अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 02, अक्टूबर 2012
ओम प्रकाश मंजुल
‘नेता! यह मधुमय देश हमारा’
भारत को ऋषि प्रधान देश भी कहा जाता है और कृषि प्रधान देश भी। कोई इसे ‘जगद्गुरु’ कहता है तो कोई ‘सोने की चिड़िया’। दुनियाँ में मिश्र, यूनान जैसे मात्र दो-तीन देश ऐसे हैं, जिनके मात्र दो-तीन नाम हैं। पर ‘हिन्दुस्थान’ के दो या तीन नहीं, ‘भारत’, ‘आर्यावर्त’, ‘हिन्द’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘भरतखण्ड’, ‘भारतखण्ड’, ‘भारतवर्ष’, ‘इण्डिया’ आदि अनेक नाम हैं (इसका श्रद्धा, वितृष्णा या व्यंग्य से, जिसे जो अच्छा लगे, वही नाम पुकारे)। पर अपने आज के देश पर दृष्टि डालें तो यह न ‘आर्यावर्त’ लगता है, न भारतवर्ष लगता है। यह सिर्फ और सिर्फ ‘नेतावर्त’ लगता है और ‘भारत-भुवि’ नेताओं की ‘ड्रीमलैण्ड’ लगती है। यहाँ की प्रजा (जनता) के पास कुल मिलाकर जितनी सम्पत्ति है, उससे अधिक सम्पत्ति यहाँ के राजाओं (नेताओं) के पास है। (क्या इन राजाओं को भगवान ने ऊपर से आकर इतनी परिसंपत्तियाँ बाँटी हैं?) कुछ समय पूर्व ही कलमाड़ी, फिर राजा, बाद को बादशाह आदि का नाम आया था। इससे भी पूर्व झारखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री मधुकोड़ा का नाम चर्चा में रहा। यहाँ एक मधुकोड़ा नहीं, अनेक मधुकोड़ा हैं। एक मधुकोड़ा की पोल खुल गयी, इसलिए वह पकड़ा गया। और भी मधुकोड़ाओं में जिनके कारनामें किसी विध उजागर हो जाते हैं या उजागर कर लिए जाते हैं, उन्हें जेल भेज दिया जाता है। जिनकी कलई नहीं खुलती, वे छुट्टा घूमते हैं, आज भी घूम रहे हैं। हमारा देश ही मधुमय है। जय शंकर प्रसाद अति पूर्व में अपने नाटक ‘चन्द्रगुप्त’ में ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ कह गये हैं। कवि के बारे में कहा गया है कि वह ‘भविष्यदृष्टा’ होता है। प्रसाद जी का कथन इसका सबल प्रमाण है। आज भारत अपने मधुकोड़ाओं की मीठी मार से बुरी तरह ग्रस्त है। कोई अचरज नहीं, ये नेतागण मिलकर कल देश का नाम ही ‘नेतावर्त’ या ‘नेतावर्ष’ कर लें, जैसे कि मिलकर और करतल ध्वनि के साथ एकमत या सर्वमत होकर अपने वर्ग के वेतन-भत्ते अपने आप ही बढ़ा लेते हैं (भले ही वे किसी भी पार्टी के हों। इन 64 वर्षों में ही यहाँ के विधायक और सांसद 35 बार ऐसा कर चुके हैं)।
‘नेता’ आज की सबसे बड़ी समस्या हैं। जिस देश में आई.ए.एस. की चरित्र-पंजिका अंगूठा छाप नेता (भी) लिखता-लिखवाता हो, उसके भविष्य की कल्पना की जा सकती है। भारत की बुनियाद ही कच्ची है, भीतियों की बात छोड़िए। जिस दिन देश में ‘नेता युग’ का अन्त हो जायेगा, उसी दिन ‘त्रेता युग’ अर्थात ‘राम राज्य’ आ जायेगा। किसी कवि ने आज के भारत के नेता या भारत के आज के नेता के बारे में कितना सही कहा है-
‘‘गूँगा बोले, अंधा देखे, ऐसा भी हो सकता है।
लंगड़ा लम्बी दौड़ लगाये, ऐसा भी हो सकता है।
यह चौराहे का गुण्डा है, इसको झुककर नमन करो,
कल शायद नेता बन जाये, ऐसा भी हो सकता है।।’’
।।व्यंग्य वाण।।
सामग्री : ओम प्रकाश मंजुल का व्यंग्यालेख ‘नेता! यह मधुमय देश हमारा’।
ओम प्रकाश मंजुल
‘नेता! यह मधुमय देश हमारा’
भारत को ऋषि प्रधान देश भी कहा जाता है और कृषि प्रधान देश भी। कोई इसे ‘जगद्गुरु’ कहता है तो कोई ‘सोने की चिड़िया’। दुनियाँ में मिश्र, यूनान जैसे मात्र दो-तीन देश ऐसे हैं, जिनके मात्र दो-तीन नाम हैं। पर ‘हिन्दुस्थान’ के दो या तीन नहीं, ‘भारत’, ‘आर्यावर्त’, ‘हिन्द’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘भरतखण्ड’, ‘भारतखण्ड’, ‘भारतवर्ष’, ‘इण्डिया’ आदि अनेक नाम हैं (इसका श्रद्धा, वितृष्णा या व्यंग्य से, जिसे जो अच्छा लगे, वही नाम पुकारे)। पर अपने आज के देश पर दृष्टि डालें तो यह न ‘आर्यावर्त’ लगता है, न भारतवर्ष लगता है। यह सिर्फ और सिर्फ ‘नेतावर्त’ लगता है और ‘भारत-भुवि’ नेताओं की ‘ड्रीमलैण्ड’ लगती है। यहाँ की प्रजा (जनता) के पास कुल मिलाकर जितनी सम्पत्ति है, उससे अधिक सम्पत्ति यहाँ के राजाओं (नेताओं) के पास है। (क्या इन राजाओं को भगवान ने ऊपर से आकर इतनी परिसंपत्तियाँ बाँटी हैं?) कुछ समय पूर्व ही कलमाड़ी, फिर राजा, बाद को बादशाह आदि का नाम आया था। इससे भी पूर्व झारखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री मधुकोड़ा का नाम चर्चा में रहा। यहाँ एक मधुकोड़ा नहीं, अनेक मधुकोड़ा हैं। एक मधुकोड़ा की पोल खुल गयी, इसलिए वह पकड़ा गया। और भी मधुकोड़ाओं में जिनके कारनामें किसी विध उजागर हो जाते हैं या उजागर कर लिए जाते हैं, उन्हें जेल भेज दिया जाता है। जिनकी कलई नहीं खुलती, वे छुट्टा घूमते हैं, आज भी घूम रहे हैं। हमारा देश ही मधुमय है। जय शंकर प्रसाद अति पूर्व में अपने नाटक ‘चन्द्रगुप्त’ में ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ कह गये हैं। कवि के बारे में कहा गया है कि वह ‘भविष्यदृष्टा’ होता है। प्रसाद जी का कथन इसका सबल प्रमाण है। आज भारत अपने मधुकोड़ाओं की मीठी मार से बुरी तरह ग्रस्त है। कोई अचरज नहीं, ये नेतागण मिलकर कल देश का नाम ही ‘नेतावर्त’ या ‘नेतावर्ष’ कर लें, जैसे कि मिलकर और करतल ध्वनि के साथ एकमत या सर्वमत होकर अपने वर्ग के वेतन-भत्ते अपने आप ही बढ़ा लेते हैं (भले ही वे किसी भी पार्टी के हों। इन 64 वर्षों में ही यहाँ के विधायक और सांसद 35 बार ऐसा कर चुके हैं)।
रेखांकन : अनिल सिंह (रानीखेत ) |
‘‘गूँगा बोले, अंधा देखे, ऐसा भी हो सकता है।
लंगड़ा लम्बी दौड़ लगाये, ऐसा भी हो सकता है।
यह चौराहे का गुण्डा है, इसको झुककर नमन करो,
कल शायद नेता बन जाये, ऐसा भी हो सकता है।।’’
- कामायनी, कायस्थान, पूरनपुर, जिला-पीलीभीत (उ.प्र.)
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