अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 2023, अंक : 01, नवम्बर 2023, लघुकथा : 04
।।कथा प्रवाह 2।।
विजयानंद विजय
आँख खुली
‘‘एक नम्बर के ठग-लुटेरे हैं ये सब दुकानदार! नारियल, लड्डू, फूल, माला, चुनरी का ही अस्सी-नब्बे रुपया ले लेते हैं? मंदिर और भगवान के सामने बैठकर भी ये लोग कैसे इतनी बेईमानी कर लेते हैं? देखना, भगवान इनका कभी भला नहीं करेंगे।’’ पत्नी मंदिर से लौटते समय गुस्से में बोले जा रही थी।
‘‘देखो, पैसे, नारियल, लड्डू, फल, फूल, माला, चुनरी आदि से पूजा नहीं होती। तुम जैसे लोग ही बेमतलब इन दुकानदारों के चंगुल में फँसकर बार-बार इनका शिकार बनते हैं। जो चुनरी और चादर अंदर मंदिर में चढ़ती है, वह बाहर आकर इन्हीं दुकानों से फिर बिक जाती है। यही इनका बिजनेस है, जो धर्म की आड़ में और मंदिरों की छत्रछाया में खूब फल-फूल रहा है। देखो, पूजा मन से होती है। भावना से होती है। श्रद्धा से होती है। अंधभक्ति और अंधविश्वास से नहीं। और इसके लिए मंदिर जाने या तीर्थ करने की कोई आवश्यकता नहीं है।’’ पति ने पत्नी को पूजा का सही अर्थ समझाने की कोशिश की।
‘‘हूँ...। ठीक कहते हो।’’ पत्नी ने पूजा-पाठ के मुद्दे पर आज पहली बार उसकी राय से सहमति जताई थी।
‘‘आखिर आँख तो खुली मैडम की!’’ पति आँखें चौड़ी करते हुए मन-ही-मन बुदबुदाया।
ईमेल : vijayanandsingh62@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें