।।सामग्री।।
कथा प्रवाह : सूर्यकांत नागर , बलराम अग्रवाल, पारस दासोत, डॉ. राम निवास 'मानव', डॉ. तारिक असलम 'तसनीम', डॉ. पूरण सिंह, अशोक जैन पोरवाल, जोगेश्वरी सधीर, उमेश मोहन धवन एवं संतोष सुपेकर की लघुकथाएं।
।।कथा प्रवाह।।
सूर्यकान्त नागर
पड़ोसन पुष्पा ने श्यामा चाची को ढेर सारी रोटियाँ बनाते देखा तो दंग रह गई। सब्जी से भी बढ़िया महक आ रही थी। अकेली जान, अचानक क्या हो गया चाची को! बूढ़ी-बीमार अपना तो कुछ होता नहीं, देसरों की करन चली। बेटे ने अलग कर दिया। नीचे गैरेजनुमा कमरे में अकेली रहती है। शुरू में कुछ दिन खाना ऊपर से ही आता रहा, लेकिन जब देखा कि कई बार बचा-खुचा बासी होता तो खुद ने बनाना शुरू कर दिया। जैसे-तैसे अपने लिए दो रोटियाँ सेंक लेती हैं। पुष्पा चकित इसलिए भी है कि चाची के झुलसे चेहरे पर थकान का कोई चिन्ह नहीं है, उलटे सुकून की एक रेखा खिंची हुई है।
‘क्या कोई मेहमान आने वाला है?’ पुष्पा ने पूछा।
‘अरे, मेरे यहाँ कौन आता है?’
‘बच्चों के लिए।’
‘बच्चों के लिए? बच्चे, जिनके बड़े तुमसे सीधे मुँह बात नहीं करते!’
‘आज ऊपर गैस की टंकी खत्म हो गई थी। अभी तक उसका ठिकाना नहीं पड़ा है। सुबह कुछ भी नहीं पका। बच्चे ब्रेड आदि खाकर स्कूल गए हैं और शायद बेटा-बहू भी बिना कुछ खाए काम पर निकल गए। शाम को बेटा और बहू नौकरी से थके-हारे और बच्चे भूखे लौटेंगे तो कैसे-क्या होगा! एक बार बेटे-बहू को तो भूखा रख दूँ, पर तीनों बच्चों को भूखा कैसे रहने दूँ?’
‘तानों बच्चों को?’ चकित हो पुष्पा ने पूछा।
‘हाँ, तीनों को। दो जो स्कूल से लौअने वाले हैं और तीसरा वह जिसे बहू जल्दी ही जन्म देने वाली है!’
- ज्ञानोदय, 81, बैराठी कॉलोनी क्र. 2, इन्दौर-452014(म.प्र.)
बलराम अग्रवाल
वरिष्ठ लघुकथाकार आद. बलराम अग्रवाल जी का बहुचर्चित लघुकथा संग्रह ‘सरसों के फूल‘ 1994 में प्रकाशित हुआ था और उसमें संग्रहीत काफी सारी लघुकथाएं पत्र-पत्रिकाओं द्वारा लगातार पुर्नप्रकाशित भी की जाती रहीं हैं और समीक्षकों-समालोचको/विद्वानों के द्वारा संदर्भ के रूप में भी याद की जाती रही हैं। इसी संग्रह से हम एक ऐसी लघुकथा प्रस्तुत कर रहे हैं जो संवेदना के स्तर पर पाठक-मन को झकझोर रख देती है।
हिन्द फौज का सूरमा
सिर पर एक टोपीनुमा गूदड़ टिकाए बाजार के बीचों-बीच बैठा नंग-धड़ंग बूढ़ा अचानक चीख-पुकार कर उठता और तेजी से सामने की ओर भागने लगता। औरतें और समझदार लड़कियां उस पर नजर पड़ते ही शर्म से सिर झुका लेतीं और सहमकर एक ओर को बच जातीं। छोटे बच्चों के लिए नंगा बदन कुतूहल की चीज होता तो उच्छृंखल किशोरों और नौजवानों के लिए उसका एकाएक चिल्लाकर दौड़ पड़ना।
‘‘ठंड के मारे पसली-पसली कीर्तन कर रही है बन्दे की।’’ एक बुजुर्ग दुकानदार सौदा खरीदते अपने ग्राहक से बोला- ‘‘लेकिन क्या मजाल कि एक बनियान भी बदन पर टिकने दे। दो पुराने कोट तो मैं दे चुका इसे.... पता नहीं कहां फेंक आया।’’
‘‘अस्पताल के सामणै.... और कहां।’’ ग्रामीण ग्राहक बोला, ‘‘रोग ही बस या है इसणै।’’
दुकानदार ने गहरी-सी एक नजर ग्रामीण पर डाली और पूछा, ‘‘आप जानते हैं इसे?’’
‘‘बहौत अच्छी तरियां।’’ वह बोला- ‘‘लम्बी-चौड़ी जैदाद तो एक तरफ, देश की खातिर पेट वाली घराणी और बूढ़े मां-बाप तक की फिकर नहीं की इसणै.... नेताजी सुभाष की हिन्द-फौज में भरती हो गया सब आराम छोड़कै...।’’
‘‘खड़े क्यों हैं?’’ ग्राहक के मुंह से उसकी दरस्तान सुनने को उत्सुक दुकानदार बोला, ‘‘बैठ जाइये न।’’
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
‘‘ओ....ऽ...।’’ बुजुर्ग ने सांस छोड़ी‘ ‘‘तभी तो।’’
‘‘नहीं जी, हिन्द फौज का सूरमा था...।’’ ग्रामीण ने प्रतिकार किया- ‘‘घराणी और मां-बाप की मौत से भला क्या हिलता।’’
‘‘तब?‘‘ दुकानदार ने सवाल किया। पूरी बात सुनने से पहले ही बेमौके अफसोस जाहिर कर देने की अपनी हरकत पर थोड़ा शर्मिन्दा भी हुआ।
‘‘दुःख की बात तो या है सेठ, अक पिछले दिणां अपणा इकलौता बेटा इसणै अस्पताल में दाखिल कराणा पड़ गया।’’ दुकानदार के नौकर द्वारा बांध दिये गए सौदे को अपनी ओर खिसकाकर ग्रामीण ने बिल पर नजर डाली और सौ रुपये का नोट दुकानदार की ओर बढ़ाकर बोला- ‘‘डाग्दरां और नरसां णै के मतलब कि मरीज कोण है.... औरां की तरियां या के बेटे का इलाज भी लापरवाही सै हुआ और छोटी-सी बीमारी लाइलाज हो गयी।’’
‘‘फिर?‘‘ सौ के नोट में से बाकी बचे पैसे उसे लौटाकर दुकानदार ने पूछा।
‘‘फिर एक दिण अस्पताल के डाग्दरां णै अपणै दफ्तर में बुलाकै या खूब फटकारा।’’ ग्रामीण ने बताया- ‘‘बोले कि तैणै म्हारी रिपोट मुखमन्त्री को क्यों की?....कि तू हिन्द फौज का सूरमा है तो जा मुखमन्त्री से ही करा लै इलाज.... अपनी कमी की तरफ तो देखा ही नहीं उण बदमाश डाग्दरां णै।’’
‘‘फिर?‘‘
‘‘फिर के सेठ?’’ बहुत दुखी मन से वह बोला- ‘‘एक रात या का बेटा लम्बी-लम्बी सांसे लैण लगा.... दो बजे थे.... याणै घबराकै.....यहां-वहां देखा- ना कोई नरस ना डाग्दर.... लड़का और लम्बी सांसें लैण लगा...... वहां सै उठकर या डाग्दरां णै, नरसां णै पुकारता हुआ अस्पताल भर की गैलरियां में दौड़ गया। कहीं कोई न मिला.....वापस आया तो बेटा.... बस, तभी सै या आपा खो बैठा....सिर पै हिन्द फौज की टोपी के अलावा शरीर के सारे कपड़े फाड़ डाले.....और चिल्लाता हुआ रात भर अस्पताल की गैलरी मा चकराता रहा।’’
‘‘कोई है!.....ऽ...अरे कोई है....ऽ....’’ अचानक बूढ़ा जोर से चिल्लाया और अपने स्थान से उठकर सामने की ओर भाग लिया। बुजुर्ग दुकानदार नम आँखों से ओझल होती उसकी पीठ को देखता रहा और ग्रामीण ग्राहक सामान का थैला कन्धे पर लादकर आगे बढ़ गया।
- 70, उल्धनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली
पारस दासोत
अपने शयनकक्ष से प्रस्थान करने के बाद,.....
सरकार, जब अपने सभाकक्ष में शोभित सिंहासन पर विराजमान होने पहुँची, अपने सिंहासन के एक हत्थे पर टँगी टोपी को गुस्से से उछालती हुई चिल्लाई-
‘‘ये,....ये गाँधी टोपी यहाँ पर, फिर किस मूर्ख ने रखने का दुस्साहस किया है!‘‘
तिहाड़ जेल के बाहर, ‘भारत माता’ की जय-जयकार हो रही थी।
रेखांकन : हिना |
‘बन्दे मातरम्’ की गूँज सुनकर, सरकार ने, फर्श पर पड़ी टोपी को अनमने मन से अपनी तलवार की नोक पर उठाया और वह सिंहासन पर जा विराजी।
चारों ओर ‘इन्कलाब’ का नारा, आकाश-पाताल एक कर रहा था। ‘इन्कलाब’ का नारा, चारों ओर सुनकर, सरकार ने, जब टोपी पर लिखी इबारत को दोबारा पढ़ने हेतु उसे, अपने हाथों में थामा, चारों ओर ‘अन्ना हजारे....जिन्दाबाद!’ का नारा, एक नया इतिहास रच रहा था।
- प्लॉट नं.129, गली नं.9 (बी), मोतीनगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-301021 (राज.)
रामनिवास ‘मानव’
हिन्दी-दिवस समारोह के सन्दर्भ में, छोटूराम कॉलेज के हिन्दी विभाग की बैठक चल रही थी। प्रश्न था, समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में किसे बुलाया जाये। सभी प्राध्यापक नाम सुझा रहे थे।
डॉ. परशुराम शुक्ल ने दिल्ली के डॉ. परमानन्द पांचाल को बुलाने का सुझाव दिया, तो श्रीमती अनीता मलिक और डॉ. नरेन्द्र वालिया ने निर्णय विभागाध्यक्ष डॉ. आदर्श मदान पर छोडने की बात कही। लेकिन डॉ. रामबीर ढांडा का सुझाव चौंकाने वाला था।
‘बी. एम. कालेज से डॉ. नादिरा शर्मा को बुला लिया जाये; वह प्रिंसिपल भी है और हिन्दी की प्राध्यापिका भी रही है।’ उन्होंने कहा।
‘उन्हें तो बिल्कुल नहीं।’ श्रीमती मलिक ने तुरन्त प्रतिवाद किया- ‘गत वर्ष मैंने उन्हें एक कार्यक्रम में, निर्णायक के रूप में, बुलाने का सुझाव दिया था, तो आपने ही उन पर घटिया आरोप लगाते हुए, उन्हें बुलाने का विरोध किया था।’
रेखांकन : सिद्धेश्वर |
‘बहुत खूब!’ श्रीमती मलिक ने नहले पर दहला मारा- ‘वह प्राचार्या हैं, लेकिन यह क्यों नहीं कहते कि उसी कॉलेज में तुम्हारी श्रीमती संगीत की प्राध्यापिका है और तुम उसके ‘नबर’ बनवाना चाहते हो।’
चोट मर्म-स्थल पर लगी थी, अतः डॉ. रामबीर ढांडा का चेहरा देखने लायक था।
- 706, सैक्टर-13, हिसार-125005(हरि.)
डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’
कब्रिस्तान के पेड़ की डाल पर बैठे कबूतर ने घोर आश्चर्यमिश्रित दृष्टि से कबूतरी की ओर देखा तो पाया कि वह भी उस नजारे पर निगाहें जमाये बैठी है। जहां सड़क के बीचोबीच सामान से लदे एक ट्रक को भीड़ जलाने के प्रयासों में जुटी थी। कुछ मिनटों में ही ट्रक आग की भयंकर लपटों में धिर गया था।
पुलिस ने भीड़ को इस हरकत से रोकने की कोशिश की तो भीड़ ने सड़क के किनारे बनी दुकानों में आग लगानी शुरू कर दी।
भीड़ को ऐसा करते हुए देखकर एक -दूसरे समुदाय ने भी चुन-चुनकर दुकानों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। यह सब देखकर कबूतरी से रहा नहीं गया। वह बोली, ‘यह क्या बात हुई? अभी तो सभी लोग मिल-जुलकर एक ट्रक को जलाने में जुटे थे और अब वे एक दूसरे की दुकानों में आग लगाने लगे हैं। यह क्या माजरा है। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया?’
रेखांकन : सिद्धेश्वर |
चलो जी, अच्छा ही हुआ जो भगवान ने हमें मनुष्य नहीं बनाया।’ कबूतरी ने अजीब-सा मुँह बनाकर कहा।
- 6/2, हारुन नगर, फुलवारी शरीफ, पटना-801505 (बिहार)
डॉ. पूरन सिंह
चेहरा
दीपांकर को मैं बचपन से जानती थी। साथ-साथ खेले थे तो साथ-साथ पढ़े भी थे और जवान भी तो साथ-साथ ही हुए थे। जब सब कुछ साथ-साथ था तो प्यार भी साथ ही हुआ और जीने मरने की कसमें भी साथ ही खाई थीं।
घर में जब मेरे प्यार की खबर लगी तो हाहाकार मच गया। अम्मा को डांट पड़ी और मुझे नज़रबंद कर दिया गया था। लेकिन, जैसा होता है कि प्यार कभी बन्धन में नहीं रहता, मैं भी आजाद होने को बिलबिलाने लगी थी और एक दिन मौका पाकर दीपांकर से लिपट गई थी, ‘... दीप लो मैं आ गई सारी दुनियां छोड़कर तुम्हारी बांहों म’ें। दीपांकर ने अपनी बांहों में भरते हुए कहा था, ‘तुम मेरी हो, तुम्हें मुझसे कोई कैसे दूर कर सकता है!’
वह मुझे अपनी बांहों के घेरे में समाए थे कि मुझे बड़े भइया और बाबूजी याद आ गए थे- कैसे बड़ी दीदी को उन्होंने एक जल्लाद के हाथों बांध दिया था। जीजा जी बहुत गंदे और हिटलर हैं।
दीप एक बात कहूं। मैं बोली थी।
........ सिर्फ आंखें ऊपर उठाई थीं दीपांकर ने, मानो कह रहे हों- एक ही बात क्यों, इतिहास बांच दो......।
‘दीप हम सारी दुनियां से बगावत करके एक हो रहे हैं। तुमसे सिर्फ एक बात कहना चाहती हूं....... तुम मुझ पर कभी बेवजह
अधिकार मत जताना....... सब कुछ बनना लेकिन पुरुष मत बनना......... मेरे पहनने-ओढ़ने से लेकर खाने-पीने और मिलने-जुलने पर प्रतिबन्ध मत लगाना....... वादा करो दीप......’। न जानो क्यों मैं बड़ी दीदी के साथ हो रहे अत्याचार के भय से अपने प्यार से शर्त रख बैठी थी।
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
लेकिन
लेकिन कल शाम मैं अपने ग्यारह साल के बेटे के साथ बाजार गई थी। उसके कपड़े खरीदने थे। शापिंग सेंटर में उसके लिए कपड़े खरीद रही थी कि एक व्यक्ति मुझे देखे चला जा रहा था। मैंने भी उसे देखा था। और यह सब मेरे बेटे ने देख लिया था।
‘मम्मा, वह आदमी आपको क्यों देख रहा था?’ बेटा बोला।
‘यह बात तो आप उसी से पूछिए’।
‘चलिए, वह आपको देख रहा था उसकी तो कोई बात नहीं लेकिन आप...... मम्मा आप...... आप भी तो उसे देख रही थी.... इस बात का क्या मतलब....?’
बेटा एक ही सांस में बोलता चला गया था और मैं.... मैं तो अवाक सी उसे देखे चली जा रही थी। मुझे उसके चेहरे पर एक साथ बाबूजी, बड़े भइया और जीजा जी के चेहरे चिपके हुए नज़र आ रहे थे और वे सभी अट्टहास कर रहे थे, मानो अपनी खुशी का जश्न मना रहे हों!
- 240, बाबा फरीदपुरी, वेस्ट पटेलनगर, नई दिल्ली-110008
अशोक जैन पोरवाल
दृष्टि एक छोटे से पूर्व माध्यमिक स्तर के अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में पाँचवीं कक्षा में पढ़ती है। वह अपनी कक्षा की कुछ सहेलियों के साथ ‘ग्रीटिंग्स’ खरीदने के लिए गई। उसकी सभी सहेलियों ने हिन्दी विषय को छोड़कर शेष सभी विषयों की टीचर्स को देने के लिए अंग्रेजी भाषा में छपे हुए ‘टीचर्स डे’ के ग्रीटिंग्स खरीद लिए। दृष्टि ने एक अतिरिक्त कार्ड भी खरीदा, हिन्दी भाषा पढ़ाने वाली ‘मिस’ को देने के लिए, जो कि हिन्दी में छपा हुआ था। अंग्रेजी भाषा में तो ढेरों कार्ड थे, किन्तु हिन्दी में सिर्फ एक ही तरह का कार्ड था, और सस्ता भी अंग्रेजी कार्ड की तुलना में।
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
फिर कुछ क्षणों के लिए अपने अतीत में खोते हुए बोलीं, ‘मेरी आँखों में हिन्दी भाषा की उपेक्षा के लिए पहला आँसू उस समय आया था, जब मैं इस स्कूल में नौकरी करने के लिए आई थी। स्कूल संचालक ने मुझे एक हजार रुपया प्रति महीना वेतन देने को कहा था, जबकि अन्य शिक्षिकाओं को डेढ़ हजार रुपये प्रति महीना। वे सिर्फ स्नातक थीं, जबकि मैं स्नातकोत्तर यानी एम.ए.(हिन्दी साहित्य)। उनमें और मुझमें अन्तर था तो सिर्फ इतना कि वे अंग्रेजी माध्यम से पढ़ी हुई थी और मैं हिन्दी माध्यम से। उनकी अंग्रेजी भाषा अच्छी थी, जबकि मेरी हिन्दी।’
फिर एक गहरी साँस छोड़ते हुए बोलीं, ‘मेरा पहला आँसू हिन्दी की उपेक्षा का था, तो क्या हुआ? दूसरा आँसू हिन्दी के प्रति तुम्हारा प्रेम और आदर देखकर खुशी का है’। और फिर दृष्टि को अपने गले लगा लिया।
- ई-8/298, आश्रय अपार्टमेन्ट, त्रिलोचन सिंह नगर, त्रिलंगा, शाहपुरा, भोपाल-462039 (म.प्र.)
जोगेश्वरी सधीर
एक टुकड़ा हंसी
जीवन खूँटी पर टंगा फटा कपड़ा हो गया है। अपनी छत से दूर की छत का नाटक देखती हूँ। रोज ही तो मंचन होता है। एक बेहद काली, मगर तेज-तर्रार युवती वहाँ रहती है। उम्र तीस-बत्तीस और साथ में उससे छोटा दिखने वाला उसका भरतार रहता है। वह गाँव की स्त्री मज़दूरी करती है। संग वाला लड़का चौकीदार है, बहुत चिल्लाता है। शाम को दारू पीकर गालियां देता है। औरत बर्दाश्त करती है। कारण बर्दाश्त ही औरत की नियति है। सहजीवन है, विवाह नहीं। मनीषा नामक एक बालिका है, जिसका चेहरा सयाना है, लगता है बचपन में समझदारी व सहनशक्ति का पाठ पढ़ चुकी है। निरक्षर बच्ची इन नादानों की तमाशाई पर होंठ दबाकर हंसती है, पर है तो बच्ची ना !
वे लोग लड़ते-झगड़ते, गिरते-पड़ते हैं। पर एक जीवन्त जीवन जीते हैं। जैसे हैं, हैं। रोज मेहनत करते हैं, कमाते हैं। लड़का इतने बड़े बंगले में चौकीदार जो है, वो उसे अपना मानकर ही रहता है। औरत को साथ रहना है, तो खुशामद करे!
वह औरत रोज़ काम पर जाती है। धूप में बालिका वो भी मात्र छैः-सात बरस की, माँ के आने तक अकेली है। वह एकाकी नाट्य-मंचन करती है। नाटक खेलती है, जिसमें दोनों ओर के संवाद खुद ही बोलती है। ऐसा नाटक वो भी नन्हीं बालिका द्वारा अकेले खेलते देख मैं आश्चर्य से मुस्कराती हूँ। मेरी मुस्कराहट में उसकी प्रशंसा छिपी है।
रेखांकन : बी.मोहन नेगी |
माहौल देखो तो मच्छी बाजार सा शोर रोज शाम को वहाँ छत पर होता है। सहजीवन वाले लड़का-युवती लडऋते हैं। लड़का दारू पीकर चीखता है- ‘‘तुमने मुझे खाने को नहीं पूछा, आं!’’ और बच्ची मात्र तब रोती है, जब अँधेरा घिरने पर भी माँ नहीं आ पाती। पर जब लौट आती है, तो खूब जोरों से गोल घूमकर नृत्य करती है।
मैं उस परमात्मा की अनुपम कृति को देखती हूँ, उसकी रचनाशीलता न्यारी है। कैसे-कैसे नायाब हीरे वह गुदड़ी में छिपाये है। मनीषा को उसकी माँ कभी यूँ ही डाँट देती है। कहती है- चल बर्तन मल, चल झाडू लगा। वह रोती है, काम करती है, नृत्य करती है। एक छोटी-सी बच्ची ने इस महानगर में आकर दादा-दादी का दुलार नहीं जाना, पर अभिनय उसने कैसे सीख लिया, यह तो वो नियन्ता ही जाने। अद्भुत है उसका रचना-संसार!
- डी-54, फेस-1, आशाराम नगर, बाग मुगलिया, भोपाल (म0 प्र0)
उमेश मोहन धवन
अन्ततः
‘‘यार इस लड़के का तुम्हीं कुछ करो, अवारा लड़कों की सोहबत में कुछ ऐसा पड़ा कि हाईस्कूल भी नहीं कर पाया। आज भी वही सब हरकतें हैं। सारा दिन अवारागर्दी-दादागीरी बस। आखिर यह सब कब तक चलेगा। तुम इसे कहीं चपरासी की ही नौकरी लगवा दो तो बड़ा अहसान होगा।’’ मेरे पुराने मित्र नन्दलाल जी अपने पुत्र नरेश के लिये काफी चिन्तित थे।
‘‘क्यों नरेश कहीं प्रयास तो किया होगा?’’ मैंने पूंछा तो नरेश ने उत्तर दिया- ‘‘जी हाँ अंकल जी, कई जगह गया। वे कहते हैं कि मैं योग्य नहीं हूँँ। मुझे काम का कोई अनुभव भी नही है और मेरे चरित्र की गारण्टी कौन देगा!’’
‘‘नन्दलाल जी मेरे यहाँ तो कोई जगह नहीं है पर अन्य जगह प्रयास करूंगा।’’ एक झूठा आश्वासन देकर मैंने उन्हें दरवाजे तक छोड़ा।
शहर में चुनाव घोषित हो चुके थे। अचानक मेरी नज़र दीवार पर चिपके एक पोस्टर पर पड़ी, जिसमे नरेश की तश्वीर थी। ‘‘आवारा लड़का बाप का पैसा ऐसे बर्बाद कर रहा है। इसी पैसे से कोई चाय या पान की दुकान खोल लेता, तो अपने साथ अपने बाप का भी भला करता....’’ मैं बुदबुदाते हुए दफ्तर चला गया।
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
मैं हैरानी से उसे देख रहा था। मैं सोच रहा था, जो व्यक्ति एक छोटी-सी नौकरी के भी योग्य नहीं समझा गया, जिसे कोई अनुभव भी नहीं था, जिसका चरित्र प्रमाणपत्र कोई देना नहीं चाहता था; वह आज प्रशासन का एक अंग बन गया है। आज वह दूसरों को नौकरी रखवा भी सकता है तथा प्रमाणपत्र भी दे सकता है। शायद वह सही जगह पहुँच गया है। पास ही ट्रांजिस्टर पर गाना बज रहा था- ‘‘अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों.....’’
- 13/३४, परमट, कानपुर-२०४००१ (उत्तर प्रदेश)
सन्तोष सुपेकर
दूसरा आश्चर्य
कारखाने के पिछवाड़े बने गुप्त से गोदाम में जब वह पहुँचा तो देखकर दंग रह गया-
भाई साहब कुछ मजदूरों को लेकर नकली माल बनाने में व्यस्त थे, एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था वहां।
पर तभी उसे और अधिक आश्चर्य हुआ-
उसने देखा कि नकली माल से भरे डिब्बों पर प्लास्टिक के लेवल चिपकाये जा रहे थे- नकली माल से सावधान!
दूसरा आश्चर्य
कारखाने के पिछवाड़े बने गुप्त से गोदाम में जब वह पहुँचा तो देखकर दंग रह गया-
भाई साहब कुछ मजदूरों को लेकर नकली माल बनाने में व्यस्त थे, एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था वहां।
पर तभी उसे और अधिक आश्चर्य हुआ-
उसने देखा कि नकली माल से भरे डिब्बों पर प्लास्टिक के लेवल चिपकाये जा रहे थे- नकली माल से सावधान!
- 31, सुदामानगर, उज्जैन-456001 (म.प्र.)
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