अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 3, नवम्बर 2012
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में स्व. चन्द्रपाल शर्मा ‘शीलेश’, पारसनाथ बुलचंदानी, अमृत लाल मदान, शशिभूषण बड़ोनी, मीनू ‘सुखमन’, साहिल, जगदीश तिवारी व विजय कुमार तन्हा की काव्य रचनाएं।
स्व. चन्द्रपाल शर्मा ‘शीलेश’
{वरिष्ठ गीतकार चन्द्रपाल शर्मा ‘शीलेश’ आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके गीत, उनका काव्य हमें उनके विचारों और उनकी रचनात्मकता से जोड़े हुए है। हाल ही में उनके न रहने के बाद श्रुतिसेवा निधि न्यास, फिरोजाबाद ने उनके गीतों का संग्रह ‘मुस्कानों का जंगल’ प्रकाशित करके उनकी रचनात्मकता की स्मृतियों को संजोने का सुकार्य किया है। यह संग्रह पुस्तक के भूमिका लेखक एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ के माध्यम से पढ़ने को मिला। इस संग्रह से यहाँ दो गीत प्रस्तुत करते हुए हम पाठकों के साथ स्व. शीलेश जी की रचनात्मकता को साझा कर रहे हैं।}
दो गीत
बदली अम्बर से
बदली अम्बर से रिमझिम के गीतों को बरसाती
सावन में आवाज चूड़ियों की पवित्र हो जाती।।
साजन हुए बहिष्कृत आँखों में भाई गहराये
डूब गये राखी में झट सिंगारदान के साये।
रक्षाबंधन की गरिमा से करवा चौथ लजाती।।
राहों से हट गया बांकपन अब तिरछे नयनों का
पानी के मायाजालों पर रंग चढ़ा बहनों का।
ससुराली सूरत झूले के पास नहीं आ पाती।।
मुक्त वेश आँगन में थिरके बूढ़ी माँ के आगे
सौ-सौ मन के अरमानों को बांधें कच्चे धागे।
मंद-मंद मुस्कान खिलखिलाहट में डूब नहाती।।
स्वप्निल छाया मात्र रह गये सभी जेठ और देवर
भूली बिसरी याद बन गये सास ससुर के तेवर।
उड़ जाती ससुराल मल्हारें जब तालियाँ बजातीं।।
धूप कड़ी है
धूप कड़ी है
फिर भी दर्पण लिए
जिन्दगी पास खड़ी है
सांसों के घर्षण से
तन पर पड़ीं सलवटें
स्वयं रक्त-सम्बन्ध
बदलने लगे करवटें।
फिर भी बासी रोटी जैसे
चेहरे पर जीने की हिम्मत
अपना सीना तान खड़ी है।
उतरे टायर जैसी
मैली है दिनचर्या
पाँवों को दिनरात
जकड़कर बैठी शैया।
फिर भी मन में
तूफानों की कमी नहीं है
बारूदी पुस्तक
आँखों में खुली पड़ी है।
धूप कड़ी है।।
पारसनाथ बुलचंदानी
{वरिष्ठ कवि पारसनाथ बुलचंदानी जी का ग़ज़ल संग्रह ‘सहमत नहीं हूँ’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। इसमें उनकी 93 सशक्त सामयिक ग़ज़लें संग्रहीत हैं। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से दो ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
एक
कभी जो दार को देखा तो मुस्कराया था
खुदा ही जाने ये जज़्बा कहाँ से आया था
मसीहा था मैं न सरदार था, न ही मुल्ज़िम
सदा-ए-हक़ को मगर मैंने ही उठाया था
हैं रोशनी के तरफदार तो बहुत-से मगर
बुझा हुआ दिया किसने यहाँ जलाया था
किसी दिवाने से मैंने सुना था गीत कभी
उसी को आज मुहब्बत से गुनगुनाया था
लिखी है उसने वो तारीख़ अपनी मर्ज़ी से
कि हमने ख़ून से अपने जिसे बनाया था
हुई थी उनसे मुलाक़ात एक दिन ‘पारस’
उसी ने ज़िंदगी जीना मुझे सिखाया था
दो
परदा किसी की आँख से ऐसा उठा कि बस
ग़फ़लत से कोई आदमी ऐसा जगा कि बस
ख़ंजर का वार पीठ में होने को था तभी
क़िस्मत से कोई आदमी ऐसा बचा कि बस
रफ्तार से ही जीने का आदी था कोई शख़्स
इक दिन मगर सफ़र में वो ऐसा रुका कि बस
बच्चों ने आके छीन ली मुझसे मेरी किताब
फिर शोर घर में दोस्तो ऐसा मचा कि बस
आँखें मेरी फ़लक से ही ‘पारस’ नहीं हटीं
पिंजरे से एक पंछी वो ऐसा उड़ा कि बस
अमृत लाल मदान
हिग्ज़ बोसोन (ईश्वरीय कण)
लघुतम ईश्वरीय कण की तलाश
एक लंबी गुफा में
संभव हुई
अरबों-खरबों परमाणुओं के
परस्पर टकराने से!
विराटतम ईश्वरीय रूप के दर्शन
युद्धक्षेत्र में हुए
लाखों सैनिक जहाँ खड़े थे तत्पर
टकराने को परस्पर!!
सोचता हूँ
क्या भीतर और बाहर
टकराव में है ईश प्राप्ति
फिर किस खेत की मूली है
विश्व शांति अथवा मन की शांति?
शशिभूषण बड़ोनी
सबसे बड़ी खबर
रोज खोलते ही
अखबार
खबरें भरी होती हैं
चोरी, हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार की
भयावह बेहद
ऐसा नहीं है कि
नहीं होती थी खबरें पहले ऐसी
अखबारों में
होती थी...
लेकिन ....अफसोस व अचरज जो
आजकल होता है अधिक
वह इसलिए कि
पहले लोग पढ़कर...सुनकर ऐसी खबरें
चौंक-चौंक पड़ते थे
चिन्ता करते थे...
निवारण खोजने को
राय...मशविरा देते थे....।
लेकिन अब सबसे बड़ी जो खबर
व चिन्ता व अफसोस की बात है
वह यह है कि
अब बड़ी से बड़ी दुर्घटनाओं
भ्रष्टाचार पर भी
नहीं होती कोई प्रतिक्रिया
चुपचाप रहते हैं लोग!
मीनू ‘सुखमन’
{युवा कवयित्री मीनू ‘सुखमन’ का कविता संग्रह ‘सुखमन की तरह’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। उनके संग्रह से दो कविताएँ प्रस्तुत हैं।}
तारे
रात चाहते हैं सो जाएं
नींद आ गई तो तू
सपने में आएगा।
तेरी याद मगर
सोने नहीं देती
तू मेरे पास
कैसे पहुँच पाएगा
रात गुजर गई
तारे गिनते-गिनते
माँग लेंगे तुझे
गर इक तारा टूट जाएगा।
सारी रात तारे
जगमगाते रहे।
मानो मुझे समझाते रहे।
जो किस्मत में नहीं
वो कभी न मिल पाएगा।
मुहब्बत करनी है तो
किसी के दुःखों से कर
एक भी दुःख गर दूर
कर पाएगा,
सुकूं ख़ुद ही मिल जाएगा
अजनबी
ज़िन्दगी के सफ़र में
तन्हा हो गए हैं।
मंजिल नहीं था तू, मुसाफिर ही था,
रास्ते में तुझे छोड़ अलग हो गए हैं।
साथ-साथ नहीं चल रहे थे,
रास्ता कभी न था
फिर भी आज जाने क्यों
तन्हा हो गए हैं।
रास्ता तो जुदा था ही,
मंज़िल भी जुदा थी
फिर क्यों तुझे खो कर
हम परेशां हो गए है।
साहिल
ग़ज़ल
हर कोई इस तरह से मुझे तक रहा है दोस्त
गोया मेरा वजूद कोई आइना है दोस्त
कल तक जो चल रहा था मेरा हाथ थामकर
वो शख्स आज देख मेरा रहनुमा है दोस्त
पंछी का घर तो नीला-नीला आसमान है
और मेरा आसमान मेरा पिंजरा है दोस्त
परवर भी क्या करे कि हर इक आदमी यहां
खुद अपने-आप दलदलों में कूदता है दोस्त
दो-चार गज भी दूर शहर से गये नहीं
क्यों सोच में उसी की जंगल बसा है दोस्त
हम मंच पर हैं इसके सिवा कुछ खबर नहीं
कि गिर रहा है पर्दा या तो उठ रहा है दोस्त
‘साहिल’ जिसे मैं ख्वाब में भी ना कभी मिला
वो शख़्स मानता है- वो मेरा खुदा है दोस्त
जगदीश तिवारी
तय कर अपना सफर
अपने आपको
इतना बुलन्द कर
सब झुक जायें
तेरी आवाज पर
नैतिकता मुस्काने लगे
चरित्र छू ले अपना शिखर।
सपने जब भी
टूटने लगें
टूटने न दे
लगा ले उनको गले
पंछी आकाश उड़े
कोई न काटे
उनके पर।
नदिया के बहने से
पानी है गंगा-जल
तभी तो हरियाया है
धरती का आँचल
चल! तू भी नदिया बन
तय कर
अपना सफर।
विजय कुमार तन्हा
झूठा बहुत जमाना है
सच को यह बतलाना है।
झूठा बहुत जमाना है।
कौन घड़ी ये डिग जाये
इसका कौन ठिकाना है।
माया भीतर फंसकर तो,
जीवन भर पछताना है।
बेटी को न बोझ समझ,
जब तक आवो-दाना है।
हर आँगन रावण रहता,
मुस्किल बहुत जलाना है।
भूख, गरीबी औ‘ आँसू,
किस्मत का नजराना है।
द्वेष धरा से मिट जाये,
ऐसा दीप जलाना है।
भीड़ जिसे कर पाये ना,
‘तन्हा’ कर दिखलाना है।
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में स्व. चन्द्रपाल शर्मा ‘शीलेश’, पारसनाथ बुलचंदानी, अमृत लाल मदान, शशिभूषण बड़ोनी, मीनू ‘सुखमन’, साहिल, जगदीश तिवारी व विजय कुमार तन्हा की काव्य रचनाएं।
स्व. चन्द्रपाल शर्मा ‘शीलेश’
{वरिष्ठ गीतकार चन्द्रपाल शर्मा ‘शीलेश’ आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके गीत, उनका काव्य हमें उनके विचारों और उनकी रचनात्मकता से जोड़े हुए है। हाल ही में उनके न रहने के बाद श्रुतिसेवा निधि न्यास, फिरोजाबाद ने उनके गीतों का संग्रह ‘मुस्कानों का जंगल’ प्रकाशित करके उनकी रचनात्मकता की स्मृतियों को संजोने का सुकार्य किया है। यह संग्रह पुस्तक के भूमिका लेखक एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ के माध्यम से पढ़ने को मिला। इस संग्रह से यहाँ दो गीत प्रस्तुत करते हुए हम पाठकों के साथ स्व. शीलेश जी की रचनात्मकता को साझा कर रहे हैं।}
दो गीत
बदली अम्बर से
बदली अम्बर से रिमझिम के गीतों को बरसाती
सावन में आवाज चूड़ियों की पवित्र हो जाती।।
साजन हुए बहिष्कृत आँखों में भाई गहराये
डूब गये राखी में झट सिंगारदान के साये।
रेखांकन : के. रविन्द्र |
राहों से हट गया बांकपन अब तिरछे नयनों का
पानी के मायाजालों पर रंग चढ़ा बहनों का।
ससुराली सूरत झूले के पास नहीं आ पाती।।
मुक्त वेश आँगन में थिरके बूढ़ी माँ के आगे
सौ-सौ मन के अरमानों को बांधें कच्चे धागे।
मंद-मंद मुस्कान खिलखिलाहट में डूब नहाती।।
स्वप्निल छाया मात्र रह गये सभी जेठ और देवर
भूली बिसरी याद बन गये सास ससुर के तेवर।
उड़ जाती ससुराल मल्हारें जब तालियाँ बजातीं।।
धूप कड़ी है
धूप कड़ी है
फिर भी दर्पण लिए
जिन्दगी पास खड़ी है
सांसों के घर्षण से
तन पर पड़ीं सलवटें
स्वयं रक्त-सम्बन्ध
बदलने लगे करवटें।
फिर भी बासी रोटी जैसे
चेहरे पर जीने की हिम्मत
अपना सीना तान खड़ी है।
उतरे टायर जैसी
मैली है दिनचर्या
पाँवों को दिनरात
जकड़कर बैठी शैया।
फिर भी मन में
तूफानों की कमी नहीं है
बारूदी पुस्तक
आँखों में खुली पड़ी है।
धूप कड़ी है।।
पारसनाथ बुलचंदानी
{वरिष्ठ कवि पारसनाथ बुलचंदानी जी का ग़ज़ल संग्रह ‘सहमत नहीं हूँ’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। इसमें उनकी 93 सशक्त सामयिक ग़ज़लें संग्रहीत हैं। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से दो ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
एक
कभी जो दार को देखा तो मुस्कराया था
खुदा ही जाने ये जज़्बा कहाँ से आया था
मसीहा था मैं न सरदार था, न ही मुल्ज़िम
सदा-ए-हक़ को मगर मैंने ही उठाया था
रेखांकन : अनिल सिंह |
हैं रोशनी के तरफदार तो बहुत-से मगर
बुझा हुआ दिया किसने यहाँ जलाया था
किसी दिवाने से मैंने सुना था गीत कभी
उसी को आज मुहब्बत से गुनगुनाया था
लिखी है उसने वो तारीख़ अपनी मर्ज़ी से
कि हमने ख़ून से अपने जिसे बनाया था
हुई थी उनसे मुलाक़ात एक दिन ‘पारस’
उसी ने ज़िंदगी जीना मुझे सिखाया था
दो
परदा किसी की आँख से ऐसा उठा कि बस
ग़फ़लत से कोई आदमी ऐसा जगा कि बस
ख़ंजर का वार पीठ में होने को था तभी
क़िस्मत से कोई आदमी ऐसा बचा कि बस
रफ्तार से ही जीने का आदी था कोई शख़्स
इक दिन मगर सफ़र में वो ऐसा रुका कि बस
बच्चों ने आके छीन ली मुझसे मेरी किताब
फिर शोर घर में दोस्तो ऐसा मचा कि बस
आँखें मेरी फ़लक से ही ‘पारस’ नहीं हटीं
पिंजरे से एक पंछी वो ऐसा उड़ा कि बस
- ‘गुरुप्रसाद’, मकान नं.1377, सेक्टर-8, फ़रीदाबाद-121006 (हरियाणा)
अमृत लाल मदान
हिग्ज़ बोसोन (ईश्वरीय कण)
लघुतम ईश्वरीय कण की तलाश
एक लंबी गुफा में
संभव हुई
अरबों-खरबों परमाणुओं के
परस्पर टकराने से!
विराटतम ईश्वरीय रूप के दर्शन
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
लाखों सैनिक जहाँ खड़े थे तत्पर
टकराने को परस्पर!!
सोचता हूँ
क्या भीतर और बाहर
टकराव में है ईश प्राप्ति
फिर किस खेत की मूली है
विश्व शांति अथवा मन की शांति?
- 1150/11, प्रो. कॉलोनी, कैथल-136027 (हरियाणा)
शशिभूषण बड़ोनी
सबसे बड़ी खबर
रोज खोलते ही
अखबार
खबरें भरी होती हैं
चोरी, हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार की
भयावह बेहद
ऐसा नहीं है कि
नहीं होती थी खबरें पहले ऐसी
अखबारों में
होती थी...
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
आजकल होता है अधिक
वह इसलिए कि
पहले लोग पढ़कर...सुनकर ऐसी खबरें
चौंक-चौंक पड़ते थे
चिन्ता करते थे...
निवारण खोजने को
राय...मशविरा देते थे....।
लेकिन अब सबसे बड़ी जो खबर
व चिन्ता व अफसोस की बात है
वह यह है कि
अब बड़ी से बड़ी दुर्घटनाओं
भ्रष्टाचार पर भी
नहीं होती कोई प्रतिक्रिया
चुपचाप रहते हैं लोग!
- आदर्श विहार, ग्राम व पोस्ट- शमशेर गढ़, देहरादून (उत्तराखण्ड)
मीनू ‘सुखमन’
{युवा कवयित्री मीनू ‘सुखमन’ का कविता संग्रह ‘सुखमन की तरह’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। उनके संग्रह से दो कविताएँ प्रस्तुत हैं।}
तारे
रात चाहते हैं सो जाएं
नींद आ गई तो तू
सपने में आएगा।
तेरी याद मगर
सोने नहीं देती
तू मेरे पास
कैसे पहुँच पाएगा
रात गुजर गई
तारे गिनते-गिनते
माँग लेंगे तुझे
रेखांकन : सिद्धेश्वर |
सारी रात तारे
जगमगाते रहे।
मानो मुझे समझाते रहे।
जो किस्मत में नहीं
वो कभी न मिल पाएगा।
मुहब्बत करनी है तो
किसी के दुःखों से कर
एक भी दुःख गर दूर
कर पाएगा,
सुकूं ख़ुद ही मिल जाएगा
अजनबी
ज़िन्दगी के सफ़र में
तन्हा हो गए हैं।
मंजिल नहीं था तू, मुसाफिर ही था,
रास्ते में तुझे छोड़ अलग हो गए हैं।
साथ-साथ नहीं चल रहे थे,
रास्ता कभी न था
फिर भी आज जाने क्यों
तन्हा हो गए हैं।
रास्ता तो जुदा था ही,
मंज़िल भी जुदा थी
फिर क्यों तुझे खो कर
हम परेशां हो गए है।
- मकान संख्या 14,गिलको वैली, रूपनगर-140001, पंजाब
साहिल
ग़ज़ल
हर कोई इस तरह से मुझे तक रहा है दोस्त
गोया मेरा वजूद कोई आइना है दोस्त
कल तक जो चल रहा था मेरा हाथ थामकर
वो शख्स आज देख मेरा रहनुमा है दोस्त
पंछी का घर तो नीला-नीला आसमान है
और मेरा आसमान मेरा पिंजरा है दोस्त
परवर भी क्या करे कि हर इक आदमी यहां
रेखांकन : पारस दासोत |
दो-चार गज भी दूर शहर से गये नहीं
क्यों सोच में उसी की जंगल बसा है दोस्त
हम मंच पर हैं इसके सिवा कुछ खबर नहीं
कि गिर रहा है पर्दा या तो उठ रहा है दोस्त
‘साहिल’ जिसे मैं ख्वाब में भी ना कभी मिला
वो शख़्स मानता है- वो मेरा खुदा है दोस्त
- नीसा, 3/15, दयानन्द नगर, राजकोट-360002(गुजरात)
जगदीश तिवारी
तय कर अपना सफर
अपने आपको
इतना बुलन्द कर
सब झुक जायें
तेरी आवाज पर
नैतिकता मुस्काने लगे
चरित्र छू ले अपना शिखर।
सपने जब भी
टूटने लगें
टूटने न दे
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
पंछी आकाश उड़े
कोई न काटे
उनके पर।
नदिया के बहने से
पानी है गंगा-जल
तभी तो हरियाया है
धरती का आँचल
चल! तू भी नदिया बन
तय कर
अपना सफर।
- 3 क 63, सेक्टर 5, हिरणमगरी, उदयपुर (राजस्थान)
विजय कुमार तन्हा
झूठा बहुत जमाना है
सच को यह बतलाना है।
झूठा बहुत जमाना है।
कौन घड़ी ये डिग जाये
इसका कौन ठिकाना है।
माया भीतर फंसकर तो,
जीवन भर पछताना है।
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल |
बेटी को न बोझ समझ,
जब तक आवो-दाना है।
हर आँगन रावण रहता,
मुस्किल बहुत जलाना है।
भूख, गरीबी औ‘ आँसू,
किस्मत का नजराना है।
द्वेष धरा से मिट जाये,
ऐसा दीप जलाना है।
भीड़ जिसे कर पाये ना,
‘तन्हा’ कर दिखलाना है।
- अवध भवन, पुवायाँ-242401, शाहजहाँपुर (उ.प्र.)
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