आपका परिचय

बुधवार, 26 अगस्त 2015

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  :  4,   अंक  : 07-12,  मार्च-अगस्त 2015



।।कविता अनवरत।।

सामग्री :  इस अंक में डॉ. पंकज परिमल, श्री रमेश गौतम,  डॉ. दुर्गा चरण मिश्र, डॉ. अहिल्या मिश्र, विजय चतुर्वेदी, पं. गिरिमोहन गुरु, श्री रामेश्वर दयाल शर्मा ‘दयाल’, श्री रमेशचन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, एवं श्री श्याम ‘अंकुर’ की काव्य रचनाएँ।


डॉ. पंकज परिमल




अश्व पर गीत के
हम भटकते रहे उम्र-भर
राह में
जा न पाए कभी
द्वार तक मीत के

तेज़ बारिश बहुत
हाथ छाते नहीं
धूप की दृष्टि से
बच पाते कहीं
कंटकों की चुभन
धूप की भी तपन
देह को तीक्ष्ण बन
छू रही है पवन

दुख भरी राह में
जो कि पैदल चली
चढ़ न पायी व्यथा
अश्व पर गीत के

शोक में गीत के
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी

लड़खड़ाए चरण
घाव कब ढक सके
छंद के आवरण
अश्रु के वेग में-
बह गया आँख से
टिक न अंजन सका, 
ना सजे आभरण

उड़ गए वस्त्र सब गात के
रेशमी
रोक पाए नहीं
वेग को शीत के

विघ्न के सैन्य को
ओट कर दृष्टि की
भाग्य की वंचना भूलकर
सृष्टि की
कागज़ी स्वप्न के ही
महल रच लिए
भूल नभ में घुमड़ती घटा,
वृष्टि की

हारते ही रहे
हो न पाए सफल
उल्लसित कब हुए हम
यहाँ जीत के

  • ‘प्रवाल’, ए-129, शालीमार गार्डन एक्स.-।।, साहिबाबाद, जिला: गाजियाबाद (उ.प्र.) / मोबा.: 09810838832


रमेश गौतम 




नवगीत
मान जा मन
छोड़ दे
अपना हठीलापन

बादलों को कब

भला पी पायेगा
एक चातक
आग में जल जायेगा
दूर तक वन
और ढोता धूप
फिर भी तन

मानते

उस पार तेरी हीर है
यह नदी
जादू भरी ज़ंज़ीर है
तोड़ दे
प्रण
सामने पूरा पड़ा जीवन

मर्मभेदी यातना में

रोज मरना
स्वर्णमृग का
मत कभी आखेट करना
मौन क्रंदन
साथ होंगे
बस विरह के क्षण

पिता...
आकाश-कुसुम तोड़े लहरों को बाँध लिया
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी

अंतर में रहे हिमालय-सा विश्वास पिता

कैसे भूलूँ दिन-रात तपे अंगारों सा

तब गढ़ पाये व्यक्तित्व हमारा ज्योर्तिमय
हे, पिता! सारथी बने सदा जीवन-रथ के
जब कर्म क्षेत्र में घेरे खड़ा हमें संशय
मन के संग्रहालय में जिसको सौ बार पढ़ा
ऐसे प्रेरक पन्नों वाला इतिहास पिता

मै गिरा, उठाया, चलना सिखलाया तुमने

पंखो पर लिखीं उड़ाने नीले अम्बर की
अंजुरी भर-भर संकल्प दिए हारे मन को
जीता निधियां न्योछावर कर दीं अंतर की
पत्थर बीने पथ के, अवरोध न बन जाएँ
मेरे हित-चिंतन में निर्जल उपवास पिता

मेरे पथ की पाथेय पिता की ही छवियाँ

हर सुबह कुशलता लेने अब भी आती हैं
गंभीर-सिंधु की अनुकम्पा से भरे कलश,
शीतल लहरें आँगन तक बिखरा जाती हैं
नयनों में बिम्ब उभरता तो सारे तीरथ,
स्मृतियों में मथुरा, काशी, कैलास, पिता

मिट्टी से रचे खिलौने, चित्रों से खेला

मेरे शब्दों में प्राण पिता तुमने डाले
अपने अनुभव के गुरुकुल में दीक्षा देकर
जीवन-पृष्ठों पर लिखे सुनहले उजियाले
सब ओर पड़ा सूखा, लेकिन मैं हरा-भरा
मेरे मरुथल में रहे सदा चौमास पिता

  • रंगभूमि, 78-बी, संजयनगर, बरेली, उ.प्र. /  मो. 09411470604 



डॉ. दुर्गा चरण मिश्र




धरती वीर जवानों की

हम अड़े हुए हैं सीमा  पर,
दुश्मन से लोहा लेने को।
परवाह नहीं करते कुछ भी,
हैवानों या शैतानों की। 
यह धरती वीर जवानों की।

हम परम्परा से सैनिक हैं,

निज मातृ भूमि के रखवाले।
इतिहासकार बैठा लिखता,
गाथा असंख्य बलिदानों की। यह धरती...

हम शरणागत के सेवी हैं,
रेखाचित्र : कमलेश चौरसिया

उनकी विपदायें सह लेते।
चिन्ता न कभी करते मन में,
फिर आँधी या तूफानों की। यह धरती...

हम मोह त्यागकर प्राणों का,

लड़ते हैं नभ में जल-थल में।
माँ बहनें रखवाली करती हैं,
खेतों और खलिहानों की। यह धरती...

गिरि सागर हमको प्यारे हैं,

झीलें नदियाँ मैदान सभी।
चुटकी भर धूल नहीं देंगे,
अपने इन रेगिस्तानों की। यह धरती...

  • ‘रामायणम्’, 248 सी-1, इन्दिरा नगर, कानपुर-26 / मोबाइल: 09450731054



डॉ. अहिल्या मिश्र




श्वास से शब्द तक
{सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ. अहिल्या मिश्र का द्विभाषी कविता संग्रह ‘श्वास से शब्द तक’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में उनकी 40 हिन्दी कविताएँ और उनका एलिजबेथ कुरियन मोना द्वारा अंग्रेजी अनुवाद संग्रहीत है। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी तीन कविताएँ।}
पत्थर

पत्थर तो हूँ 
मैं
किन्तु वो नहीं
जिसे
बारूद से उड़ा दिया जाए
तो वह दीर्घ...
आर्त्तनाद के साथ
बदले की भावना से भरा
तुम्हारा सर फोड़ने 
वापस
द्रृत वेग से पहुंच जाए।

मैं मील का पत्थर हूँ

असीमितता ही जिसकी
एकमात्र
पहचान होती है।
जिसका
न दोस्त/न दुश्मन
रेखाचित्र : स्व. पारस दासोत
न अपना/न पराया
न ही कोई मेहमान होता है।

अपने स्थान पर अडिग/अभेद/अचल
खड़ा रहता है
किन्तु गति का
विस्तृत/संकलित
दिनमान होता है।

प्रतिद्वंद्विता

मन मेरा आज बंधनों में
अंटा पड़ा है।
टूटने लगा है श्वास
घटने लगा है लहू का उच्छवास
छोड़ता नहीं डोर
इस अभिलाषा का।

टूटती नहीं छोर

घटती नहीं होड़
मृत्यु मनाना चाहती है
द्विगविजय।

हृदय पाना चाहता है

जीवन की लय
गीत और अवसाद में
छिड़ गयी है प्रतिद्वंद्विता।
रेखाचित्र : सिद्धेश्वर


ठूँठ पेड़

अपनी सूखी टहनी
हिला-हिला कर
करता हवा के झोकों का
आलिंगन।
अवश हाथ
विवश मन
करुण ओठ का
कंपन।

बाँध लेने को हवा की

अठखेलियाँ
समेटने को कलरव

उन्मुक्त गगन-विहार

का अभिनव 
चुंबन।
मन की ललक
न सकी झलक
क्यों रचा विधि ने
सूखा तन
और सरस मन?

  • द्वारा कादम्बिनी क्लब, 93 सी, ‘राजसदन’ वेंगलराव नगर, हैदराबाद-500038, आ.प्र. / मोबाइल : 09788189035426



विजय चतुर्वेदी




गीत
सूना पनघट व्यथा सुनाता रीती गागर की अनजानी
जैसे सजल नयन कह देते घायल मृग की करुण कहानी
भटक रही इस युग की राधा
मोहन वंशी रूठी है
नित्य आसुरी आचरणों से
धीरज की सीमा टूटी है
रोते हैं रसखान देखकर कुंजों में होती मनमानी।
आज अभय के लिए बिलखती
आंसू आंसू रजकण सींचे
दुःशासन हर चौराहे पर
पांचाली का आंचल खींचे
आर्तनाद सुनकर भी कान्हा जाते दूर दिशा बेगानी।
छायाचित्र : अभिशक्ति

पुरस्कार निष्कासन पाती
सीता अग्नि परीक्षा देकर
पत्थर बनी अहिल्या तरसे
मुक्ति मिले प्रभु पदरज लेकर
कलि के हाथों सौंप देखते राम यहां युग की नादानी।
धधक रही पीड़ा की ज्वाला
जला रही है मन नन्दन
उदासीन बोझिल पलकों में
सहज समाया उर का क्रन्दन
दुहराई अभिशप्त क्षणों ने बीते युग की कथा पुरानी। 

  • 34, यमुना विहार फेस-2, कर्मयोगी, कमलानगर, आगरा, उ.प्र. / मोबाइल : 09412804581




पं. गिरिमोहन गुरु




दो ग़ज़लें
01.
छुई मुई देह को क्या छुआ।
गंध का स्फुरण हो गया।

शब्द संकेत ने बो दिए

प्रीत का अंकुरण हो गया।

एक तिनका मिला स्नेह का

सांस का संतरण हो गया।

मुस्कुराहट की आहट हुई 

उम्र का आभरण हो गया।

स्मरण मात्र से संस्मरण

गीत का अवतरण हो गया।
छायाचित्र: गोवर्धन यादव


02.
प्यासे को पानी पिलवाते हैं।
मरुथल में भी फूल खिलाते हैं।

काल-चक्र अँगुली पर घूम रहा,

रणभूमि में गीता गाते हैं।

पीछे मृगतृष्णा के क्यों भागें,

मृगछाला पर ध्यान लगाते हैं

मेघों से कब कब पानी मांगा,

भागीरथ हैं गंगा लाते हैं।

विषपायी शिव के वंशज ठहरे

गरल पान कर भी मुस्काते हैं।

  • शिव संकल्प साहित्य परिषद, गृह निर्माण कॉलोनी, होशंगाबाद-461001 (म.प्र.) / मोबाइल : 09425189042



रामेश्वर दयाल शर्मा ‘दयाल’




सुमनांजलि
{कवि श्री रामेश्वर दयाल शर्मा ‘दयाल’ का वर्ष 2009 में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘सुमनांजलि’ हाल ही में हमें पढ़ने का अवसर मिला। इसमें उनकी प्रकृति एवं आध्यात्म से प्रभावित 72 काव्य रचनाएँ शामिल हैं। यहाँ प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से दो काव्य रचनाएँ।}


वसन्त
मखमल सी हरियाली फैली,
दूर दूर तक गाँवों में।
धरा लग रही कितनी सुंदर
सजी विविध परिधानों में।।

पीली पीली सरसों फूली,
वासन्ती रंग है छाया।
मानों धरा खिलखिला हँसती,
रोम रोम है हर्षाया।।

तितली नाना रंग बिरंगी,
डाल डाल पर डोल रहीं।
मलयानिल की मस्त तरंगें,
कण कण में रस घोल रहीं।।

कू कू कू कू कोयल बोले,
अमराई में डालों पर।
मधुप वृन्द मधु गुंजन करते,
झूम झूम मधु पी पी कर।।

मधुमय प्रेमालिंगन होता,
बल्लरियों का विटपों से।
छायाचित्र : अभिशक्ति

ऋतु वसंत है सुरभि लुटाती,
भर भर अंजलि पुष्पों से।।

पंछी
पंछी बन मैं फिरूँ गगन में।

हरित डाल कल्लोलें करता,

सूखे तरु करता क्रन्दन मैं।
बैठ एकान्त प्रभु गुण गाता,
खो जाता समूह कलरव में।।

कभी चूमता हिम शिखरों को,

कभी कुहकता नन्दनवन में।
कभी सैर मरुथल की करता,
कभी फुदकता सागर तट में।।

खग की भाषा खग ही जाने,

भरे भाव ताल रस जिसमें।
मुक्त गगन का हूँ मैं पंछी,
नहीं किसी सीमा बन्धन में।

पंछी बन मैं फिरूँ गगन में।


  • प्रज्ञा कुंज, 200, इन्द्रापुरम्, करगैना, बरेली-243001, उ.प्र. / मोबा. 08899631776



रमेशचन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’


गीतिका

मित्रता बस कहने भर को रह गयी।
जो न सहना था, विवश हो सह गयी

घाव खाये और उफ् तक की नहीं
किस दिशा में जिन्दगी यह बह गयी

हो रहे हैं आक्रमण विश्वास पर
आस्था की भीति सहसा ढह गयी

ज़ुल्म बढ़ते जा रहे अँधियार के
सूर्य की तस्वीर घर में रह गयी

खो नहीं सकता जिसे पाया नहीं
खो गये हम, खोज बाक़ी रह गयी
रेखाचित्र : आरुषि ऐरन


आपने अब तक मुझे समझा नहीं
और दुनिया जाने क्या-क्या कह गयी

याद आयी, आप भी फिर आ गये
ज़िन्दगी यादों का अँचल गह गयी

जानता हूँ आपकी मैं वेदना
छाँह देती भित्ति जो वह ढह गयी

अब न छोड़ेगा मुझे वह उम्र-भर
भूल से मैं हाथ किसका गह गयी

  • डी-4, उदय हाउसिंग सोसा. वैजलपुर, अहमदाबाद-380015, गुजरात



श्याम ‘अंकुर’




ग़ज़ल

दानिशवर की बात ह्नदय में
अनुभव की सौगात ह्नदय में

तारे वह आकाश हमारा
पंखों की औकात ह्नदय में

दहशत, दंगे, खून, हवश है
बस्ती के हालात ह्नदय में

भीनी-भीनी महक बदन की
छायाचित्र : रितेश गुप्ता

प्रथम मिलन की रात ह्नदय में

भूल न पाया आज तलक भी
इन काँटों की घात ह्नदय में

ऊपर से हैं भक्तों जैसे
इन बगुलों की जात ह्नदय में

सहन करेगा ‘अंकुर’ कैसे
होता उल्कापात ह्नदय में
  • हठीला भैरूजी की टेक, मण्डोला वार्ड, बारा-325205 / मो. 09461295238

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें