अविराम ब्लॉग संकलन : वर्ष : 3, अंक : 09-10, मई-जून 2014
।। कथा कहानी ।।
आशा शैली
बन्धुआ मजदूर
रामपुर बुशहर पहुँचते-पहुँचते गर्मी बढ़ने लगी थी, नम्बरदार शमशेर सिंह ने स्वेटर शरीर से अलग कर हाथ में ले लिया था। शिमला से ही जो बारिश की झड़ी लगी है तो किंगल आ कर ही समाप्त हुई। यदि यह हल्की सी स्वेटर भी साथ न रखी होती तो नारकंडा तक पहुँचते-पहुँचते तो दाँत बजने लगते, लेकिन रामपुर बस अड्डे पर उतरते ही नम्बरदार को गर्मी की भीषणता सताने लगी। जब से सोमेश की वकालत चमकी है उन्हें एक प्रकार का सुकून सा मिला था, चलो इकलौते पुत्र की रोजगार की चिंता तो दूर हुई। किन्तु उस दिन वह सोमेश का फोन आने के बाद परेशान हो गए थे, उसने उन्हें तुरन्त ही शिमला बुलाया था। उन्होंने सोचा, ऐसी क्या बात हो गई कि उन्हें उसने तुरन्त ही शिमला बुला लिया, वह भी बिना कोई कारण बताए? घबराना तो स्वाभविक ही था, आखिर सोमेश उनका इकलौता पुत्र जो था।
शिमला पहुँच कर पता चला कि उसे एक बिकाऊ कोठी मिल रही थी जिसे देखने के लिए पिता का आना जरूरी था। आखिर तीस लाख रुपया तो उन्हीं से मिलता। शमशेर सिंह इसी उधेड़-बुन में चार दिनों से पड़े हुए थे कि बेटे को तीस लाख रुपया आखिर कहाँ से देंगे? क्योंकि इधर-उधर से झाड़-समेट कर भी वे तीन लाख से अधिक नहीं दे सकते थे। पिता का उत्तर सुन कर सोमेश ने झट से सुझाव दे दिया था कि ‘वह गाँव की जमीन और मकान बेच कर शिमला आ जाएँ, आखिर इतनी बड़ी कोठी होगी तो उन्हें क्या परेशानी रहेगी?’
शमशेर सिंह इसी गाँव में जन्मे-पले थे। अब बुढ़ापे की ओर कदम रखते हुए उन्हें गाँव छोड़ना कत्तई पसन्द न था। गाँव में मिलने वाले मान-सम्मान के मुकाबले उन्हें शहर का जीवन उबाऊ और नीरस लगता था, आखिर कौन जानता है उन्हें इतने बड़े शहर में? फिर भी उन्होंने बेटे के प्रस्ताव पर विचार करने का आश्वासन अवश्य ही दिया था। आखिर उनका भी तो बेटे के बिना कोई आसरा न था। इकलौते बेटे को नाराज़ भी कैसे करते?
रामपुर बस के अड्डे पर रोज की तरह ही काफ़ी भीड़ थी और बस मिलने में अभी देर भी थी। बाजार में
मटरगश्ती करना उन्हें तनिक भी पसन्द नहीं था। शमशेर सिंह कोई खाली बैंच तलाषने लगे तभी उन्हें महसूस हुआ कि भीड़ एक ही स्थान पर अधिक थी। क्या हुआ होगा जानने के लिए भीड़ में स्थान बनाना पड़ता जो उन्हें रुचिकर नहीं लगा। फिर एक बेंच पर थोड़ी खाली जगह मिल गई और वह बैग नीचे रख कर बेंच पर बैठ गए। तभी उन्हें अपने गाँव के कुछ लोग दिखाई दिए जो भीड़ में से बाहर निकल रहे थे। शमशेर सिंह ने उन्हें इशारे से रोक लिया और पास बुलाया।
‘‘क्या हो रहा है उधर ?’’ उन्होंने जमाव की ओर इशारा करके एक जानकार से पूछा।
‘‘काल़ू रो रहा है भाई जी।’’ गाँव में सब लोग उन्हें भाई जी ही कहते थे।
‘‘काल़ू रो रहा है? हमारा काल़ू?’’
‘‘हाँ भाई जी।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘पता नहीं, कुछ बोलता नहीं बस रोए जा रहा है।’’
अब शमशेर सिंह से बैठा नहीं रहा गया, अब इतना बड़ा मर्द भरे बाजार में रोने लगेगा तो भीड़ तो लगेगी ही। वह भीड़ को चीरते उस बेंच तक जा पहुँचे जहाँ बैठा काल़ू दोनों हाथों में मुँह छुपाए धीरे-धीरे सुबक रहा था।
‘‘काल़ू राम! क्या हुआ भाई?’’ शमशेर सिंह ने उसकी पीठ पर हाथ रखा तो वह अपने ही घुटनों पर दुहरा हो गया और हिचकियाँ लेकर सुबकने लगा।
‘‘क्या तमाशा लगा रखा है आप लोगों ने? जाओ अपना-अपना काम करो भाई।’’ शमशेर सिंह भीड़ की तरफ़ मुड़े ‘‘यह हमारे गाँव का मामला है हम निबट लेंगे। आप लोग जाइए।’’ फिर उन्होंने काल़ूराम की बाजू पकड़ी और उसे पानी के नल तक ले गए। शमशेर सिंह को समाजसेवा के लिए दूर-दूर तक जाना जाता था, अतः भीड़ छंटने लगी। उन्होंने काल़ूराम को हाथ-मुँह ध्ुलवा कर पानी पिलाया और अपने साथ ले कर उस कोने की तरफ आए जहाँ कुछ एकांत था।
‘‘हाँ! अब बताओ। घर में सब कुशल तो है न?’’ काल़ूराम ने उत्तर में केवल सिर हिला कर हाँ की।
‘‘तब भाई मेरे! इस तरह रोने का कारण, वह भी इस बस के अड्डे पर? मर्द को क्या इस तरह रोना शोभा देता है? उत्तर में उसकी आँखों में फिर आँसू भर आए।
‘‘न...न...! इस तरह नहीं! जब तक कुछ बोलोगे नहीं तो मामला कैसे सुलझेगा?’’
‘‘किराए को पैसे नहीं हैं।’’ काल़ू ने सर झुकाए ही मरी हुई आवाज में कहा।
‘‘बस्स! इतनी सी बात के लिए इतना बड़ा मर्द रो पड़ा, यह लो।’’ शमशेर सिंह ने जेब से दस-दस के पाँच नोट निकाल कर उसकी हथेली में जबरदस्ती ठँूस दिये, किन्तु काल़ू ने एक नोट ले कर बाकी लौटाते हुए इतनी धीरे से कहा कि कोई और न सुन सके,
‘‘लौटाऊँगा कहाँ से’’ तो शमशेर को लगा कि मामला कुछ गम्भीर है। वैसे भी उसने काल़ू को सदा हँसते-मुस्कराते ही देखा था। अतः बोला ‘‘कोई जरूरत नहीं’’ फिर कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘क्या तुम कल मेरे घर आ सकते हो सुबह?’’ शमशेर सिंह को सार्वजनिक स्थान पर घर गाँव की बात करना उचित नहीं लगा था।
‘‘आ जाऊँगा, भाई जी! चलो बस लग गई है।’’
शमशेर सिंह चौहान इलाके के नम्बरदार भी थे और समाजसेवी भी। उम्र बीत चली थी इलाके के सुख-दुख समझते हुए। घर पहुँच कर भी वह यही सोचते रहे थे कि, कालूराम की जेब में दस रुपये भी न होना बड़ी अजीब सी बात थी जबकि वह अच्छी-खासी जमीन का मालिक था जो उसने जवानी के दिनों में अपनी कमाई से ही खरीदी थी और उसमें अपनी मेहनत से सेब और बादाम का बाग़ लगाया था, जो लाखों रुपयों की वार्षिक आय देता था। दोनांे हाथ से दान देना और सब की मदद करना उसके शग़ल थे। आज वही कालूराम चौहान दस रुपये के लिए बस अड्डे पर बैठा फूट-फूट कर रो रहा था। फिर प्रश्न जगा ‘आया ही क्यों बिना पैसे के, या शायद जेब कट गई हो। चलो कल आएगा ही, तब पता चल जाएगा कि बात क्या है। शमशेर सिंह की सारी रात इसी उध्ेड़-बुन में कट गई।
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नम्बरदार शमशेर सिंह जब नाश्ता करके घर से बाहर निकले तो कालूराम को बैठे पाया। ‘‘नमस्ते भाई
जी!’’ उसके चेहरे पर शर्मिंदगी और उदासी साफ़ झलक रही थी। यूँ भी तो कालूराम रिश्ते में उनका छोटा भाई ही था।
‘‘हाँ तो भाई! अब बताओ क्या बात है?’’
‘‘.....’’
‘‘काल़ूराम! मसला तो कुछ गम्भीर ही लगता है लेकिन तुम कुछ बताओ तो उसका हल ढूँढ़ा जाए।’’
तब धीरे-धीरे कालूराम ने जो अपनी व्यथा-कथा सुनाई, ‘‘बहुत दिनों से पेट में दर्द चल रहा था भाई जी, दवा के लिए बेटे से रोज ही कह देता था। बेटा, बहू से कह कर दफ़्तर चला जाता। बहू बहाना बना कर इधर-उधर हो जाती। कल बेटे को घेर कर मैंने कहा, तुम मुझे पैसे दे जाओ तो मैं खुद ही रामपुर जा कर दवा ले आऊँगा। बेट ने बड़ी बेबसी से पचास का नोट निकाल कर दे दिया। दस रुपये सुबह किराए के लग गए और 40/-की दवा आ गई पूरा दिन भूखे रहने से दर्द और बढ़ गया।
‘‘दवा क्यों नहीं ली?’’
‘‘डाक्टर ने कहा था खाली पेट दवा मत लेना।’’
‘‘इतना बड़ा सेब और बादाम का बागीचा है तुम्हारा, तुम अपने पास कुछ भी नहीं रखते क्या सब बेटे बहू को दे देते हो?’’
‘‘बेटा-बहू रोज ही इस बात को लेकर झगड़ा करते थे, सोचा मुझे क्या करना है दो रोटी ही तो चाहिए मुझे, पर अब तो वह
भी इज़्ज़त से नहीं मिलती।’’ कालूराम ने ठण्डा साँस लिया।
‘‘हूँ....। डॉक्टर ने क्या कहा?’’
‘‘क्या कहेगा डाक्टर? आँतों में कुछ गड़बड़ बताई है। यह दवा तो बस दस दिन की है, छः महीने खानी पड़ेगी तब कहीं रोग ठीक हो सकता है, वह भी पक्का नहीं। शायद कुछ दिन और भी खानी पड़े।’’
‘‘बेटे को बताया?’’
‘‘हाँ! सुन कर चुप ही रहा।’’
‘‘अभी कुछ खाया या नहीं?’’
‘‘हाँ! खाई है एक रोटी छल्ली (मकई) की।’’
‘‘छल्ली की रोटी? पेटदर्द की हालत में? क्या दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा?’’ शमशेर सिंह को थोड़ा ताव आ गया ।
‘‘जो मिल जाए वही तो खाऊँगा भाई जी। बँधुआ मजदूर हूँ। चलूँ! खेत में न गया तो बहू नाराज़ हो जाएगी।’’ कालू उठ खड़ा हुआ, ‘‘नमस्ते भाई जी।’’
‘‘ठीक है दवा के लिए पैसे मुझ से ले जाना। आखिर मैं भी तो तुम्हारा बड़ा भाई ही हूँ। अरे हाँ! एक बात तो बताओ कालू भाई?’’ शमशेर को अचानक ही कुछ याद आ गया, क्या तुमने बाग उनके नाम कर दिया है सारे का सारा?’’
‘‘हाँ भाई जी! यही तो सबसे बड़ी गलती हुई, वरना मेरी यह दशा क्यों होती।’’
‘‘ठीक है जाओ थोड़ा आराम करना और यह लो कुछ रुपये रख लो दूध पी लेना।’’ उन्होंने जेब से सौ का नोट निकाला तो काल़ूराम ऐसे बिदक कर पीछे हटा जैसे साँप दिखाई दे गया हो।
‘‘ना भाई जी! मैं नहीं लूँगा, कहीं बहू चोरी लगा देगी तो? ’’ कालूराम घबरा कर तेज़ी से घर की ओर चल दिया, जैसे सौ का नोट उसके पीछे भाग रहा हो।
दूसरे दिन नम्बरदार शमशेर सिंह ने कालू राम के कुछ बुजुर्ग पड़ोसियों को पूछा तो स्थिति इससे भी गम्भीर पाई जितनी कालूराम ने बताई थी। एक समय के अच्छे सरमायादार और मान-सम्मान वाले दयालु व्यक्ति को आराम के स्थान पर अपमान और बुढ़ापे में श्रम करना ही नसीब बन गया है। यही नहीं बल्कि बीमारी की हालत में भी गाय के लिए घास लाना और गोशाला की सफ़ाई भी उसे ही करनी पड़ती है। कर्ल्क बेटा वैसे तो दफ़्तर में रहता है लेकिन रविवार को भी आँखें और कान बंद रखता है। बुड्ढे को अपने कपड़े-बरतन खुद साफ़ करने पड़ते हैं। वगैरह-वगैरह.....।
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दिन भर कुछ अपने निजी और कुछ ग्रामवासियों के कामों में व्यस्त रहे शमशेर सिंह, लेकिन दिमाग से कालूराम की समस्या यूँ चिपक गई थी जैसे फैवीकोल लगा हुआ हो।
रात के खाने के बाद वह अपने कमरे में आए तो उन्हें फिर इसी समस्या ने आ घेरा। शमशेर सिंह ने खिड़की खोल दी कि शायद हवा के झोंके ही कुछ सुझाव दे सकें। बाहर पूरे चाँद की रात अपनी आभा बिखेर रही थी। कोई और दिन होता तो शमशेर सिंह इस चाँदनी रात का भरपूर लुत्पफ़ उठाते लेकिन इस समय तो उन्हें हर तरफ घुटनों में मुँह छुपाए रोता-सिसकता अपना भाई कालू ही नज़र आ रहा था।
वह सोच रहे थे और बड़बड़ा भी रहे थे, ‘‘बड़ी बुरी बात है। बहुत ही बुरी बात....’’ शमशेर सिंह के दिमाग में बवंडर चल रहे थे, क्या किया जाए? पता नहीं बेचारे कालू भाई पर क्या बीत रही होगी। बुरी तरह डरा हुआ लग रहा था। यदि उन्हें पंचायत द्वारा खर्चा दिलाया जाए तो उसके लिए उसे दरख़ास्त तो देनी ही पड़ेगी और ऐसा करने से उसकी मुश्किलें और बढ़ जाएँगी। ज़माना कितना बदल गया है, बेचारे कालू ने किस मुसीबत से इस बाग को कामयाब किया था सारा गाँव जानता है पत्नी की मृत्यु के बाद अपने इकलौते बेटे को देखते हुए उसने अपनी खुशियाँ ताक पर रख दीं और दूसरी औरत नहीं लाया। अब वही इकलौती औलाद बूढ़े बाप की दुर्दशा का कारण बनी हुई है और बेटा चुपचाप तमाशा देखता रहता है। अचानक ही वे बड़बड़ाने लगे, ‘‘बेचारा कितना दीन लग रहा था रोते हुए।’’
‘‘कौन रो रहा था?’’ नम्बरदारनी ने शायद उन्हें बड़बड़ाते हुए सुन लिया था, ‘‘बहुत परेशान लग रहे हैं आप आज?’’
उत्तर में उन्होंने उसे पूरी घटना सुना दी, तब नम्बरदारनी ने भी जो कुछ सुनी-सुनाई बातें थी उन्हें बताते हुए कहा, ‘‘अरे अपने घर की सोचो। आप भी क्या ले बैठे।’’
‘‘क्या हुआ है अपने घर को?’’ उन्होंने गहरी नजर से पत्नी को देखा।
‘‘वही, शिमला की कोठी वाला मसला।’’
‘‘कल सोचेंगे, काफ़ी रात हो गई है। अभी तो सो जाओ।’’ कह कर उन्होंने बिस्तर सँभाल लिया ।
सोमेश की पत्नी अर्चना लोअर कोर्ट की वकील थी। विवाह को चार साल गुज़र गए पर वह एक बार भी गाँव नहीं आई थी। कभी-कभार नम्बरदार जी ही सपत्नीक शिमला जा कर सब से मिल आते लेकिन वे वहाँ दो-चार दिन में ही ऊब जाते और फिर अर्चना के व्यवहार में भी कोई ऐसी बात नहीं दिखाई देती थी कि उन लोगों का वहाँ रुकने को मन करे। हाँ कोठी की बात चलने के बाद अर्चना को गाँव देखने की सूझी, लेकिन उसी शाम को उसे याद आ गया कि उसकी तो कोर्ट की तारीखें हैं और तैयारी के नाम पर उसने झट ड्राइवर को गाड़ी निकालने को कह दिया, बस वह यह बात भूल गई कि उस के ससुर प्रसिद्ध समाजसेवी हैं और इन दिनों कोर्ट बंद हैं यह उन्हें भी पता है।
गाँव की ज़मीन के बारे में कहने को तो बेटे को उन्होंने सोच समझ कर जवाब देने को कह दिया था लेकिन आज-कल वह रोज ही फोन कर के माँ को पटाने में लगा हुआ था।
‘‘क्या हुआ? आपको नींद नहीं आ रही क्या?’’ उन्हें करवट बदलते देख पत्नी ने पूछा।
‘‘हूँ! तुम सो जाओ।’’
रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी। रह-रह कर उन्हें कालू की समस्या बेचैन कर रही थी। फिर जाने कब उन्हें नींद ने आ घेरा। सुबह जब वह उठे तो सिर भारी-भारी सा था। वैसे तो प्रातः भ्रमण की उनकी आदत ही थी परन्तु आज अनजाने ही उनके पग कालूराम के घर की तरफ़ उठ गए। कालूराम घर के बाहर बँधी गाय के खूँटे के पास फरुआ (फावड़ा) ले कर सफ़ाई कर रहा था बीच-बीच में रुक कर पेट पकड़ लेता और कराहने लगता फिर काम में लग जाता।
‘‘कालू भाई, क्या हाल है? कुछ हुआ आराम या नहीं?’’
‘‘ऐं! भाई जी!’’ कालू एकदम चौंका, ‘‘आप कब आए?’’
‘‘अब तक गोबर भी नहीं उठा क्या? इतना मक्कार आदमी मैंने तो नहीं देखा।’’ अन्दर से तीखी आवाज के साथ बहू भी बरामद हुई किन्तु बाहर नम्बरदार को देख कर झेंप मिटाने की गरज से उनके पाँव छूने को झुकी, ‘‘आप कब आए ताऊ जी?’’
‘‘मैं तो बड़ी देर से इसे पेट पकड़ कर कराहते हुए देख रहा हूँ, क्या बीमारी में भी गोबर उठाना इसी का काम है? ऐसा कठोर व्यवहार तो नौकरों के साथ भी नहीं किया जाता बहू।’’ शमशेर सिंह का चेहरा मारे घृणा के बिगड़ रहा था ।
‘‘मैंने तो मना किया था, ये मानते ही नहीं तो मैं क्या करूँ।’’ उसने खा जाने वाली नजरों से ससुर को देखा जो घुटनों में मुँह दिए पीड़ा को दबाने की कोशिश कर रहा था।
‘‘हाँ....हाँ....। वह तो मैं देख ही रहा हूँ।’’ फिर उन्होंने झुककर कालूराम का हाथ पकड़ कर उसे उठाते हुए कहा, ‘‘उठो कालू भाई! अन्दर जा कर वह दवा ले आओ जो कल बाजार से लाए थे।’’
‘‘मैं लाती हूँ’’ कह कर बहू लपकती हुई भीतर चली गई तो कालू ने बताया कि वह दवा तो बहू ने कल ही पिछवाड़े फेंक दी थी। वह तो दवा खा ही नहीं पाया। अभी वह कुछ और कहता कि इतनी देर में बहू दवा ले आई। शमशेर सिंह ने उसे तिरस्कार से देखते हुए कालूराम का बाजू पकडा़ और उसे खींचते हुए ही अपने घर का रास्ता नाप लिया।
कालू को घर ला कर नम्बरदार ने उसके हाथ-पैर धुलवाकर उसे अपने कपड़े पहनने को दिए। फिर पत्नी से कहकर उसे दूध का गिलास पीने को दिया और दवा दे कर सुला दिया। पत्नी को हिदायत दी कि उसे घर न जाने दिया जाए। दोपहर को नरम खिचड़ी खिलाने के बाद उसे फिर से सुला दिया गया। शाम होते-होते कालू राम को काफी हद तक आराम हुआ। शाम को कालूराम का बेटा उसे लेने पहुँचा तो उन्होंने कह दिया कि ‘‘जब तक वह ठीक नहीं होता हम उसे नहीं भेजेंगे, तुम्हारा बाप है तो मेरा भी भाई है।’’
दो ही दिन बाद नम्बरदार शमशेर सिंह को किसी काम से कुल्लू जाना पड़ गया। जाते-जाते अपनी पत्नी और कालूराम दोनों को ताकीद कर दी कि उनके लौटने तक वह यहीं रहेगा, घर हरगिज़ नहीं जाएगा। कालू के बेटे को ताऊ के आदेश का पालन करना ही था, वहाँ उसकी चलने वाली नहीं थी सो चुप रहना ही बेहतर समझा।
धीरे-धीरे कालूराम की दशा सुधरती गई। भाई जी के आदेश की अवहेलना करना उसके बस का नहीं था और इच्छा भी नहीं थी। फिर ठीक होते ही वह घर के छोटे-छोटे काम निपटाने लगा तो नम्बरदारनी को भी उसका रहना सुखद लगने लगा। इस बीच भूल कर भी कालूराम ने अपने घर की ओर कदम नहीं रखा ।
शमशेर सिंह एक सप्ताह बाद लौट कर आए तो उसे बैलों को नहलाते देख कर बोले, ‘‘क्यों! रहा नहीं गया काम किए बिना?’’
‘‘अब तो बिल्कुल ठीक हूँ भाई जी!’’ उसने झुक कर शमशेर सिंह के पाँव छुए तो शमशेर सिंह हँसते हुए बोले, ‘‘क्या सलाह है, घर जाना चाहते हो क्या?’’
कालूराम का चेहरा उतर गया तो वह फिर हँस पड़े, ‘‘अच्छा, ठीक है....ठीक है। जाकर अपना काम करो, इस बारे में फिर किसी समय सोचेंगे।’’ कहकर वह भीतर चले गए। पत्नी से सलाह की तो वह कालू को वहीं रखने पर सहमत दिखाई दी, क्योंकि इससे उसे भी एक सहायक मिल जाता।
‘‘आज फिर वकील साहब का फ़ोन आया था।’’ रात को पत्नी ने कहा, ‘‘आपने कुछ सोचा है?’’ बेटा जब से वकालत करने लगा था, वह बेटे को वकील साहब कहने लगी थी।
‘‘सोचा है, खूब सोचा है। पिछले आठ-दस दिन से सोच ही तो रहा हूँ। दिन-रात सोच रहा हूँ।
‘‘फिर क्या फ़ैसला किया है?’’
‘‘फैसला? तो सुनो, मैंने यह फैसला किया है कि..... हम अपनी जमीन नहीं बेचेंगे।’’ नम्बरदार ने एक झटके में अपनी बात पूरी करके करवट बदल ली।
‘‘ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?’’
‘‘हम कहीं नहीं जाएँगे तो नहीं जाएँगे, बस।’’
‘‘पर यहाँ भी तो बच्चों के बिना बड़ा सूना लगता है।’’
‘‘तो चली जाओ न उनके पास और जाकर उन्हें मेरा फैसला भी सुना देना। फिर देखना कितना प्यार उड़ेलते हैं तुम पर। न एक ही दिन में लौट आईं तो मेरा नाम बदल देना।’’ तनिक रुकते हुए उन्होंने फिर कहा, ‘‘अरे पगली! क्या तुम भी बँधुआ मजदूर बनना चाहती हो और मुझे भी बनाना चाहती हो?’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘देख नहीं रही हो काल़ू का हाल?’’ उन्होंने प्रति प्रश्न किया।
‘‘हमारे बच्चे ऐसे नहीं हैं।’’
‘‘लेकिन मैं यह आजमाने के लिए ज़मीन नहीं बेचूँगा। चाहे जो हो जाए। मैं वसीयत लिख कर ही आया हूँ। और सुनो! ज़मीन तुम भी नहीं बेच सकोगी। हमारे बाद वह चाहे जो करें। नहीं बनना हमें बँधुआ मजदूर। यह मेरा फैसला है, आखिरी फैसला।’’ कहने के साथ ही वह उठ कर बाहर निकल गए।
।। कथा कहानी ।।
सामग्री : इस अंक में सु-श्री आशा शैली की कहानी 'बंधुआ मज़दूर'।
आशा शैली
बन्धुआ मजदूर
रामपुर बुशहर पहुँचते-पहुँचते गर्मी बढ़ने लगी थी, नम्बरदार शमशेर सिंह ने स्वेटर शरीर से अलग कर हाथ में ले लिया था। शिमला से ही जो बारिश की झड़ी लगी है तो किंगल आ कर ही समाप्त हुई। यदि यह हल्की सी स्वेटर भी साथ न रखी होती तो नारकंडा तक पहुँचते-पहुँचते तो दाँत बजने लगते, लेकिन रामपुर बस अड्डे पर उतरते ही नम्बरदार को गर्मी की भीषणता सताने लगी। जब से सोमेश की वकालत चमकी है उन्हें एक प्रकार का सुकून सा मिला था, चलो इकलौते पुत्र की रोजगार की चिंता तो दूर हुई। किन्तु उस दिन वह सोमेश का फोन आने के बाद परेशान हो गए थे, उसने उन्हें तुरन्त ही शिमला बुलाया था। उन्होंने सोचा, ऐसी क्या बात हो गई कि उन्हें उसने तुरन्त ही शिमला बुला लिया, वह भी बिना कोई कारण बताए? घबराना तो स्वाभविक ही था, आखिर सोमेश उनका इकलौता पुत्र जो था।
शिमला पहुँच कर पता चला कि उसे एक बिकाऊ कोठी मिल रही थी जिसे देखने के लिए पिता का आना जरूरी था। आखिर तीस लाख रुपया तो उन्हीं से मिलता। शमशेर सिंह इसी उधेड़-बुन में चार दिनों से पड़े हुए थे कि बेटे को तीस लाख रुपया आखिर कहाँ से देंगे? क्योंकि इधर-उधर से झाड़-समेट कर भी वे तीन लाख से अधिक नहीं दे सकते थे। पिता का उत्तर सुन कर सोमेश ने झट से सुझाव दे दिया था कि ‘वह गाँव की जमीन और मकान बेच कर शिमला आ जाएँ, आखिर इतनी बड़ी कोठी होगी तो उन्हें क्या परेशानी रहेगी?’
शमशेर सिंह इसी गाँव में जन्मे-पले थे। अब बुढ़ापे की ओर कदम रखते हुए उन्हें गाँव छोड़ना कत्तई पसन्द न था। गाँव में मिलने वाले मान-सम्मान के मुकाबले उन्हें शहर का जीवन उबाऊ और नीरस लगता था, आखिर कौन जानता है उन्हें इतने बड़े शहर में? फिर भी उन्होंने बेटे के प्रस्ताव पर विचार करने का आश्वासन अवश्य ही दिया था। आखिर उनका भी तो बेटे के बिना कोई आसरा न था। इकलौते बेटे को नाराज़ भी कैसे करते?
रामपुर बस के अड्डे पर रोज की तरह ही काफ़ी भीड़ थी और बस मिलने में अभी देर भी थी। बाजार में
छाया चित्र : रामेश्वर काम्बोज हिमांशु |
‘‘क्या हो रहा है उधर ?’’ उन्होंने जमाव की ओर इशारा करके एक जानकार से पूछा।
‘‘काल़ू रो रहा है भाई जी।’’ गाँव में सब लोग उन्हें भाई जी ही कहते थे।
‘‘काल़ू रो रहा है? हमारा काल़ू?’’
‘‘हाँ भाई जी।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘पता नहीं, कुछ बोलता नहीं बस रोए जा रहा है।’’
अब शमशेर सिंह से बैठा नहीं रहा गया, अब इतना बड़ा मर्द भरे बाजार में रोने लगेगा तो भीड़ तो लगेगी ही। वह भीड़ को चीरते उस बेंच तक जा पहुँचे जहाँ बैठा काल़ू दोनों हाथों में मुँह छुपाए धीरे-धीरे सुबक रहा था।
‘‘काल़ू राम! क्या हुआ भाई?’’ शमशेर सिंह ने उसकी पीठ पर हाथ रखा तो वह अपने ही घुटनों पर दुहरा हो गया और हिचकियाँ लेकर सुबकने लगा।
‘‘क्या तमाशा लगा रखा है आप लोगों ने? जाओ अपना-अपना काम करो भाई।’’ शमशेर सिंह भीड़ की तरफ़ मुड़े ‘‘यह हमारे गाँव का मामला है हम निबट लेंगे। आप लोग जाइए।’’ फिर उन्होंने काल़ूराम की बाजू पकड़ी और उसे पानी के नल तक ले गए। शमशेर सिंह को समाजसेवा के लिए दूर-दूर तक जाना जाता था, अतः भीड़ छंटने लगी। उन्होंने काल़ूराम को हाथ-मुँह ध्ुलवा कर पानी पिलाया और अपने साथ ले कर उस कोने की तरफ आए जहाँ कुछ एकांत था।
‘‘हाँ! अब बताओ। घर में सब कुशल तो है न?’’ काल़ूराम ने उत्तर में केवल सिर हिला कर हाँ की।
‘‘तब भाई मेरे! इस तरह रोने का कारण, वह भी इस बस के अड्डे पर? मर्द को क्या इस तरह रोना शोभा देता है? उत्तर में उसकी आँखों में फिर आँसू भर आए।
‘‘न...न...! इस तरह नहीं! जब तक कुछ बोलोगे नहीं तो मामला कैसे सुलझेगा?’’
‘‘किराए को पैसे नहीं हैं।’’ काल़ू ने सर झुकाए ही मरी हुई आवाज में कहा।
‘‘बस्स! इतनी सी बात के लिए इतना बड़ा मर्द रो पड़ा, यह लो।’’ शमशेर सिंह ने जेब से दस-दस के पाँच नोट निकाल कर उसकी हथेली में जबरदस्ती ठँूस दिये, किन्तु काल़ू ने एक नोट ले कर बाकी लौटाते हुए इतनी धीरे से कहा कि कोई और न सुन सके,
‘‘लौटाऊँगा कहाँ से’’ तो शमशेर को लगा कि मामला कुछ गम्भीर है। वैसे भी उसने काल़ू को सदा हँसते-मुस्कराते ही देखा था। अतः बोला ‘‘कोई जरूरत नहीं’’ फिर कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘क्या तुम कल मेरे घर आ सकते हो सुबह?’’ शमशेर सिंह को सार्वजनिक स्थान पर घर गाँव की बात करना उचित नहीं लगा था।
‘‘आ जाऊँगा, भाई जी! चलो बस लग गई है।’’
शमशेर सिंह चौहान इलाके के नम्बरदार भी थे और समाजसेवी भी। उम्र बीत चली थी इलाके के सुख-दुख समझते हुए। घर पहुँच कर भी वह यही सोचते रहे थे कि, कालूराम की जेब में दस रुपये भी न होना बड़ी अजीब सी बात थी जबकि वह अच्छी-खासी जमीन का मालिक था जो उसने जवानी के दिनों में अपनी कमाई से ही खरीदी थी और उसमें अपनी मेहनत से सेब और बादाम का बाग़ लगाया था, जो लाखों रुपयों की वार्षिक आय देता था। दोनांे हाथ से दान देना और सब की मदद करना उसके शग़ल थे। आज वही कालूराम चौहान दस रुपये के लिए बस अड्डे पर बैठा फूट-फूट कर रो रहा था। फिर प्रश्न जगा ‘आया ही क्यों बिना पैसे के, या शायद जेब कट गई हो। चलो कल आएगा ही, तब पता चल जाएगा कि बात क्या है। शमशेर सिंह की सारी रात इसी उध्ेड़-बुन में कट गई।
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नम्बरदार शमशेर सिंह जब नाश्ता करके घर से बाहर निकले तो कालूराम को बैठे पाया। ‘‘नमस्ते भाई
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
‘‘हाँ तो भाई! अब बताओ क्या बात है?’’
‘‘.....’’
‘‘काल़ूराम! मसला तो कुछ गम्भीर ही लगता है लेकिन तुम कुछ बताओ तो उसका हल ढूँढ़ा जाए।’’
तब धीरे-धीरे कालूराम ने जो अपनी व्यथा-कथा सुनाई, ‘‘बहुत दिनों से पेट में दर्द चल रहा था भाई जी, दवा के लिए बेटे से रोज ही कह देता था। बेटा, बहू से कह कर दफ़्तर चला जाता। बहू बहाना बना कर इधर-उधर हो जाती। कल बेटे को घेर कर मैंने कहा, तुम मुझे पैसे दे जाओ तो मैं खुद ही रामपुर जा कर दवा ले आऊँगा। बेट ने बड़ी बेबसी से पचास का नोट निकाल कर दे दिया। दस रुपये सुबह किराए के लग गए और 40/-की दवा आ गई पूरा दिन भूखे रहने से दर्द और बढ़ गया।
‘‘दवा क्यों नहीं ली?’’
‘‘डाक्टर ने कहा था खाली पेट दवा मत लेना।’’
‘‘इतना बड़ा सेब और बादाम का बागीचा है तुम्हारा, तुम अपने पास कुछ भी नहीं रखते क्या सब बेटे बहू को दे देते हो?’’
‘‘बेटा-बहू रोज ही इस बात को लेकर झगड़ा करते थे, सोचा मुझे क्या करना है दो रोटी ही तो चाहिए मुझे, पर अब तो वह
भी इज़्ज़त से नहीं मिलती।’’ कालूराम ने ठण्डा साँस लिया।
‘‘हूँ....। डॉक्टर ने क्या कहा?’’
‘‘क्या कहेगा डाक्टर? आँतों में कुछ गड़बड़ बताई है। यह दवा तो बस दस दिन की है, छः महीने खानी पड़ेगी तब कहीं रोग ठीक हो सकता है, वह भी पक्का नहीं। शायद कुछ दिन और भी खानी पड़े।’’
‘‘बेटे को बताया?’’
‘‘हाँ! सुन कर चुप ही रहा।’’
‘‘अभी कुछ खाया या नहीं?’’
‘‘हाँ! खाई है एक रोटी छल्ली (मकई) की।’’
‘‘छल्ली की रोटी? पेटदर्द की हालत में? क्या दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा?’’ शमशेर सिंह को थोड़ा ताव आ गया ।
‘‘जो मिल जाए वही तो खाऊँगा भाई जी। बँधुआ मजदूर हूँ। चलूँ! खेत में न गया तो बहू नाराज़ हो जाएगी।’’ कालू उठ खड़ा हुआ, ‘‘नमस्ते भाई जी।’’
‘‘ठीक है दवा के लिए पैसे मुझ से ले जाना। आखिर मैं भी तो तुम्हारा बड़ा भाई ही हूँ। अरे हाँ! एक बात तो बताओ कालू भाई?’’ शमशेर को अचानक ही कुछ याद आ गया, क्या तुमने बाग उनके नाम कर दिया है सारे का सारा?’’
‘‘हाँ भाई जी! यही तो सबसे बड़ी गलती हुई, वरना मेरी यह दशा क्यों होती।’’
‘‘ठीक है जाओ थोड़ा आराम करना और यह लो कुछ रुपये रख लो दूध पी लेना।’’ उन्होंने जेब से सौ का नोट निकाला तो काल़ूराम ऐसे बिदक कर पीछे हटा जैसे साँप दिखाई दे गया हो।
‘‘ना भाई जी! मैं नहीं लूँगा, कहीं बहू चोरी लगा देगी तो? ’’ कालूराम घबरा कर तेज़ी से घर की ओर चल दिया, जैसे सौ का नोट उसके पीछे भाग रहा हो।
छाया चित्र : रामेश्वर काम्बोज हिमांशु |
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दिन भर कुछ अपने निजी और कुछ ग्रामवासियों के कामों में व्यस्त रहे शमशेर सिंह, लेकिन दिमाग से कालूराम की समस्या यूँ चिपक गई थी जैसे फैवीकोल लगा हुआ हो।
रात के खाने के बाद वह अपने कमरे में आए तो उन्हें फिर इसी समस्या ने आ घेरा। शमशेर सिंह ने खिड़की खोल दी कि शायद हवा के झोंके ही कुछ सुझाव दे सकें। बाहर पूरे चाँद की रात अपनी आभा बिखेर रही थी। कोई और दिन होता तो शमशेर सिंह इस चाँदनी रात का भरपूर लुत्पफ़ उठाते लेकिन इस समय तो उन्हें हर तरफ घुटनों में मुँह छुपाए रोता-सिसकता अपना भाई कालू ही नज़र आ रहा था।
वह सोच रहे थे और बड़बड़ा भी रहे थे, ‘‘बड़ी बुरी बात है। बहुत ही बुरी बात....’’ शमशेर सिंह के दिमाग में बवंडर चल रहे थे, क्या किया जाए? पता नहीं बेचारे कालू भाई पर क्या बीत रही होगी। बुरी तरह डरा हुआ लग रहा था। यदि उन्हें पंचायत द्वारा खर्चा दिलाया जाए तो उसके लिए उसे दरख़ास्त तो देनी ही पड़ेगी और ऐसा करने से उसकी मुश्किलें और बढ़ जाएँगी। ज़माना कितना बदल गया है, बेचारे कालू ने किस मुसीबत से इस बाग को कामयाब किया था सारा गाँव जानता है पत्नी की मृत्यु के बाद अपने इकलौते बेटे को देखते हुए उसने अपनी खुशियाँ ताक पर रख दीं और दूसरी औरत नहीं लाया। अब वही इकलौती औलाद बूढ़े बाप की दुर्दशा का कारण बनी हुई है और बेटा चुपचाप तमाशा देखता रहता है। अचानक ही वे बड़बड़ाने लगे, ‘‘बेचारा कितना दीन लग रहा था रोते हुए।’’
‘‘कौन रो रहा था?’’ नम्बरदारनी ने शायद उन्हें बड़बड़ाते हुए सुन लिया था, ‘‘बहुत परेशान लग रहे हैं आप आज?’’
उत्तर में उन्होंने उसे पूरी घटना सुना दी, तब नम्बरदारनी ने भी जो कुछ सुनी-सुनाई बातें थी उन्हें बताते हुए कहा, ‘‘अरे अपने घर की सोचो। आप भी क्या ले बैठे।’’
‘‘क्या हुआ है अपने घर को?’’ उन्होंने गहरी नजर से पत्नी को देखा।
‘‘वही, शिमला की कोठी वाला मसला।’’
‘‘कल सोचेंगे, काफ़ी रात हो गई है। अभी तो सो जाओ।’’ कह कर उन्होंने बिस्तर सँभाल लिया ।
सोमेश की पत्नी अर्चना लोअर कोर्ट की वकील थी। विवाह को चार साल गुज़र गए पर वह एक बार भी गाँव नहीं आई थी। कभी-कभार नम्बरदार जी ही सपत्नीक शिमला जा कर सब से मिल आते लेकिन वे वहाँ दो-चार दिन में ही ऊब जाते और फिर अर्चना के व्यवहार में भी कोई ऐसी बात नहीं दिखाई देती थी कि उन लोगों का वहाँ रुकने को मन करे। हाँ कोठी की बात चलने के बाद अर्चना को गाँव देखने की सूझी, लेकिन उसी शाम को उसे याद आ गया कि उसकी तो कोर्ट की तारीखें हैं और तैयारी के नाम पर उसने झट ड्राइवर को गाड़ी निकालने को कह दिया, बस वह यह बात भूल गई कि उस के ससुर प्रसिद्ध समाजसेवी हैं और इन दिनों कोर्ट बंद हैं यह उन्हें भी पता है।
गाँव की ज़मीन के बारे में कहने को तो बेटे को उन्होंने सोच समझ कर जवाब देने को कह दिया था लेकिन आज-कल वह रोज ही फोन कर के माँ को पटाने में लगा हुआ था।
‘‘क्या हुआ? आपको नींद नहीं आ रही क्या?’’ उन्हें करवट बदलते देख पत्नी ने पूछा।
‘‘हूँ! तुम सो जाओ।’’
रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी। रह-रह कर उन्हें कालू की समस्या बेचैन कर रही थी। फिर जाने कब उन्हें नींद ने आ घेरा। सुबह जब वह उठे तो सिर भारी-भारी सा था। वैसे तो प्रातः भ्रमण की उनकी आदत ही थी परन्तु आज अनजाने ही उनके पग कालूराम के घर की तरफ़ उठ गए। कालूराम घर के बाहर बँधी गाय के खूँटे के पास फरुआ (फावड़ा) ले कर सफ़ाई कर रहा था बीच-बीच में रुक कर पेट पकड़ लेता और कराहने लगता फिर काम में लग जाता।
‘‘कालू भाई, क्या हाल है? कुछ हुआ आराम या नहीं?’’
‘‘ऐं! भाई जी!’’ कालू एकदम चौंका, ‘‘आप कब आए?’’
‘‘अब तक गोबर भी नहीं उठा क्या? इतना मक्कार आदमी मैंने तो नहीं देखा।’’ अन्दर से तीखी आवाज के साथ बहू भी बरामद हुई किन्तु बाहर नम्बरदार को देख कर झेंप मिटाने की गरज से उनके पाँव छूने को झुकी, ‘‘आप कब आए ताऊ जी?’’
‘‘मैं तो बड़ी देर से इसे पेट पकड़ कर कराहते हुए देख रहा हूँ, क्या बीमारी में भी गोबर उठाना इसी का काम है? ऐसा कठोर व्यवहार तो नौकरों के साथ भी नहीं किया जाता बहू।’’ शमशेर सिंह का चेहरा मारे घृणा के बिगड़ रहा था ।
‘‘मैंने तो मना किया था, ये मानते ही नहीं तो मैं क्या करूँ।’’ उसने खा जाने वाली नजरों से ससुर को देखा जो घुटनों में मुँह दिए पीड़ा को दबाने की कोशिश कर रहा था।
‘‘हाँ....हाँ....। वह तो मैं देख ही रहा हूँ।’’ फिर उन्होंने झुककर कालूराम का हाथ पकड़ कर उसे उठाते हुए कहा, ‘‘उठो कालू भाई! अन्दर जा कर वह दवा ले आओ जो कल बाजार से लाए थे।’’
‘‘मैं लाती हूँ’’ कह कर बहू लपकती हुई भीतर चली गई तो कालू ने बताया कि वह दवा तो बहू ने कल ही पिछवाड़े फेंक दी थी। वह तो दवा खा ही नहीं पाया। अभी वह कुछ और कहता कि इतनी देर में बहू दवा ले आई। शमशेर सिंह ने उसे तिरस्कार से देखते हुए कालूराम का बाजू पकडा़ और उसे खींचते हुए ही अपने घर का रास्ता नाप लिया।
कालू को घर ला कर नम्बरदार ने उसके हाथ-पैर धुलवाकर उसे अपने कपड़े पहनने को दिए। फिर पत्नी से कहकर उसे दूध का गिलास पीने को दिया और दवा दे कर सुला दिया। पत्नी को हिदायत दी कि उसे घर न जाने दिया जाए। दोपहर को नरम खिचड़ी खिलाने के बाद उसे फिर से सुला दिया गया। शाम होते-होते कालू राम को काफी हद तक आराम हुआ। शाम को कालूराम का बेटा उसे लेने पहुँचा तो उन्होंने कह दिया कि ‘‘जब तक वह ठीक नहीं होता हम उसे नहीं भेजेंगे, तुम्हारा बाप है तो मेरा भी भाई है।’’
दो ही दिन बाद नम्बरदार शमशेर सिंह को किसी काम से कुल्लू जाना पड़ गया। जाते-जाते अपनी पत्नी और कालूराम दोनों को ताकीद कर दी कि उनके लौटने तक वह यहीं रहेगा, घर हरगिज़ नहीं जाएगा। कालू के बेटे को ताऊ के आदेश का पालन करना ही था, वहाँ उसकी चलने वाली नहीं थी सो चुप रहना ही बेहतर समझा।
धीरे-धीरे कालूराम की दशा सुधरती गई। भाई जी के आदेश की अवहेलना करना उसके बस का नहीं था और इच्छा भी नहीं थी। फिर ठीक होते ही वह घर के छोटे-छोटे काम निपटाने लगा तो नम्बरदारनी को भी उसका रहना सुखद लगने लगा। इस बीच भूल कर भी कालूराम ने अपने घर की ओर कदम नहीं रखा ।
शमशेर सिंह एक सप्ताह बाद लौट कर आए तो उसे बैलों को नहलाते देख कर बोले, ‘‘क्यों! रहा नहीं गया काम किए बिना?’’
‘‘अब तो बिल्कुल ठीक हूँ भाई जी!’’ उसने झुक कर शमशेर सिंह के पाँव छुए तो शमशेर सिंह हँसते हुए बोले, ‘‘क्या सलाह है, घर जाना चाहते हो क्या?’’
कालूराम का चेहरा उतर गया तो वह फिर हँस पड़े, ‘‘अच्छा, ठीक है....ठीक है। जाकर अपना काम करो, इस बारे में फिर किसी समय सोचेंगे।’’ कहकर वह भीतर चले गए। पत्नी से सलाह की तो वह कालू को वहीं रखने पर सहमत दिखाई दी, क्योंकि इससे उसे भी एक सहायक मिल जाता।
‘‘आज फिर वकील साहब का फ़ोन आया था।’’ रात को पत्नी ने कहा, ‘‘आपने कुछ सोचा है?’’ बेटा जब से वकालत करने लगा था, वह बेटे को वकील साहब कहने लगी थी।
‘‘सोचा है, खूब सोचा है। पिछले आठ-दस दिन से सोच ही तो रहा हूँ। दिन-रात सोच रहा हूँ।
‘‘फिर क्या फ़ैसला किया है?’’
‘‘फैसला? तो सुनो, मैंने यह फैसला किया है कि..... हम अपनी जमीन नहीं बेचेंगे।’’ नम्बरदार ने एक झटके में अपनी बात पूरी करके करवट बदल ली।
‘‘ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?’’
‘‘हम कहीं नहीं जाएँगे तो नहीं जाएँगे, बस।’’
‘‘पर यहाँ भी तो बच्चों के बिना बड़ा सूना लगता है।’’
छाया चित्र : अभिशक्ति |
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘देख नहीं रही हो काल़ू का हाल?’’ उन्होंने प्रति प्रश्न किया।
‘‘हमारे बच्चे ऐसे नहीं हैं।’’
‘‘लेकिन मैं यह आजमाने के लिए ज़मीन नहीं बेचूँगा। चाहे जो हो जाए। मैं वसीयत लिख कर ही आया हूँ। और सुनो! ज़मीन तुम भी नहीं बेच सकोगी। हमारे बाद वह चाहे जो करें। नहीं बनना हमें बँधुआ मजदूर। यह मेरा फैसला है, आखिरी फैसला।’’ कहने के साथ ही वह उठ कर बाहर निकल गए।
- कार रोड, पो. लालकुआँ, जिला नैनीताल-262402 // मोबा. : 09456717150 एवं 08958110859
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