अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 2, अक्टूबर 2012
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में सजीवन मयंक, शिवशंकर यजुर्वेदी, श्याम झँवर ‘श्याम’, विनीत जौहरी ‘बदायूँनी’, मनोहर चमोली ‘मनु’, प्रो. सुधेश, रमेश नाचीज, मनोज अबोध, डॉ. अशोक ‘गुलशन’, ज़मीर दरवेश, ज़मीर दरवेश एवं पुष्पा मेहरा की काव्य रचनाएं।
सजीवन मयंक
अपने पांव पर खड़ा होगा
पहले दुनियां से वो लड़ा होगा।
फिर अपने पांव पर खड़ा होगा।
परख कर ही किसी नगीने को
किसी ने हार में जड़ा होगा।
मेरे आँगन में ये लगा पौधा
किसी दिन मुझसे भी बड़ा होगा।
स्वार्थ के सांप दे रहे पहरा
खजाना वहीं पर गड़ा होगा।
झूठ की सज गई हैं दुकानें
किसी कोने में सच पड़ा होगा।
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शिवशंकर यजुर्वेदी
हम सब ही अपराधी हैं
निसदिन नीर बहायें नैना, हिंसाओं का नृत्य देखकर।
विस्मित होता है दानव दल, मानव के दुष्कृत्य देखकर।
विश्वासों की अर्थी उठती,
पुष्प बन गये अंगारों से।
करुणा और प्रेम के रिश्ते,
भटक रहे हैं बंजारों से।
दिल को बहलाने वाले से, इंसानों के लक्ष्य देखकर।
विस्मित होता है दानव दल,मानव के दुष्कृत्य देखकर।
अवसर देखें कार्य सिद्धि के,
हम सब अवसरवादी हैं।
स्वार्थ-सिद्धि की इस नगरी में,
हम सब ही अपराधी हैं।
वैभवता की लिए लालसा, यह सच सा असत्य देखकर।
विस्मित होता है दानव दल,मानव के दुष्कृत्य देखकर।
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श्याम झँवर ‘श्याम’
{वरिष्ठ कवि श्री श्याम झँवर ‘श्याम’ की 52 हिन्दी ग़ज़लों का संग्रह ‘संग्राम’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी दो प्रतिनिधि हिन्दी ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
1. जीवन में उत्साह चाहिये...
धूप, समन्दर, बारिश, सपनों, तूफानों की बात करें
जीवन में उत्साह चाहिये, अंगारों की बात करें
देशभक्ति खो गई, जमाना ढँूढ़ रहा सद्भावों को
मातृभूमि पर मिटने वाले, दीवानों की बात करें
दिल्ली से देहात तलक है, ‘‘अनैतिकता की सत्ता’’
कलम उठा तू, नैतिकता के, भण्डारों की बात करें
मौसम-खुशबू, जूही-चमेली, रंग-गुलाबी भाते हैं
मानवता की खुशबू वाले, इन्सानों की बात करें
कोठी-बंगला, कार-प्यार में, भी उदास हैं लोग यहाँ
फुटपाथों पर सोनेवाली, मुस्कानों की बात करें
कहाँ ढूँढ़ता है तू उसको, ईश्वर तो बैठा मन में
मन को निर्मल कर, ईश्वर की, झंकारों की बात करें
मरते हैं सब अपने क्रम से, दुनिया याद नहीं रखती
‘श्याम’ जमाना याद रखेगा, ललकारों की बात करें
2. अपने वतन के वास्ते
प्यार से सारे रहो, अपने वतन के वास्ते
एकता हो देश में, गंगो-जमन के वास्ते
देशभक्ति को नहीं, पुस्तक सरीखा तुम पढ़ो
देखिये छूकर इसे, थोड़ी तपन के वास्ते
जब अमन से ही नहीं हो, बागवां की दोस्ती
फूल कोई तो जलेगा, इस चमन के वास्ते
काँटों भरा आकाश है, अब एकता सद्भाव का
ओ परिन्दो! उड़ चलो, सारे गगन के वास्ते
‘श्याम’ मानवता-अमन, इन्सानियत की मंजिलें
दूर हैं चलते रहो, लेकिन अमन के वास्ते
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विनीत जौहरी ‘बदायूँनी’
ग़ज़ल
रोज़ बोली लग रही है देश के ईमान की।
रोज़ जय-जयकार होती है यहाँ शैतान की।।
मुल्क़ की तस्वीर का चर्चा करें क्या आपसे
आज धुंधली पड़ गयी तस्वीर हिन्दंस्तान की।
वो, जो सारे मुल्क़ में दंगों को हैं भड़का रहे
बात वो अक़्सर हैं करते राम की, रहमान की।
पहले पढ़िये, ख़ूब पढ़िये, फिर मिलेंगे आपसे
इस घड़ी चर्चा न कीजे- मीर की, रसखान की।
उसने दुनिया भर के ग़म झोली में मेरी डालकर
राहे-मंज़िल किस क़दर मेरी यहाँ आसान की।
जानवर भी हँस रहे हैं आजकल इंसान पर
और ख़ूबी क्या बतायें आज के इंसान की।
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मनोहर चमोली ‘मनु’
आधा अधनंगा देश शर्मिन्दा है’
अहा! मेरा देश!
कबीर के करघे का देश
गांधी के चरखे का देश
ये अगुवा थे मेरे देश के तब
हाय! मेरा देश
तीन-चौथाई अधनंगा था जब!
कबीर-गांधी शर्मिन्दा थे
यकीनन तभी वे भी अंधनंगे थे
ओह ! आज मेरा देश !
नेताओं का देश
ठेकदारों का देश
कमीशन का देश
रिश्वत का देश
बन्दरबाँटों का देश
छि! देश अब भी आधा अधनंगा है
और अन्य आधों के अगुवा
बेशकीमती कपड़े ऐसे उतारते हैं
जैसे भूखा बार-बार थूक घूँटता है
इन अगड़ों की आँखों में
बँधी है पट्टी बेशर्मी की
लेकिन आधा अधनंगा देश
इन्हें देख कर शर्मिन्दा है।
मैं भी।
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प्रो. सुधेश
ग़ज़ल
हमने तेरी दुनियाँ में क्या-क्या देखा
दिन में खुली आँख का सपना देखा।
बस हक के लिए लड़ता रहा जो भी
क्यों उसको ही अक्सर तनहा देखा?
जो सब को हँसी बाँटता फिरता था
उस को ही अकेले में रोता देखा।
बीमार हुए जो यहाँ अच्छे-अच्छे
जो सबसे बुरा था उसे अच्छा देखा।
हैवान खुला फिरता है सदियों से
दिन दिन इन्सान को मरता देखा।
तहज़ीब पड़ी गद्दे पै सोती है
मज़दूर का पाँव सदा चलता देखा।
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रमेश नाचीज
ग़ज़ल
आटा, चावल, दाल लिखो
जीवन है बेहाल लिखो।
कहाँ ग़रीबों का भोजन
अब है रोटी दाल लिखो
कुछ ही हैं लोग देश में
जिनको मालामाल लिखो
खाते है जो मेहनत की
उनको नमक हलाल लिखो
हरिजन आरक्षित होकर,
क्यों हैं खस्ताहाल लिखो
कविताएं दो सरल सुबोध
नहीं बाल की खाल लिखो
प्रगतिशील नाचीज हो तुम
जो लिक्खो सो लाल लिखो
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मनोज अबोध
ग़ज़ल
क्या बताएँ कि क्या चाहिए
हमसफ़र आप-सा चाहिए
झील हर आँख होती नहीं
देखकर डूबना चाहिए
कोई मंजिल असम्भव नहीं
पाँव में हौसला चाहिए
प्यार है इक इबादत मगर
इसमें भी क़ायदा चाहिए
जिसकी नज़रों में सब एक हों
सबको ऐसा खुदा चाहिए
हम जिएँ या भटकते रहें
आपका मशविरा चाहिए
जंग हर जीत सकता हूँ मैं
सिर्फ़ माँ की दुआ चाहिए
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डॉ. अशोक ‘गुलशन’
दोहा ग़ज़ल
सबके ही सम्मान में, अपना भी सम्मान।
इसीलिए मुझको सदा, रहता सबका ध्यान।।
तन में है कुरआन तो, मन में गीता सार।
मेरे खातिर एक हैं, कृष्ण और रहमान।।
उसकी कृपा से सदा, फूले-फले समाज।
चाहे राजा रंक हो, या अदना इंसान।।
करके हरि का ध्यान हम, कर लें सारे काम।
हरि के बिन संभव नहीं, जीवन का कल्यान।।
‘गुलशन‘ में ही दिख रहा, खेत-बाग घर-धाम।
गुलशन-गुलशन में बसा अपना हिन्दुस्तान।।
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ज़मीर दरवेश
ग़ज़ल
है जगह कोई घर समान कहां
घर को कहते हैं हम मकान कहां
था कहाँ हम में कोई आकर्षण
खींचते हम तुम्हारा ध्यान कहां
उसको ज्ञानी कहूँ भी किस मुँह से
बाँटता है वो अपना ज्ञान कहां
चढ़के लाशों पे बेगुनाहों की
कोई हो सकता है महान कहां
आये मज़दूर जैसी गहरी नींद
तुमको होती है वो थकान कहां
मेरे कपड़ों पे है नज़र उसकी
वो मुझे दे सकेगा मान कहां
तुम दुखाते हो दिल तो दुनियां में
कोई कर सकता है निदान कहां
पास बिठलाते हैं फ़कीर मुझे
तुमने देखी है मेरी शान कहां
कोई बन जाता है अगर झरना
रोक पाती है फिर चटान कहां
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पुष्पा मेहरा
अनपाया अनदेखा
नसैनी लगा मन की
देखनी चाही थी निस्तब्धता
टटोलना चाहा था मन की सलवटों में-
छिपा, अनदेखा अनपाया है जो
कहीं भीतर ही भीतर।
पर हुआ कुछ ऐसा
नसैनी डगमगा गई
धरती की चकाचौंध बीच
मैं पुनः आ गिरी
विश्वास की मजबूत दीवारों से टकरा
आवाजें गूंज रही थीं जहां इधर-उधर।
कोई कह रहा था ईश्वर मुहम्मद
कोई बता रहा था मसीह है ईश्वर
तीसरी ओर से नारा बुलन्द था
वाहे गुरु की फतह का
मन्दिर की मूर्तियों में खोज रहा था
दल एक ईश्वर को।
प्रवचनो का शोर था सभी ओर
तभी गूंज उठी चारों ओर से
मैं यहां, मैं वहां
देखो तो खोल अन्तस्पटल
धरती से अंबर तक
मैं नहीं हूं कहां!
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में सजीवन मयंक, शिवशंकर यजुर्वेदी, श्याम झँवर ‘श्याम’, विनीत जौहरी ‘बदायूँनी’, मनोहर चमोली ‘मनु’, प्रो. सुधेश, रमेश नाचीज, मनोज अबोध, डॉ. अशोक ‘गुलशन’, ज़मीर दरवेश, ज़मीर दरवेश एवं पुष्पा मेहरा की काव्य रचनाएं।
सजीवन मयंक
अपने पांव पर खड़ा होगा
पहले दुनियां से वो लड़ा होगा।
फिर अपने पांव पर खड़ा होगा।
परख कर ही किसी नगीने को
किसी ने हार में जड़ा होगा।
रेखांकन : के. रविन्द्र |
मेरे आँगन में ये लगा पौधा
किसी दिन मुझसे भी बड़ा होगा।
स्वार्थ के सांप दे रहे पहरा
खजाना वहीं पर गड़ा होगा।
झूठ की सज गई हैं दुकानें
किसी कोने में सच पड़ा होगा।
- 251, शनिचरा वार्ड-1, नरसिंह गली, होशंगाबाद-461001 (म.प्र.)
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शिवशंकर यजुर्वेदी
हम सब ही अपराधी हैं
निसदिन नीर बहायें नैना, हिंसाओं का नृत्य देखकर।
विस्मित होता है दानव दल, मानव के दुष्कृत्य देखकर।
रेखांकन : बी. मोहन नेगी |
विश्वासों की अर्थी उठती,
पुष्प बन गये अंगारों से।
करुणा और प्रेम के रिश्ते,
भटक रहे हैं बंजारों से।
दिल को बहलाने वाले से, इंसानों के लक्ष्य देखकर।
विस्मित होता है दानव दल,मानव के दुष्कृत्य देखकर।
अवसर देखें कार्य सिद्धि के,
हम सब अवसरवादी हैं।
स्वार्थ-सिद्धि की इस नगरी में,
हम सब ही अपराधी हैं।
वैभवता की लिए लालसा, यह सच सा असत्य देखकर।
विस्मित होता है दानव दल,मानव के दुष्कृत्य देखकर।
- 517, कटरा चाँद खाँ, बरेली-243005 (उ.प्र.)
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श्याम झँवर ‘श्याम’
{वरिष्ठ कवि श्री श्याम झँवर ‘श्याम’ की 52 हिन्दी ग़ज़लों का संग्रह ‘संग्राम’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी दो प्रतिनिधि हिन्दी ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
1. जीवन में उत्साह चाहिये...
धूप, समन्दर, बारिश, सपनों, तूफानों की बात करें
जीवन में उत्साह चाहिये, अंगारों की बात करें
देशभक्ति खो गई, जमाना ढँूढ़ रहा सद्भावों को
मातृभूमि पर मिटने वाले, दीवानों की बात करें
दिल्ली से देहात तलक है, ‘‘अनैतिकता की सत्ता’’
कलम उठा तू, नैतिकता के, भण्डारों की बात करें
मौसम-खुशबू, जूही-चमेली, रंग-गुलाबी भाते हैं
मानवता की खुशबू वाले, इन्सानों की बात करें
कोठी-बंगला, कार-प्यार में, भी उदास हैं लोग यहाँ
फुटपाथों पर सोनेवाली, मुस्कानों की बात करें
कहाँ ढूँढ़ता है तू उसको, ईश्वर तो बैठा मन में
मन को निर्मल कर, ईश्वर की, झंकारों की बात करें
मरते हैं सब अपने क्रम से, दुनिया याद नहीं रखती
‘श्याम’ जमाना याद रखेगा, ललकारों की बात करें
2. अपने वतन के वास्ते
रेखांकन : पारस दासोत |
प्यार से सारे रहो, अपने वतन के वास्ते
एकता हो देश में, गंगो-जमन के वास्ते
देशभक्ति को नहीं, पुस्तक सरीखा तुम पढ़ो
देखिये छूकर इसे, थोड़ी तपन के वास्ते
जब अमन से ही नहीं हो, बागवां की दोस्ती
फूल कोई तो जलेगा, इस चमन के वास्ते
काँटों भरा आकाश है, अब एकता सद्भाव का
ओ परिन्दो! उड़ चलो, सारे गगन के वास्ते
‘श्याम’ मानवता-अमन, इन्सानियत की मंजिलें
दूर हैं चलते रहो, लेकिन अमन के वास्ते
- 581, सेक्टर 14/2 विकास नगर, नीमच-458441 (म.प्र.)
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विनीत जौहरी ‘बदायूँनी’
ग़ज़ल
रोज़ बोली लग रही है देश के ईमान की।
रोज़ जय-जयकार होती है यहाँ शैतान की।।
मुल्क़ की तस्वीर का चर्चा करें क्या आपसे
आज धुंधली पड़ गयी तस्वीर हिन्दंस्तान की।
वो, जो सारे मुल्क़ में दंगों को हैं भड़का रहे
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
पहले पढ़िये, ख़ूब पढ़िये, फिर मिलेंगे आपसे
इस घड़ी चर्चा न कीजे- मीर की, रसखान की।
उसने दुनिया भर के ग़म झोली में मेरी डालकर
राहे-मंज़िल किस क़दर मेरी यहाँ आसान की।
जानवर भी हँस रहे हैं आजकल इंसान पर
और ख़ूबी क्या बतायें आज के इंसान की।
- 193-एफ, लेखनी कुटीर, भटनागर कॉलौनी, सिविल लाइंस, बरेली-243001 (उ.प्र.)
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मनोहर चमोली ‘मनु’
आधा अधनंगा देश शर्मिन्दा है’
अहा! मेरा देश!
कबीर के करघे का देश
गांधी के चरखे का देश
ये अगुवा थे मेरे देश के तब
हाय! मेरा देश
तीन-चौथाई अधनंगा था जब!
कबीर-गांधी शर्मिन्दा थे
यकीनन तभी वे भी अंधनंगे थे
ओह ! आज मेरा देश !
नेताओं का देश
ठेकदारों का देश
कमीशन का देश
छाया चित्र : रितेश गुप्ता |
बन्दरबाँटों का देश
छि! देश अब भी आधा अधनंगा है
और अन्य आधों के अगुवा
बेशकीमती कपड़े ऐसे उतारते हैं
जैसे भूखा बार-बार थूक घूँटता है
इन अगड़ों की आँखों में
बँधी है पट्टी बेशर्मी की
लेकिन आधा अधनंगा देश
इन्हें देख कर शर्मिन्दा है।
मैं भी।
- भिताई, पोस्ट बॉक्स-23, पौड़ी, पौड़ी गढ़वाल-246001, उत्तराखण्ड.
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प्रो. सुधेश
ग़ज़ल
हमने तेरी दुनियाँ में क्या-क्या देखा
दिन में खुली आँख का सपना देखा।
बस हक के लिए लड़ता रहा जो भी
क्यों उसको ही अक्सर तनहा देखा?
जो सब को हँसी बाँटता फिरता था
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
बीमार हुए जो यहाँ अच्छे-अच्छे
जो सबसे बुरा था उसे अच्छा देखा।
हैवान खुला फिरता है सदियों से
दिन दिन इन्सान को मरता देखा।
तहज़ीब पड़ी गद्दे पै सोती है
मज़दूर का पाँव सदा चलता देखा।
- 314, सरल अपार्टमेन्ट्स, द्वारका-सैक्टर 10, नई दिल्ली-110075
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रमेश नाचीज
ग़ज़ल
आटा, चावल, दाल लिखो
जीवन है बेहाल लिखो।
कहाँ ग़रीबों का भोजन
अब है रोटी दाल लिखो
कुछ ही हैं लोग देश में
जिनको मालामाल लिखो
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
खाते है जो मेहनत की
उनको नमक हलाल लिखो
हरिजन आरक्षित होकर,
क्यों हैं खस्ताहाल लिखो
कविताएं दो सरल सुबोध
नहीं बाल की खाल लिखो
प्रगतिशील नाचीज हो तुम
जो लिक्खो सो लाल लिखो
- 524, कर्नलगंज, इलाहाबाद-211002 (उ.प्र.)
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मनोज अबोध
ग़ज़ल
क्या बताएँ कि क्या चाहिए
हमसफ़र आप-सा चाहिए
झील हर आँख होती नहीं
देखकर डूबना चाहिए
कोई मंजिल असम्भव नहीं
पाँव में हौसला चाहिए
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
प्यार है इक इबादत मगर
इसमें भी क़ायदा चाहिए
जिसकी नज़रों में सब एक हों
सबको ऐसा खुदा चाहिए
हम जिएँ या भटकते रहें
आपका मशविरा चाहिए
जंग हर जीत सकता हूँ मैं
सिर्फ़ माँ की दुआ चाहिए
- एफ-1/7, ग्राउन्ड फ्लोर, सेक्टर-11, रोहिणी, नई दिल्ली-110085
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डॉ. अशोक ‘गुलशन’
दोहा ग़ज़ल
सबके ही सम्मान में, अपना भी सम्मान।
इसीलिए मुझको सदा, रहता सबका ध्यान।।
तन में है कुरआन तो, मन में गीता सार।
मेरे खातिर एक हैं, कृष्ण और रहमान।।
उसकी कृपा से सदा, फूले-फले समाज।
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
करके हरि का ध्यान हम, कर लें सारे काम।
हरि के बिन संभव नहीं, जीवन का कल्यान।।
‘गुलशन‘ में ही दिख रहा, खेत-बाग घर-धाम।
गुलशन-गुलशन में बसा अपना हिन्दुस्तान।।
- चिकित्साधिकारी, कानूनगोपुरा (उत्तरी), बहराइच (उ.प्र.)
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ज़मीर दरवेश
ग़ज़ल
है जगह कोई घर समान कहां
घर को कहते हैं हम मकान कहां
था कहाँ हम में कोई आकर्षण
खींचते हम तुम्हारा ध्यान कहां
उसको ज्ञानी कहूँ भी किस मुँह से
बाँटता है वो अपना ज्ञान कहां
चढ़के लाशों पे बेगुनाहों की
कोई हो सकता है महान कहां
आये मज़दूर जैसी गहरी नींद
तुमको होती है वो थकान कहां
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
मेरे कपड़ों पे है नज़र उसकी
वो मुझे दे सकेगा मान कहां
तुम दुखाते हो दिल तो दुनियां में
कोई कर सकता है निदान कहां
पास बिठलाते हैं फ़कीर मुझे
तुमने देखी है मेरी शान कहां
कोई बन जाता है अगर झरना
रोक पाती है फिर चटान कहां
- ई-13/1, ग़ज़लकदा, लक्ष्मी विहार, हिमगिरि कॉलोनी, मुरादाबाद-244001 (उ.प्र.)
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पुष्पा मेहरा
अनपाया अनदेखा
नसैनी लगा मन की
देखनी चाही थी निस्तब्धता
टटोलना चाहा था मन की सलवटों में-
छिपा, अनदेखा अनपाया है जो
कहीं भीतर ही भीतर।
पर हुआ कुछ ऐसा
नसैनी डगमगा गई
धरती की चकाचौंध बीच
मैं पुनः आ गिरी
विश्वास की मजबूत दीवारों से टकरा
आवाजें गूंज रही थीं जहां इधर-उधर।
कोई कह रहा था ईश्वर मुहम्मद
कोई बता रहा था मसीह है ईश्वर
तीसरी ओर से नारा बुलन्द था
वाहे गुरु की फतह का
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
दल एक ईश्वर को।
प्रवचनो का शोर था सभी ओर
तभी गूंज उठी चारों ओर से
मैं यहां, मैं वहां
देखो तो खोल अन्तस्पटल
धरती से अंबर तक
मैं नहीं हूं कहां!
- बी-201, सूरजमल विहार, दिल्ली-92
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