अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 3, अंक : 01-02, सितम्बर-अक्टूबर 2013
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’, अखिलेश अंजुम, डॉ. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्श’, देवी नागरानी, राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’, निर्मला अनिल सिंह, ओइम् शरण पाण्डेय ‘चंचल’ की काव्य रचनाएं।
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
मधु गान हो तुम ही हमारे
मन-प्राण में तुम बस गए हो,
अब प्राण हो तुम ही हमारे!!
हर सुमन की गंध हो तुम,
क्षितिज में फैले तुम्ही हो!
हर दिशा में हो ध्वनित तुम,
विस्तार इस नभ का तुम्हीं हो!!
हर साँस में तुम रम गए हो,
सम्मान हो तुम ही हमारे!!
तुम बने हारिल की लकड़ी,
कैसे तुम्हें हम छोड़ दें प्रिय!
जन्म का नाता है तुम से,
कैसे भला हम तोड़ दें प्रिय!!
हर रोम में तुम रह रहे हो,
भगवान हो तुम ही हमारे!!
तुमने दिया है प्रिय हमें,
अमृत अनूठा प्रीत का !
मिल गया सचमुच हमें तो,
उपहार मधुमय गीत का!!
दिल में बसे संगीत बन तुम,
मधु गान हो तुम ही हमारे!!
अखिलेश अंजुम
(कवि अखिलेश अंजुम जी की ग़ज़लों एवं गीतों का एक लघु संग्रह ‘खिड़कियां बंद हैं, खोलिए’ वर्ष 2006, दूसरा संस्करण अक्टूबर 2010 में प्रकाशित हुआ था। उनके इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दो ग़ज़लें एवं एक गीत रचना।)
ज़िन्दगी टूटी हुई तलवार हो जैसे।
हाथ बाँधे, सिर झुकाये भीड़ चारों ओर
हर तरफ़ कोई लगा दरबार हो जैसे।
हर नया अनुभव हमें यूँ तोड़ जाता है
काटती तट को नदी की धार हो जैसे।
दर्द के एकान्त-क्षण हमने जिये कुछ यूँ
एक उत्सव हो कि इक त्यौहार हो जैसे।
आपसे कब तक निकटता यूँ रही अपनी
बीच में इक काँच की दीवार हो जैसे।
02.
फ़ुर्कत का अलम दिल को गवारा तो नहीं है।
लेकिन कोई इसके सिवा चारा तो नहीं है।
बाशौक़ करें जुल्म मगर इतना तो सोचें
दिल आपकी शै है ये हमारा तो नहीं है।
इठला के बड़े नाज़ से चलती है सबा आज
इसने तेरी जुल्फों को संवारा तो नहीं है।
पहलू में रह-रह के घड़कता है मेरा दिल
क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं है।
कतरा जो चमकता है पलक पर मेरी ‘अंजुम’
वो सुब्हे-तमन्ना का सितारा तो नहीं है।
गीत
हर घर में झरवेरी
रड़के पनचक्की आंतों में
मुंह मिट्टी से भर जाये
भय्या पाहुन!
क्यों ऐसे दिन
तुम मेरे घर आये!
बंटे न हाथों चना-चबैना
बिछती आँख न देहरी।
घर-घर मिट्टी के चूल्हे हैं
हर घर में झरबेरी।
टूटा तवा, कठौती फूटी
पीतल चमक दिखाये।
तन है एक गाँठ हल्दी की
पैरों फटी बिवाई।
जगहँसाई के डर से, उघड़ी
छुपी-फिरे भौजाई।
इससे आगे भाग न अपना
हमसे बाँचा जाये।
भय्या पाहुन!
क्यों ऐसे दिन
तुम मेरे घर आये!
डॉ. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्श’
ग़ज़ल
दिल वहीं छोड़कर चले आये।
रूठकर हाँ मगर चले आये।
हमको बाज़ार मुँह चिढ़ाता था,
जेब खाली थी, घर चले आये।
लोग झण्डों के साथ आये हैं,
और हम ले के सर चले आये।
ख़्वाब आँखों में आये मुट्ठी भर,
साथ में कितने डर चले आये।
अपनी मंज़िल तो ये नहीं लगती,
हम ये आखिर किधर चले आये।
हम बुलाते रहे उन्हें लेकिन,
कुछ अगर कुछ मगर चले आये।
ज़िन्दगी की कठिन परीक्षा में,
शम्श पा के सिफ़र चले आये।
देवी नागरानी
ग़ज़ल
परदेसी है वो कोई भटकता है शहर में
गांवों को याद करके सिसकता है शहर में
मिलना-बिछड़ना यह तो मुकद्दर की बात है
किससे गिला करे वो झिझकता है शहर में
ज़ालिम चुरा के लाया है गुलशन की आबरू
वह गुल-फरोश सबको खटकता है शहर में
दीवारो-दर को कैसे बनाऊँ मैं राजदां
ये प्यार मुश्क है जो महकता है शहर में
ख्वाबों से घर सजाते हैं पलकों पे लोग क्यों
दिल जिनको याद करके ठुमकता है शहर में
जिसको समय की आंधी उड़ा ले गई कभी
मेरा हसीन ख़्वाब चमकता है शहर में
‘देवी’ कुछ ऐसे रंग में करती है शाइरी
हर ‘शेर’ बनके फूल महकता है शहर में
राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’
(कवि राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’ का गीत संग्रह ‘गीत हमारे सहचर’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। उनके इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दो गीत।)
दो गीत
01. नदी है रोको न इसको
नदी है रोको न इसको
इसे बहने दो।
अनवरत बहती है
बहने दो इसे,
कथा कहती अमर
कहने दो इसे।
इसे इसकी वृत्ति के
अनुरूप रहने दो।
अग्रसर है सतत्
बढ़ने दो इसे,
शिखर पर दिन रात
चढ़ने दो इसे।
इसे तप, आराधना की
आँच सहने दो।
कला की नवमूर्ति
गढ़ने दो इसे,
धरा का भूगोल
पढ़ने दो इसे।
इसे अपने हृदय की
बात कहने दो।
02. जागो रे उपवन के पंक्षी
जागो रे
उपवन के पंक्षी
जागो।
सटोरिये
हो गये आज
उपवन के माली।
उनके हृदय-महल
सद्भावों
से हैं खाली।
हो सचेत
तन्द्रिल प्रमाद को
त्यागो।
सींचे तुच्छ
स्वार्थ सरिता जल
से उपवन को,
बाँट रहे
आरक्षण की
टॉफी जन-जन को।
बहेलियों से
दूर-दूर अब
भागो।
बैठे हुए उलूक
यहाँ की
हर शाखा पर,
उपवन का अस्तित्व टिका
झूठी आशा पर।
क्रान्ति करो
संयम से
मन को साधो।
निर्मला अनिल सिंह
आज
आज युवा भटक गया है,
पथभ्रष्ट हो गया है।
उसके विचारों की डोर
गर्त में गिरती जा रही है।
आज युवा के मखमली ख़्याल,
सतरंगी सपने,
संवेदनहीनता से भर गए हैं।
लालच के तांडव ने
उसके अरमानों को,
खामोशी के धरातल पर
पटक दिया है।
जो युवा जीवन को पंख देकर
आकाश की उड़ानों को भरना चाहता था
आज वह नफरत की लाठी लेकर
बारूद के ढेर पर बैठा है।
उसके विश्वास का पुल,
इन्साफ की चौखट,
घृणा की खाई में डूब गया है।
मज़हबी उन्मादी लोगों ने
युवा को इन्सानियत की जगह
उससे पलायन सिखा दिया है,
आज युवा पथभ्रष्ट हो गया है,
हृदय का प्रेम
शुष्क हो प्रस्तर बन गया है।
पाँच दोहे
1.
उग आये जब से यहाँ, जन-मन कलुषित भाव।
चौपालें सूनी हुईं, अन्दर जले अलाव।।
2.
पीड़ाओं को देखकर, होना नहीं अधीर।
साथ सदा रहती नहीं, कभी किसी की पीर।।
3.
कल बोलीं यों चुप्पियाँ, थोड़ा सा मुँह खोल।
दम्भ न देता बोलने, मीठे-मीठे बोल।।
4.
मिलते हैं जो जन यहाँ, धोकर मन का मैल।
‘चंचल’ प्रेम-प्रसून की, जाती खुश्बू फैल।।
5.
नूतन पीढ़ी को लगा, यह किसका अभिशाप।
धन-दौलत के साथ सुत, बाँट रहे माँ-बाप।।
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’, अखिलेश अंजुम, डॉ. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्श’, देवी नागरानी, राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’, निर्मला अनिल सिंह, ओइम् शरण पाण्डेय ‘चंचल’ की काव्य रचनाएं।
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
मधु गान हो तुम ही हमारे
मन-प्राण में तुम बस गए हो,
अब प्राण हो तुम ही हमारे!!
हर सुमन की गंध हो तुम,
क्षितिज में फैले तुम्ही हो!
हर दिशा में हो ध्वनित तुम,
विस्तार इस नभ का तुम्हीं हो!!
हर साँस में तुम रम गए हो,
सम्मान हो तुम ही हमारे!!
तुम बने हारिल की लकड़ी,
कैसे तुम्हें हम छोड़ दें प्रिय!
रेखांकन : बी मोहन नेगी |
कैसे भला हम तोड़ दें प्रिय!!
हर रोम में तुम रह रहे हो,
भगवान हो तुम ही हमारे!!
तुमने दिया है प्रिय हमें,
अमृत अनूठा प्रीत का !
मिल गया सचमुच हमें तो,
उपहार मधुमय गीत का!!
दिल में बसे संगीत बन तुम,
मधु गान हो तुम ही हमारे!!
- 74/3, न्यू नेहरु नगर, रूड़की-247667, हरिद्वार, उ.खंड
अखिलेश अंजुम
(कवि अखिलेश अंजुम जी की ग़ज़लों एवं गीतों का एक लघु संग्रह ‘खिड़कियां बंद हैं, खोलिए’ वर्ष 2006, दूसरा संस्करण अक्टूबर 2010 में प्रकाशित हुआ था। उनके इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दो ग़ज़लें एवं एक गीत रचना।)
दो ग़ज़लें
01.
आदमी रद्दी हुआ अख़बार हो जैसे।रेखा चित्र : के रविन्द्र |
हाथ बाँधे, सिर झुकाये भीड़ चारों ओर
हर तरफ़ कोई लगा दरबार हो जैसे।
हर नया अनुभव हमें यूँ तोड़ जाता है
काटती तट को नदी की धार हो जैसे।
दर्द के एकान्त-क्षण हमने जिये कुछ यूँ
एक उत्सव हो कि इक त्यौहार हो जैसे।
आपसे कब तक निकटता यूँ रही अपनी
बीच में इक काँच की दीवार हो जैसे।
02.
फ़ुर्कत का अलम दिल को गवारा तो नहीं है।
लेकिन कोई इसके सिवा चारा तो नहीं है।
बाशौक़ करें जुल्म मगर इतना तो सोचें
दिल आपकी शै है ये हमारा तो नहीं है।
इठला के बड़े नाज़ से चलती है सबा आज
इसने तेरी जुल्फों को संवारा तो नहीं है।
पहलू में रह-रह के घड़कता है मेरा दिल
क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं है।
कतरा जो चमकता है पलक पर मेरी ‘अंजुम’
वो सुब्हे-तमन्ना का सितारा तो नहीं है।
गीत
हर घर में झरवेरी
रड़के पनचक्की आंतों में
मुंह मिट्टी से भर जाये
भय्या पाहुन!
क्यों ऐसे दिन
तुम मेरे घर आये!
बंटे न हाथों चना-चबैना
बिछती आँख न देहरी।
घर-घर मिट्टी के चूल्हे हैं
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी |
टूटा तवा, कठौती फूटी
पीतल चमक दिखाये।
तन है एक गाँठ हल्दी की
पैरों फटी बिवाई।
जगहँसाई के डर से, उघड़ी
छुपी-फिरे भौजाई।
इससे आगे भाग न अपना
हमसे बाँचा जाये।
भय्या पाहुन!
क्यों ऐसे दिन
तुम मेरे घर आये!
- 2-झ-4, दादाबाड़ी, छोटा चौराहा, शिवालिक स्कूल के पास, कोटा-324009, राजस्थान
डॉ. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्श’
ग़ज़ल
दिल वहीं छोड़कर चले आये।
रूठकर हाँ मगर चले आये।
हमको बाज़ार मुँह चिढ़ाता था,
जेब खाली थी, घर चले आये।
लोग झण्डों के साथ आये हैं,
और हम ले के सर चले आये।
ख़्वाब आँखों में आये मुट्ठी भर,
छाया चित्र : बलराम अग्रवाल |
साथ में कितने डर चले आये।
अपनी मंज़िल तो ये नहीं लगती,
हम ये आखिर किधर चले आये।
हम बुलाते रहे उन्हें लेकिन,
कुछ अगर कुछ मगर चले आये।
ज़िन्दगी की कठिन परीक्षा में,
शम्श पा के सिफ़र चले आये।
- जवाहर नवोदय विद्यालय, ग्राम घुघुलपुर, पो. देवरिया, जिला: बलरामपुर-271201(उ.प्र.)
देवी नागरानी
ग़ज़ल
परदेसी है वो कोई भटकता है शहर में
गांवों को याद करके सिसकता है शहर में
मिलना-बिछड़ना यह तो मुकद्दर की बात है
किससे गिला करे वो झिझकता है शहर में
ज़ालिम चुरा के लाया है गुलशन की आबरू
वह गुल-फरोश सबको खटकता है शहर में
दीवारो-दर को कैसे बनाऊँ मैं राजदां
ये प्यार मुश्क है जो महकता है शहर में
छाया चित्र : रामेश्वर कम्बोज हिमांशु |
ख्वाबों से घर सजाते हैं पलकों पे लोग क्यों
दिल जिनको याद करके ठुमकता है शहर में
जिसको समय की आंधी उड़ा ले गई कभी
मेरा हसीन ख़्वाब चमकता है शहर में
‘देवी’ कुछ ऐसे रंग में करती है शाइरी
हर ‘शेर’ बनके फूल महकता है शहर में
- 9-डी कार्नर, व्यू सोसायटी, 15/33 रोड बान्द्रा, मुम्बई-400050
राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’
(कवि राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’ का गीत संग्रह ‘गीत हमारे सहचर’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। उनके इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दो गीत।)
दो गीत
01. नदी है रोको न इसको
नदी है रोको न इसको
इसे बहने दो।
अनवरत बहती है
बहने दो इसे,
कथा कहती अमर
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
कहने दो इसे।
इसे इसकी वृत्ति के
अनुरूप रहने दो।
अग्रसर है सतत्
बढ़ने दो इसे,
शिखर पर दिन रात
चढ़ने दो इसे।
इसे तप, आराधना की
आँच सहने दो।
कला की नवमूर्ति
गढ़ने दो इसे,
धरा का भूगोल
पढ़ने दो इसे।
इसे अपने हृदय की
बात कहने दो।
02. जागो रे उपवन के पंक्षी
जागो रे
उपवन के पंक्षी
जागो।
सटोरिये
हो गये आज
उपवन के माली।
उनके हृदय-महल
सद्भावों
से हैं खाली।
हो सचेत
तन्द्रिल प्रमाद को
त्यागो।
सींचे तुच्छ
स्वार्थ सरिता जल
से उपवन को,
बाँट रहे
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर |
टॉफी जन-जन को।
बहेलियों से
दूर-दूर अब
भागो।
बैठे हुए उलूक
यहाँ की
हर शाखा पर,
उपवन का अस्तित्व टिका
झूठी आशा पर।
क्रान्ति करो
संयम से
मन को साधो।
- ग्राम-फत्तेपुर, पोस्ट-बेनीकामा, जिला-रायबरेली-229402 (उ.प्र.)
निर्मला अनिल सिंह
आज
आज युवा भटक गया है,
पथभ्रष्ट हो गया है।
उसके विचारों की डोर
गर्त में गिरती जा रही है।
आज युवा के मखमली ख़्याल,
सतरंगी सपने,
संवेदनहीनता से भर गए हैं।
लालच के तांडव ने
उसके अरमानों को,
खामोशी के धरातल पर
पटक दिया है।
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
आकाश की उड़ानों को भरना चाहता था
आज वह नफरत की लाठी लेकर
बारूद के ढेर पर बैठा है।
उसके विश्वास का पुल,
इन्साफ की चौखट,
घृणा की खाई में डूब गया है।
मज़हबी उन्मादी लोगों ने
युवा को इन्सानियत की जगह
उससे पलायन सिखा दिया है,
आज युवा पथभ्रष्ट हो गया है,
हृदय का प्रेम
शुष्क हो प्रस्तर बन गया है।
- रीना एकेडमी जूनियर हाईस्कूल, हाइडिल कॉलोनी के निकट, रानीखेत-263648, जिला अल्मोड़ा (उ.खंड)
ओइम् शरण पाण्डेय ‘चंचल’
पाँच दोहे
1.
उग आये जब से यहाँ, जन-मन कलुषित भाव।
चौपालें सूनी हुईं, अन्दर जले अलाव।।
2.
छाया चित्र : ज्योत्स्ना शर्मा |
साथ सदा रहती नहीं, कभी किसी की पीर।।
3.
कल बोलीं यों चुप्पियाँ, थोड़ा सा मुँह खोल।
दम्भ न देता बोलने, मीठे-मीठे बोल।।
4.
मिलते हैं जो जन यहाँ, धोकर मन का मैल।
‘चंचल’ प्रेम-प्रसून की, जाती खुश्बू फैल।।
5.
नूतन पीढ़ी को लगा, यह किसका अभिशाप।
धन-दौलत के साथ सुत, बाँट रहे माँ-बाप।।
- हिन्दी विभाग, राजकीय इण्टर कॉलेज, भौनखाल, अल्मोड़ा-263646 (उत्तराखण्ड)
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