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रविवार, 29 जनवरी 2012

अविराम विस्तारित



अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०५, जनवरी २०१२  


।।कथा कहानी।।

सामग्री :
 कमलेश भारतीय की कहानी-मैंने नाम बदल लिया है



कमलेश भारतीय


मैंने नाम बदल लिया है

      कहते हैं कि ट्रांसफर होने वाले अपने मुकाम पर बाद में पहुँचते हैं, पर उनसे पहले उनके बारे में अच्छी-बुरी बातें हवा में तैरती हुई पहुँच चुकी होती हैं। जी हां, रमिन्दर के साथ भी बिल्कुल ऐसा ही हुआ था, आप शायद जानते नहीं, मैं रमिन्दर सिद्धू की बात कर रहा हूँ। अब याद आयी अपको- लंबी कद-काठी वाली, गोरी-गोरी-सी, बड़ी-बड़ी आंखों वाली रमिंदर की?
   वह हमारे स्कूल में ट्रांसफर होकर आने वाली थी कि स्कूल में उसके बारे में बतकहियां शुरू हो चुकी थीं और उसके बारे में चटखारे ले-लेकर किस्से सुनाये जा रहे थे, उन्हीं दंतकथाओं में ही यह बात सामने आयी थी कि उसका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं है, इसलिए वह अपने बेटे रिक्कू के साथ, अकेली जीवन-संघर्ष में एक-एक कदम रख रही है।
   यों, मुझे मुख्यालय में ही एक बुजुर्ग कर्मचारी ने सब कुछ बताते हुए हाथ जोड़कर विनीत भाव से कहा था, आपके स्कूल में रमिंदर को भेज रहे हैं, उसके जीवन में पहले ही ज़हर घुला हुआ है, ज़रा उसे आराम से दिन गुजारने देना, मैं उसे अपनी बेटी की तरह समझता हूं।
   असल में मैं परिस्थितियों के बहाव में स्कूल का एकछत्र नेता बन चुका था और मेरे संघर्ष के कारण प्राचार्य को त्यागपत्र देकर भाग जाने के सिवा दूसरा विकल्प नज़र नहीं आया था। इसी कारण मुख्यालय में मेरा नाम एक हौवा बन चुका था। खैर, यह किस्सा फिर कभी, मैं तो आपको रमिंदर के बारे में बता रहा था न।
   उस बुजुर्ग कर्मचारी की हाथ जोड़कर विनती करने वाली मुद्रा से मैं अंदर तक भीग गया और उसी समय उनके हाथों को अपने हाथों में लेकर मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि रमिंदर को मुझसे शिकायत का मौका नहीं मिलेगा। आप उसे बेफिक्र होकर हमारे स्कूल में भेजिए, यहां उसे कोई तकलीफ नहीं होगी। मेरे आश्वासन से उस बुजुर्ग कर्मचारी की आंखों में संतोष साफ-साफ चमकने लगा था।
    कुछ इस तरह के माहौल में रमिंदर ने स्कूल में ड्यूटी ज्वाइन की। साथ में उसका बेटा रिक्कू और उसकी शरारतें भी पहुंची। रमिंदर के चाचा-चाची उसका सामान छोड़ गये। इस तरह नयी जगह पर अपने अतीत से पिंड छुड़ाने की कोशिश शुरू की रमिंदर ने।
   नया माहौल, नये चेहरों के बीच रमिंदर अतीत के काले साये भूलकर हंसने की कोशिश करने लगी। शुरूआती दिनों में स्कूल की अध्यापिकाओं ने उसे सिर-आंखों पर लिया। उनके साथ खूब बनने और छनने लगी। स्टाफ-रूम में उसकी हंसी गंूजती रहती, स्वैटरों की नयी-नयी बुनतियां भी उसे खुशी-खुशी मिल जातीं।
   उसका कभी-कभी बेटे के कारण मन परेशान हो उठता। रिक्कू अपने इकलौते होने का पूरा फायदा उठाता। वह प्राचार्य कार्यालय में बेखटके घुसकर घंटी बजा देता। चपरासी दौड़े आते तो सबको दांत निकालकर दिखा देता। जब उसका मन आता, वह मर्जी से पीरियड की घंटी बजा देता। ऐसे में सब कुछ गड़बड़ हो जाता, रमिंदर उसकी ऐसी शरारतों से तंग आकर रोने लगती और रिक्कू अपने बाल-सुलभ ढंग से मम्मी के गले में बांहे डालकर उसे मनाने लगता और अध्यापिकाएं कहतीं- धन्य है बेचारी। ऐसे बेटे के साथ जीवन काटने की सोच रही है।
   बुजुर्ग कर्मचारी को दिये गये वादे के कारण बीच-बीच में उसकी छोटी-छोटी समस्यायें हल करने में मैं उसकी मदद करता। मसलन- उसके बेटे को उसकी पसंद के अच्छे स्कूल में भर्ती करवाया। नंबर बुक न होने पर के बावजूद गैस-सिलेन्डर भरवा दिया और उस गांव से शहर के बस-स्टैंड पर मां-बेटे को छोड़ आया।
   अक्सर रिक्कू मेरी मोटरसाइकिल देखकर मचल उठता। पहले-पहले रमिंदर ने रिक्कू को अकेले ही बिठाते हुए कहा- ‘सर! इसे जरा घुमा दीजिए। पर एक बार रिक्कू अड़ गया कि मम्मी के बिना नहीं बैठेगा। जिद्द के आगे रमिंदर को झुकना पड़ा। लेकिन उसकी झिझक मुझसे छिपी न रही, इस तरह जैसे चोरी करती हुई पकड़ी गयी हो। रमिंदर ने झेंपकर कहा- सर, छोटा सा गांव है। किसी के मुंह पर हम लगाम नहीं दे सकते न। बट...अ...अ...रिक्कू की जिद्द ठहरी और मेरी जान की मुसीबत।
   बात-बात में रमिंदर द्वारा इस तरह बट...अ... पर लाकर बात को अधूरे लेकिन दिलचस्प, साथ ही गहरे मोड़ पर लाकर छोड़ देना बड़ा भला लगता, जैसे वह अक्सर कहती- ‘सर। आपके बारे में जितना कुछ सुना था, उससे सच पूछो तो आपकी छवि एक बहुत बुरे आदमी के रूप में यानि खलनायक की छवि उभरती थी। बट...अ....आप तो...’ इतना कहते ही उसके गालों पर हंसी के साथ डिंपल दिखायी देने लगते और मैं सोचने लगता- आखिर इसका वैवाहिक जीवन क्यों बिखर गया?
   कभी-कभी मन में आता कि उसके मुंह से उसकी राम-कहानी सुनूं, पर उसी के लहजे में बट...अ... मैं उसकी हंसी नहीं छीनना चाहता था। यह जानते हुए भी कि यह हंसी दिखावे की हंसी है। दिन की हंसी है....रात के अंधेरे एकांत में वह अपने अतीत को लेकर आंसू बहाती होगी और निर्जन जंगल से घनघोर एकांत वाले भयावह वर्तमान को देखकर सहम जाती होगी...ऐसे में अपने जीवन के एकमात्र सहारे रिक्कू की हर जिद्द के आगे नतमस्तक हो जाती थी।
    मुझे अच्छी तरह याद है कि जिद्द के सामने पूरी तरह घुटने टेकते हुए उसने न चाहते हुए भी रिक्कू का जन्मदिन मनाया था। रिक्कू मचल उठा था- धूमधाम से अपना जन्मदिन मनाने के लिए और रमिंदर कहीं अतीत में डूब गयी थी... जब उसका जन्म हुआ होगा.... जब पिता ने प्यार से उसे गोद में उठाकर माथा चूमा होगा और खुद रमिंदर विजय की पुलक महसूस करते-करते नजरें मिलते ही शरमा गयी होगी... उसके गालों पर ‘डिंपल’ बन गये होंगे.... बट...अ.... वह तो अतीत का कोई एक सुनहरा, खुशनुमा दिन.... अब तो उसके सामने अंधकारमय जीवन था। 
   रिक्कू के सामने पूरी तरह हारते हुए रमिंदर ने जन्मदिन मनाने की घोषणा की थी। कुछेक अध्यापिकाओं को उसने आमंत्रित भी किया। मुझे भी और अपने उन चचा-चाची को भी जो उसे ज्वाइन करवाने आये थे। चाचा कैमरे में रंगीन रील डाल आये थे। रमिंदर ने केक बनवा लिया था। उस दिन चाचा ने जब रिक्कू के हाथ में छुरी पकड़ाकर ‘केक’ काटने में मदद की थी, तब कहीं अलमारी में बंद एलबम की कोई फोटो उसकी आंखों के आगे साकार हो उठी थी। जब रिक्कू के पिता ने पहले जन्मदिन पर केक कटवाया था। हो-हल्ले में ‘हैप्पी बर्थडे’ के बीच शराब की बोतल खुल गयी थी और यहीं से शुरूआत हुई थी बिखराव की।
  
    जन्मदिन की महफिल खत्म होने पर जब मैं रमिंदर से विदा लेने गया तो उसने नम आंखों से फुसफुसाते हुए कहा था- बेटे की खुशी के लिए आपको तकलीफ दी....
   ‘और मां की खुशी?’
   ‘नहीं, नहीं, सर... मां तो बेटे की खुशी में ही खुश है।’
   ‘मां बनने से पहले वह रमिंदर भी तो है?’
   ‘बट....अ....सर....वह तो रिक्कू के लिए मर गयी।’
   ‘नहीं, झूठ कहती हो....रमिंदर को तुमने मन के किसी कोने में कै़द कर रखा है, जिस दिन उसने विद्रोह कर दिया तब देखना...’
   ‘उस दिन की देखी जायेगी, सर।
   और वह खिलखिला उठी, चांदनी में उसके ‘डिंपल’ और भी चमक उठे थे।
   समय गुजरता गया। समय के साथ-साथ चीजें भी बदलती गयीं। रमिंदर का चयन किसी सरकारी स्कूल में हो गया और वह अपनी अधूरी व्यथा-कथा समेटकर चुपचाप चली गयी। संयोग यह रहा कि मैं भी किसी समाचार पत्र के संपादकीय विभाग में चुन लिये जाने पर अध्यापन क्षेत्र को अलविदा कहकर नये क्षेत्र में चला गया।
   नया क्षेत्र, नयी जगह, नये काम में कभी-कभी पुराने क्षेत्र, पुरानी जगह, पुराने काम के सहकर्मियों की याद आ ही जाती, उनमें रमिंदर का चेहरा भी उभर आता....बट...अ....सामने तो बेकार-सी खबरें घूमती रहतीं या टेलीप्रिंटर चलते रहते....कभी कोई बच्चा मोटरसाइकिल पर घुमाने की जिद्द करता तो रिक्कू की शरारतें याद हो जातीं।
रेखांकन : सिद्धेश्वर  
   एक दिन कार्यालय में बैठा खबरों की मरम्मत कर रहा था कि रिसेप्शन से फोन आया कि कोई मिसेज ग्रेवाल मिलने आयी हैं।
   ‘मिसेज ग्रेवाल? कौन मिसेज ग्रेवाल?’
   ‘लीजिए, फोन पर आप ही पूछ लीजिए।’
   ‘हैलो? कौन मिसेज ग्रेवाल?’
   ‘सर। आपने मुझे पहचाना नहीं न!’  
   ‘बट....अ...पहचानते भी कैसे? मैं रमिंदर हूं....रमिंदर कौर सिद्धू....अब तो पहचान गये न।’
   ‘हां ऐसा करो, रिसेप्सन पर मेरा इंतजार करो, मैं वहीं आता हूं.....’
   
   रिसेप्सन पर रमिंदर को देखते ही मैं हैरान रह गया। मेरी हैरानी भांपते हुए रमिंदर ने ही शुरूआत की, सर। ऐसे क्या देख रहे हैं? मैंने दूसरी शादी कर ली है, इसलिए आप मिसेज ग्रेवाल को पहचान नहीं पा रहे हैं।
   ‘क्यों? कब?’
   मेरे मुंह से अचानक ये शब्द उछलकर उसकी ओर जा गिरे- किसी घायल पक्षी के टूटे पंखों की तरह।
   ‘सर। किसी औरत को, खासकर अकेली औरत को मर्द तो जी लेने देते हैं बट...अ...औरतें ही उसका जीना दुश्वार कर देती हैं।’
   ‘मैं समझा नहीं।’
   ‘सर। जब तक आपके स्कूल में रही, तब तक आपने एक बार भी मेरे अतीत में नहीं झांका, पर....साथी अध्यापिकाओं ने मेरे सारे गड़े मुर्दे उखाड़ डाले। ताना दिया कि इतनी ही धुली और पाक-साफ होती तो पति के घर न होती। अब पाक-साफ होने का यह कौन-सा पैमाना हुआ? खुद कृष्णा और चरणजीत ब्याहता और पतियों के साथ रहते भी बाहर क्या गुल नहीं खिलाती थीं। अब, आप ही बताइए सर कि एक पढ़ी-लिखी औरत किसी जानवर जैसे आदमी के साथ, हर जुल्म बर्दाश्त करते हुए ज़िंदगी गुजार दे। ज़िंदगी बर्बाद कर दे, यह कैसे हो सकता है? बस, सर। चुभ कर रह गयीं पाक-साफ होने की खोखली परिभाषाएं। मैं तो अपनी ज़िंदगी रिक्कू के नाम अर्पित कर चुकी थी। पर इस समंदर में अकेली औरत जीवन की नाव खे ले जाये....मुश्किल है...हर कहीं घूरती आंखें....थपेड़े...बस, व्यंग्य-वाणों से आहत होकर दूसरी शादी करने का फैसला ले लिया...आप भी तो....’
   ‘और रिक्कू? रिक्कू कैसा महसूस कर रहा है?’
   ‘रिक्कू मुझसे अलग कहां है? धीरे-धीरे समझ जायेगा, अपनी मां की तरह ज़िंदगी को, ज़िंदगी की ठोकरों को...फिर आप ही तो कहते थे कि मैंने रमिंदर को कैद कर रखा है...आखिर उसने विद्रोह कर ही दिया.....अब तो आपको मेरे फैसले से खुश होना चाहिए....नहीं?’
     इसके आगे उसका गला रुंध गया.....वह सिसक रही थी....पता नहीं अपने अतीत को लेकर या वर्तमान को लेकर।
     कुछ देर बाद संयत होते हुए बोली, ‘माफ कीजिएगा, सर। आपको अपनी राम-कहानी सुनाकर बोर किया, आज तक आपने मेरे छोटे-बड़े अनेक काम किये हैं। एक तकलीफ आपको और देने आयी हूं, शादी के बाद मैं रमिंदर कौर ग्रेवाल बन गयी हूं और संबंधित लोग मुझे इसी नाम से पुकारें...बस इसी नाम परिवर्तन और सूचना को आपके अख्बार में निकलवाना चाहती हूं। मेरा यह काम कर देंगे न सर?’
   मैंने उसके सारे विवरण नोट कर लिये और उसे शुभकामनाएं देते हुए कहा, ‘रमिंदर इसके बाद तुम्हें किसी और नाम को बदलने की जरूरत न पड़े।’
  • उपाध्यक्ष: हरि. ग्रन्थ अकादमी, अकादमी भवन, पी-16, सैक्टर-14, पंचकुला-134113, हरियाणा

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