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मंगलवार, 20 अगस्त 2013

किताबें

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 9-10,  मई-जून  2013  


{अविराम के ब्लाग के इस अंक में  वरिष्ठ कथाकार डॉ. सतीश दुबे  के कहानी संग्रह ‘‘कोलाज’’ की तथा वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ के महाकाव्य "वैदुष्यमणि विद्योतमा" की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा द्वारा लिखित समीक्षायें  रख रहे हैं। लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर भेजें।}



डॉ. उमेश महादोषी


कोलाज : बदलते परिवेश की सटीक कहानियां 

     जो बहुत कम कथाकार एक साथ कथा-साहित्य की तीनों विधाओं- उपन्यास, कहानी और लघुकथा में समान रूप से सफल हुए हैं, शीर्षस्थ कथाकार डॉ. सतीश दुबे उनमें शामिल तो हैं ही, तीनों विधाओं को नए आयाम देने की दृष्टि से वह अपने समकक्ष कथाकारों से अलग भी हैं। यह भिन्नता सामान्यतः चिन्तन, विचार और उत्तरदायित्व के स्तर पर उनकी रचनाओं में उभरकर सामने आती है। उनका मौलिक और तार्किक चिन्तन कथ्य व पात्रों के चयन-आधार के साथ कथा के प्रस्तुतीकरण में देखा जा सकता है। पात्रों के मामले में डॉ. दुबे साहब बेहद संजीदा रहते हैं। वैचारिक स्तर पर उनके लेखन में परिवेश की नाप-जोख और परीक्षण के मध्य परिस्थितियों के सापेक्ष श्रेष्ठतर व्यवस्थाएं उभरकर सामने आती हैं, जो उनके पात्रों के समग्र चरित्र, समस्याओं के निदान-पथ और बदलते परिवेश के प्रति संवेदन की सटीक व्याख्या करती हैं। वह नव्यता के आलोचक बनकर सामने नहीं आते, अपितु बेहद सतर्कता और समझदारी के साथ नव्यता का समग्र परीक्षण करके उसके सकारात्मक पहलुओं को उजागर करते हुए उसके साथ आकर खड़े हो जाते हैं। अपनी रचनाओं में पीढ़ी अन्तराल को वह समस्या नहीं, चुनौती के रूप में लेते हैं। आर्थिक दृष्टि से निम्न वर्ग के साथ भी उनके साहित्यकार का यही रिश्ता दिखता है। उनके चिन्तन और विचार की व्यापकता में बाल मनोविज्ञान के अनेक सूत्र भी अपनी गहरी जड़ों के साथ मौजूद होते हैं। बदलते परिवेश में बाल-जीवन के संस्कार उनके बाल-पात्रों के माध्यम से भविष्य की दिशा का संकेत देते हैं। बदलावों के मध्य सकारात्मकता की खोज या यूं कहिए बदलावों को सकारात्मकता की पटरी पर चलते देखना डॉ. दुबे साहब का विशेष दृष्टिकोंण है। जहां तक उत्तरदायित्व का प्रश्न है, साहित्यिक दृष्टि से इसमें दो बातें शामिल होती हैं- पहली, आप परिदृश्य में व्याप्त तरह-तरह के दृश्य-चित्रों में से किसे अपनी रचनात्मकता का माध्यम बनाते हैं और दूसरी, आप अपनी रचनात्मकता को कितनी स्वाभाविकता के साथ किस दिशा में ले जाते हैं। इस मायने में उनकी रचनाएं लेखकीय दायित्व के साथ चलती हैं।
     डॉ. सतीश दुबे जी की सोलह कहानियों का नया संग्रह ‘कोलाज’ उनके इसी कथाकार की रचनात्मक अभिव्यक्ति है, जो गहन अनुभूतियों और व्यापक अनुभवों की दुनियां में अवतरित पात्रों की शक्ल में पाठकों को आज की बदलती दुनियां में व्याप्त तमाम विसंगतियों और बिखरावों के मध्य जिन्दा जीवन मूल्यों की गंगा में डुबकी लगाने का अवसर मुहैया कराती है। इन कहानियों के सन्दर्भ में ‘शायद...?’ शीर्षक भूमिका में लिखे उनके इन शब्दों पर गौर कीजिए- ‘‘.... इस पारिवारिक बिखराव के लिए सोच के अलावा देश में व्याप्त स्थितियां, उसके लिए उत्तरदायी तथाकथित रहनुमा, जोड़-तोड़ हाय-तौबा, आदि के दृश्यों की अलग-अलग इतनी स्टिंग, नानस्टिक ऑपरेशन की वीडियो हैं कि उन्हें न तो आप देखना पसन्द करेंगे न मैं दिखाना।’’ वह आगे लिखते हैं- ‘‘.... तंगदिल, आत्मकेन्द्रित स्वार्थी मानसिकता के प्रगतिशील फोबिया से ग्रस्त नई पीढ़ी का एक वर्ग मात्र इसका हिस्सा है। इसी पीढ़ी का दूसरा वह वर्ग समाज में मौजूद है जो संवेदना, संवाद, सहयोग और सहानुभूति जैसे मानवीय तत्वों की पैरोकारी में विश्वास रखता है तथा जिसकी धरोहर शिक्षा ही नही संस्कार और जीवन मूल्य भी है। 
      ये दोनों स्थितियां इस तथ्य का सबूत हैं कि जिस वृक्ष की जड़ें गहरी होती हैं उसकी कुछ टहनियां भले ही सूख जाये किन्तु उसका हरापन और उससे मिलने वाली प्राणवायु का सिलसिला समाप्त नहीं होता।
      ये कहानियां जिन्दगी के इसी हरेपन में श्वास लेने वाले कल्पना प्रसूत नहीं जीवंत पात्रों के इर्द-गिर्द बुनी गई हैं।’’ ये दोनों बातें संग्रह की कहानियों से गुजरते हुए भी लेखक के साहित्यिक उत्तरदायित्व को रेखांकित करती हैं। निसंदेह एक लेखक न उपदेशक होता है न समाज सुधारक; लेकिन सामाजिक सरोकारों से जुड़े उत्तरदायित्व से बद्ध जरूर होता है। ‘कोलाज’ की कहानियों के दृश्य-चित्रों को प्रस्तुत करते हुए डॉ. दुबे साहब की यह बद्धता बार-बार देखने को मिलती है।
     संग्रह की पहली कहानी ‘अकेली औरत’ कार्पोरेट कल्चर के साये में पल रहे महिला विमर्श को आर्थिक रूप से सम्पन्न/मध्यम वर्ग से उठाकर इन घरों में काम कर रही निम्न वर्ग की महिलाओं के मध्य ले जाती है। अपना प्रभाव भी दिखाती है, लेकिन दुबे साहब के पात्र परिवेश के प्रवाह में बहकर अपना अस्तित्व मझधार के हवाले नहीं करते, उन्हें अपनी जमीन को पकड़कर खड़े होना आता है। छठे ब्लॉक के सातवें माले पर रहने वाली दीदी के शब्दों- ‘‘मर्द की हवस जब बेकाबू होकर माथे पर नाचने लगती है तो बिना टाइम देखे वह ऐसे ही खुशी जताकर औरत की खुशामद करता है।’’ से प्रभावित फागुनी अपने पति के मुख से शराबी फिल्म में बोले अमिताभ बच्चन के डायलॉग- ‘‘औरत मर्द की जिन्दगी में आती है तो उसका वजन बढ़ जाता है’’ के साथ जोड़े गए शब्दों- ‘‘अब बता मेरी जिन्दगी में आई तू ऐसी बातें करेगी तो मेरा वजन कम होगा या जादा।’’ सुनकर उसे एक तरफ धकेलती हुई बोलती है- ‘‘चल परे हट, जानती नी क्या, ये चिरौरी तू काहे के लिए कर रहा है?’’ दरअसल वह महिलावादी विचार ‘‘किसी के साथ रहे या न रहे औरत अकेली है’’ की गिरफ्त में भी आ चुकी होती है। लेकिन अन्ततः यही फागुनी पति को अपने से दूर काम पर भेजने के मुद्दे पर अपने ही विचार को पलटते हुए फैसला करती है- ‘‘बिल्डिंग वाले साबों के बाहर जाने में और हमारे मर्दों के जाने में फरक है। पैसा कम और मुसीबत जादा....।’’ उसे लगा ऐसा सोचकर उसने तन और मन से अपने को अकेली औरत होने से बचा लिया।’’ कहानी में आधुनिक महिला विमर्श से जुड़े ‘औरत अकेली है’ के तथ्य को अपने स्तर पर लेखक खारिज नहीं करता, अपितु उसका परीक्षण करता है, उसके प्रभाव को व्याप्ति के पूरे अवसर मुहैया कराता है और अन्ततः जीवन्त पात्र के पूरे आत्म-मन्थन से जनित आन्तरिक अहसास को सामने रखता है। यह तथ्य डॉ. दुबे साहब की रचनात्मकता को दूसरों से अलग रेखांकित करता है। विमर्श को जीवन-मूल्यों के आइने में देखा जाये तो औरत हो या पुरुष, कोई भी अकेला नहीं होता। ‘अकेले’ के आइने में विमर्श के हठीले चश्मे से देखने पर तो ‘ठौर’ की माइली, ‘अंतराल’ की अश्विनी, यहां तक कि ‘सप्तश्रृंगी’ की सुजाता दादी, ‘अन्तिम परत’ की श्वेता, ‘अंततः’ की सुरभि के सिर पर भी किसी न किसी रूप में इस अकेले होने का साया तलाशा जा सकता है, लेकिन इनमें से हर एक के साथ कोई न कोई है, कोई भी तो अकेली नहीं है। ‘ठौर’ की माइली अपने पति को छोड़कर मायके आ जाती है, तो उसे क्या-क्या नहीं झेलना पड़ता है! संघर्ष करते-करते हार की कगार पर खड़ी वह अंततः अपने उसी पति के पास लौटने का फैसला करती है, तो उसकी समझौतापरस्त समझी जाने वाली मां ही उसके साथ खड़ी हो जाती है- ‘‘...भगवानजी के सामने सात फेरों के साथ सात-बातें निबाहने की कसम खाकर अपने साथ ले जाने वाला आदमीज औरत को औरत नहीं समझे तो ऐसे घर अपनी बेटी को दुःख भोगने के लिए रखने का क्या फायदा। मैंने तो सोच लिया है, वो लाख खुशामद करेंगे तो अपनी लड़की भेजूंगी नहीं तो तलाक दिलाके और कहीं ब्याह दूंगी।...’’ बताइए, कहां है माइली अकेली?- ‘‘उसने महसूस किया मां के द्वारा दी गई आंखो और दिल की ऐसी ताकत उसे मिल गई है, जिसके सहारे अब वह किसी से भी मुकाबला कर सकती है।’’
     डॉ. दुबे साहब नई पीढ़ी और बदलते जीवन मूल्यों में गहरी रुचि रखते हैं। इसका मुख्य कारण संभवतः यह है कि हर नई पीढ़ी का अपना समय और सोच होती है, जिसे समझे बगैर न तो उस पीढ़ी को समझा जा सकता है और न ही वरिष्ठ पीढ़ी के साथ सामन्जस्य बिठाया जा सकता है। हर पीढ़ी को अपने तरह से जीवन जीने का हक है। वरिष्ठ पीढ़ी कुछ कर सकती है तो उसको आकार देने में यथा आवश्यक अपने अनुभवों पर आधारित मार्गदर्शन दे सकती है। नई पीढ़ी के साथ कुछ गलत है, तो भी उसकी आलोचना या नकारात्मक धारणाओं को रेखांकित करके निराशा में डूबने की अपेक्षा उचित यही है कि नई पीढ़ी की सकारात्मक चीजों को रेखांकित करते हुए बदलते जीवन मूल्यों को समझने का प्रयास किया जाये। इसीलिए डॉ. दुबे साहब अपने युवा पात्रों के साथ बेहद करीबी और दोस्ताना रिश्ता कायम करते हैं। उनकी तमाम गतिविधियों और सोच के साथ यात्रा करते हुए सकारात्मक चीजों को रेखांकित करते हैं। इस सन्दर्भ में ‘एक अंतहीन परिचय’ बेहद सार्थक और प्रभावशाली कहानी है। इसमें तकनीकी शिक्षा से जुड़े छात्र-छात्राओं के सह-आवासीय जीवन और उससे जुड़ी गतिविधियों को केन्द्र में रखा गया है। प्राइवेट फ्लैट्स में रहते हुए पड़ौसी पारिवारिक लोगों के द्वारा किस तरह उनकी गतिविधियों को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है, यहां तक कि झगड़े-फसाद तक की नौबत आ जाती है; ऐसी स्थितियों व अपनी बदली हुई जीवन-शैली के मध्य घर से दूर रहते हुए वे किस तरह एक दूसरे के साथ अपने भावनात्मक रिश्ते बनाते-निभाते हैं, असफलता से जनित निराशाओं एवं अन्य विपरीत स्थितियों से कैसे निपटते/संघर्ष करते हैं, सुख-दुःख के साथी बने एक-दूसरे से विलग होने पर होने वाली उनकी पीड़ादायी भावुक अनुभूति, सब कुछ इस कहानी में संगत पात्रों के जरिए दर्शाया गया है। इन तमाम गतिविधियों के मध्य नई पीढ़ी के ये युवा अपनी जिम्मेवारियों को कितना गहराई से समझते-निभाते हैं, इस कहानी में समझा जा सकता है। इस माहौल में कई गलत चीजों के होने-घटने की संभावना हो सकती है, दुर्घटनाएं घटती भी हैं; फिर भी यह सकारात्मकता निसंदेह स्वाभाविक है और उसे उभारना जरूरी भी। क्योंकि आज के ट्रेंड में अल्पसंख्यक नकारात्मकता को इतना अधिक उछाला जाता है गोया सकारात्मक और अच्छी चीजें पूरी तरह विलुप्त हो चुकी हों। परिणाम बेहद घातक होते हैं। प्रचार की खाद-पानी पाकर नकारात्मक चीजें तो विस्तार पाती चली जाती हैं और सकारात्मक चीजें सामने होते हुए भी उपेक्षा के अंधेरे में खो जाती हैं। हमारे अपने आस-पास के घरों-रिश्तों के बच्चे इसी माहौल से निकलकर आगे बढ़ते हैं, वे सभी दुर्घटनाग्रस्त तो नहीं होते? कुछ होते हैं तो अनेक ऐसे भी हैं जो अन्त तक अपने पारिवारिक अनुशासन को नई ऊंचाइयां देते दिखाई देते हैं। यहां फिर एक बार ऊपर भूमिका से उद्धृत लेखकीय कथन को याद किया जा सकता है। एक खास बात यह है कि इन मूल्यों के प्रवाह में पुरुष के अहं और अपने वजूद के प्रति नारी की छटपटाहट के मध्य का अंतराल घट रहा है। ऐसे ही विश्वासपूर्ण माहौल में सांस लेती नारी की प्रेम कहानी है ‘विश्लेषी’, जिसकी नायिका शैशवी नारी के लिए जरूरी मनचाहे मर्द से मनचाही जिन्दगी हासिल करने में सफल हो जाती है। ‘फ्रेम का चित्र’ को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है, जिसमें प्रेमिका सबिहा के न रहने से निराश मेघ उर्फ नीरव को कथा नायिका श्वेता अपने सकारात्मक तर्को से अतीत से वर्तमान में लाने में सफल हो जाती है। स्वछन्द प्रवृत्ति की इस युवा नारी पात्र की सोच में सकारात्मकता देखते ही बनती है- ‘‘सबिहा के प्रगाढ़ प्रेम को फ्रेम में देखने की बजाय जिन्दगी में देखिए। किसी मोड़ पर रुका प्रेम वहीं ठहरने से नहीं आगे बढ़ने से हासिल होता है....।’’ इस पात्र के प्रति युवा पुरुष पात्र का सम्मान भी देखिए- ‘‘मैं जानता हूं। और यह भी बखूबी समझता हूं कि किसी पुरुष के प्रति सहानुभूति से लबरेज प्यार में औरत का अपना स्वार्थ नहीं पुरुष का भविष्य निहित होता है।...’’
      राजनैतिक विद्रूपता से भरे विषय पर चर्चा से शुरू होकर आर्थिक-सामाजिक विसंगतियों की पगडंडियों पर बढ़ती ‘अन्तराल’ की कथा में नायक प्रभांशु के प्रस्ताव पर नायिका अश्विनी के इन शब्दों- ‘‘पुरुष फूल नहीं कांटे होते हैं फिर भले ही वह बबूल का हो या कैक्टस का। मैं बबूल के अंदर तक धंसे कांटे के फॉस की चुभन से आहत हूं। यह फॉस जब निकलेगी, तब तक बहुत देर हो जायेगी।..... प्रभांशुजी मुझे माफ नहीं करेंगे तो मैं कमजोर हो जाऊंगी, मुझे आपके सहारे की शक्ति चाहिए।’’ के प्रत्युत्तर में प्रभांशु के ये शब्द- ‘‘अश्विनी तुम्हें वह सहारा और शक्ति मिलेगी। हम अच्छे मित्र के रूप में मिले थे, उसी रूप में हम बने रहेंगे।’’ युवा पीढ़ी के पुरुष के नारी के प्रति सम्मान को ही दोहराते हैं। जीवन मूल्यों में यह बदलाव चाहे जिस पैमाने पर आया हो पर आया है, इसमें संदेह नहीं। इसे बार-बार रेखांकित करते दुबे साहब एक अलग दृष्टिकोंण सामने रखते दिखाई देते हैं।
      युवा पीढ़ी की सोच और चिन्तन पर आधारित कहानी ‘सुकूनी लम्हों के बीच’ एक सार्थक और दिलचस्प कहानी है। सुकून के कुछ लम्हों में युवा मित्रों की चर्चा के केन्द्र में आ जाता है ‘क्वार्टर-लाइफ-क्राइसेस का मुद्दा। यानी समकालीन युवा पीढ़ी से जुड़ी ऐसी स्थिति, जिसमें उनके पास धन और जीवन जीने की तमाम सुविधाएं तो हैं, लेकिन जवानी में मिलने वाली चहक, प्रफुल्लता नहीं है। जिन्दगी युवावस्था में ही थकी-थकी दिखती है। आन्तरिक सुकून की कमी में तमाम कामयाबियों के बावजूद अनेक युवा अपराधों की ओर उन्मुख हो रहे हैं। यह कहानी हमें भविष्य की उस स्थिति की ओर भी आगाह करती है, जहां शायद हमारे युवाओं के बड़े पैकेज के सपनों को विदेशी कंपनियों की बदलती नीति और देशी कंपनियों की सीमाएं पूरा न कर पायें। इन विपरीत परिस्थितियों के लिए नई पीढ़ी को तैयार रहना होगा, और यह तैयारी शायद स्वनियोजन के कुछ मजबूत विकल्पों के रूप में ही हो सकती है। पर इन मजबूत विकल्पों की परिभाषा और तन्त्र भी नई पीढ़ी को स्वयं ही गढ़ना होगा।
    संघर्ष और अपनी आस्था के प्रति विश्वास की दृढ़ता की आवश्यकता सामान्यतः आर्थिक रूप से निम्न एवं मध्यम वर्ग को ही अधिक होती है, उच्च वर्ग की व्यापारिक मानसिकता को सामान्यतः उसकी या तो जरूरत नहीं होती या फिर वहां इसका विकृत रूप ही देखने को मिलता है। जिन्हें इसकी आवश्यकता होती है, उनमें निम्न माने जाने वाले वर्ग में यह जितने सघन रूप में पाई जाती है, उतनी मध्यम वर्ग में देखने को नहीं मिलती। जीवन को प्रवाहमान बनाये रखने की दृष्टि से इसे ‘हलकट’ कहानी के पात्र शिव के जीवट और सरल व्यक्तित्व में देखा जा सकता है।
    संग्रह की अन्य सभी कहानियां भी रचनात्मकता के स्तर पर प्रभावशाली हैं और अपनी सार्थकता सिद्ध करने में सक्षम हैं। ‘कोलाज’ में निसन्देह बदलते समय के बदलते परिवेश में विचरण करते पात्रों की सक्रियता के व्यापक प्रतिबिम्ब हैं। इनके पीछे की पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में डॉ. दुबे साहब ने एक लेखक की शालीनतावश अपनी जिस बात को ‘शायद’ शीर्षक से संबोधित किया है, एक पाठक के लिए वह ‘निसंदेह’ है। इसी के गर्भ से निकली ये रत्न सरीखी ये कहानियां हर तरह से सटीक हैं। इन्हें पाठकों, विशेषतः युवा पीढ़ी की पसन्द बनना ही चाहिए।
     
कोलाज :  कहानी संग्रह। लेखक :  डॉ. सतीश दुबे। प्रकाशक :  ज्योति प्रकाशन, ई-10/660, उत्तरांचल कॉलोनी (निकट संगम सिनेमा), लोनी बार्डर, गाजियाबाद-201102 (उ.प्र.)। मूल्य :  रु. 390/-। संस्करण : 2013।




वैदुष्यमणि विद्योत्तमा  :  विद्योत्तमा के 

वास्तविक सत्य तक पहुंचने का प्रयास

समकालीन लेखन में पौराणिक पात्रों को लेकर मौलिक लेखन तभी संभव है, जब हम इन पात्रों के चरित्र को कुछ नवीन दृष्टि के साथ रेखांकित कर सकें। दूसरी बात, समकालीन सामाजिक परिदृश्य और सरोकारों के दृष्टिगत इस तरह के लेखन की आवश्यकता को भी हमें समझना होगा। बाजारवादी उपभोक्ता संस्कृति मानवीय मूल्यों का क्षय बड़ी तेजी से कर रही है और मानवीय मूल्यों का यह क्षरण मानव जीवन को न सिर्फ दुष्कर बना रहा है, अपितु उसे हा-हा कार के शोर में बदलकर नष्ट प्रायः कर रहा है। यदि हम इस परिदृश्य के प्रति थोड़े भी संवेदनशील हैं, तो हमें कुछ तो करना होगा। यह लेखन पौराणिक पात्रों को पुनर्जीवित करना भी होगा, जो मौजूदा और भावी पीढ़ियों को मानवीय जीवन के वास्तविक सत्य से जोड़ने की पृष्ठभूमि तैयार करेगा। तीसरी बात, मनुष्य-जाति के दोनों अंशों- पुरुष और महिला के मध्य विभेदकारी रेखा को आज की उपभोक्ता संस्कृति और गहरा कर रही है, भले देखने में ऐसा न लगता हो। दरअसल किन्हीं दो बिन्दुओं के मध्य नजदीकी बढ़ने और विभेद खत्म होने में फर्क होता है। उपभोक्ता संस्कृति पुरुष और नारी के मध्य नजदीकी बढ़ाने के बावजूद उनके मध्य के विभेद को गहरा रही है। दरकार हमें अपनी संस्कृति में ऐसे बदलावों की है, जो मनुष्य के इन दोनों अंशों के मध्य नजदीकी बढ़ाने के साथ विभेदकारी रेखा को जितना संभव हो, क्षीण करने का काम करें। तो यहीं पर अपनी जड़ों की तलाश में इतिहास और मिथिहास दोनों को खंगालने की जरूरत महसूस होती है। जिन पात्रों और मिथकों में जीवन-धारा का स्रोत समाया हुआ है, उन्हें नई दृष्टि के साथ पुनर्जीवित करना और उनके जीवन-सत्य को समकालीन सन्दर्भों में समझना महत्वपूर्ण हो जाता है। समय की धूल और संस्कृति की स्वार्थ-प्रेरित विसंगतियों ने यदि कुछ सत्य को ढक या विकृत कर दिया है, तो हमें साक्ष्यों को खोजते हुए उन तक पहुंचना चाहिए। एक ऐसी ही कोशिश कविकुल गुरु कालिदास की विदुषी पत्नी विद्योत्तमा के पौराणिक चरित्र के वास्तविक सत्य तक पहुंचने की दिखाई देती है ‘‘वैदुष्यमणि विद्योत्तमा’’ महाकाव्य में, जिसे सृिजत किया है अपने लेखन से मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना में जुटे वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जी ने।
     सामान्यतः महाविदुषी विद्योत्तमा के बारे में काफी कम लिखा गया है। और जो लिखा गया है, उसमें यह तथ्य प्रमुखतः शामिल है कि जब उन्हें अपने पति के मूर्ख होने का पता चला तो उन्होंने अपने पति को न सिर्फ धिक्कारा, अपितु यह कहकर घर से निकाल दिया था कि बिना ज्ञान प्राप्त किए वापस मत आना। कहा यह भी जाता है कि खिन्न होकर उनके पति ने आत्महत्या का भी प्रयास किया था। यह तथ्य भले कालिदास के यश का कारण बनता है, पर विदुषी होने के बावजूद संयम न बरतने के लिए विद्योत्तमा निसंदेह लांछित होती है। उसका वैदुष्य फीका पड़ता है। दूसरी ओर, कालिदास के साहित्य की प्रकृति और विद्योत्त्मा को ‘गुरु’ स्वीकारने का तथ्य विद्योत्तमा के बारे में उक्त नकारात्मक तथ्य के प्रति संदेह का कारण बनता है। मान भी लिया जाये कि उक्त नकारात्मक तथ्य ही सत्य है, तो भी सक्षम होते हुए भी विद्योत्तमा द्वारा अपने विरोधियों से किसी प्रत्यक्ष प्रतिकार का वर्णन सामान्यतः देखने-पढ़ने को नहीं मिलता। साक्ष्यों से एक बात तो आसानी के साथ स्वीकारी जा सकती है कि किसी और को अहसास हो न हो, कालिदास को विद्योत्तमा के प्रति हुए अन्याय और उसकी पीड़ा का अहसास अवश्य था। क्या अहंकारी पुरुषों द्वारा वैदुष्य के लिए अपराधी मान ली गई विद्योत्तमा की पीड़ा, उसके द्वारा विरोधियों का प्रतिकार न करना और ज्ञानार्जन के बाद कालिदास को स्वीकार कर लेना उसके उदात्त चरित्र को समझने के पर्याप्त कारण नहीं बनते? इतना ही नहीं, कालिदास द्वारा विद्योत्तमा को पत्नी की बजाय ‘गुरु’ स्वीकार लेने पर विद्योत्तमा द्वारा उन्हें श्राप देने की बात भी कहीं-कहीं आती है। क्या यह सब एक उदात्त चरित्र को विसारने, अपितु लांछित करने जैसा नहीं लगता? जो कुछ लिखा गया है, यदि वही पूर्ण और वास्तविक सत्य होता तो क्या कालिदास विद्योत्तमा के प्रति उतने उदार बन पाते, जितने के साक्ष्य उपलब्ध हैं? अरुण जी ने अपने सृजन में न सिर्फ इन प्रश्नों का नोट लिया है, अपितु उन्होंने ‘‘वैदुष्यमणि विद्योत्तमा’’ महाकाव्य में उस महाविदुषी महानारी के चरित्र को तार्किक ढंग से समझते हुए उसके वास्तविक चरित्र, सृजन, मानवीय मूल्यों और जीवन के प्रति उसके सकारात्मक दृष्टिकोंण को सामने रखा है।
     इस महाकाव्य में विद्योत्तमा को पीड़ित-अपमानित होने के बावजूद अपनी पीड़ा को पीकर और प्रतिकार से दूर रहकर सृजन के प्रति समर्पित महाव्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया गया है। वह अपने पति की मूर्खता पता चलने पर पति को धिक्कारती नहीं है, अपितु उसके भोलेपन के प्रति करुणा से भरकर उसे विद्वान और यशश्वी बनाने का संकल्प लेती है। काली माता की शरण में उनके पति को कोई तीसरा व्यक्ति नहीं, वह स्वयं लेकर जाती है। स्वयं उसको शिक्षित करती है, कविता का ज्ञान देती है। उनके पति के द्वारा आत्महत्या के प्रयास का तो प्रश्न ही नहीं उठता। पति को अनुभव-आधारित ज्ञानार्जन के लिए वह स्वयं पूरे सद्भाव के साथ प्रेरित करके भेजती है। और पति के कालिदास के रूप में यशश्वी होकर लौटने तक प्रतीक्षा करती है। वह कालिदास की ‘गुरु’ अवश्य बनती है, परंतु पत्नी के धर्म को भी बखूबी निभाती है। ‘अरुण’ जी के शब्दों में कालिदास संसार के समक्ष स्वयं को ‘विद्योत्तमा का निर्माण’ घोषित करते हैं, निसन्देह इस महान पात्र का जीवन-सत्य यही है। वैदुष्य यदि मनुष्य को किसी जीवन-सत्य के निकट ले जाता है, तो वह जीवन-सत्य भी यही है।
     पौराणिक पात्र विद्योत्तमा की यह नवीन दृष्टि के साथ पुनर्स्थापना कालिदास के काव्य की प्रकृति के अनुरूप भी है और इस प्रसंग में उठने वाले प्रश्नों का समाधान भी करती है, अतः तार्किक भी है; भक्ति-भावना के पुट के बावजूद वैज्ञानिक आधार से संपुष्ट भी। यदि आधुनिक मानव जीवन को समकालीन बिडम्बनाओं से निकालकर उत्थान के पथ पर ले जाना है, तो हमें ऐसे पात्रों को उनसे जीवन की प्रेरणा लेने हेतु समझना व पुनर्स्थापित करना होगा।

वैदुष्यमणि विद्योत्तमा (महाकाव्य) : डॉ.योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’। प्रका.: हिन्दी साहित्य निकेतन, 16, साहित्य विहार, बिजनौर(उ.प्र.)। संस्करण: 2010। मूल्य: रु.200/- मात्र।

  • एफ-488/2, गली सं.11, राजेन्द्रनगर, रुड़की-247667, जिला: हरिद्वार (उत्तराखंड)

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