अविराम ब्लॉग संकलन : वर्ष : 3, अंक : 1-2 , सितम्बर-अक्टूबर 2013
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सामग्री : सुप्रसिद्ध कथाकार एवं चिन्तक डॉ.सतीश दुबे जी के साथ उनके नीमच प्रवास के दौरान श्री राधेश्याम शर्मा की उनसे विविधि पहलुओं पर की गई बातचीत के प्रमुख अंश।
साहित्य से समाज में बदलाव आता है : डॉ.सतीश दुबे
डॉ. सतीश दुबे : पिताजी ने मेरे तथा बड़े भाई के लिए इन्दौर में अध्ययन व्यवस्था कर दी थी। यहाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने का मौका मिला। भाई को भी शौक होने के कारण वे उस समय की अनेक पत्रिकाएं लाते थे। कालांतर में मेरी रूचि पुस्तकें पढ़ने की ओर बढ़ी। बाल्यावस्था में हाट-बाजार से तथा तदनंतर लाइब्रेरी ज्वाइन कर शरदचन्द्र सहित अनेक बांग्ला लेखकों के अनुवाद, प्रेमचंद, यशपाल, जैनेन्द्र से कृष्णचंदर जैसे लेखक, गोपालप्रसाद व्यास सहित कवियों को पढ़ा। पर मैं नहीं सोचता महज पढ़ना मेरे लेखन की वजह बनी। संभवतः किसी आंतरिक ऊर्जा ने मुझे इस ओर प्रवृत्त किया। लेखन की शुरूआत व्यंग्य से हुई। 1960 याने उम्र के बीसवें वर्ष में ‘‘सरिता’’, ‘‘नौकझोंक’’ तथा ‘‘जागरण’’ में ‘‘शनि महाराज के नाम’’, ‘‘डी. ओ.’’, ‘‘असत्यमेव जयते’’ तथा ‘‘साहब का मूड’’ तथा कॉलेज पत्रिका में ‘‘ग्रह का चक्कर’’ रचनाएं प्रकाशित हुई। और इस प्रकार लेखन प्रकाशन का सिलसिला शुरू हुआ।
राधेश्याम शर्मा : जीवन-यापन के लिए क्या लेखन ही आपका पेशा रहा ? याने आप पूर्णकालिक लेखक ही रहे?
डॉ. सतीश दुबे : अपनी लेखकीय जिन्दगी में मैंने लेखन को पेशा नहीं अक्षर ब्रम्ह की आराधना माना। वैसे जीवन-यापन के लिए मुझे विभिन्न संघर्षों के दौर से गुजरना पड़ा। शुरूआत 1955 याने दसवीं मैट्रिक-बोर्ड की परीक्षा देने के बाद एक शासकीय कार्यालय में डेढ़ रूपया रोजनदारी पर मिली क्लर्की से हुई। वस्तुतः यह कमाई मेरे लिए इसलिए बरकती साबित हुई कि इससे मिली प्रारम्भिक शक्ति के बल पर अपनी जीवन-यात्रा की विभिन्न स्थितियों से मुकाबला करते हुए मुझे कभी पराजय के चेहरे से साक्षात्कार करने का अवसर नहीं मिला। यह कहते हुए मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि पारिवारिक, सामाजिक तथा जिजीविशा के दायित्वों का निर्वाह करते हुए लेखन, पुस्तकें या साहित्यकार मित्रों का प्रेम मेरे जीवन को संचालित करने वाली गतिविधियों का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा।
राधेश्याम शर्मा : डॉ. साहब इस अक्षर-आराधना की पृष्ठभूमि में आपका उद्देश्य क्या होता है ? मेरा आशय आप क्यों लिखते हैं?
डॉ. सतीश दुबे : हर बार की तरह आपके लिए भी मेरा उत्तर यह है कि- ‘‘मेरे लेखन के केन्द्र में मनुष्य होता है। मेरा यह मानना है कि मनुष्य केवल इसलिए मनुष्य नहीं है कि उसकी मज्जा में ‘देवगुण’ मौजूद है बल्कि इसलिए भी कि उसमें वे तमाम कमजोरियाँ मौजूद हैं, जो उसे मनुष्य बनाती है। जाहिर है उसके जीवन की विद्रूपता, असमानता, शोषण या सहजात कोमल प्रवृत्तियाँ मेरे लेखन की विषय-वस्तु का आधार बनती है। वैचारिक सिद्धान्त या सोच विशेष की कूपमंडूकता से अलहदा स्वतन्त्र चिंतन की वजह से विषयवस्तु को विस्तृत फलक मिले यह मेरी कोशिश रहती है। समय के घटनाक्रम से गुजरते हुए सामान्य से इतर पात्र, परिवेश और प्रसंग बीज रूप में मेरे मन में पैठ जाते हैं। और ये ही बीज गहन चिंतन मंथन के बाद अभिव्यक्ति के अनूरूप विधा कैनवास पर लेखकीय प्रक्रिया का हिस्सा बनकर साहित्यिक रचना की शक्ल में तब्दील होते है....।’’
राधेश्याम शर्मा : सर, पूर्णतः शहरी-जीवन से सम्बन्धित होने पर भी आपकी कहानियों और लघुकथाओं में ग्रामीण जीवन के पात्रों परिवेश तथा प्रकृति का चित्रण इतना जीवंत और विश्वसनीय कैसे चित्रित हो जाता है?
डॉ. सतीश दुबे : शर्माजी, शहर में रहते हुए भी स्वभाव और मन से मैं एकदम गामदी हूँ। यह गामदीपन हो सकता है मेरे रक्त में मौजूद हो। मेरे माता-पिता गांवों से सम्बन्धित रहे। कुनबे के मूलनिवासी का सम्बन्ध भी गांवों से रहा। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि, बाल्यावस्था की छः-सात वर्ष की वह उम्र जो हृदय में पैठकर व्यक्ति के चरित्र और सोच का निर्माण करती है, गांवों में व्यतीत हुई जन्म देने के बाद माँ के संसार से बिदा हो जाने पर पिताजी पैतृक गांव और वहां का कामकाज छोड़कर हम दोनों छोटे बहन-भाई को लेकर एक जागीरदार के रेवेन्यु दीवान होकर उसके गांव में बस गए। मुख्यालय के अलावा अन्य ग्रामों में भी घूमने की वजह से ग्राम-संस्कृति से रू-ब-रू होने के अनेक अवसर मिलते। बचपन का गांवों के प्रति यह प्रेम आज तक बना हुआ है और इसीलिए जब कभी जितना भी मौका मिलता है गांवों तक पहुंचने में विशेष सुकून की अनुभूति होती है। ग्रामीण-जीवन पर लिखने के लिए विचार तथा मौजूदा स्थितियों की जानकारी कुछ अपने अनुभवों तो कुछ अन्यों के सम्पर्क और समाचारों से प्राप्त होती है ।
राधेश्याम शर्मा : आपके दोनों उपन्यासों के रचाव की भी क्या यही पृष्ठभूमि रही?
डॉ. सतीश दुबे : झाबुआ जिला के भील आदिवासी एवं रतलाम-नीमच भू-भाग की बस्तियों-डेरों में बसी बाँछड़ा जाति पर केन्द्रित ‘‘कुर्राटी’’ तथा ‘‘डेरा बस्ती का सफरनामा’’ समस्यामूलक उपन्यास है। इनकी कथावस्तु कल्पना प्रसूत नहीं हकीकत है। इनमें वस्तुस्थिति के इर्द-गिर्द कथाप्रवाह के लिए प्रसंगों तथा कल्पना के शिल्प से परिवेशजन्य पात्रों की सृष्टि हुई है। दोनों ही उपन्यासों के लिए सामग्री एकत्रित करने में वर्षों तक साधनारत प्रयासों में जुटे रहना पड़ा। अनेक संदर्भों-सम्पर्कों के अतिरिक्त विषय से सम्बन्धित स्थानों की विपरीत शारीरिक-स्थितियों के बावजूद यात्राएँ भी की, कईं लोगों जिन्हें पात्र कहना चाहिए से मुलाकात कर जो रोमांचित कर देने वाली सुखद अनुभूति हुई उसे बयान करना आज भी मुश्किल है। खुशी है कि, इन दोनों उपन्यासों को पाठकों तथा साहित्यिक जगत से विशेष पहचान मिली। विक्रम तथा देवी अहिल्या विश्वविद्यालयों के एम.फिल. अध्येताओं द्वारा इन पर शोधप्रबन्ध लिखे गए। उस्मानियाँ वि.वि., हैदराबाद से ‘‘नई सदी के उपन्यासों में नारी-विमर्श’’ शोध कार्य पर पी.एच-डी. उपाधिग्रहीता अर्पणा दीप्ति ने भीष्म साहनी, मैत्रयीपुष्पा, अनामिका, भगवानदास मोरवाल, महुआ माजी, मिथिलेश्वर के विषय से सम्बन्धित उपन्यासों के साथ ‘‘डेरा-बस्ती का सफ़रनामा’’ को सम्मिलित ही नहीं किया प्रत्युत ‘‘वार्ता’’ तथा ‘‘कथाक्रम’’ में उस पर लिखा भी। इसी प्रकार बैंगलूर के डॉ.इशफाक अली खान ने ‘‘आदिवासियों के जन-जीवन से सम्बन्धित डी.लिट उपाधि के लिए शोधप्रबन्ध सामग्री हेतु ‘‘कुर्राटी’’ चयन किया।
राधेश्याम शर्मा : डॉ. साहब ‘‘डेरा-बस्ती का सफ़रनामा पर फिल्म भी तो बन चुकी है, उसका आपने जिक्र क्यों नहीं किया इसकी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताइए।’’
डॉ. सतीश दुबे : बहुचर्चित-प्रसंग होने की वजह से अपनी अपनी चर्चा में इसे सम्मिलित नहीं किया। जहाँ तक इसकी पृष्ठभूमि का सवाल है, हुआ यूं कि पुस्तक के लोकार्पण-पश्चात् इसकी कथावस्तु सम्बन्धी जानकारी न जाने किस माध्यम से विदंश इंटरटेंनमेंट मुंबई की प्रोड्यूसर नीतू जोशी तक पहुंची तथा फोन पर उन्होंने चौंकाने वाली यह खबर दी कि वे इस उपन्यास पर फिल्म बनाना चाहती है। इस प्रारम्भिक चर्चा के बाद वह मुझसे आकर मिली पूरी कथावस्तु के बारे में जाना-समझा और एक ही बैठक में निर्णय लेकर तय किया कि वह चूंकि मालवा की बेटी है तथा स्टोरी भी यहीं से सम्बन्धित है। इसलिए फिल्म मालवी बोली में है। और अंततः ‘‘भुनसारा’’ टाइटल से फिल्म बनी। डायरेक्टर चंदर बहल तथा नीतूजी की इच्छा थी कि इसके संवाद भी मैं लिखूं पर इसके लिए शूटिंग के दौरान लोकेशन पर जाना ज़रूरी था इसलिए यह कार्य सत्यनारायण पटेल ने किया। और छः माह पूरे होते न होते फिल्म थियेटरों में प्रदर्शित हो गई।
राधेश्याम शर्मा : फिल्म प्रदर्शित होने के बाद आपने कैसा महसूस किया?
डॉ. सतीश दुबे : इसे मैं अपने लेखकीय जीवन की विशेष घटना मानता हूं। इस फिलम का निर्माण चूंकि प्रोड्यूसर नीतू की महत्वाकांक्षी योजना थी इसलिए उसने इसके प्रमोशंस के प्रचार-प्रसार के लिए विभिन्न स्थानों पर प्रेस कान्फ्रेंसिंग तथा इंटरनेट पर ‘‘भुनसारा’’ साइट को आधार बनाया। जाहिर है फिल्म के साथ उपन्यास को भी चर्चा मिली। यूएनआई भोपाल के चीफ-ब्यूरो राजू घोलप द्वारा उपन्यास बुलवाकर मुख्य कंसेप्ट ‘‘कन्या-देह-व्यापार’’ के केन्द्र में रिजीज की गई खबर देश के तमाम पत्रों में प्रकाशित हुई। इंडिया-टूडे ने अपने एक अंक में ‘‘देह-व्यापार के कबीले’’ शीर्षक कवर-स्टोरी के लिए मंदसौर मुख्यालय तथा अन्य थानों से सामग्री बटोरकर इस विषय पर विस्तार से लिखा। स्टोरी कवरेज-रिपोर्टर सुधीर गोरे ने इसी के साथ ‘‘मेहमान का पन्ना’’ के लिए बतौर उपन्यासकार मुझसे लिखवाया। आपको ख्याल होगा मानवाधिकार आयोग तथा मीडिया की विशेष पहल से उस दौरान क्षेत्र के सभी डेरों पर पुलिस की छापामार कार्रवाही हुई थी। परिणामस्वरूप यह रहस्य उजागर हुआ कि डेरों पर कन्या-देह-व्यापार की सामाजिक कुप्रथा की आड़ में दूसरी लड़कियों के खरीद-फरोख्त का व्यापार होता है। इस तत्कालिक तथा क्षणिक-दिनों की बारिश जैसी प्रशासनिक कार्रवाही में अनेक मजबूर तथा बेची गई लड़कियों को डेरों से मुक्त कराकर ‘‘व्यापारियों’’ को बंदी बनाया गया था। इस पूरे घटनाक्रम से साहित्य की पुस्तकों में पढ़े हुए इन तथ्यों की पुष्टि का अनुभव हुआ कि साहित्य से समाज में बदलाव आता है।
राधेश्याम शर्मा : डॉ. साहब, इस क्षेत्र में रहते हुए भी जिन बातों से हम परिचित नहीं थे आपने अवगत कराया धन्यावाद।
डॉ. सतीश दुबे : हाँ, कुछ महत्वपूर्ण बातों को भी इस क्रम में जानना ज़रूरी है। जैसाकि फिल्म प्रोड्यूसर नीतू जोशी ने ‘‘सरिता’’ पाक्षिक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में बताया- म.प्र. के उद्योग मंत्री फिल्म उद्योग को प्रदेश में प्रारम्भ करना चाहते थे और उनकी इच्छा थी कि इसकी शुरूआत आंचलिक-बोली में बनाई जाने वाली फिल्मों से की जाये। इसीके तहत नीतूजी ने इस फिल्म का निर्माण ‘‘मालवी बोली’’ में किया। वह एक अलग प्रसंग है कि सबसिडी तथा फिल्म को टैक्स-फ्री किए जाने सम्बन्धी प्रारम्भिक आश्वासन बाद में पूरे नहीं हो पाए। यही नहीं मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान द्वारा फिल्म में दिए गए कुछ सीन शॉट्स जिन्हें बाद में निकाल दिया गया। इस सबका कारण नीतूजी ने वोट-बैंक बताया। शासन नहीं चाहता था कि फिल्म प्रदर्शित होने पर बांछड़ा-समाज में अपने देह-व्यापार पर संभावित प्रभाव सम्बन्धी जारी सुगबुगाहट को हवा दी जाये।
राधेश्याम शर्मा : ‘‘डेरा-बस्ती का सफ़रनामा’’ पर ‘‘भुनसारा’’ फिल्म बनाने की अनुमति देते हुए आपने क्या सोचा? आमद, धन प्राप्ति या कोई और वजह?
डॉ. सतीश दुबे : जनसामान्य तक किसी संदेश की पहुंच का फलक साहित्य की अपेक्षा सिनेमा का अधिक होता है। उपन्यास में निहित नारी की अस्मिता और दैहिक-शोषण की गाथा अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे यह मेरे अन्तर्मन की आवाज थी। और सामान्य सोच यह कि अपनी किसी पुस्तक को इतना महत्व मिल रहा है, यह लेखन की सार्थकता है। प्रारम्भिक और बाद की चर्चाओं के दौर में मानदेय सम्बन्धी कोई मुद्दा उभर नहीं पाया। न ही ऐसी चर्चा करने का साहस मेरा भोला-भाला लेखक-मन जुटा पाया। शायद इसी का पूरा फायदा उठाते हुए फिल्म-निर्माण पर करोड़ का खर्च करने की कान्फ्रेसिंग में बात करने वाली नीतूजी ने ‘‘एज-ए-गुड-विल’’ मुझे जो चेक भिजवाया उसका मूल्य बस बतौर सम्मान के दिए जाने वाले रूपया-नारीयल के बराबर मानिए।
राधेश्याम शर्मा : ‘‘डेरा-बस्ती का सफ़रनामा’’ तथा ‘‘कुर्राटी’’ पर चर्चा करते हुए एक प्रश्न उभर रहा है? क्या इन या ऐसे ही जाति या समाज-विशेष पर उसी से सम्बन्धित कोई लेखक लिखता है तो वह लेखन अधिक तथ्यात्मक, रोचक तथा प्रभावी हो सकता है।
डॉ. सतीश दुबे : नहीं, मैं ऐसा नहीं सोचता। मेरा तो यह मानना है कि जाति या समाज वर्ग से इतर लेखक अधिक तथ्यपरक, निरपेक्ष, सहानुभूति और संवेदना स्तर पर बेहतर लिख सकता है। वस्तुतः साहित्य जगत में राजनीति जैसी यह दलगत बयार दलित लेखकीय-वर्ग की सक्रियता के बाद आई है। जबकि दलित-लेखन की शुरूआत ही प्रेमचंद से होती है। कमलेश्वर के समांतर कहानी आंदोलन ने सर्वप्रथम ‘‘सारिका’’ जैसी बहुल प्रचार-प्रसार पत्रिका के पृष्ठों पर इस प्रकार के लेखन को मंच दिया। यह कहा जाये कि आज के बहुचर्चित दलित साहित्य के पैरोकार रचनाकार ‘‘सारिका’’ की ही देन है तो गैरमौजू नहीं होगा।
राधेश्याम शर्मा : हिन्दी कथा साहित्य में उपेक्षित वर्ग पर सम्बन्धित समाज के अलग लेखकों द्वारा लिखे गए इस प्रकार के लेखन का क्या आप बतौर उदाहरण परिचय दे सकेंगे?
डॉ. सतीश दुबे : वैसे अनेक कथाकारों ने लिखा और लिख रहे हैं। प्रेमचंद से ही शुरू करें तो उनकी अनेक कहानियों में इस प्रकार के पात्र मौजूद है। ‘‘रंगभूमि’’ के सूरदास, ननकू ‘‘गोदान’’ की सिलिया, उसके पिता हरखू, ‘‘प्रेमाश्रय’’ का बलराज रंगी, ‘‘कर्मभूमि’’ के घास छीलने वाला विद्रोही वर्ग जैसे पात्रों की कथा-साहित्य में अब तक सृष्टि नहीं हो पाई है। ‘‘बसंत मालती’’ में जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी के आदिवासी ‘‘भूले बिसरे चित्र’’ (भगवतीचरण वर्मा) का नाटक गेंदालाल वर्मा ‘‘दुःखमोचन’’ (नागार्जुन) का दलित पक्षधर ग्रामसेवक ‘‘स-सुराज’’ (हिमांशु जोशी) उपन्यासिकाओं के पात्र, रामदरश मिश्र के उपन्यास ‘‘जल टूटता हुआ’’ ‘‘सूखता हुआ तालाब’’ ‘‘पानी के प्राचीर’’ उपन्यासों के लवंगी, चेनइया, ये चंद ऐसे उपन्यास है जिनमें उपेक्षित वर्ग और समस्याओं को स्वर मिला है। इसी क्रम में देवेन्द्र सत्यार्थी, अमृतलाल नागर, निराला, बाबा नागार्जुन, शिवप्रसाद मिश्र, उग्रजी, मधुकरसिंह, रेणु, रांगेय राघव, मैत्रेयीपुष्पा, भगवानदास मोरवाल, शरद सिंह, मिथिलेश्वर, जैसे लेखकों के साथ इन दिनांे नई पीढ़ी के ऐसे अनेक रचनाकार हैं जो आत्मविश्वासी होमवर्क के साथ निरन्तर लिख रहे हैं।
राधेश्याम शर्मा : धन्यवाद, डॉ. साहब! आपने बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी? आपने जिन उपन्यासों की चर्चा की उनमें आंचलिकता और बोलियों का समावेश है। आपका भी मालवी बोली के प्रति लगाव है इसमें आपने लिखा भी है? आज के सन्दर्भ में बोली के भविष्य के बारे में बताइये?
डॉ. सतीश दुबे : मालवी बोली में बनी ‘‘भुनसारा’’ फिल्म का सफल तथा चर्चित प्रदर्शन-प्रसंग से इस बोली की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है। वैसे बोलियों का रिश्ता लोक जीवनमूल्यों तथा संस्कृति के साथ जुड़ा रहता है। आज फैशन-परस्त दुनिया लोक की ओर दौड़ रही है। बोलियों में सृजन का महत्व यथावत है। महत्वपूर्ण यह कि बोलियां, भाषा को विस्तार और गहराई दे रही है। मैं जहां तक सोचता हूं समय कोई सा भी रहा हो उसमें लोक की धड़कन मौजूद रही है और वह आज भी है और भविष्य में भी रहेगी।
राधेश्याम शर्मा : लेखन के अतिरिक्त आपके शौक? अगर आप लेखक न होते तो क्या होते ? या क्या होना चाहते?
डॉ. सतीश दुबे : नये रचनाकारों से रू-ब-रू होना, पत्रिकाएं-पुस्तकंे पढ़ना, साहित्य-सेवा, लेखक मित्रों को सहयोग, उनकी संगत की चाह, साहित्यिक-आयोजनों में भागीदारी, परिवार के प्रति उत्तरदायित्व के निर्वाह का प्रयास बस ये ही कुछ शौक है। हमारे देश के अधिकांश लेखक पूर्णकालिक तो हैं नहीं, मैं भी वैसा ही पार्ट टाइमर छोटा सा कलमजीवी नहीं कलम सेवी हूं। वह भी नहीं होता तो वही होता जो मंजूरे खुदा होता।
राधेश्याम शर्मा : शारीरिक अक्षमता की स्थिति में जिन्दगी गुजारते हुए आपको कभी निराशा, या नियति से शिकायत रही है?
डॉ. सतीश दुबे : शारीरिक परेशानियों के बावजूद पारिवारिक कर्तव्य के निर्वाह हेतु भागती-दौड़ती जिन्दगी पर एकदम ब्रेक लग जाने से मानसिक उत्पीड़न होना प्रारम्भिक-स्तर पर स्वाभाविक था। पर उसे तत्काल हावी नहीं होने दिया। पर पूर्व निर्धारित छोटे-बेटे के वैवाहिक कार्यक्रम की जिम्मेदारी से निबटने के बाद आने वाले तनाव, निराशा और अवसाद के हमले को संवेदनशील मन रोक नहीं पाया। लेकिन यह स्थिति बहुत दिनों तक नहीं रही। धीरे-धीरे नई स्थितियों से समझौता कर नई जिन्दगी के पड़ाव की शुरूआत हुई। और इस शुरूआत के केन्द्र में रहा नियति का दिया उपहार लेखन। लेखन, पुस्तकें, साहित्यिक मित्र और माहौल से अकल्पनीय शक्ति मिली। ....और इन दस-बारह वर्षों के दौरान जो भी लिखा गया उसे निरपेक्ष दृष्टि से सराहना मिली। सबसे अधिक कृतियों का प्रकाशन भी इसी दौर की देन है। पहले से अधिक समय लेखन के लिए मिलने की इस वजह को मैं नियति का अभिशाप नहीं, वरदान मानता हूं।
राधेश्याम शर्मा : आपकी शादी अरेंज थी या कोर्टशिप लवमैरिज! आपके परिवार में कितने सदस्य है? अपनी जीवन संगिनी जिन्होंने आपको हर काम में साथ दिया है। उनके बारे में आप कुछ कहेंगे।
डॉ. सतीश दुबे : शर्मा जी व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित आपने विभिन्न शक्लों में दनादन प्रश्न ही प्रश्न मेरे सामने खड़े कर दिए। खैर तो सुनिए, एम.ई., एम.टेक उपाधिग्रहीता दो इंजीनियर बेटे हैं। उन्हीं के समकक्ष विज्ञान विषयों में आर्थिक-द्दष्टि से स्वनिर्भर स्नातकोत्तर बहुएं और बेटियां। एक पुत्र-तुल्य दामाद, बैंक-मैनेजर है दूसरे सिंचाई विभाग में इंजीनियर। एक नाती इंजीनियर पद पर है। पौत्री तथा एक और नाती इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं। दो पौत्र अंडर हायर सेकेण्डरी अध्ययनरत हैं।
अपनी शादी का जहां तक सवाल है विवाह के लिए परम्परागत देखा-देखी रस्मअदायगी की पहली नज़र में ही लड़की दिमाग में छा गई। इसलिए हमारी शादी को आप अरेंज मैरिज विद् लव एट फर्स्टसाइड कह सकते हैं। जीवन-संगिनी के बारे में क्या बताऊँ। शादी के वक्त सोलह की थी और मैं बीस का। आप अंदाज लगा सकते हैं हम लोगों ने अपनी जिन्दगी संवारने में कैसी साझेदारी की होगी। हां उसके बारे में मैं अपनी ओर से कुछ कहने की अपेक्षा अनुजातुल्य प्रतिष्ठित कथा लेखिका डॉ. स्वाति तिवारी की जब-तब कही जाने वाली इन पंक्तियों को दोहराना चाहूंगा -‘‘भाभी के बारे में कुछ कहने के लिए किसी मुकम्मल गज़ल के बजाय उसका एक शेर ही पर्याप्त है।’’
राधेश्याम शर्मा : क्या आप अपनी आत्मकथा लिखने का विचार कर रहे हैं?
डॉ. सतीश दुबे : कतई नहीं। उमड़-घुमाड़कर निकल कर अगले दिन एकदम मिट जाने वाले मेरे व्यक्तिगत जीवन में है ही क्या जो कथा बन सके।
राधेश्याम शर्मा : वर्तमान साहित्यिक-माहौल और साहित्यकार होने का दावा करने वालों के बारे में आप कुछ कहेंगे?
डॉ. सतीश दुबे : आपके इस प्रश्न के उत्तर में मैं अपनी और से कुछ कहने की अपेक्षा ‘‘समावर्तन’’ पत्रिका के सम्पादक प्रमुख वरिष्ठ साहित्यकार तथा विचारक रमेशजी दवे की निम्न पक्तियों को उद्धृत करना चाहूंगा-‘‘... जहाँ तक साहित्य और साहित्यकारों का सम्बन्ध है, वे तो कविता-कहानी में हंसते-रोते लोग हैं, नाटक करते लोग हैं, लच्छेदार भाषा में लिखते या भाषण देते लोग हैं। उनका संवेदनतन्त्र मात्र एक प्रकार का शब्दतन्त्र ही है और शब्द का भी अवमूल्यन एवं अर्थ विघटन इस प्रकार हो गया है कि साहित्य में साहित्य के ही शब्द प्रदूषित होने लगे हैं।’’ (जून 2013)
राधेश्याम शर्मा : और बस अंत में यह कि क्या आप नए रचनाकारों को कोई संदेश देना चाहेंगे ?
डॉ. सतीश दुबे : मैं संदेश देने वाले साहित्य-संतों में अपने को शुमार नहीं करता। इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि आज की युवा-पीढ़ी में अद्भूत लेखकीय ऊर्जा है। इस पीढ़ी ने बिना किसी का अनुसरण किये अपनी राह स्वयं अख्तियार की है। समसामयिक स्थिति, निजी बोध क्षमता और भाषा शैली का अद्भूत समन्वय इस युवा सृजन की विशेषता है। मेरा अनुरोध यही है कि अपनी उर्वरा ज़मीन स्वयं तैयार करने वाला यह वर्ग अपने को साहित्यिक दलबन्दी से दूर रखे।
- डॉ. सतीश दुबे, 766, सुदामा नगर, इन्दौर 452009 (म.प्र.)
- राधेश्याम शर्मा, एल-64, इंदिरानगर विस्तार, नीमच-458441 (म.प्र.)
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