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शनिवार, 8 दिसंबर 2012

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 3, नवम्बर 2012


।।कथा प्रवाह।।

सामग्री : इस अंक में श्याम सुन्दर अग्रवाल,  डॉ. सुरेन्द्र गुप्त,  निर्मला सिंह, शोभा रस्तोगी ‘शोभा’, मनोज सेवलकर व  विनोद कुमारी किरन की लघुकथाएं।


श्याम सुन्दर अग्रवाल




उत्सव    
              
     सेना और प्रशासन की दो दिनों की जद्दोजेहद अंततरू सफल हुई। साठ फुट गहरे बोरवैल में फँसे नंगे बालक प्रिंस को सही सलामत बाहर निकाल लिया गया। वहाँ विराजमान राज्य के मुख्यमंत्री एवं जिला प्रशासन ने सुख की साँस ली। बच्चे के माँ-बाप व लोग खुश थे।
     दीन-दुनिया से बेखबर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया दो दिन से निरंतर इस घटना का सीधा प्रसारण कर रहा था। मुख्यमंत्री के जाते ही सारा मजमा खिड़ने लगा। कुछ ही देर में उत्सव वाला माहौल मातमी-सा हो गया। टी.वी. संवाददाताओं के जोशीले चेहरे अब मुरझाए हुए लग रहे थे। अपना साजो-सामान समेटकर जाने की तैयारी कर रहे एक संवाददाता के पास समीप के गाँव का एक युवक आया और बोला, ‘‘हमारे गाँव में भी ऐसा ही...’’
रेखांकन : बी मोहन नेगी 
     युवक की बात पूरी होने से पहले ही संवाददाता का मुरझाया चेहरा खिल उठा, ‘‘क्या तुम्हारे गाँव में भी बच्चा बोरवैल में गिर गया?’’
     ‘‘नहीं।’’
     युवक के उत्तर से संवाददाता का चेहरा फिर से बुझ गया, ‘‘तो फिर क्या?’’
     ‘‘हमारे गाँव में भी ऐसा ही एक गहरा गड्ढा नंगा पड़ा है’’, युवक ने बताया।
     ‘‘तो फिर मैं क्या करूँ?’’ झुँझलाया संवाददाता बोला।
     ‘‘आप महकमे पर जोर डालेंगे तो वे गड्ढा बंद कर देंगे। नहीं तो उसमें कभी भी कोई बच्चा गिर सकता है।’’
     संवाददाता के चेहरे पर फिर थोड़ी रौनक दिखाई दी। उसने इधर-उधर देखा और अपने नाम-पते वाला कार्ड युवक को देते हुए धीरे से कहा, ‘‘ध्यान रखना, जैसे ही कोई बच्चा उस बोरवैल में गिरे, मुझे इस नंबर पर फोन कर देना। किसी और को मत बताना। मैं तुम्हें इनाम दिलवा दूँगा।’’

  • बी-।/575, गली नं. 5, प्रताप सिंह नगर, कोट कपूरा (पंजाब)-151204


डॉ. सुरेन्द्र गुप्त

ग्रहण

   ‘अरे....उठो....उठो, चलो जल्दी करो...बस पन्द्रह मिनट ही तो रह गये हैं ग्रहण लगने में, बारह तो बज ही चुके हैं।’ पापा की एक ही आवाज में पिंटू, चिन्टू तथा टिन्कू आँखें मलते-मलते उठे तथा खाद के बोरे को काट-काटकर बनाये गये थैलों को अपने-अपने बाजुओं में टांगकर खड़े हो गये। सभी ने एक-एक थाली भी अपने-अपने हाथों में ले ली। बस कुछ ही पलों में वे अपने मम्मी-पापा के साथ बाहर हो लिए।
   बाहर निकलते ही नज़दीक की कॉलोनी में पहुँचकर उनके मम्मी-पापा ने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया- ‘दान करो...दान करो...ग्रहण लग गया...ग्रहण लग गया, अन्न दान करो, पुण्य कमाओ’। जैसे ही बच्चों ने अपने मम्मी-पापा को बोलते हुए सुना तो उनके भी मुखों से उसी प्रकार यन्त्र चालित-सा निकल पड़ा- ‘दान करो...दान करो....ग्रहण लग गया.....ग्रहण लग गया....दान करो’।
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
   लोग अपने-अपने घरों से निकल कर एक का या दो रुपये का सिक्का उनकी थालियों में डालने लगे। कोई-कोई गेहूँ लाकर उनके थैलों में डालने लगा। बच्चे क्या करते, जैसे ही कोई उनकी थाली में रुपया-दो रुपया डालता, वह थाली में से उठाकर अपनी फटी-पुरानी पेंट की जेब में बहुत संभालकर डाल लेते। शीतकाल की शुरूआत हो चुकी थी। बच्चे, जो क्रमशः पांच, छः, सात वर्षों के रहे होंगे, ठंड के इस वातावरण में भी एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे नंगे पैर भाग-भागकर खुशी-खुशी अनाज व पैसे एकत्र कर रहे थे। थोड़ी-थोड़ी देर के उपरांत जैसे ही उनके मम्मी-पापा बोलते- ‘दान करो, पुण्य कमाओ, कपड़े दान करो, अन्न दान करो’, तो बच्चे भी जोर से उनके पीछे-पीछे नकल करते हुए बोलने लगते।
   ग्रहण अढ़ाई घंटे तक रहा। गलियों-कूचों एवं कालोनियों में अढ़ाई घण्टे घूमने के बाद जब वे अपने घर पहुंचे तो उनके मुख पर थकान नाम की कोई चीज नज़र नहीं आ रही थी। तीनों बच्चे अपने मम्मी-पापा के इर्द-गिर्द बैठ गये थे और अपनी-अपनी जेबें खाली करने लगे थे। जब सबसे छोटे बेटे ने अपनी पेंट तथा कुर्ते की जेबों से चिल्लर निकाली तो सिक्कों की खनक से उसकी आँखें तेज चमक अथवा प्रकाश से भर गईं। जेबें खाली करता-करता वह पापा से बोल उठा- ‘पापा.....ये चन्द्र ग्रहण रोज-रोज क्यों नहीं लगता?’

  • आर.एन.-7, महेशनगर, अम्बाला छावनी-133001 (हरियाणा) 


निर्मला सिंह




निर्णय

   ‘तुम नौकरी ज्वाइन मत करो, माँ बनने का सुख तीन सालों के बाद मिला है।’ पति राकेश ने अपनी पत्नी गीता को कहा।
   ‘राकेश, तुम तो जानते ही हो, इस नौकरी के लिए एक-दो लाख तक घूस दी जा रही थी और मुझे तो ये नौकरी योग्यता पर मिली है। मैं इसे ठुकराना नहीं चाहती हूँ। बच्चा तो दो-तीन सालों बाद भी कर लेंगे।‘ गीता स्वर में तेजीपन लाकर बोली।
   ‘तुम्हारी ये बात ठीक है बेटी, लेकिन ज्यादा उम्र में बच्चा पालना मुश्किल हो जाता है और फिर बेटी गर्भपात के बाद दुबारा फिर माँ बनने का सौभाग्य तुम्हें दुबारा मिले या न मिले, ये तो ईश्वर की मर्जी पर निर्भर करता है...’ गीता की सास ने समझाया।
रेखांकन : राजेंद्र परदेशी 
    गीता ने सास, ससुर, पति तीनों की बातें सुनी, लेकिन उसे तो बस नौकरी करने की ही जिद थी, एवोर्शन के लिये कार लेकर चुपचाप अस्पताल चली गई। 
   ज्यों ही गीता डा0 गुप्ता के कमरे में प्रवेश करने वाली थी, कि उसके कानों ने सुना- ‘देखिये मिसेज सिंह, हमने आपसे पहिले बच्चे के गर्भपात करवाने के लिये मना भी किया था, लेकिन आपने हमारा कहना नहीं माना। अब आप ईश्वर पर भरोसा रखिये, पाँच वर्षों से आप गर्भवती नहीं हो पायी तब इसमें हम कुछ भी नहीं कर सकते। उस समय आप हमारा कहना मान लेती तब आपका बच्चा पाँच वर्ष का होता।’
   गीता डाक्टर के पास कमरे के अंदर नहीं गई और घर जाकर नौकरी के लिये त्यागपत्र लिखकर अपने पति को दे दिया। उसके इस अप्रत्यासित निर्णय पर सास, ससुर एवं पति सभी खुश थे।      


  • 185-ए, सिविल लाईन्स, बरेली-243001 (उ.प्र.)


शोभा रस्तोगी ‘शोभा’




फ़रियाद

     राशन दफ्तर में फरियाद हुई- “राशन कार्ड बनवाना है।” 
    ‘‘उधर जाइए...’’ दिशा निर्देशित करती हुई मुड़ी ऊँगली ने दबंग व्यक्ति की ओर इशारा किया। 
    ‘‘राशन...’’  पुनः प्रार्थना की। 
    ‘‘यह फार्म भरकर 1500 रुपए जमा कर दो।’’ हेकड़ी से भरपूर आवाज अकड़ी। 
    ‘‘1500 रुपए...? वो किसलिए...? यह सरकारी सुविधा तो मुफ़्त में प्रदत्त है!’’  फरियादी की आवाज में जागरूकता झलकी। 
    ‘‘तो सरकार से बनवा लो...’’  दबंग ऑफिसर का रुतबा बढ़कर बोला। 
    ‘‘मै एफ़.आई.आर. करवाऊँगा!’’ ज्वार-भाटे की लहरें घिर गईं फरियादी के माथे पर।   
    ‘‘एफ.आई.आर.! उसके लिए थानेदार को भेंट चढ़ाना मत भूलना!’’  दबंग व्यक्ति और दबंगई से बोला। 
रेखांकन : महावीर रंवाल्टा 
    ‘‘मै पार्षद-विधायक तक जाऊँगा।’’ माथे की लकीरों ने और विस्तार लिया। 
     ‘‘तो....जितना ऊपर जाओ, उतनी मोटी रकम लेते जाना। अधिक ऊपर मत चले जाना। वहाँ जो जाता है, लौटता नहीं है...’’ दबंग भेड़िया अपनी रोज़मर्रा की अनुभवी आवाज में गुर्राया। 
    ‘‘मतलब?... देश में भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन जाग्रत हो रहे हैं। अन्ना...”
     पूरी बात मुँह से निकल भी न हो पाई थी कि दबंग सर्प ने विषैला डंक मारा....‘‘क्या होगा इन सबसे? अन्ना हो या कोई और, सरकार तो अपना बचाव कर ही लेती है।’’
    ‘‘यह लोकतंत्र है?’’ वह रुआँसा हो गया। 
    ‘‘जी हुज़ूर....!!’’ दबंग ने पान की पीक पच्च से दीवार पर मारी और दाँत पीसे, ‘‘हाँ, यही लोकतंत्र है!!’’
     फ़रियादी बेहोश होकर वहीं गिर पड़ा।

  • RZ&D- 208 B, डी.डी.ए. पार्क रोड, राज नगर-2, पालम कालोनी, नई दिल्ली - 110077



मनोज सेवलकर




पराया

   ‘‘भाई मेहता जी, लीजिये मिठाई खाइये।’’ शर्मा जी ने मिठाई का डब्बा मेहता जी की ओर बढ़ाते हुए कहा।
   विस्मय मिश्रित भावों से मेहता जी ने शर्मा जी से पूछा-
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
   ‘‘क्यों शर्मा जी, मुझे अच्छी तरह से याद है कि आपने आज से पाँच साल पहले बेटे सुधांशु के इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिए स्वीकृत हुए पार्ट-फाइनल पर मिठाई खिलाई थी, फिर इन्जीनियरिंग परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करने पर भी मुँह मीठा करावाया था। यह तो मानना पड़ेगा कि आपने अपने सारे खर्चों को कम करके बच्चे को अच्छी शिक्षा व परवरिश दी। सुना है सुधांशु अब अमेरिका में बहुत बड़ी कम्पनी में नौकरी कर रहा है। अब तो आपके सारे कर्जे भी चुकता हो गये होंगे। अगले साल सेवानिवृत्ति के पश्चात आपका भी इरादा अमेरिका बसने का तो नहीं बन रहा है। अरे शर्मा जी, बातों-बातों में पूछना ही भूल गया ये मिठाई किस बात की बाँट रहे हैं?’’
   ‘‘भाई मेहता जी, सुधांशु ने अमेरिकन लड़की से शादी कर ली है, इस खुशी में!‘‘ कहते हुए वे धीरे से बुदबुदाये ‘‘सच कहूँ यह मिठाई बेटे के पराया होने की है।’’ यह कहते हुए उनके अधर सहसा चिपकते जा रहे थे व आँखें नम हो दुःख उजागर कर रही थीं।

  • 2892, ‘ई’ सेक्टर, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)



विनोद कुमारी किरन




होम में जले हाथ

    कान्ता के घर कोहराम मचा हुआ था। उसकी नौकरानी गीता का बारह वर्षीय बेटा स्कूल से वापस घर नहीं आया था। आज उसके रिजल्ट का दिन था। पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाला रघु आखिर कहाँ चला गया, सभी चिन्तित थे। गीता का पति, अनुज उसे खोजने गया था। गीता का रो-रो कर बुरा हाल था। कान्ता उसे सांत्वना दे रही थी।
    ‘‘रो मत गीता, रघु आ जाएगा। किसी बच्चे के साथ खेल रहा होगा।’’
    ‘‘भाभी जी, मेरा रघु कब आएगा? हाय मेरा बेटा!’’ कॉलोनी की सारी महिलाएं उसे घेर कर खड़ी थीं। कुछ उसे समझा रही थी। कुछ आपस में बातें कर रही थीं-
    ‘‘बड़ा खराब जमाना आ गया है। क्या पता कहीं चला गया हो!’’
    गीता और अनुज कान्ता के घर में सात-आठ साल से रह रहे थे। गीता घर में झाडू-पौंछा-बरतन करती थी और अनुज कान्ता के पति के ऑफिस में चपरासी था। उसके परिवार का खर्चा किसी तरह चल रहा था। कान्ता उसके बेटे रघु को पढ़ा दिया करती थी। रघु की शैतानियों को नियन्त्रित करने और वह पढ़ाई की ओर ध्यान देता रहे, इस कारण से कान्ता कभी-कभी सख्ती से पेश आती थी, कभी-कभार डांट भी देती थी। हाल ही में हुई परीक्षाओं से पहले उसने रघु को सख्ती से कहा भी था- ‘‘देख रघु, अगर तेरा रिजल्ट अच्छा नहीं आया, तो ठीक नहीं होगा!’’
     गीता का रुदन बढ़ता जा रहा था। अचानक ही वह कान्ता से बोली- ‘‘भाभी जी, लगता है वह भाग गया। वह आपसे बहुत डरता था। जरूर उसके नम्बर कम आए होंगे। भाभीजी, अब क्या होगा?’’
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
    कान्ता की हालत ‘काटो तो खून नहीं’ जैसी हो गई। ‘‘...यह क्या कह रही है? इसी के कहने पर तो मैंने उसे पढ़ाया, अपना समझकर उसके भले के लिए थोड़ी-बहुत सख्ती की। स्कूल की फीस भरी, किताबों के पैसे दिए। यहाँ तक कि सर्दी में स्वेटर भी बुन-बुनकर दिए। ...सब कुछ भुलाकर दोष मेरे ही ऊपर.... हे भगवान, रघु मिल जाए, नहीं तो पता नहीं यह क्या करेगी!’’
    पड़ोसियों में भी खुसफुसाहट होने लगी थी- ‘‘भला ऐसा कैसा पढ़ाया कि बच्चा घर छोड़कर ही भाग गया....?’’ जितने मुँह, उतनी ही बातें। कोई कह रहा था- पुलिस में रिपोर्ट लिखवाओ। कान्ता का पति टूर पर था। उसका सोच-सोच कर बुरा हाल था। ‘‘पुलिस में बात पहुँची तो क्या होगा? पुलिस न जाने कैसे-कैसे सवाल पूछेगी? हे राम क्या करूँ! प्रभु रघु को घर भेज दो... कैसे भी...।’’
     तभी सामने से अनुज के साथ रघु आता दिखाई दिया। कान्ता ने चैन की सांस ली। पूछने पर पता चला वह स्टेशन पर मिला है। अपने दादा-दादी के पास गाँव जाना चाहता था। एक जान-पहचान वाले ने उसे देखकर अपने पास बिठा रखा था। 
    भगवान को धन्यवाद देती हुई कान्ता आँखों में आँसू और मन में गुबार समेटे अपने कमरे में आ गई। तभी उसने सुना, रघु सबके बीच अपनी माँ को बता रहा था कि उसका रिजल्ट कक्षा में सबसे अच्छा रहा है।

  • जी-127, उदयपथ, श्यामनगर विस्तार, जयपुर, राजस्थान।

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