अविराम का ब्लॉग : वर्ष : १, अंक : ०५, जनवरी २०१२
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : राजेन्द्र नाथ ‘रहबर’, डॉ. पृथ्वीराज अरोड़ा, दिनेश चन्द्र दुबे, श्रीरंग, डॉ. नलिन, घमन्डीलाल अग्रवाल, रोहित यादव, अजय चन्द्रवंशी एवं खान रशीद ‘दर्द’ की काव्य रचनाएँ।
राजेन्द्र नाथ ‘रहबर’
मशहूर ग़ज़लकार श्री राजेन्द्र नाथ रहबर जी का वर्ष 2008 में प्रकाशित चर्चित ग़ज़ल संग्रह ‘याद आऊँगा’ हाल ही में हमें पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी दो ग़ज़लें।
दो ग़ज़लें
1.
दिल ने जिसे चाहा हो क्या उस से गिला रखना
उस के लिये होंटों पर हर वक्त दुआ रखना
जब क़िस्मतें बटती थीं ऐसा भी न था मुश्किल
उस वक्त सनम तुझ को क़िस्मत में लिखा रखना
जब हम ने अज़ल1 ही से तय एक डगर कर ली
फिर रास न आयेगा राहों को जुदा रखना
वो नींद के आलम से बेदार2 न हो जायें
हौले से क़दम अपना ऐ बादे-सबा3 रखना
तुम फूल तबस्सुम4 के होटों पे खिला रखना
आयेंगे वो ऐ ‘रहबर’ सो जायेगी जब दुनिया
पत्तों की भी आहट पर तुम कान लगा रखना
2.
आया न मेरे हाथ वो आंचल किसी तरह
साया मिला न धूप में दो पल किसी तरह
मैं हूं कि तेरी सम्त५ मुसलसल६ सफ़र में हूं
तू भी तो मेरी सम्त कभी चल किसी तरह
यूं हिज्र7 में किसी के सुलगने से फ़ाइदा
ऐ ना-मुरीदे-इश्क़8 कभी जल किसी तरह
होंटों पे तेरे शोख़ हंसी खेलती रहे
धुलने न पाये आंख का काजल किसी तरह
चलने कभी न देंगे दरिन्दों की हम यहां
बनने न देंगे शहर को जंगल किसी तरह
- 1085, सराए मुहल्ला, पठानकोट-145001(पंजाब)
डॉ. पृथ्वीराज अरोड़ा
रस्म अदायगी
बहन के आने पर
या भैया के आने पर
बाछें खिल जाती थीं
मन भर-भर जाता था
अब तो न बहन के आने पर
न जाने पर
न जाने पर
न भैया के आने पर
न भैया के आने पर
न बाछें खिलती हैं
न मन भर-भर आता है
उनका आना और जाना
रस्मादयगी भर है
स्वागत उनका मेरी मजबूरी-भर है!
- 1587, सेक्टर-7, करनाल (हरियाणा)
दिनेश चन्द्र दुबे
पायल वाले पाँव
भावों के जंगल में उभरे,
सपनें वाले गाँव।
शायद सूनी रात में महके,
पायल वाले पाँव।।
बदन की खुश्बू उभरी स्वर में,
उमड़ी मन अमराई,
पागल मनुआ लगा पकड़ने,
कल्पित-संग परछांई,
प्यार बिना यूं लगता जीवन,
उजड़ा जैसे गाँव।।
गीले सूखे बाल,
जलते-बुझते दीप नयन फिर,
देते जीवन ताल,
यादों के कानन में उभरी,
वही बरगदी छांव।।
गीतों का उपहार तुझे दूं,
या लिख भेजूं कविता,
स्वर का यह जादू उतार दूं,
कुछ कह मन-सुख-सरिता,
और तुझे क्या बोल चाहिए,
साथ चले ये पांव।।
- 68, विनय नगर-1, ग्वालियर-12 (म.प्र.)
श्रीरंग
कवि भर नहीं
(कवि मानबहादुर सिंह के लिए, जिनकी निर्मम हत्या कर दी गयी)
जैसे हिन्दी में आज
इफरात में है
अपनी काव्य कृतियां
महज दूसरे कवियों, आलोचकों, संपादकों के लिए
छपाकर
चुपके से उनकी जेबों में खिसकाकर
इलीट कवि बन सकने वाले.......
जो करता काव्य व्यापार
सिर्फ कवि होता तो भी
खो जाता
भीड़ में कवियों की.....
वह कवि भर नहीं रहा कभी
संघर्ष किया मोर्चों पर
आदर्श के लिए
आदर्श बना वह
कविता के लिए बना कविता
इसीलिए बन सका जनकवि
तोड़ सका देश काल का बन्धन
उपस्थित हो सका
एक समय में सर्वत्र
जहाँ कहीं भी जारी रहा संघर्ष, वह रहा
कवि भर नहीं था वह
मिलाने वाला मात्रा तुक
गढ़ने वाला छन्द
वह कवि भर नहीं रहा
इसीलिए नहीं रहा दुनियाँ में जीवन भर......।
- 128-एम/1-आर, कुशवाहा मार्केट, भोला का पूरा, प्रीतम नगर, इलाहाबाद (उ.प्र.)
घमन्डीलाल अग्रवाल
वही दुर्दशाएं
परजा के जीवन में फिर-फिर
वही दुर्दशाएं।
जो भी कही, कही जितनी भी
बातें सब कोरी,
अपने मन की पीड़ा बांटे,
धनियां से होरी,
सिंह गर्जनाएं।
बदला-बदला अर्थ शब्द का
सुख का टोटा है,
हमने जिसे खरा समझा था
निकला खोटा है
कितनी हुईं निरर्थक अपनी
सभी कल्पनाएं।
किससे करें गुहार बताओ
दर-दर भिखमंगे,
राजनीति के इस हमाम में
सबके सब नंगे,
एक दूसरे की करते हैं
लोग भर्त्सनाएं।
जले हुए दीपों से पूछो
आंधी का खतरा,
मुस्कानों की बाट जोहता
आंसू का क़तरा,
पत्थर के सम्मुख तो जाएं
व्यर्थ प्रार्थनाएं।
- 785/8, अशोक विहार, गुड़गाँव-122001(हरियाणा)
डॉ. नलिन
ग़ज़ल
कौन स्वयं को पहचाना है
लाख कहा तू भावुक मत हो
पर कब मन पगला माना है
एक खण्डहर में क्या होगा
यादों का आना जाना है
व्यर्थ गई चिन्ताएं, समझे
क्या खोना है क्या पाना है
सुर टूटे जाते हैं फिर भी
काम नलिन का तो गाना है
- 4-ई-6, तलवंडी, कोटा-324005 (राज)
रोहित यादव
दोहे
1.
आये ना सरकार पर, जब कोई भी आँच।
फिर करवाते क्यों नहीं, काले धन की जाँच।।
2.
माना तुमने खींच दी, विकासमयी लकीर।
फिर भी मेरे देश की, बदली ना तकदीर।।
महँगाई सुरसा हुई, रिश्वतखोरी कंस।
जनतंत्र में पल रहा, अब तो इनका वंश।।
4.
चिड़ियाँ भी चहके नहीं, नहीं नाचते मोर।
घर का आँगन हो गया, खुद ही आदमखोर।।
5.
बाहुबली भी आ गये, राजनीति के द्वार।
गुंडे भी शामिल हुए, समझ इसे हथियार।।
- सैदपुर, मंडी अटेली-123021 (हरियाणा)
अजय चन्द्रवंशी
ग़ज़ल
तेरी अय्यासी की सबब हैं रोटियाँ।
कहीं दूध-रोटी, कहीं मिर्ची की चटनी,
कहीं हँसाती, कहीं रूलाती हैं रोटियाँ।
देख सूखी रोटी इस तरह न फेंक,
अच्छे-अच्छों को झुकाती हैं रोटियाँ।
बस यही दीवार है हम दोनों के बीच,
तुझे प्रेम में भी नजर आती हैं रोटियाँ।
मेरे हमदम, मेरे हमराज मान भी जा,
तुझसे भी खूबसूरत होती हैं रोटियाँ।
कोई रहबर, कोई रहजन, कोई फरिश्ता,
क्या-क्या न आदमी को बनाती हैं रोटियाँ।
- राजमहल चौक, फूलवारी के सामने, कवर्धा, जिला- कबीरधाम-491995 (छ.गढ़)
खान रशीद ‘दर्द’
1.
गिरी दूध में छाछ तो, हुई ‘दही’ का रूप।
धर्म-कर्म गुण ही नहीं, बदला सकल स्वरूप।।
धर्म-कर्म गुण ही नहीं, बदला सकल स्वरूप।।
2.
फैल गये हैं ‘स्वार्थ’ के, लम्बे-लम्बे जाल।
रिश्ते आखिर हो रहे, इनके हाथ हलाल।।
3.
विघ्न व्यथा ने कर दिया, आज हमें मजबूर।
कल तक तो थे ‘यार’ की, आँखों का हम नूर।।
- हॉटल सांवरिया के सामने, के.बी. राजमार्ग, बड़वानी-451551 (म.प्र.)
आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
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चर्चा मंच-777-:चर्चाकार-दिलबाग विर्क