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रविवार, 19 मई 2013

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अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 8,  अप्रैल  2013  


{अविराम के ब्लाग के इस अंक में डॉ. रश्मि बजाज के काव्य संग्रह ‘‘स्वयं सिद्धा’’ की वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ द्वारा एवं पुरुषोत्तम कुमार शर्मा के लघुकथा संग्रह ‘छोटे कदम’ की डा. शरद नारायण खरे द्वारा लिखित समीक्षा रख रहे हैं। लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर भेजें।}



नारी अस्मिता और जिजीविषा को उकेरती हैं ‘‘स्वयं सिद्धा’’ की कविताएँ : डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’



अपने नारी विमर्श और प्रखर चिन्तन के लिए जानी जाने वाली कवयित्री रश्मि बजाज का काव्य-संकलन इधर काफी चर्चित रहा है। ‘‘स्वयं सिद्धा’’ शीर्षक से प्रकाशित रश्मि बजाज के काव्य संकलन में छपी कविताओं को दो खण्डों में रक्खा गया है। पहले खण्ड  ‘असुन्दर काण्ड’ में कुल छत्तीस कविताएँ संकलित हैं, तो दूसरा खण्ड ‘सीता नाम ही सत्य है’ शीर्षक कविता पर रक्खा गया है और इसमें कवयित्री रश्मि बजाज की चौंतीस कविताएँ हैं।
     कवयित्री रश्मि की भूमिका ‘नहीं मरती स्त्री’ में उनका ‘स्त्रीवादी’ प्रखर चिन्तन मुखर हुआ है- ‘‘दोस्तो! स्त्री होने के मायने क्या हैं- हर स्त्री यह बखूबी जानती है। मन ही मन वह स्वयं को ‘मादा’ नहीं अपितु ‘मूलतः मनुष्य’ होने के कितने भी दिलासे देती रहे किन्तु बाह्य जगत उसे पल भर भी यह भूलने नहीं देता कि वह सर्वोपरि ‘एक स्त्री’ है और यह ‘जैण्डर-आइडैंटिटी’ ही उसका प्रथम व अन्तिम परिचय है।’’
     कवयित्री का यह विचारोत्तेजक ‘चिन्तन’ हाल ही में घटित ‘दिल्ली रेप-काण्ड’ के परिप्रेक्ष्य में जितना प्रासंगिक है, उतनी ही प्रासंगिक और कुरेदने वाली है उसकी बेहद छोटी, लेकिन बेहद बेधक मात्र तीन पंक्तियों की रचना-
‘‘वाह, नारी
तेरे पल्ले तो
कुछ ना री।’’ (पृष्ठ-36)
    और, इन तीन पंक्तियों की मारक रचना रचने वाली कवयित्री रश्मि बजाज ‘स्त्री’ की ‘अदम्य’ जिजीविषा को शब्द देती है-
‘‘उठा सकती है/अभिव्यक्ति के
सब जोखिम/बस स्त्री ही
उसी के पास/न खोने को
न पाने को/है कुछ भी।’’ (पृष्ठ 17)
    कवयित्री रश्मि बजाज की कविता ‘जिंक्सड’ तो आज के समाज की सोच को ही कटघरे में खड़ा करके ‘स्त्री’ की स्थिति पर बेधक प्रश्न उठाती है, जिनके उत्तर क्या हैं कहीं?
‘‘इनाम है/पैदा होने पर
इनाम है/शाला जाने पर
इनाम है/ब्याह रचाने पर
इतने ‘इंसैंटिव’
देकर भी/नहीं बढ़ती
मेरी ‘प्रोडक्शन’
मैं हूँ/ईश्वर का
‘जिंक्सड आइटम’.... (पृष्ठ 37)
     और, रश्मि जी की उक्त चुभती रचना के साथ ही ‘स्त्री’ का एक और प्रश्न हमारी सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक व्यवस्था के मुँह पर करारा तमाचा जड़ देता है-
‘‘कांस्य, रजत
स्वर्ण, हीरक-
ले सब
दुनिया भर/के पदक
जीवन-खेल में
यह नारी
हार जाती क्यूँ
हर पारी?’’  (पृष्ठ 34)
     कवयित्री रश्मि बजाज ने ‘स्वयं सिद्धा’ की अपनी भूमिका ‘‘नहीं मरती स्त्री’’ में आधी दुनिया के नंगे सच को वाणी दी है- ‘‘मस्जिदों के बन्द बुलन्द दरवाजे, मन्दिरों के आरक्षित दिव्य प्रांगण, खाप पंचायतों की खूनी चौपालें, आतंकित माँओं के आक्रान्त गर्भाशय, कन्या जन्म पर मीडिया-स्पैशल ‘सिम्बौलिक’ बजती थाली का समारोह-स्थल, होली के त्यौहार पर बहिनों के बने ढाल-बुड़कलों की आहुति लेता अग्नि कुण्ड और न जाने कितने स्थान व अनुभव मुँह चिढ़ाते हुए इस 21 वीं सदी में भी स्त्री को उसके ‘शाश्वत दलिता’ होने का निरन्तर एहसास कराते ही रहते हैं। उस पर हैं स्त्री-विरोधी शक्तियों की मक्कार साजिशें जो स्त्री के भगिनीवादी स्नेह-बन्ध को धर्म, जाति व सम्प्रदाय के नाम पर तोड़कर हर स्त्री को ‘अकेली’ और ‘बेचारी’ बनाये रखने के प्रयास में निरन्तर लगी हैं।’’  (पृष्ठ 9)
     और, कवयित्री के इस बेधक चिन्तन की साक्षी बनती है उसकी रचना ‘दो ही’, जिसमें रश्मि बजाज ने युग-यथार्थ को सजीव अभिव्यक्ति दी है-
‘‘जात तो, राजा/दुनिया में/होती हैं
दो ही/एक मर्द/दूजी औरत की
चलती जाती/जब मैं/सड़क पे
निपट अकेली/पड़ती मुझ पे
नज़र एक सी/हरेक मर्द की
नज़र जो कोई/जात न कोई
पात समझती
पहन के/सूट-बूट साफ़ा
उजली सी धोती/तुम भी
लगते हो/उनके संग/उन जैसे ही
दूर खड़ी/तकती रह जाती
मैं बेबस सी.....’’ (पृष्ठ 27)
    आज स्त्रियों की ‘अस्मिता’ की रक्षा के राष्ट्रव्यापी शोर में कवयित्री रश्मि बजाज की उक्त कविता का नंगा सच हमें चौंकाता तो जरूर है, लेकिन ‘कन्या-भ्रूण हत्या’ जैसी मानसिकता ढोने वाले हमारे दिमागों के ताले खुल नहीं पाते? ‘स्वयं सिद्धा’ की यह कविता तो एक खुली चुनौती ही बन गई है, जिसका शीर्षक है ‘एक अज़ान’-
‘‘जोड़ोगे जब/अपने साथ/औरत की भी
एक अज़ान/सच जानो/तब ही तुमको 
फल पाएंगे/रमज़ान, कुरान

खोलो बंद/किवाड़, हुजूर

आए भीतर/खुदा का नूर!

आदम के बच्चे!

हव्वा की/बच्ची को
कब तक/रख पाएगा
तू अल्लाह से दूर?’’
      निःसन्देह, कवयित्री रश्मि बजाज के काव्य-संकलन ‘स्वयं सिद्धा’ की कविताओं में गुंथा ‘आधी दुनिया’ का सच हमें कुरेदने की सामर्थ्य रखता है। कवयित्री का ‘समर्पण’ निश्चय ही स्वयं उसकी अपनी और संसार की हर ‘स्त्री’ की अदम्य और अजस्र जिजीविषा का दस्तावेज बन गया है-
‘‘समर्पण
उस लहर को/जिसमें साहस है
सागर होने का!
समर्पण
उस किरण को/जिसमें हौंसला है
सूरज होने का!
समर्पण
उस जर्रे को/जो कि होना
चाहता है खुदा।’’ (पृष्ठ-15)
‘स्वयं सिद्धा’ की कवयित्री की ये प्रखर ‘स्त्रीवादी’ कविताएँ झकझोरती हैं, सोचने को बाध्य करती हैं, इसीलिए अवश्य पढ़ी जानी चाहिए।
स्वयं सिद्धा (काव्य संग्रह) : रश्मि बजाज। प्रकाशक : वृन्दा पब्लिकेशन्स प्रा.लि.; बी-5, आशीष कांप्लेक्स, मयूर विहार, फेज-1, दिल्ली-110091। पृष्ठ: 113, मूल्य: रु.100/- मात्र। संस्करण: 2013 (प्रथम)।

  • 74/3, न्यू नेहरू नगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार (उत्तराखण्ड)




सामाजिक चेतना की मशाल जाग्रत करती लघुकथाएँ : डा. शरद नारायण खरे


वैसे तो इस संग्रह की प्रायः समस्त लघुकथायें प्रभावशाली हैं, पर आदिदानव का खौंफ, दम घुटती आस, हालात, पहचान, देवीय आवरण, प्यार, मिस्त्री, संदेह, करवा चौथ का व्रत, पंचायती न्याय, सिर में घुसा रावण, जड़, जीने की ललक, दुखाग्रह विशेष रूप से प्रभावित करती है। लघुकथाओं में विविध विषयक संदर्भ है। भावना को प्रधानता दी गई है, तो वहीं सांस्कृतिक चेतनाओं को भी समेटने की कोशिश की गई है। समाज में व्याप्त बुराइयों व दुर्गुणों व मरती हुई संवेदना व सच्चाई की दुर्गति से आहत लघुकथाकार काफी आक्रोश के साथ सार्थक चिंतन हमारे समक्ष लघुकथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करता है। यद्यपि अभी वय की दृष्टि से लघुकथाकार युवा ही है, तो भी उसके सृजन में परिपक्वता व प्रौढ़ता दिखाई देती है। भाषा सधी हुई व सटीक है। शिल्प में ताज़्ागी व प्रस्तुति में प्रभाव है। ग्रामीण व शहरी दोनों परिवेषों से उठाकर लघुकथाएँ रची गई है। राजनीतिक, मूल्यहीनता, आंतरिक कलुशता, कन्याभू्रण हत्या, संबंधों के व्यापारवाद, दोगलेपन, आत्मकेन्द्रण आदि पतनशील यथार्थ से पुरुषोत्तम कुमार जी अवगत है, इसलिए उन्होंने अपनी लघुकथाओं के माध्यम से सामाजिक चेतना की मशाल जाग्रत करने की सफल व सक्षम प्रयास किया है।
          
छोटे कदम :  लघुकथा संग्रह। लेखक :  पुरुषोत्तम कुमार शर्मा। प्रकाशक :  गगन स्वर बुक्स, जी-220, लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाजियाबाद-201005, मूल्य: रु.180/, संस्करण: 2013।


  • विभागाध्यक्ष :  इतिहास, शासकीय महाविद्यालय, मण्डला-461661 (म.प्र.)

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