अविराम ब्लॉग संकलन : वर्ष : 2, अंक : 9-10 , मई-जून 2013
।।विमर्श।।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं चिन्तक डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जी के साथ वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र परदेसी की बातचीत
{विगत दिनों वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र परदेसी ने सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं चिन्तक डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जी के व्यक्तित्व एवं कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनके विचार नई पीढ़ी के साहित्कारों एवं साहित्य प्रेमियों के समक्ष रखने हेतु उनसे बातचीत की। रुड़की के बी.एस.एम. स्नातकोत्तर महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य डॉ. अरुण जी देश के सुस्थापित/सुविख्यात साहित्यकार हैं। वह केन्द्रीय साहित्य अकादमी में उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। कई विश्वविद्यालयों की विभिन्न समितियों में रहे हैं। उनके महाकाव्य ‘‘वैदुष्यमणि विद्योत्तमा’’ से प्रभावित होकर देश की पूर्व राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती प्रतिभा पाटिल अपने कार्यकाल के दौरान उन्हें राष्ट्रति भवन में सपरिवार आमन्त्रित कर सम्मान एवं आशीर्वाद प्रदान कर चुकी हैं। देश के कई प्रतिष्ठित सम्मान/पुरस्कारों से अरुण जी को नवाजा जा चुका है। हाल ही में उन्हें रामायण विषयक शोध एवं विमर्श संबन्धी कार्य के लिए ‘‘श्रीमठ’’ वाराणसी के प्रतिष्ठित ‘‘तुलसी सम्मान’’ से विभूषित किया गया है। यहां हम श्री राजेन्द्र परदेसी द्वारा उनका साक्षात्कार अपने पाठकों के लिए रख रहे हैं।}
अभावों ने मुझे भाव दिए हैं : डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’
राजेन्द्र परदेसी : पहले हमारी युवा पीढ़ी आपके व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानना चाहेगी- आपका जन्म स्थान, वहाँ का वातावरण आदि?
डॉ. अरुण: मेरा जन्म पौराणिक तीर्थ कनखल, जोकि हरिद्वार से मात्र 3 कि.मी. की दूरी पर स्थित एक उपनगरीय क्षेत्र है, में एक पुरोहित परिवार में हुआ। पिताश्री पं. महेन्द्रनाथ शर्मा रामचरित मानस के अध्येता रहे हैं तथा माता श्रीमती विद्यावती भी पूर्णतः धार्मिक एवं सात्विक स्वभाव की थी। मुझ सहित हमारे पूरे परिवार को प्राप्त सात्विक आचरण एवं सकारात्मक दृष्टिकोंण का श्रेय हमारी माताश्री को ही जाता है। हम चारों बहन-भाइयों- बड़ी बहन श्रीमती विद्यावती, बड़े भाई गोपेन्द्रनाथ शर्मा, छोटा भाई बिजेन्द्रनाथ शर्मा और मेरे बीच हमेशा बेहद प्यार और स्नेह का वातावरण रहा। जीवन कई तरह के अभावों के बीच बीता। दसवीं व बारहवीं की परीक्षाएं नगरपालिका की लाइट में घंटों पढ़-पढ़कर दीं। घर में बिजली की सुविधा हमें 1963 में बी.ए. अन्तिम वर्ष के दौरान मिल सकी। लेकिन ये अभाव न होते तो शायद मैं वह न होता, जो आज हूँ। अभावों ने मुझे भाव दिए और मैं सकारात्मक दृष्टि लिए कविता की डगर पर चलता रहा। दसवीं तक जिस डॉ. हरिराम आर्य इन्टर कॉलेज, मायापुर, हरिद्वार में मैं पढ़ा हूँ, वहाँ मेरे गुरु डॉ. केहर सिंह चौहान ने मुझे विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाषण देना सिखाया और मैं लगभग सभी प्रतियोगिताओं में प्रथम आता रहा। कनखल के रामकृष्ण मिशन अस्पताल में रामकृष्ण परमहंस की जयंती पर जो व्याख्यान प्रतियोगिताएं होती थीं, उनमें पुरस्कार स्वरूप हमेशा विवेकानन्द साहित्य मिला करता था, जिसने मेरे व्यक्तित्व को गढ़ा। बी.ए. तक हरिद्वार में शिक्षा पाई, उसके बाद 1963 में मथुरा में केन्द्र सरकार के रक्षा लेखा विभाग में अपर डिवीजन क्लर्क बना और वहीं से 1964 में एम.ए. (हिन्दी) में प्रवेश लेकर 1966 में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की और गाजियाबाद के शम्भूदयाल कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति पाई। अध्यापन के दौरान ही 1973 में ‘‘जैन रामायण ‘पमचरिउ’ तथा रामचरित मानस के नारी पात्रों का तुलनात्मक अनुशीलन’’ विषय पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। 1974 में रीडर/विभागाध्यक्ष पद पर बी.एस.एम. पी.जी. कॉलेज, रुड़की में आ गया। 1986 में प्राचार्य पद पर चयनित हुआ। 2001 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के बाद से निरंतर लिखना-पढ़ना बना हुआ है।
राजेन्द्र परदेसी : आपने लेखन कब प्रारम्भ किया? आपके प्रेरणा स्रोत क्या थे? आपकी प्रथम रचना कब और कहाँ प्रकाशित हुई?
डॉ. अरुण: लेखन की शुरूआत के बारे में जहाँ तक याद है, जब मैं कक्षा 8 में था, विद्यालय पत्रिका के लिए एक छोटी सी कविता लिखी थी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे आज भी याद हैं-
‘‘ए युवक निर्भय होकर, प्रतिपल आगे बढ़ तू
मन में लेकर लगन, ज्ञान रूपी वृक्षों पर चढ़ तू’’
और उसके बाद गुरुजनों, विशेषतः पं. हेमचन्द्र पंत, श्री विवेकानन्द और डॉ. केहर सिंह चौहान की प्रेरणा से मैं कविताएं लिखने लगा और स्थानीय साप्ताहिक पत्रों में छपने भी लगा। मेरी पहली कविता श्री रमेश कुमार द्वारा संपादित व हरिद्वार से प्रकाशित एक साप्ताहिक में छपी, उसके बाद मैं निरंतर छपने लगा। पहली बार 1959 में दिल्ली से प्रकाशित फिल्मी पत्रिका ‘शमां’ में मेरी एक कविता ‘कल, आज और कल’ छपी, तो मनीआर्डर से बतौर पारिश्रमिक रु. 15/- आये, जो डाकिए ने बड़ी मुश्किल से कई गवाहियाँ लेने के बाद मुझे दिये थे। लेखन से वह मेरी पहली कमाई थी। इसके बाद लगातार नवभारत टाइम्स के ‘आपकी अपनी बात’ कॉलम में मेरे पत्र प्रकाशित होते रहे, जिन पर लम्बी बहसें भी होती रहीं।
राजेन्द्र परदेसी: आपकी लिखी रचनाओं की मुख्य प्रवृत्तियाँ क्या हैं? कुछ विस्तार से इस संदर्भ में बतायेंगे?
डॉ. अरुण: मेरी कविताओं का मूल स्वर आशावाद, आचरण की पवित्रता और कभी न हारने वाली जीवटता रहे है। बी.ए. के पाठ्यक्रम में शामिल रावर्ट ब्राउनिंग की एक अंग्रेजी कविता ‘Last Ride’ की इन पंक्तियों ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया-
“I always remained a fighter
So one fight more
Best and the last”
इन पंक्तियों ने मुझे जीवन भर संघर्ष की प्रेरणा दी है और मैं अपने संघर्ष को सकारात्मक रचनात्मकता में रूपान्तरित करता रहा हूँ।
राजेन्द्र परदेसी : क्या आप इस विचार से सहमत हैं कि साहित्य का संबंध साहित्यकार के जीवन से होता है, अतः क्या वही साहित्य महत्ता प्राप्त करता है जिसका संबंध सर्जक के जीवन से होता है?
डॉ. अरुण: निश्चित रूप से। मैं यह मानता हूँ कि अपने जीवन में साहित्यकार कहीं न कहीं हर पल गुथा (समाहित) रहता है। साहित्यकार भी मूलतः समाज का ही अंग है, वह भी विसंगतियों को लगातार जीता है। उसके जीवन में विद्रोह, क्षोभ, असंतोष जब सकारात्मक रूप ले लेते हैं तो सृजन होता है। भारतेन्दु जी कहते थे, ‘जिस धन ने मेरे पुरखों को खा लिया, मैं उसे खा जाऊँगा।’ और उन्होंने दोनों हाथों से धन को लुटाया। यह उनका विद्रोह था। मुझे अपने बचपन में कुछ नहीं मिला, लेकिन मैं अपनी आने वाली पीढ़ियों को वह सब कुछ देने के लिए प्रतिबद्ध हूँ, जो सामान्य जीवन के लिए जरूरी है। यह मेरा अपने तरह का विद्रोह ही है। साहित्यकार के जीवन से जुड़ी ऐसी चीजें जब सकारात्मक रचनात्मकता के साथ साहित्य में आती हैं, तो वे निश्चित रूप से महत्ता प्राप्त करती हैं।
राजेन्द्र परदेसी : आपकी दृष्टि में समकालीन हिन्दी साहित्य का सच क्या है? क्या यह सच वही सच है, जो आजादी के बाद प्रगतिवाद और व्यक्तिवाद के शोर के रूप में सामने आया था?
डॉ. अरुण: आज की कविता आजादी से पहले के मूल्यों को लगभग पूरी तरह छोड़ चुकी है। अगर प्रतीक रूप में कहूँ तो आजादी से पूर्व साहित्य और पत्रकारिता ‘मिशन’ थे, जबकि आज ये दोनों ‘सब मिशन’ हो गये हैं। यही कारण है कि आज का रचनाधर्मी वादों-विवादों में फंस गया है। समाज से ज्यादा व्यक्तिगत अहं की तुष्टि उसका उद्देश्य हो गया है। शोर वादों का हो या विवादों का, साहित्य के लिए हमेशा घातक होता है। यह बेहद दुःखद है कि आज का साहित्य इसका शिकार हो गया है। फिर भी यदा-कदा कहीं कोई रचनाधर्मी वादों-विवादों से दूर सृजनरत दिखाई दे जाता है, तो अच्छा लगता है।
राजेन्द्र परदेसी : आधुनिक हिन्दी साहित्य में जो सृजन हो रहा है, वह भारतीय जीवन के कितने निकट है? उससे आधुनिक जीवन कहां तक प्रभावित है?
डॉ. अरुण: आधुनिक साहित्य में हम पश्चिम को आधार बनाकर लिख रहे हैं, इसलिए हमारे शाश्वत मूल्य- सात्विक जीवन, सहिष्णुता, आशावाद आदि के स्थान पर भोग प्राप्ति, अहं और सबसे बढ़कर असहिष्णुता हमारे लेखन में ध्वनित होने लगी है। अधिकांश आधुनिक साहित्य उधार का लग रहा है। तात्पर्य भारतीय जीवन मूल्यों से कटा हुआ साहित्य रचा जा रहा है। चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है और जीवन को दिशा देने में उसकी भूमिका होती है, तो पश्चिम से प्रभावित आधुनिक साहित्य हमारे जीवन को भारतीय मूल्यों से विमुख ही करेगा। और हो भी यही रहा है।
राजेन्द्र परदेसी : आज का सर्जनात्मक साहित्य क्या आधुनिक जीवन की विषमताओं, विसंगतियों और विद्रूपताओं से ही प्रभावित हो रहा है अथवा परम्परा से सम्बद्ध होकर प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त कर रहा है?
डॉ. अरुण: आपके अभिप्राय से मैं सहमत हूँ, क्योंकि जो पुराने जीवन मूल्यों को लेकर लिखता है तो पुरातनपंथी कहकर उसका मजाक उड़ाया जाता है। विषमताएं, विसंगतियां और विद्रूपताएं जीवन में आ गई हैं, तो साहित्य में प्रतिबिम्बित होगी ही, पर इसकी आड़ में तथाकथित ‘बोल्डनेस’ के नाम पर अश्लीलता और नंगापन कथा-साहित्य में आम बात हो गई है। नारी केन्द्रित लेखन के नाम पर परम्पराओं को तोड़ना फैशन बन गया है। इससे समाज में भी कहीं न कहीं टूटन और भटकाव की स्थिति पैदा हो रही है। जीवन में आ गईं विषमताओं, विसंगतियों और विद्रूपताओं को भारतीय जीवन मूल्यों को पुनसर््थापित करने के परिप्रेक्ष्य में साहित्य में उभारा जाये, तो ऐसा साहित्य समाज को दिशा देने में सहायक हो सकता है।
राजेन्द्र परदेसी : क्या वर्तमान हिन्दी साहित्य सांस्कृतिक धरोहर के प्रति सजग है? यदि सजग है तो किस सीमा तक?
डॉ. अरुण: वर्तमान हिन्दी साहित्य मेरी दृष्टि से संस्कृति को बोझ मानने लगा है और इसीलिए आप देखेंगे कि प्राचीन पौराणिक साहित्य को आधार बनाकर इधर बहुत कम रचनाएं हिन्दी साहित्य में आई हैं। जबकि तमिल, मलयालम और तेलगू भाषी रचनाकार पौराणिक साहित्य से आज भी जुड़े हुए हैं। हमारे पौराणिक साहित्य में अनेक महत्वपूर्ण चरित्र हैं, जिनकी सकारात्मक दृष्टि को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में साहित्य में प्रतिबिम्बित करके समाज के मार्गदर्शन की दृष्टि से महत्वपूर्ण कार्य किया जा सकता है। कई आधुनिक विमर्श इन चरित्रों से ऊर्जा ग्रहण कर सकते हैं। दुर्भाग्य से इस तरह की सजगता आधुनिक हिन्दी साहित्य में बहुत कम देखने को मिल रही है।
राजेन्द्र परदेसी : आज हिन्दी कविता में रागात्मक अनुभूति क्षीणतर होती जा रही है, उसमें जीवन्तता का अभाव है। अतः कविता जन-जीवन से कट रही है। आप क्या कहेंगे?
डॉ. अरुण: बिल्कुल ठीक बात है। आज कविता रागात्मक तत्व के न होने से नीरस हो गई है। रागात्मकता न होने के कारण स्वयं कवि भी अपनी कविता को याद नहीं रख पाता है। छन्द का गायब होना निराशाजनक है। आज भी संगीतकार सूर, मीरा, कबीर, रहीम की रचनाओं को आधार बनाते हैं तो इसके पीछे रागात्मक तत्व ही प्रमुख है। नवगीत के रूप में गीत की वापसी कविता में रागात्मक अनुभूति की महत्ता को दर्शाती है।
राजेन्द्र परदेसी : क्या हिन्दी का आधुनिक कथा-साहित्य पाश्चात्य-जीवन शैली एवं दर्शन से अधिक प्रभावित है?
डॉ. अरुण: बिल्कुल। जैसा कि मैने पहले भी कहा है, पश्चिम से आयातित तथाकथित ‘बोल्डनेस’ के नाम पर कथा साहित्य में आज अश्लीलता और नंगापन परोसा जा रहा है। दूसरी ओर नारी विमर्श, दलित विमर्श भी पश्चिम से ही प्रेरित हैं। आज कथा साहित्य को खांचों में बांटकर भारतीय जीवन मूल्यों से विमुख किया जा रहा है।
राजेन्द्र परदेसी : भूमण्डलीकरण और बाजारवाद के कारण महानगरों में रहने वाले लोगों की सोच में काफी अन्तर आ गया है। फिर हमारे सर्जक महानगरों की चकाचौंध में फंसे हुए अपने को ग्रामीण अंचलों से जोड़ते नहीं। इस विषय पर आपके विचार क्या हैं?
डॉ. अरुण: महानगरों में जो लोग हैं, साहित्य और जीवन मूल्यों में उनकी रुचि नहीं है। उनकी रुचि तो शेयर बाजार, टी.वी. चैनलों पर परोसे जा रहे अश्लील कार्यक्रमों तथा येन-केन प्रकारेण पैसा कमाने में है। पैसे से बड़ा उनके लिए कोई दूसरा मूल्य नहीं है। इस तथाकथित महानगरीय संस्कृति की चपेट में हमारे सर्जक भी आ गये हैं। चूंकि ग्रामीण अंचलों में हमारी भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्य आज भी काफी सीमा तक संरक्षित हैं, अतः रचनाधर्मियों से अपने आपको इन अंचलों से जोड़कर अपने अनुभव संसार को समृद्ध करने की अपेक्षा की जाती है, ताकि उनके लेखन में अपनी मांटी की सुगन्ध आ सके।
राजेन्द्र परदेसी : समकालीन रचना परिदृश्य से आप स्वयं किस तरह जुड़ते हैं? और उससे कहां अलग होते हैं?
डॉ. अरुण: जहाँ आज भी स्वस्थ परंपराएं, शाश्वत जीवन मूल्य, त्याग, सहिष्णुता आदि विद्यमान हैं, वहाँ मैं जुड़ता हूँ। ये मूल्य आज भी मेरे लिए सर्वाधिक प्रासंगिक हैं। यही कारण है कि मैंने कविकुल गुरु कालिदास की पत्नी विदुषी विद्योत्तमा को केन्द्र में रखकर संभवतः पहली बार आठ सर्गों का महाकाव्य ‘‘वैदुष्यमणि विद्योत्तमा’’ की रचना की है, जिसे कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। इसी प्रकार मेरी कहानियों में आशावादिता और त्याग के साथ-साथ समर्पण जैसे जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति हुई है। छिछली अश्लीलता और थोथी संकीर्णताओं को साहित्य में अभिव्यक्ति करना साहित्यकार का उद्देश्य नहीं होता।
राजेन्द्र परदेसी : अपने अनुभवों के आधार पर नयी पीढ़ी के रचनाकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
डॉ. अरुण: मैं अपनी नई पीढ़ी से कहना चाहूँगा कि हमारी भारतीय जीवन-दृष्टि और जीवन-दर्शन आज भी पूरे विश्व को जीवन अमृत देने में समर्थ हैं। धन, ऐश्वर्य और समृद्धि कभी स्थाई नहीं होते। अगर कुछ स्थाई होता है तो केवल आत्म-संतोष और स्वाभिमान। इसीलिए चार पंक्तियों में अपने युवा रचनाकारों से मेरा अनुरोध है कि वे अपनी संवेदनशीलता को सदैव सुरक्षित रखते हुए अभावों में भाव ढूढ़ने का प्रयास करते रहें-
‘‘ले तो सकते हैं सभी, तुम देना सीखो।
कराह सकते हैं सभी, तुम सहना सीखो।
बेवश नयनों से झलकते हों जब आंसू,
हँस तो सकते हैं सभी, तुम रोना सीखो।
।।विमर्श।।
सामग्री : सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं चिन्तक डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जी के साथ वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र परदेसी की बातचीत।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं चिन्तक डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जी के साथ वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र परदेसी की बातचीत
परदेसी जी |
डॉ. अरुण जी |
अभावों ने मुझे भाव दिए हैं : डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’
राजेन्द्र परदेसी : पहले हमारी युवा पीढ़ी आपके व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानना चाहेगी- आपका जन्म स्थान, वहाँ का वातावरण आदि?
डॉ. अरुण: मेरा जन्म पौराणिक तीर्थ कनखल, जोकि हरिद्वार से मात्र 3 कि.मी. की दूरी पर स्थित एक उपनगरीय क्षेत्र है, में एक पुरोहित परिवार में हुआ। पिताश्री पं. महेन्द्रनाथ शर्मा रामचरित मानस के अध्येता रहे हैं तथा माता श्रीमती विद्यावती भी पूर्णतः धार्मिक एवं सात्विक स्वभाव की थी। मुझ सहित हमारे पूरे परिवार को प्राप्त सात्विक आचरण एवं सकारात्मक दृष्टिकोंण का श्रेय हमारी माताश्री को ही जाता है। हम चारों बहन-भाइयों- बड़ी बहन श्रीमती विद्यावती, बड़े भाई गोपेन्द्रनाथ शर्मा, छोटा भाई बिजेन्द्रनाथ शर्मा और मेरे बीच हमेशा बेहद प्यार और स्नेह का वातावरण रहा। जीवन कई तरह के अभावों के बीच बीता। दसवीं व बारहवीं की परीक्षाएं नगरपालिका की लाइट में घंटों पढ़-पढ़कर दीं। घर में बिजली की सुविधा हमें 1963 में बी.ए. अन्तिम वर्ष के दौरान मिल सकी। लेकिन ये अभाव न होते तो शायद मैं वह न होता, जो आज हूँ। अभावों ने मुझे भाव दिए और मैं सकारात्मक दृष्टि लिए कविता की डगर पर चलता रहा। दसवीं तक जिस डॉ. हरिराम आर्य इन्टर कॉलेज, मायापुर, हरिद्वार में मैं पढ़ा हूँ, वहाँ मेरे गुरु डॉ. केहर सिंह चौहान ने मुझे विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाषण देना सिखाया और मैं लगभग सभी प्रतियोगिताओं में प्रथम आता रहा। कनखल के रामकृष्ण मिशन अस्पताल में रामकृष्ण परमहंस की जयंती पर जो व्याख्यान प्रतियोगिताएं होती थीं, उनमें पुरस्कार स्वरूप हमेशा विवेकानन्द साहित्य मिला करता था, जिसने मेरे व्यक्तित्व को गढ़ा। बी.ए. तक हरिद्वार में शिक्षा पाई, उसके बाद 1963 में मथुरा में केन्द्र सरकार के रक्षा लेखा विभाग में अपर डिवीजन क्लर्क बना और वहीं से 1964 में एम.ए. (हिन्दी) में प्रवेश लेकर 1966 में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की और गाजियाबाद के शम्भूदयाल कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति पाई। अध्यापन के दौरान ही 1973 में ‘‘जैन रामायण ‘पमचरिउ’ तथा रामचरित मानस के नारी पात्रों का तुलनात्मक अनुशीलन’’ विषय पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। 1974 में रीडर/विभागाध्यक्ष पद पर बी.एस.एम. पी.जी. कॉलेज, रुड़की में आ गया। 1986 में प्राचार्य पद पर चयनित हुआ। 2001 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के बाद से निरंतर लिखना-पढ़ना बना हुआ है।
राजेन्द्र परदेसी : आपने लेखन कब प्रारम्भ किया? आपके प्रेरणा स्रोत क्या थे? आपकी प्रथम रचना कब और कहाँ प्रकाशित हुई?
डॉ. अरुण: लेखन की शुरूआत के बारे में जहाँ तक याद है, जब मैं कक्षा 8 में था, विद्यालय पत्रिका के लिए एक छोटी सी कविता लिखी थी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे आज भी याद हैं-
‘‘ए युवक निर्भय होकर, प्रतिपल आगे बढ़ तू
मन में लेकर लगन, ज्ञान रूपी वृक्षों पर चढ़ तू’’
और उसके बाद गुरुजनों, विशेषतः पं. हेमचन्द्र पंत, श्री विवेकानन्द और डॉ. केहर सिंह चौहान की प्रेरणा से मैं कविताएं लिखने लगा और स्थानीय साप्ताहिक पत्रों में छपने भी लगा। मेरी पहली कविता श्री रमेश कुमार द्वारा संपादित व हरिद्वार से प्रकाशित एक साप्ताहिक में छपी, उसके बाद मैं निरंतर छपने लगा। पहली बार 1959 में दिल्ली से प्रकाशित फिल्मी पत्रिका ‘शमां’ में मेरी एक कविता ‘कल, आज और कल’ छपी, तो मनीआर्डर से बतौर पारिश्रमिक रु. 15/- आये, जो डाकिए ने बड़ी मुश्किल से कई गवाहियाँ लेने के बाद मुझे दिये थे। लेखन से वह मेरी पहली कमाई थी। इसके बाद लगातार नवभारत टाइम्स के ‘आपकी अपनी बात’ कॉलम में मेरे पत्र प्रकाशित होते रहे, जिन पर लम्बी बहसें भी होती रहीं।
राजेन्द्र परदेसी: आपकी लिखी रचनाओं की मुख्य प्रवृत्तियाँ क्या हैं? कुछ विस्तार से इस संदर्भ में बतायेंगे?
डॉ. अरुण: मेरी कविताओं का मूल स्वर आशावाद, आचरण की पवित्रता और कभी न हारने वाली जीवटता रहे है। बी.ए. के पाठ्यक्रम में शामिल रावर्ट ब्राउनिंग की एक अंग्रेजी कविता ‘Last Ride’ की इन पंक्तियों ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया-
“I always remained a fighter
So one fight more
Best and the last”
इन पंक्तियों ने मुझे जीवन भर संघर्ष की प्रेरणा दी है और मैं अपने संघर्ष को सकारात्मक रचनात्मकता में रूपान्तरित करता रहा हूँ।
राजेन्द्र परदेसी : क्या आप इस विचार से सहमत हैं कि साहित्य का संबंध साहित्यकार के जीवन से होता है, अतः क्या वही साहित्य महत्ता प्राप्त करता है जिसका संबंध सर्जक के जीवन से होता है?
डॉ. अरुण: निश्चित रूप से। मैं यह मानता हूँ कि अपने जीवन में साहित्यकार कहीं न कहीं हर पल गुथा (समाहित) रहता है। साहित्यकार भी मूलतः समाज का ही अंग है, वह भी विसंगतियों को लगातार जीता है। उसके जीवन में विद्रोह, क्षोभ, असंतोष जब सकारात्मक रूप ले लेते हैं तो सृजन होता है। भारतेन्दु जी कहते थे, ‘जिस धन ने मेरे पुरखों को खा लिया, मैं उसे खा जाऊँगा।’ और उन्होंने दोनों हाथों से धन को लुटाया। यह उनका विद्रोह था। मुझे अपने बचपन में कुछ नहीं मिला, लेकिन मैं अपनी आने वाली पीढ़ियों को वह सब कुछ देने के लिए प्रतिबद्ध हूँ, जो सामान्य जीवन के लिए जरूरी है। यह मेरा अपने तरह का विद्रोह ही है। साहित्यकार के जीवन से जुड़ी ऐसी चीजें जब सकारात्मक रचनात्मकता के साथ साहित्य में आती हैं, तो वे निश्चित रूप से महत्ता प्राप्त करती हैं।
राजेन्द्र परदेसी : आपकी दृष्टि में समकालीन हिन्दी साहित्य का सच क्या है? क्या यह सच वही सच है, जो आजादी के बाद प्रगतिवाद और व्यक्तिवाद के शोर के रूप में सामने आया था?
डॉ. अरुण: आज की कविता आजादी से पहले के मूल्यों को लगभग पूरी तरह छोड़ चुकी है। अगर प्रतीक रूप में कहूँ तो आजादी से पूर्व साहित्य और पत्रकारिता ‘मिशन’ थे, जबकि आज ये दोनों ‘सब मिशन’ हो गये हैं। यही कारण है कि आज का रचनाधर्मी वादों-विवादों में फंस गया है। समाज से ज्यादा व्यक्तिगत अहं की तुष्टि उसका उद्देश्य हो गया है। शोर वादों का हो या विवादों का, साहित्य के लिए हमेशा घातक होता है। यह बेहद दुःखद है कि आज का साहित्य इसका शिकार हो गया है। फिर भी यदा-कदा कहीं कोई रचनाधर्मी वादों-विवादों से दूर सृजनरत दिखाई दे जाता है, तो अच्छा लगता है।
राजेन्द्र परदेसी : आधुनिक हिन्दी साहित्य में जो सृजन हो रहा है, वह भारतीय जीवन के कितने निकट है? उससे आधुनिक जीवन कहां तक प्रभावित है?
डॉ. अरुण: आधुनिक साहित्य में हम पश्चिम को आधार बनाकर लिख रहे हैं, इसलिए हमारे शाश्वत मूल्य- सात्विक जीवन, सहिष्णुता, आशावाद आदि के स्थान पर भोग प्राप्ति, अहं और सबसे बढ़कर असहिष्णुता हमारे लेखन में ध्वनित होने लगी है। अधिकांश आधुनिक साहित्य उधार का लग रहा है। तात्पर्य भारतीय जीवन मूल्यों से कटा हुआ साहित्य रचा जा रहा है। चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है और जीवन को दिशा देने में उसकी भूमिका होती है, तो पश्चिम से प्रभावित आधुनिक साहित्य हमारे जीवन को भारतीय मूल्यों से विमुख ही करेगा। और हो भी यही रहा है।
राजेन्द्र परदेसी : आज का सर्जनात्मक साहित्य क्या आधुनिक जीवन की विषमताओं, विसंगतियों और विद्रूपताओं से ही प्रभावित हो रहा है अथवा परम्परा से सम्बद्ध होकर प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त कर रहा है?
डॉ. अरुण: आपके अभिप्राय से मैं सहमत हूँ, क्योंकि जो पुराने जीवन मूल्यों को लेकर लिखता है तो पुरातनपंथी कहकर उसका मजाक उड़ाया जाता है। विषमताएं, विसंगतियां और विद्रूपताएं जीवन में आ गई हैं, तो साहित्य में प्रतिबिम्बित होगी ही, पर इसकी आड़ में तथाकथित ‘बोल्डनेस’ के नाम पर अश्लीलता और नंगापन कथा-साहित्य में आम बात हो गई है। नारी केन्द्रित लेखन के नाम पर परम्पराओं को तोड़ना फैशन बन गया है। इससे समाज में भी कहीं न कहीं टूटन और भटकाव की स्थिति पैदा हो रही है। जीवन में आ गईं विषमताओं, विसंगतियों और विद्रूपताओं को भारतीय जीवन मूल्यों को पुनसर््थापित करने के परिप्रेक्ष्य में साहित्य में उभारा जाये, तो ऐसा साहित्य समाज को दिशा देने में सहायक हो सकता है।
राजेन्द्र परदेसी : क्या वर्तमान हिन्दी साहित्य सांस्कृतिक धरोहर के प्रति सजग है? यदि सजग है तो किस सीमा तक?
डॉ. अरुण: वर्तमान हिन्दी साहित्य मेरी दृष्टि से संस्कृति को बोझ मानने लगा है और इसीलिए आप देखेंगे कि प्राचीन पौराणिक साहित्य को आधार बनाकर इधर बहुत कम रचनाएं हिन्दी साहित्य में आई हैं। जबकि तमिल, मलयालम और तेलगू भाषी रचनाकार पौराणिक साहित्य से आज भी जुड़े हुए हैं। हमारे पौराणिक साहित्य में अनेक महत्वपूर्ण चरित्र हैं, जिनकी सकारात्मक दृष्टि को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में साहित्य में प्रतिबिम्बित करके समाज के मार्गदर्शन की दृष्टि से महत्वपूर्ण कार्य किया जा सकता है। कई आधुनिक विमर्श इन चरित्रों से ऊर्जा ग्रहण कर सकते हैं। दुर्भाग्य से इस तरह की सजगता आधुनिक हिन्दी साहित्य में बहुत कम देखने को मिल रही है।
राजेन्द्र परदेसी : आज हिन्दी कविता में रागात्मक अनुभूति क्षीणतर होती जा रही है, उसमें जीवन्तता का अभाव है। अतः कविता जन-जीवन से कट रही है। आप क्या कहेंगे?
डॉ. अरुण: बिल्कुल ठीक बात है। आज कविता रागात्मक तत्व के न होने से नीरस हो गई है। रागात्मकता न होने के कारण स्वयं कवि भी अपनी कविता को याद नहीं रख पाता है। छन्द का गायब होना निराशाजनक है। आज भी संगीतकार सूर, मीरा, कबीर, रहीम की रचनाओं को आधार बनाते हैं तो इसके पीछे रागात्मक तत्व ही प्रमुख है। नवगीत के रूप में गीत की वापसी कविता में रागात्मक अनुभूति की महत्ता को दर्शाती है।
राजेन्द्र परदेसी : क्या हिन्दी का आधुनिक कथा-साहित्य पाश्चात्य-जीवन शैली एवं दर्शन से अधिक प्रभावित है?
डॉ. अरुण: बिल्कुल। जैसा कि मैने पहले भी कहा है, पश्चिम से आयातित तथाकथित ‘बोल्डनेस’ के नाम पर कथा साहित्य में आज अश्लीलता और नंगापन परोसा जा रहा है। दूसरी ओर नारी विमर्श, दलित विमर्श भी पश्चिम से ही प्रेरित हैं। आज कथा साहित्य को खांचों में बांटकर भारतीय जीवन मूल्यों से विमुख किया जा रहा है।
राजेन्द्र परदेसी : भूमण्डलीकरण और बाजारवाद के कारण महानगरों में रहने वाले लोगों की सोच में काफी अन्तर आ गया है। फिर हमारे सर्जक महानगरों की चकाचौंध में फंसे हुए अपने को ग्रामीण अंचलों से जोड़ते नहीं। इस विषय पर आपके विचार क्या हैं?
डॉ. अरुण: महानगरों में जो लोग हैं, साहित्य और जीवन मूल्यों में उनकी रुचि नहीं है। उनकी रुचि तो शेयर बाजार, टी.वी. चैनलों पर परोसे जा रहे अश्लील कार्यक्रमों तथा येन-केन प्रकारेण पैसा कमाने में है। पैसे से बड़ा उनके लिए कोई दूसरा मूल्य नहीं है। इस तथाकथित महानगरीय संस्कृति की चपेट में हमारे सर्जक भी आ गये हैं। चूंकि ग्रामीण अंचलों में हमारी भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्य आज भी काफी सीमा तक संरक्षित हैं, अतः रचनाधर्मियों से अपने आपको इन अंचलों से जोड़कर अपने अनुभव संसार को समृद्ध करने की अपेक्षा की जाती है, ताकि उनके लेखन में अपनी मांटी की सुगन्ध आ सके।
राजेन्द्र परदेसी : समकालीन रचना परिदृश्य से आप स्वयं किस तरह जुड़ते हैं? और उससे कहां अलग होते हैं?
डॉ. अरुण: जहाँ आज भी स्वस्थ परंपराएं, शाश्वत जीवन मूल्य, त्याग, सहिष्णुता आदि विद्यमान हैं, वहाँ मैं जुड़ता हूँ। ये मूल्य आज भी मेरे लिए सर्वाधिक प्रासंगिक हैं। यही कारण है कि मैंने कविकुल गुरु कालिदास की पत्नी विदुषी विद्योत्तमा को केन्द्र में रखकर संभवतः पहली बार आठ सर्गों का महाकाव्य ‘‘वैदुष्यमणि विद्योत्तमा’’ की रचना की है, जिसे कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। इसी प्रकार मेरी कहानियों में आशावादिता और त्याग के साथ-साथ समर्पण जैसे जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति हुई है। छिछली अश्लीलता और थोथी संकीर्णताओं को साहित्य में अभिव्यक्ति करना साहित्यकार का उद्देश्य नहीं होता।
राजेन्द्र परदेसी : अपने अनुभवों के आधार पर नयी पीढ़ी के रचनाकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
डॉ. अरुण: मैं अपनी नई पीढ़ी से कहना चाहूँगा कि हमारी भारतीय जीवन-दृष्टि और जीवन-दर्शन आज भी पूरे विश्व को जीवन अमृत देने में समर्थ हैं। धन, ऐश्वर्य और समृद्धि कभी स्थाई नहीं होते। अगर कुछ स्थाई होता है तो केवल आत्म-संतोष और स्वाभिमान। इसीलिए चार पंक्तियों में अपने युवा रचनाकारों से मेरा अनुरोध है कि वे अपनी संवेदनशीलता को सदैव सुरक्षित रखते हुए अभावों में भाव ढूढ़ने का प्रयास करते रहें-
‘‘ले तो सकते हैं सभी, तुम देना सीखो।
कराह सकते हैं सभी, तुम सहना सीखो।
बेवश नयनों से झलकते हों जब आंसू,
हँस तो सकते हैं सभी, तुम रोना सीखो।
- डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’, 74/3, नया नेहरूनगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार (उत्तराखंड) मो. 09412070351
- राजेन्द्र परदेसी, 44, शिव विहार, फरीदीनगर, लखनऊ-226015 (उत्तर प्रदेश) मो. 09415045584
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें