अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 9-10, मई-जून 2013
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में सर्वश्री हरनाम शर्मा, गणेश भारद्वाज ग़नी, डॉ. सुरेश उजाला, अजय चन्द्रवंशी, सुधीर कुमार मौर्य एवं सुश्री विनोद कुमारी किरन की काव्य रचनाएं।
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में सर्वश्री हरनाम शर्मा, गणेश भारद्वाज ग़नी, डॉ. सुरेश उजाला, अजय चन्द्रवंशी, सुधीर कुमार मौर्य एवं सुश्री विनोद कुमारी किरन की काव्य रचनाएं।
हरनाम शर्मा
दो कविताएँ
1. उत्कर्ष
पर्वत का अहंकार भंग करने के लिए
मनुष्य करोड़ों वर्षों से/उन्नत शिखर की ओर
गतिमान रहा
पर्वत-मस्तक उन्नत रहा
बीच राह में
थक-हारकर मनुष्य मनुष्य ने निज मस्तक उठा
जब-जब पर्वत-शिखा का अवलोकन किया
आकाश के निकट पाया है।
2. छिद्रान्वेषी
जाने किस सोच में बैठे थे हम
समय था कम
कमियाँ निकालते रहे इनकी-उनकी
वे होती न थी कम
खुद को निहारते कैसे-कब?
खुद को सुधारते कैसे-कब?
फुर्सत में न थे हम
कमियाँ निकालते रहे इनकी-उनकी
समय था कम
जैसे थे वैसे ही रह गये हम।
- ए.जी. 1/54-सी, विकासपुरी, नई दिल्ली-110018
गणेश भारद्वाज ग़नी
खोखले विचारों के बांस
मनोबल के ऊंचे पर्वत पर बैठा
वह निहार रहा था
विचारों की गहरी नदी के उस पार
निराशा के बादलों की ओट से
उम्मीद का खिलता सूरज
अब ढ़लने लगा था।
सांझ पास आते-आते
जैसे थम गई कहीं
दुःख की रात चुपके से
आ बैठी पास।
बरसों लड़ते रहे जो युद्ध
रेख चित्र : बी मोहन नेगी |
वे सुधारक मिट गए
पर नहीं मिटी एक लकीर अब तक।
आज होते ज़िन्दा अगर बुद्ध
तो क्या देख पाते खिचड़ी के वक्त
अलग पंक्ति बुद्ध राम की
जातिवाद के अन्त का सबक
पढ़ा था पाठशाला में
आज यह उसे मज़ाक लगा
सिद्धान्तों और परम्पराओं की चादर में
एक बड़ा सुराख लगा।
खोखले विचारों के बांस भी
क्या बन पाएंगे सिद्धान्तों की बांसुरी
और फिर फूटेंगें जीवन मूल्यों के स्वर।
अभी तो तथाकथित कवि
कर रहे हैं खराब कविता की छवि
शब्द नकली हैं सार बनावटी
डाईनिंग टेबल पर बैठकर
भूख पर कविता सोच रहे हैं
पूजी के ढ़ेर पर मारे कुण्डली
समाजवाद का राग अलाप रहे हैं
सामने खड़ा है एक प्रश्न-
क्यों लगा टूटने जैविक चक्र
और डोलने प्रकृति का संतुलन
होने लगे जब विलुप्त-
समझ तो रहे हैं हम
संतुलन और समानता के लिए
इन सबकी भूमिका
पर कौन किसे समझाए?
अब लगी सूखने इन्तजार की नदी
क्या मुख्य पंक्ति में आने के लिए
बुद्ध राम को चाहिए अब भी कोई
लूथर, लिंकन, मंडेला, मार्क्स, गांधी
या अंबेडकर
थामकर अंगुली जो
मिला दे मुख्यधारा में।
कितने ही ऐसे गुरूकुल हैं अब भी
जहां एकलव्य हो रहे अपंग
और कितने ही द्रोणाचार्य अब भी
जो कर रहे व्यवस्था को अपंग
घृणा के बीज हो रहे अंकुरित
परम्पराओं, आस्थाओं के खाद-पानी से
कुप्रथाओं के सब्जबाग पनप रहे हैं
हृदय में कविता बनते कौन देख पाया
क्या कभी फूल को खिलते देखा है?
- एम.सी. भारद्वाज हाऊस, भुटी कालोनी, डाक- शमशी, जिला कुल्लू (हि.प्र.)-175126
डॉ. सुरेश उजाला
बीज
माटी में पड़ा-
ऊर्जावान बीज-
कभी गलता नहीं-
मरता नहीं।
अनुकूल-
और
पर्याप्त मात्रा में-
जल-गर्मी-वायु-
और
माटी मिलने पर-
वर्षों बाद भी।
अतएव-
राख में दबी-
एक चिंगारी-
काफी है- विचारों की
आग लगाने को-
इतिहास बदलने को-
जनहित में।
- 108-तकरोही, पं. दीनदयालपुरम मार्ग, इन्दिरा नगर, लखनऊ (उ.प्र.)
अजय चन्द्रवंशी
ग़ज़ल
वो रूठे तो आफताब लगे।
मेहरबां तो आफताब लगे।
किसने इसका रोटी नाम रखा,
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
वो नशा है कि शराब लगे।
अपनी वफाओं का क्या कहूँ,
जो दर्द मिले बेहिसाब लगे।
अभी मोहब्बत को समझा नहीं,
अभी बेरुखी मुझे खराब लगे।
जब से मैंने नकाब लगाया है,
हर चेहरा बेनकाब लगे।
- राजमहल चौक, फूलवारी के सामने, कवर्धा, जिला- कबीरधाम-491995 (छ.गढ़)
सुधीर कुमार मौर्य
{युवा कवि-कथाकार श्री सुधीर कुमार मौर्य का ग़ज़ल संग्रह ‘‘आह’’ वर्ष 2011 में प्रकाशित हुआ था। उनके इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दो ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
1.
सभी तो करीब हैं जाने पहचाने उसे।
न सुनाओ किस्से उसकी बेवफाई के यारो,
कि भुलाया है मैंने लाख बहाने से उसे।
उसके ख्वाबों ने मुझे रात को सोने न दिया,
कोई तो रोके मेरी नींद उड़ाने से उसे।
सहारा जीने का बस है एक तस्वीर तेरी,
कोई हटाये न अब मेरे सिरहाने से उसे
मुझको न रास आये बात वो वाइज2 की,
कि आते हुए देखा मैंने मयखाने से उसे।
उसको रकीब3 की उल्फत पे है यकीन
मैं भी तो चाहता हूँ इक जमाने से उसे।
1केवल 2 उपदेशक 3 दुश्मन
2.
वो वफाओं के नगमे सुनाने न आया।
कुशिन्दे-आलम2 के कूचे से गुजरे हम,
कोई मय्यत को मेरी उठाने न आया।
महरूम ऐसे हुए लुत्फे इश्क से हम,
कोई जी को मेरे बहलाने न आया।
अब न इश्क रही न खुमारियाँ रही,
हम नीमजदा3 को कोई जगाने न आया।
1मित्रता 2 जहां को मारने वाला 3 अर्द्धबेहोश
- ग्राम व पोस्ट- गंज जलालाबाद, जिला: उन्नाव-241502, उ.प्र.
विनोद कुमारी किरन
बिटिया
पंखुरी गुलाब सी, कनी हीरे सी
कली कचनार सी, बसन्ती बयार सी
चाँदनी चाँद की, बरखा फुहार सी
रागिनी राग की, मधुर अहसास सी
कैसे बताऊँ तुझे क्या है तू मेरे लिए?
मुझको तो लगती है बिटिया तू प्राण सी
जिन्दगी की भागदौड़ में अनुपम उपहार सी।
समझ नहीं पाता मैं होती क्यों भ्रूण हत्या?
मानव बन जाता है जाने क्यों दानव सा?
माँ तो होती ममता की मूरत ही
फिर क्यों बन जाती हत्यारिन बेटी की
कैसे कांटों में, कचरे के ढेर में
फेंक देती है ममता की मूरत जो होती है
कैसे बताऊँ तुझे क्या है तू मेरे लिए?
मुझको तो लगती है बिटिया तू प्राण सी
ज़िन्दगी की आस सी मधुर मुस्कान सी।
- जी-127, उदयपथ, श्यामनगर विस्तार, जयपुर, राजस्थान।
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