अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 3, अंक : 01-02, सितम्बर-अक्टूबर 2013
महेश पुनेठा
चार क्षणिकाएँ
1. दुःख की तासीर
पिछले दो-तीन दिन से
बेटा नहीं कर रहा सीधे मुँह बात
मुझे बहुत याद आ रहे हैं
अपने माता-पिता
और उनका दुःख
देखो ना! कितने साल लग गए मुझे
उस दुःख की तासीर समझने में।
2. आग
आग ही है जो ताकत देती है
प्यार में मिटने की
और
युद्ध में जीतने की।
3. अब-1
शहर का
बुरे सा बुरा आदमी भी
करने लगा है तारीफ तुम्हारी
अब मुझे
शक होने लगा है
तुम पर।
4. अब-2
वे कहते हैं
मैं बहुत अच्छा था पहले
पर अब
करने लगा हूँ
बहुत प्रश्न।
कैलाश शर्मा
पाँच क्षणिकाएँ
01.
अब मेरे अहसास
न मेरे बस में,
देख कर तुमको
न जाने क्यूँ
ढलना चाहते
शब्दों में
02.
तोड़ कर आईना
बिछा दीं किरचें
फ़र्श पर,
अब दिखाई देते
अपने चारों ओर
अनगिनत चेहरे
और नहीं होता महसूस
अकेलापन कमरे में
03.
दे दो पंख
पाने दो विस्तार
उड़ने दो मुक्त गगन में
आज सपनों को,
बहुत रखा है क़ैद
इन बंद पथरीली आँखों में
04.
जब भी होती हो सामने
न उठ पाती पलकें,
हो जाते निःशब्द बयन
धड़कनें बढ़ जातीं
तुम्हारे जाने के बाद
करता शिकायतें
तुम्हारी तस्वीर से,
नहीं समझ पाया आज तक
कैसा ये प्यार है
05.
छुपा के रखा है
दिल के एक कोने में
तुम्हारा प्यार,
शायद ले जा पाऊँ
आखि़री सफ़र में
अपने साथ
बचाकर
सब की नज़रों से
।।क्षणिकाएँ।।
सामग्री : श्री महेश पुनेठा व श्री कैलाश शर्मा की क्षणिकाएँ।
सामग्री : श्री महेश पुनेठा व श्री कैलाश शर्मा की क्षणिकाएँ।
महेश पुनेठा
चार क्षणिकाएँ
1. दुःख की तासीर
पिछले दो-तीन दिन से
बेटा नहीं कर रहा सीधे मुँह बात
मुझे बहुत याद आ रहे हैं
अपने माता-पिता
और उनका दुःख
देखो ना! कितने साल लग गए मुझे
उस दुःख की तासीर समझने में।
2. आग
आग ही है जो ताकत देती है
प्यार में मिटने की
और
युद्ध में जीतने की।
छाया चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
शहर का
बुरे सा बुरा आदमी भी
करने लगा है तारीफ तुम्हारी
अब मुझे
शक होने लगा है
तुम पर।
4. अब-2
वे कहते हैं
मैं बहुत अच्छा था पहले
पर अब
करने लगा हूँ
बहुत प्रश्न।
- शिव कालोनी, वार्ड पियाना, डाक डिग्री कॉलेज, पिथौरागढ़-260501(उत्तराखंड)
कैलाश शर्मा
पाँच क्षणिकाएँ
01.
अब मेरे अहसास
न मेरे बस में,
देख कर तुमको
न जाने क्यूँ
ढलना चाहते
शब्दों में
02.
तोड़ कर आईना
बिछा दीं किरचें
फ़र्श पर,
अब दिखाई देते
अपने चारों ओर
अनगिनत चेहरे
और नहीं होता महसूस
अकेलापन कमरे में
03.
दे दो पंख
पाने दो विस्तार
उड़ने दो मुक्त गगन में
आज सपनों को,
बहुत रखा है क़ैद
इन बंद पथरीली आँखों में
04.
जब भी होती हो सामने
न उठ पाती पलकें,
हो जाते निःशब्द बयन
धड़कनें बढ़ जातीं
तुम्हारे जाने के बाद
करता शिकायतें
तुम्हारी तस्वीर से,
नहीं समझ पाया आज तक
कैसा ये प्यार है
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
05.
छुपा के रखा है
दिल के एक कोने में
तुम्हारा प्यार,
शायद ले जा पाऊँ
आखि़री सफ़र में
अपने साथ
बचाकर
सब की नज़रों से
- एच.यू.-44, विशाखा एन्क्लेव, पीतमपुरा उत्तरी, दिल्ली-110088
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