अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 11-12, जुलाई-अगस्त 2013
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में डॉ. कुँअर बेचैन, प्रो. विनोद अश्क, डॉ. राकेश वत्स, श्री कृष्ण सुकुमार व श्री पवन कुमार ‘पवन’, कुमार नयन, जयप्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. शुभदर्शन, पीताम्बर दास सराफ ‘रंक’ व डॉ. शारदाप्रसाद ‘सुमन’ की काव्य रचनाएं।
‘‘भावों के आकाश’’
{उ.प्र. के शामली नगर की साहित्यिक संस्था ‘चेतना’ पिछले कुछ वर्षों से अपनी स्मारिका एक अखिल भारतीय स्तर के काव्य संकलन के रूप में प्रकाशित कर रही है, जिसका संपादन संस्था के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि प्रो. विनोद अश्क जी करते हैं। वर्ष 2013 का संकलन ‘‘भावों के आकाश’’ नाम से प्रकाशित किया गया है, जिसमें कुछ नये रचनाकारों के साथ देश के कई मूर्धन्य कवि शामिल हैं। कुल 30 कवियों की रचनाओं को अपने कलेवर में समेटे ‘‘भावों के आकाश’’ से हम यहाँ पांच रचनाकारों- डॉ. कुँअर बेचैन, प्रो. विनोद अश्क, डॉ. राकेश वत्स, श्री कृष्ण सुकुमार व श्री पवन कुमार ‘पवन’ की एक-एक रचना अपने पाठकों से संकलन का परिचय कराने के उद्देश्य से रख रहे हैं।}
डॉ. कुँअर बेचैन
सबने सोचा था यहीं पास में होगी नदियाँ
सबने सोचा था यहीं पास में होगी नदियाँ
किसको मालूम था बनवास में होंगी नदियाँ
जिसने अश्कों को मेरी आँख से गिरने न दिया
बस उसी आह के अहसास में होंगी नदियाँ
एक बादल से सुलगता-सा मरुस्थल बोला
आप देखें, मेरे इतिहास में होंगी नदियाँ
मेरे चेहरे पे यही लिख के गिरे थे आँसू
जा, तेरे होठ की हर प्यास में होंगी नदियाँ
यों तो जीवन के हर एक श्लेष से गुज़री हैं ये
पर अभी नैन के अनुप्रास में होंगी नदियाँ
प्रो. विनोद अश्क
ग़ज़ल
ये अलग कि मिलने का सिलसिला नहीं रहता
उसके मेरे रिश्ते में फासला नहीं रहता
जब भी मेरी तन्हाई आपको तरसती है
धड़कनों को अपना भी, कुछ पता नहीं रहता
आज तक भी ज़िन्दा हैं लोरियों की यादें माँ
चुप्पियों के सीने में, क्या ख़ुदा नहीं रहता
आइने से बस अपने गर्द सी हटा ले तू
तेरे साथ रहता हूँ मैं जुदा नहीं रहता
इस तरह ये मिलते हैं बेख़ुदी के आलम में
उनसे बात करने का हौसला नहीं रहता
जिस जगह भी जाता हूँ, लोग दिल से मिलते हैं
बस उसी का कुछ मुझसे वास्ता नहीं रहता
लोग उसके चेहरे से डर के लौट जाते हैं
अब सुना है घरती पर देवता नहीं रहता
डॉ. राकेश वत्स
ग़ज़ल
इक अधूरे ख़्वाब में टूटा हुआ पर देखना
या कि बस आकाश में लटके हुए सर देखना
काँपना थरथर हवा बिन ज़र्द पत्तों की तरह
घोसलों में फिर नये नोचे हुए पर देखना
मैं तुम्हें आवाज़ दूँ जब भी निगाहों से कभी
तुम मेरी आवाज़ को बाँहों में भर कर देखना
कैसा लगता है समन्दर को बिना देखे हुए
छोटे छोटे से तालाबों में समन्दर देखना
ये सफ़र है नींद है या ज़िन्दगी की असलियत
देर तक हिलता हुआ एक हाथ अक्सर देखना
कृष्ण सुकुमार
ग़ज़ल
ग़ज़ल, ऐ ज़िन्दगी! तुझ पर कहूँ या फिर ज़माने पर
कहूँ अपने ही अश्कों पर कि तेरे मुस्कुराने पर
घुमाया मस्अलों ने उम्र भर कुछ इस तरह मुझको
न मैं अपनी जगह पर हूँ, न दिल अपने ठिकाने पर
झुका कर सर अगर रखता तो मैं भी ऐश कर लेता
चुकानी पड़ गयी कीमत हमेशा सर उठाने पर
अगर है हौसलों में दम, उम्मीदें जगमगाती हैं
उजाले कम नहीं होते चरागों को बुझाने पर
बहुत अच्छा है खुद्दारी अगर तेरा ख़जाना है
अना के अज़दहे लेकिन बिठाये क्यों ख़जाने पर
पवन कुमार ‘पवन’
ग़ज़ल
आस्था जिसका घर नही होता
उस दुआ में असर नहीं होता
बात इतनी सी भूल बैठे हैं
कोई भी तो अमर नहीं होता
वो ही चढ़ पाता है बुलंदी पर
जिसको गिरने का डर नहीं होता
हीरे पत्थर बने पड़े रहते
कोई जौहरी अगर नहीं होता
अपने पैरों पे जो नहीं चलता
पूरा उसका सफ़र नहीं होता
जीत सुख की या दुख की जीवन में
फ़ैसला उम्र भर नहीं होता
गर न रहता पवन तो उपवन में
कोई ख़ुश्बू से तर नहीं होता
कुछ और कविताएं
कुमार नयन
ग़ज़ल
चला गया बहुत तो ग़म क्या है
अभी भी पास मेरे कम क्या है
बला-ए-भूख तोड़ दे सब कुछ
उसूल क्या है ये क़सम क्या है
मिरे ख़ुदा अगर तू सबमें है
तो फिर ये दैर क्या हरम क्या है
हमारे तुम हो हम तुम्हारे हैं
अगर ये सच है तो भरम क्या है
तमाम उम्र रहगुज़र पे कटी
मैं मर गया तो चश्मेनम क्या है
हरेक चोट ने दुआ दी है
हमें पता नहीं सितम क्या है
जयप्रकाश श्रीवास्तव
....शतरंज के प्यादे ही रहे
हम तो शतरंज के
प्यादे ही रहे
नहीं बन पाये
कभी भी बज़ीर
काले और गोरे
मुहरों का खेल
आड़ी तिरछी चालें
साथी बे-मेल
सत्ता की राहों में
पैदल ही चले
नहीं छू पाये
आखिरी लकीर
उधड़ी कई बार
बदन की खालें
शह और मात में
शकुनी की चालें
बिना अस्त्र-शस्त्र के
लड़े गये युद्ध
सिर मुड़वाये
नहीं बदली तकदीर
आ रही सड़ाँध
व्यवस्थाओं से
टूटे मन
कोरी आस्थाओं से
षड़यंत्रों के आगे
हार गया सच
और बिक गये
लोगों के ज़मीर
पीताम्बर दास सराफ ‘रंक’
मिलन
मिलन के पहले की खामोशी
कितनी अजीब थी
तू थरथरा रही थी
और मैं
एक अनुमान में जी रहा था
तूने सोचा
मैं कुछ कह रहा था
मैंने भी सोचा
तू कुछ कह रही थी
हम दोनों
हवा की सरसराहट
नदी की गुनगुनाहट
सुन रहे थे
तभी टहनियाँ चटकी
पत्ते झंकारे
फूलों ने हंसी बिखेरी
और एक चिड़िया
नाद करती हुई उड़ गई
डॉ. शारदाप्रसाद ‘सुमन’
गीत
आतंक-नाग कुण्डली मार, अब बैठा है हर गली-गाँव।
दिखलाता अपना कुटिल रूप, जहरीला करता सभी ठाँव।।
जनता करती है त्राहि-त्राहि
फैला घर-आँगन में विषाद।
कर शक्तिहीन मुहताज बना,
फैलाता घर-घर में विवाद।
हम हार रहे हर शह पर हैं, जीता शकुनी हर बार दाँव।
तेरे-मेरे की लगी होड़,
अपनत्व भाव सब दूर हुआ।
भाई-चारे का भाव कहाँ,
सब कुछ तो चकनाचूर हुआ।
कल जो भूमण्डल शीतल था, वह तपता-कपता जगत पाँव।
मनमीत कहाँ जनरीति कहाँ,
सब मटमैले हो रहे साज।
माली फूलों को डसता है,
मन पक्षी जग यह बना बाज।
बारुदों के ऊपर बैठे, पर करते छलते वे दुःखद घाव।
अब राम जुहारी हुआ दूर,
पागलपन सिर पर है सवार।
बातों-बातों में चल जाती,
खूनी गोली तन आर-पार।
है रक्षक भक्षक बना यहाँ, जैसे खूनी का हो पड़ाव।
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में डॉ. कुँअर बेचैन, प्रो. विनोद अश्क, डॉ. राकेश वत्स, श्री कृष्ण सुकुमार व श्री पवन कुमार ‘पवन’, कुमार नयन, जयप्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. शुभदर्शन, पीताम्बर दास सराफ ‘रंक’ व डॉ. शारदाप्रसाद ‘सुमन’ की काव्य रचनाएं।
‘‘भावों के आकाश’’
{उ.प्र. के शामली नगर की साहित्यिक संस्था ‘चेतना’ पिछले कुछ वर्षों से अपनी स्मारिका एक अखिल भारतीय स्तर के काव्य संकलन के रूप में प्रकाशित कर रही है, जिसका संपादन संस्था के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि प्रो. विनोद अश्क जी करते हैं। वर्ष 2013 का संकलन ‘‘भावों के आकाश’’ नाम से प्रकाशित किया गया है, जिसमें कुछ नये रचनाकारों के साथ देश के कई मूर्धन्य कवि शामिल हैं। कुल 30 कवियों की रचनाओं को अपने कलेवर में समेटे ‘‘भावों के आकाश’’ से हम यहाँ पांच रचनाकारों- डॉ. कुँअर बेचैन, प्रो. विनोद अश्क, डॉ. राकेश वत्स, श्री कृष्ण सुकुमार व श्री पवन कुमार ‘पवन’ की एक-एक रचना अपने पाठकों से संकलन का परिचय कराने के उद्देश्य से रख रहे हैं।}
डॉ. कुँअर बेचैन
सबने सोचा था यहीं पास में होगी नदियाँ
सबने सोचा था यहीं पास में होगी नदियाँ
किसको मालूम था बनवास में होंगी नदियाँ
जिसने अश्कों को मेरी आँख से गिरने न दिया
बस उसी आह के अहसास में होंगी नदियाँ
रेखांकन : बी मोहन नेगी |
एक बादल से सुलगता-सा मरुस्थल बोला
आप देखें, मेरे इतिहास में होंगी नदियाँ
मेरे चेहरे पे यही लिख के गिरे थे आँसू
जा, तेरे होठ की हर प्यास में होंगी नदियाँ
यों तो जीवन के हर एक श्लेष से गुज़री हैं ये
पर अभी नैन के अनुप्रास में होंगी नदियाँ
- 2 एफ-51, नेहरू नगर, गाजियाबाद (उ प्र) 201001
प्रो. विनोद अश्क
ग़ज़ल
ये अलग कि मिलने का सिलसिला नहीं रहता
उसके मेरे रिश्ते में फासला नहीं रहता
जब भी मेरी तन्हाई आपको तरसती है
धड़कनों को अपना भी, कुछ पता नहीं रहता
आज तक भी ज़िन्दा हैं लोरियों की यादें माँ
चुप्पियों के सीने में, क्या ख़ुदा नहीं रहता
आइने से बस अपने गर्द सी हटा ले तू
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
तेरे साथ रहता हूँ मैं जुदा नहीं रहता
इस तरह ये मिलते हैं बेख़ुदी के आलम में
उनसे बात करने का हौसला नहीं रहता
जिस जगह भी जाता हूँ, लोग दिल से मिलते हैं
बस उसी का कुछ मुझसे वास्ता नहीं रहता
लोग उसके चेहरे से डर के लौट जाते हैं
अब सुना है घरती पर देवता नहीं रहता
- नटराज विला, 418, गगन विहार, शामली-247776 (उ.प्र.)
डॉ. राकेश वत्स
ग़ज़ल
इक अधूरे ख़्वाब में टूटा हुआ पर देखना
या कि बस आकाश में लटके हुए सर देखना
रेखा चित्र : के रविन्द्र |
काँपना थरथर हवा बिन ज़र्द पत्तों की तरह
घोसलों में फिर नये नोचे हुए पर देखना
मैं तुम्हें आवाज़ दूँ जब भी निगाहों से कभी
तुम मेरी आवाज़ को बाँहों में भर कर देखना
कैसा लगता है समन्दर को बिना देखे हुए
छोटे छोटे से तालाबों में समन्दर देखना
ये सफ़र है नींद है या ज़िन्दगी की असलियत
देर तक हिलता हुआ एक हाथ अक्सर देखना
- आदर्श कालौनी, नई बस्ती,माजरा, शामली, जिला- मु0नगर (उ.प्र.)
कृष्ण सुकुमार
ग़ज़ल
ग़ज़ल, ऐ ज़िन्दगी! तुझ पर कहूँ या फिर ज़माने पर
कहूँ अपने ही अश्कों पर कि तेरे मुस्कुराने पर
घुमाया मस्अलों ने उम्र भर कुछ इस तरह मुझको
न मैं अपनी जगह पर हूँ, न दिल अपने ठिकाने पर
रेखा चित्र : मनीषा सक्सेना |
झुका कर सर अगर रखता तो मैं भी ऐश कर लेता
चुकानी पड़ गयी कीमत हमेशा सर उठाने पर
अगर है हौसलों में दम, उम्मीदें जगमगाती हैं
उजाले कम नहीं होते चरागों को बुझाने पर
बहुत अच्छा है खुद्दारी अगर तेरा ख़जाना है
अना के अज़दहे लेकिन बिठाये क्यों ख़जाने पर
- 153-ए/8, सोलानी कुंज, भा. पौ. सं., रूड़की-247667(उत्तराखण्ड)
पवन कुमार ‘पवन’
ग़ज़ल
आस्था जिसका घर नही होता
उस दुआ में असर नहीं होता
बात इतनी सी भूल बैठे हैं
कोई भी तो अमर नहीं होता
वो ही चढ़ पाता है बुलंदी पर
जिसको गिरने का डर नहीं होता
हीरे पत्थर बने पड़े रहते
रेखा चित्र : पारस दासोत |
कोई जौहरी अगर नहीं होता
अपने पैरों पे जो नहीं चलता
पूरा उसका सफ़र नहीं होता
जीत सुख की या दुख की जीवन में
फ़ैसला उम्र भर नहीं होता
गर न रहता पवन तो उपवन में
कोई ख़ुश्बू से तर नहीं होता
- बैंक ऑफ इण्डिया, निकट सहारनपुर बस स्टैण्ड, मु0नगर, उ.प्र.
कुछ और कविताएं
कुमार नयन
ग़ज़ल
चला गया बहुत तो ग़म क्या है
अभी भी पास मेरे कम क्या है
बला-ए-भूख तोड़ दे सब कुछ
उसूल क्या है ये क़सम क्या है
मिरे ख़ुदा अगर तू सबमें है
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
हमारे तुम हो हम तुम्हारे हैं
अगर ये सच है तो भरम क्या है
तमाम उम्र रहगुज़र पे कटी
मैं मर गया तो चश्मेनम क्या है
हरेक चोट ने दुआ दी है
हमें पता नहीं सितम क्या है
- ख़लासी मुहल्ला, पो. व जिला: बक्सर-802101 (बिहार)
जयप्रकाश श्रीवास्तव
....शतरंज के प्यादे ही रहे
हम तो शतरंज के
प्यादे ही रहे
नहीं बन पाये
कभी भी बज़ीर
काले और गोरे
मुहरों का खेल
आड़ी तिरछी चालें
साथी बे-मेल
सत्ता की राहों में
पैदल ही चले
नहीं छू पाये
आखिरी लकीर
उधड़ी कई बार
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर |
बदन की खालें
शह और मात में
शकुनी की चालें
बिना अस्त्र-शस्त्र के
लड़े गये युद्ध
सिर मुड़वाये
नहीं बदली तकदीर
आ रही सड़ाँध
व्यवस्थाओं से
टूटे मन
कोरी आस्थाओं से
षड़यंत्रों के आगे
हार गया सच
और बिक गये
लोगों के ज़मीर
- आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी, शक्तिनगर, जबलपुर-482001, म.प्र.
डॉ. शुभदर्शन
{युवाकवि डॉ. शुभदर्शन का कविता संग्रह ‘‘संघर्ष ममता का’’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था। दो खंडों के इस संग्रह में ‘माँ’ को केन्द्र में रखकर रची गई कविताएँ शामिल हैं। प्रथम खंड में महाभारत की ‘कुन्ती’ को केन्द्र में रखकर कुन्ती-कर्ण प्रकरण पर तीन लम्बी कविताएं तथा दूसरे खंड में कवि के पूर्व प्रकाशित तीन संग्रहों से चयनित ‘माँ’ विषयक कविताएँ शामिल हैं। इस संग्रह के दूसरे खंड से प्रस्तुत हैं दो कविताएँ।}
भोली थी मां
मर गई पड़ोसन चाची
मेरी माँ की राजदार
एक सखी, एक बेटी
हर मुश्किल घड़ी में
खड़ी थी साथ
मुसीबतों के कितने पहाड़
अपने सिर पर झेल गई मां
झेल गई ससुराल में आते ही
पति की झिड़कियां
हर बात का इल्जाम
अपने सिर लेकर भी
कभी उफ् नहीं की
कितनी बिजलियां गिरी थीं
जब प्रेमी संग भागी बेटी का दोषी
मां को ठहराया गया
घर-समाज, समाज के ताने
चुपचाप सह गई वह
सह गई पति की मार
बेटे के उज्ज्वल
भविष्य की उम्मीद लिए
पड़ोसन चाची की नसीहत,
-लड़कियों की वफ़ा-वेवफ़ाई
दोनों ही कर देती हैं- तबाह,
को भूला तो
टूट गई थी मां
हो गई थी गुम
छोटी-सी बात से फफ़क उठती
अपने जन्म को कोसती-
पड़ोसन चाची के सामने
मुझसे ख़फा होर भी
रही मेरी ढाल
समस्या आते ही घर में
गुमसुम बैठ जाना
-हल नहीं होता -
कहा करती थी मां
कितनी भोली थी मां
जख्मों की चारदीवारी
और दुखों की छत को
समझती रही घर
गुमसुम है गौरैया
तेज आंधी है
और
पहरे पर बैठे हैं कौवे
गुमसुम है- गौरैया
बाहर निकलने का रास्ता भी तो नहीं
दाना जरूरी है
झांकती है बाहर
देखती है अंदर
चिंता में है
कैसे निभाएगी फ़र्ज
सोचती है गौरैया
तड़पती है गौरैया
बिलबिलाती है गौरैया
बस! इक आस पर टिकी है- गौरैया
मां ने भी
यह यातना झेली तो होगी
मां ने भी आंधी देखी तो होगी
पर कौवे!!
खामोश है गौरैया
कर्जदार है गौरैया
- 7, फ्रेन्ड्स कॉलोनी, सेक्रेड हार्ट स्कूल के पीछे, मजीठा रोड, अमृतसर, पंजाब
पीताम्बर दास सराफ ‘रंक’
मिलन
मिलन के पहले की खामोशी
कितनी अजीब थी
तू थरथरा रही थी
और मैं
एक अनुमान में जी रहा था
तूने सोचा
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर |
मैं कुछ कह रहा था
मैंने भी सोचा
तू कुछ कह रही थी
हम दोनों
हवा की सरसराहट
नदी की गुनगुनाहट
सुन रहे थे
तभी टहनियाँ चटकी
पत्ते झंकारे
फूलों ने हंसी बिखेरी
और एक चिड़िया
नाद करती हुई उड़ गई
- एम-2, स्टरलिंग केसल्स, होशंगाबाद रोड, भोपाल-462026 (म.प्र.)
डॉ. शारदाप्रसाद ‘सुमन’
गीत
आतंक-नाग कुण्डली मार, अब बैठा है हर गली-गाँव।
दिखलाता अपना कुटिल रूप, जहरीला करता सभी ठाँव।।
जनता करती है त्राहि-त्राहि
फैला घर-आँगन में विषाद।
कर शक्तिहीन मुहताज बना,
फैलाता घर-घर में विवाद।
हम हार रहे हर शह पर हैं, जीता शकुनी हर बार दाँव।
तेरे-मेरे की लगी होड़,
अपनत्व भाव सब दूर हुआ।
भाई-चारे का भाव कहाँ,
सब कुछ तो चकनाचूर हुआ।
कल जो भूमण्डल शीतल था, वह तपता-कपता जगत पाँव।
रेखा चित्र : राजेंद्र सिंह |
मनमीत कहाँ जनरीति कहाँ,
सब मटमैले हो रहे साज।
माली फूलों को डसता है,
मन पक्षी जग यह बना बाज।
बारुदों के ऊपर बैठे, पर करते छलते वे दुःखद घाव।
अब राम जुहारी हुआ दूर,
पागलपन सिर पर है सवार।
बातों-बातों में चल जाती,
खूनी गोली तन आर-पार।
है रक्षक भक्षक बना यहाँ, जैसे खूनी का हो पड़ाव।
- 186/273, कमलानगर (खेरा), टापा रोड, फिरोजाबाद-282203 (उ.प्र.)
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