रखकर अपनी दुकान खोलनी थी। वह सबसे पहले नगर निगम गया। उसने जमीन के बारे में मांग की। उन्होंने कहा- ‘नजूल की जमीन है, नजूल वाले देंगे, हम नहीं अलाट कर सकते।’
वह नजूल दफ्तर में गया। उन्होंने कहा- ‘नगर निगम की जगह है। नगर निगम वाले देंगे। हम नहीं दे सकते।’
‘हुजूर, वे आपकी जगह बताते हैं, आप उनकी जगह बताते हैं। आखिर मैंने क्या करना है, किसके पास जाना है?’ उसने कहा।
‘कलेक्टर के पास जाओ। हम कुछ नहीं जानते।’
वह कलेक्टर के पास गया। उसने आवेदन-पत्र दिया। महीनों तक जवाब नहीं आया और एक दिन उसने संबन्धित बाबू से सुना कि दरखास्त खारिज हो गई है।
वह एक चलते पुर्जे के पास गया। उसने कहा-
‘उस जमीन को अपनी जमीन समझो। तुम्हें जहां भी टब रखना है, रख लो और दुकान खोल लो। फिर जो होगा, वह बाद में देख लेंगे।’
रेखांकन : महावीर रंवाल्टा |
कई माह बीत गये। एक दिन उस इलाके का पटवारी आया। उसे भूमि की सारी जानकारी थी। अतः पान वाले ने कहा- ‘आप अपनी दक्षिणा ले लें, मुझे दुकान अलाट करवा दें।’
‘यह जगह तुम्हें मिल नहीं सकती। मैं क्या करूँ, कानून ही ऐसा है। वह बोला।
दुकानदार ने कहा- ‘पटवारी जी तुष्टिमान हों, सन्तुष्ट हों! आप दूसरों पर मेहरबान हैं, हम पर भी मेहरबान हों। कानूनी रास्ता तो निकल नहीं सकता, बीच का रास्ता निकाल लें। आपने कई गरीबों को तारा है, मुझे भी तार दें।’
भक्त की प्रार्थना से पटवारी जी प्रसन्न हो गये। जिस प्रकार देवी-देवता का धागा बाँधा जाता है, उसी प्रकार से दुकानदार ने पटवारी का महीना बाँध दिया।
‘हे पटवारी! जिस प्रकार आप उस पर तुष्टिमान हुए, प्रसन्न हुए, वैसे हम सब पर तुष्टिमान हों। बच्चों पर दया करें। हमारे धंधे को चलने दें, ईश्वर आपको हजार साल की उमर देगा।’
सदियां बीत गईं, पटवारी जी आज भी जिन्दा हैं।
‘हे पटवारी जी! आप सदा जिन्दा रहें। अमर रहें।
- ईश कृपा सदन, 96, आनन्द नगर, खंडवा-450001 (म.प्र.)
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