अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 11-12 , जुलाई-अगस्त 2013
{अविराम के ब्लाग के इस अंक में श्री सुरेश जांगिड़ 'उदय' द्वारा सम्पादित वरिष्ठ कथाकार डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाओं के संग्रह ‘‘डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएं’’ एवम वरिष्ठ कथाकार-समालोचक डॉ बलराम अग्रवाल द्वारा सम्पादित समालोचना पुस्तक 'समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद' की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा तथा वरिष्ठ साहित्यकार श्री ललित नारायण उपाध्याय के व्यंग्य लघुकथा संग्रह "एक गधे का प्रमोशन" की डॉ. राम कुमार घोटड द्वारा लिखित समीक्षायें रख रहे हैं। लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर भेजें।}
डॉ. उमेश महादोषी
एक बड़े लघुकथाकार की लघुकथाओं से रू-ब-रू होना
साहित्य की किसी भी विधा का महत्व इस बात से तय होता है कि वह विधा समग्रतः अपने साहित्यिक उद्देश्य में कहाँ तक सफल है। इस परिप्रेक्ष्य में लघुकथा के विधागत योगदान का मूल्यांकन करना हो तो हमें उसके फलक पर छाए तमाम सृजन-बिन्दुओं पर दृष्टि डालनी होगी, जो फलक की व्यापकता के भी कारण बनते हैं। वर्तमान समकालीनता के दायरे में आने से पूर्व लघुकथा के जितने भी रूप-स्वरूप मौजूद हैं, उनके सापेक्ष चार-पाँच दशकों में लघुकथा का जो रूप-स्वरूप विकसित होकर सामने आया है, वह उसके विधागत समकालीन साहित्यिक उद्देश्य को बड़े स्तर पर पूरा करता है। उसके विधागत फलक पर जीवन की व्यापकता की परतों को उघाड़ते मानवीय व्यवहार के अनेकानेक चित्र और संवेदनाएँ अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। इस रास्ते पर लघुकथा को लाने में लघुकथा के कई हस्ताक्षरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, डॉ. सतीश दुबे जी उनमें अग्रणी हैं। डॉ. दुबे साहब ने हमेशा से प्रयास किया है कि लघुकथा रूपाकार, शिल्प-शैली और विषय-कथ्य, किसी भी स्तर पर एकांगी पथ की यात्री बनकर न रह जाये! उनका यह प्रयास आलेखों-साक्षात्कारों से आगे जाकर उनके सृजन में व्यापक स्तर पर प्रतिबिम्बित हुआ है।
जीवन के विभिन्न पक्षों और मानवीय संवेदना के विभिन्न रूपों से जुड़े अनेकानेक कथ्यों को दुबे साहब ने अपनी लघुकथाओं में अभिव्यक्ति दी है और गहन अनुभूतिपरक लघुकथाओं का सृजन किया है। अब तक उनके छः लघुकथा संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनकी लघुकथाओं में एक नहीं, कई ऐसी हैं, जो पाठक के अन्तर्मन में तूफानी हलचल पैदा कर देती हैं, चेतना और संवेदना- दोनों स्तरों पर। कई ऐसी हैं जो मनुष्य के अहंकार पर चोट करती हैं, उसमें यथास्थिति के प्रति व्यामोह से जनित छटपटाहट पैदा करती हैंे, और अन्ततः अहंकारमय यथास्थिति के कवच को तोड़कर बाहर आने के लिए विवश करती हैं। दूसरी ओर उन्होंने ऐसी लघुकथाओं का सृजन भी किया है, जिनमें वह हमें जीवन-सरस्वती की उस धारा से रूबरू करा रहे होते हैं, जिसके यथार्थ के परिदृश्य से लुप्त हो जाने के बावजूद हम अपने अन्तर्मन के पटल से लुप्त होना स्वीकार नहीं कर पाते।
जैनेरेशन गैप, जीवन का एक ऐसा पहलू है, जो सामाजिक-पारिवारिक जीवन के स्नेह-तंतुओं में सड़ांध पैदा करने लगा है। इस विषय को जितनी गहराई से दुबे साहब ने समझा है, वह कम ही जगह देखने को मिलेगा। नई पीढ़ी के साथ वह बेहद व्यावहारिक सोच के साथ खड़े नजर आते हैं। निसंदेह उनकी इस व्यावहारिक सोच के पीछे जीवन के सत्य और उद्देश्य के प्रति गहरी समझ खड़ी होती है। जिस संतान को हम बेहद लाड़-दुलार के साथ पालते-पोषते हैं, बचपन में उनकी जाने कितनी नादानियों पर खुशियों से झूम उठते हैं, यकायक उनकी युवावस्था में हम उन्हें घोड़ों की तरह नियंत्रित करना अपना अधिकार समझने लग जाते हैं। जबकि उनकी अनेकानेक भावनाओं के विकास के लिए कहीं न कही हम स्चयं भी जिम्मेवार होते हैं। नई पीढ़ी की भावनाओं को समझना और उनके साथ तालमेल की जिम्मेवारी वरिष्ठ पीढ़ी के कंधों पर कहीं अधिक होती है। बाल मनोविज्ञान और स्त्री विमर्श पर भी उनकी कई लघुकथाएँ गहरे तक प्रभावित करती हैं। बड़ी संख्या में उनकी लघुकथाओं को उनके पाठक लम्बे समय तक भुला नहीं सकेगें। अकादमिक स्तर भी उनकी लघुकथाएँ लम्बे समय तक चर्चा में रहेंगी।
डॉ. दुबे साहब के व्यापक लघुकथा संसार से अपनी पसन्द की करीब 99 श्रेष्ठ लघुकथाओं का चयन कर भाई सुरेश जांगिड़ ‘उदय’ ने प्रमुख लघुकथाकारों की श्रेष्ठ लघुकाथाओं की प्रस्तुति की अपनी योजना की प्रथम कड़ी के रूप में ‘डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ नाम से प्रस्तुत किया है। साहित्य की महत्वपूर्ण विधाओं के सापेक्ष लघुकथा के महत्व को भी रेखांकित करने के सन्दर्भ में उनकी सोच को सकारात्मक दृष्टि से देखा जा सकता है। निसंदेह आज कई लघुकथाकार हमारे बीच मौजूद हैं, जिन्हें हम समकालीन महान साहित्यकारों की श्रेणी में रख सकते हैं और लघुकथा पर कई आरोपों के बावजूद कई लघुकथाओं को हम कालजयी रचनाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। फिर इनका नोटिस लेने से पीछे क्यों रहा जाये? जिस सम्मान के वे हकदार हैं, उससे उन्हें क्यों वंचित रखा जाये?
इस पुस्तक में दुबे साहब की कई प्रसिद्ध और प्रभावशाली लघुकथाएँ शामिल हैं। इनमें प्रेम और अपनेपन की डोर से एक मनुष्य और जानवर (बन्दर) के बीच बने रिश्ते की अटूटता और निश्छलता को रेखांकित करती ‘रिश्ताई नेह बंध’ और इसी अटूटता व निश्छलता पर आघात होने पर एक पशु के विद्रोह को अभिव्यक्ति देती ‘प्रतिरोध’ जैसी लघुकथाएँ हैं। इसमें संग्रहीत उनकी सुप्रसिद्ध लघुकथा ‘वर्थ-डे गिफ्ट’ में एक पोती और उसके दादा जी के रिश्ते में व्यात ऊर्जा बाल मनोविज्ञान की सुखद व्याख्या करती है। लेकिन जब आयु के साथ बच्चों का अन्तर्मन स्वार्थ के पाग में पग जाता है तो ‘थके पाँवों का सफ़र’ के चाचाजी की सूखी आँखों के आँसू पाठक की आँखों तक पहुँच जाते हैं।
बाल मनोविज्ञान के विविधि पहलुओं को रेखांकित करती ’खेल वाली माँ’, ‘विनियोग’, ‘दिल का दायरा’, ‘पेड़ों की हँसी’, ‘बस एक कहानी और’ जैसी सशक्त लघुकथाएँ भी यहाँ संग्रहीत हैं। ‘प्रमुख अतिथि’ लघुकथा भी शामिल है, जिसमें हरदर्शन जैसा बड़ा आदमी बेटे की जन्मदिन पार्टी में अपने प्रमुख चालक शिवलाल को परिवार का हिस्सा और गुरु मानकर प्रमुख अतिथि बनाता है। इसमें यथार्थ के पटल से लुप्त जीवन-सरसवती को पाठक अपने अर्न्तमन के पटल पर खोजता महसूस करता है। इसी श्रेणी की ‘गबरू चरवाहा’, ‘बन्दगी’, ‘धरमभाई’, ‘रहनुमा’ जैसी लघुकथाएँ भी पाठकों के अन्तर्मन को आनन्दानुभूति से सराबोर करती हैं। प्रेम की गहन अनुभूति को अभिव्यक्त करती लघुकथा ‘प्रेम-ब्लॉग’ एक शैलीगत प्रयोग भी है। ‘पहचाना कि नहीं?’ एवं ‘सपनों का स्वेटर’ भी गहन प्रेम अनुभूति की रचनाएँ हैं। इसी पृष्ठभूमि से जुड़ी लघुकथा ‘पासा’ को शिल्पगत कसावट के लिए भी याद रखा जा सकता है। प्रतिकूल समय में बड़ों (अपनों) का साथ और सहानुभूति व्यक्ति को टूटने से बचा लेती है; ‘फीनिक्स’ में इसे प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है। ‘मर्द’ व ‘उत्स’ जैसी रचनाएँ निराशाजनक वातावरण में भी जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोंण की प्रेरणा बनती हैं। ‘बाबूजी’, ‘भीड़’, ‘अगला पड़ाव’, ‘फूल’ आदि रचनाओं में गहन मानवीय संवेदना के अलग-अलग रूप देखने को मिलते हैं।
हिन्दू-मुस्लिम परिवारों में पारस्परिक स्नेह के रिश्तों के अनेक उदाहरण हमारे समाज में दिखाई दे जाते हैं। इन रिश्तों की गर्माहट को उजागर करने का अपना महत्व है, क्योंकि दोनों समुदायों को अपनी प्रगति करनी है, जीवन को सिद्दत से जीना है तो अन्ततः एक साथ ही रहना होगा। मानवीय लोकतन्त्र में इसका कोई और विकल्प नहीं है। पाकिस्तान का अलग अस्तित्व भी नकारात्मक आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पाया है। ऐसे में विद्यमान वातावरण को बदलने के प्रयास साहित्य सृजन के स्तर पर रिश्तों की इसी गर्माहट को रेखांकित करके हो सकते हैं। ‘वादा’, ‘रिश्तों की सरहद’ जैसी लघुकथाएँ अन्तर्धर्मीय रिश्तों की इसी गर्माहट के संचरण का माध्यम बनती हैं। ‘अतिथि’ का संदेश भी इसी दिशा में देखा जाना चाहिए। ‘अंतिम सत्य’ का तो सीधा संदेश ही यही है।
भय और शोषण के खिलाफ साहस और संघर्ष की अभिव्यक्ति सकारात्मक सृजन का हिस्सा होती है। इस पृष्ठभूमि पर रचे गए कथ्यों को ‘प्रज्ज्वलितं श्रेयं’, ‘योद्धा’, ‘माँ का धर्म’, ‘दस्तूर’ जैसी लघकथाओं में प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित किया गया है। व्यवस्था की संवेदनहीनता पर ‘फैसला’, ‘भूत’, ‘हुकुम सरकार का’ तथा सामाजिक संवेदनहीनता को उजागर करती ‘कत्ल’, ‘शहर के बीच मौत’ जैसी कई महत्वपूर्ण लघुकथाओं का चयन इस संग्रह में शामिल है। राजनीति के विद्रूप चेहरे को बेनकाब करती ‘रीढ़’, ‘हरि इच्छा बलवान’, ‘मूर्ति’, ‘फरियाद’ तथा धार्मिक असहिष्णुता पर ‘विधर्मी’ जैसी पैनी लघुकथाएँ संग्रह में मौजूद हैं।
कुल मिलाकर संग्रह में सुरेश जांगिड़ जी ने डॉ. दुबे जी की कई अच्छी लघुकथाओं की पुनर्प्रस्तुति की है। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि डॉक्टर साहब की कुछ अन्य बेहतरीन लघुकथाएँ इस संग्रह में होनी चाहिए थीं, भले कुछ शामिल लघुकथाओं को छोड़ना पड़ता। पर इस तरह के निर्णय हमेशा व्यक्ति सापेक्ष होते हैं, उनमें मशीनी निरपेक्षता संभव नहीं है। पुस्तक का परिचय देते हुए संपादक सुरेश जी के दृष्टिकोंण और प्रयास- दोनों का स्वागत है। इस संग्रह से गुजरने का अर्थ एक बड़े लघुकथाकार की लघुकथाओं से रू-ब-रू होना है। जो नए रचनाकार-पाठक डॉ. सतीश दुबे जी जैसे अग्रणी लघुकथाकार के संग्रह नहीं पढ़ पाये हैं, निसंदेह इस संग्रह के माध्यम से उनकी अनेक श्रेष्ठ लघुकथाओं का आस्वाद ले सकेंगे।
डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएँ : लघुकथा संग्रह। संपादक : सुरेश जांगिड़ उदय। प्रकाशक : अक्षरधाम प्रकाशन, करनाल रोड, कैथल-136027 (हरियाणा)। मूल्य : (भारत में) रु.180/-, (विदेश में) $ 18 यू.एस.डालर। संस्करण : 2013।
प्रेमचंद के साथ लघुकथा की कसौटी के औजारों की तलाश
लघुकथा पर विमर्श और शोध कार्य अब तक काफी मात्रा में हो चुका है, तदापि लघुकथा की सामयिक समालोचना पर अभी उतना कार्य भी नहीं हुआ है, जितने न्यूनतम की अपेक्षा की जाती है। अधिकांश विमर्श और शोध लघुकथा के विधागत तत्वों के निर्धारण-परीक्षण तक सीमित रहा है। अधिकांशतः लघुकथा के लेखक ही सामान्यतः विमर्श के प्रणेता व भागीदार रहे हैं और कहीं न कहीं अधिकांश के अपने-अपने ‘रिजर्वेशन्स’ रहे हैं। इस संदर्भ में एक तथ्य यह है कि उदाहरण देने के लिए अधिकतर को अपनी ही लघुकथाएँ उपयुक्त लगती हैं तो दूसरा यह कि लघुकथा के सामान्यतः स्वीकृत निकषों के संदर्भ में अधिकांश लघुकथाकारों ने अपनी ही अनेक रचनाओं पर पुनर्विचार का प्रयास शायद ही किया हो। संग्रहों-संकलनों को प्रकाशित करने की होड़ में अनेक रचनाएं, जो लघुकथा की कसौटी पर खरी नहीं उतरती, खपा दी जाती रही हैं। भाई-चारे की समीक्षा-संस्कृति में उन पर बोलकर मतभिन्नताओं को मनभिन्नता या मनखिन्नता के दरवाजे पर ले जाकर कौन खड़ा करे? ऐसी ही स्थितियों के मध्य डॉ. बलराम अग्रवाल ने प्रेमचंद की लघ्वाकारीय कथा रचनाओं को आधार बनाकर लघुकथा-समालोचना के लिए कसौटी के औजार तलाशने के प्रयास में ‘समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद’ पुस्तक का संपादन किया है। इस कार्य के लिए सीधे ‘समकालीन लघुकथा’ रचनाओं को आधार क्यों नहीं बनाया गया, इसका स्पष्टीकरण उन्होंने भूमिका में दिया है। ‘‘...इस कार्य के लिए अभी तक न तो कोई मानक लघुकथा तय हो पाई है और न ही मानक लघुकथाकार।....’’ यह वस्तुस्थिति है (क्यों....?), तो शुरूआत कहां से की जाये? कहीं से तो करनी होगी। शायद जोखिमों से बचते हुए जोखिम वाले काम की शुरूआत करने का एक अच्छा विकल्प था किसी अमर कथाकार की लघ्वाकारीय कथा रचनाओं को आधार बनाना, जो समकालीनता के सर्वाधिक निकट हो। निसंदेह सर्वाधिक उपयुक्त ‘प्रेमचंद’ को आधार बनाकर लघुकथा की कसौटी के औजारों की तलाश के दो अतिरिक्त दूरगामी लाभ दृष्टिगोचर हो रहे हैं, एक- प्रेमचंद जैसे प्रतिष्ठित कथाकार की रचनाओं पर बोलने से लघुकथा के स्वतंत्र समीक्षक-समालोचक बनने के रास्ते में जो संकोच हैं, उनके दूर होने का आधार तैयार हुआ है; दूसरा- प्रेमचंद ‘समकालीन लघुकथा’ के ऐसे आधार बिन्दु बनकर उभरे हैं, जिसकी ओर हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ी के लघुकथाकार मुड़कर देख सकते हैं। और शायद लघुकथा में ही मानक रचनाएं और मानक रचनाकार तय (स्वीकार) करने में भी इस कार्य से कुछ अप्रत्यक्ष मदद मिल सके।
बलराम अग्रवाल जी ने इस पुस्तक को परिचर्चात्मक आलेखों के जरिये समालोचना का रूप दिया है। इसके लिए उन्होंने प्रेमचंद की 14 लघ्वाकारीय कथा रचनाओं (जिनमें लघुकथा के तत्वों की तलाश संभव थी) को अपने कुछ प्रश्नों के साथ लघुकथा से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे अनेक विद्वानों को उनकी समालोचनात्मक सम्मति के लिए भेजा था। सप्रयास प्रत्युत्तर में प्राप्त 25 विद्वानों के आलेखों के साथ तीन विद्वानों के अनूदित या मूल आलेख अन्य स्रोतों से लेकर एवं एक स्वयं के आलेख के साथ यानी कुल 29 विद्वानों के आलेख पुस्तक में शामिल हैं। इनमें कुछ प्रमुख विद्वान हैं- सर्वश्री कमल किशोर गोयनका, भगीरथ, सतीश दुबे, सूर्यकांत नागर, अशोक भाटिया, कृष्णानंद ‘कृष्ण’, पृथ्वीराज अरोड़ा, हरमहेन्द्र सिंह बेदी, वेदप्रकाश अमिताभ, रामेश्वर कांबोज ‘हिमांशु’, रूप सिंह चंदेल, रामयतन यादव, गौतम सान्याल, सुभाष नीरव, श्यामसुन्दर दीप्ति, श्यामसुन्दर अग्रवाल, व्यासमणि त्रिपाठी, सतीशराज पुष्करणा आदि। अधिकांश विद्वानों ने प्रेमचंद की विचारार्थ 14 लघ्वाकारीय कथा रचनाओं में से कुछ को स्पष्टतः समकालीन लघुकथा के सांचे में स्वीकार किया है, कुछ को पूरी तरह अस्वीकार। कुछ रचनाओं पर मतभिन्नता है। लेकिन खास बात यह है कि सभी ने स्वीकार-अस्वीकार के कारणों पर रोशनी डालकर समालोचना की जमीन तैयार करने में योगदान किया है। यह बेहद महत्वपूर्ण है। दूसरे, यह समालोचना भले प्रेमचंद की रचनाओं पर केन्द्रित है पर अप्रत्यक्षतः अनेक समकालीन लघुकथाकारों को आइना दिखाने जैसी है। हमारे समकलीन लघुकथाकार इस पूरी पुस्तक को पढ़ें तो निश्चय ही वे अपने लेखन और समग्रतः लघुकथा के उन्नयन के लिए काफी कुछ कर पाएंगे। यह कहना कि शोधार्थियों और समालोचना में काम करने वालों के लिए पुस्तक बेहद उपयोगी होगी, महज रस्म अदायगी जैसा होगा, वास्तविकता यह है कि सृजनरत लघुकथाकारों, विशेषतः नवांकुरों के लिए भी यह बेहद उपयोगी है।
समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद : समालोचना । संपादक : बलराम अग्रवाल। प्रकाशक: ग्रंथ सदन, 27/109ए/3,भूतल, पांडव रोड, शंकरगली के सामने, ज्वालानगर, शाहदरा, दिल्ली-32। संस्करण: 2012। मूल्य: रु.280/- मात्र।
{अविराम के ब्लाग के इस अंक में श्री सुरेश जांगिड़ 'उदय' द्वारा सम्पादित वरिष्ठ कथाकार डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाओं के संग्रह ‘‘डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएं’’ एवम वरिष्ठ कथाकार-समालोचक डॉ बलराम अग्रवाल द्वारा सम्पादित समालोचना पुस्तक 'समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद' की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा तथा वरिष्ठ साहित्यकार श्री ललित नारायण उपाध्याय के व्यंग्य लघुकथा संग्रह "एक गधे का प्रमोशन" की डॉ. राम कुमार घोटड द्वारा लिखित समीक्षायें रख रहे हैं। लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर भेजें।}
डॉ. उमेश महादोषी
एक बड़े लघुकथाकार की लघुकथाओं से रू-ब-रू होना
साहित्य की किसी भी विधा का महत्व इस बात से तय होता है कि वह विधा समग्रतः अपने साहित्यिक उद्देश्य में कहाँ तक सफल है। इस परिप्रेक्ष्य में लघुकथा के विधागत योगदान का मूल्यांकन करना हो तो हमें उसके फलक पर छाए तमाम सृजन-बिन्दुओं पर दृष्टि डालनी होगी, जो फलक की व्यापकता के भी कारण बनते हैं। वर्तमान समकालीनता के दायरे में आने से पूर्व लघुकथा के जितने भी रूप-स्वरूप मौजूद हैं, उनके सापेक्ष चार-पाँच दशकों में लघुकथा का जो रूप-स्वरूप विकसित होकर सामने आया है, वह उसके विधागत समकालीन साहित्यिक उद्देश्य को बड़े स्तर पर पूरा करता है। उसके विधागत फलक पर जीवन की व्यापकता की परतों को उघाड़ते मानवीय व्यवहार के अनेकानेक चित्र और संवेदनाएँ अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। इस रास्ते पर लघुकथा को लाने में लघुकथा के कई हस्ताक्षरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, डॉ. सतीश दुबे जी उनमें अग्रणी हैं। डॉ. दुबे साहब ने हमेशा से प्रयास किया है कि लघुकथा रूपाकार, शिल्प-शैली और विषय-कथ्य, किसी भी स्तर पर एकांगी पथ की यात्री बनकर न रह जाये! उनका यह प्रयास आलेखों-साक्षात्कारों से आगे जाकर उनके सृजन में व्यापक स्तर पर प्रतिबिम्बित हुआ है।
जीवन के विभिन्न पक्षों और मानवीय संवेदना के विभिन्न रूपों से जुड़े अनेकानेक कथ्यों को दुबे साहब ने अपनी लघुकथाओं में अभिव्यक्ति दी है और गहन अनुभूतिपरक लघुकथाओं का सृजन किया है। अब तक उनके छः लघुकथा संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनकी लघुकथाओं में एक नहीं, कई ऐसी हैं, जो पाठक के अन्तर्मन में तूफानी हलचल पैदा कर देती हैं, चेतना और संवेदना- दोनों स्तरों पर। कई ऐसी हैं जो मनुष्य के अहंकार पर चोट करती हैं, उसमें यथास्थिति के प्रति व्यामोह से जनित छटपटाहट पैदा करती हैंे, और अन्ततः अहंकारमय यथास्थिति के कवच को तोड़कर बाहर आने के लिए विवश करती हैं। दूसरी ओर उन्होंने ऐसी लघुकथाओं का सृजन भी किया है, जिनमें वह हमें जीवन-सरस्वती की उस धारा से रूबरू करा रहे होते हैं, जिसके यथार्थ के परिदृश्य से लुप्त हो जाने के बावजूद हम अपने अन्तर्मन के पटल से लुप्त होना स्वीकार नहीं कर पाते।
जैनेरेशन गैप, जीवन का एक ऐसा पहलू है, जो सामाजिक-पारिवारिक जीवन के स्नेह-तंतुओं में सड़ांध पैदा करने लगा है। इस विषय को जितनी गहराई से दुबे साहब ने समझा है, वह कम ही जगह देखने को मिलेगा। नई पीढ़ी के साथ वह बेहद व्यावहारिक सोच के साथ खड़े नजर आते हैं। निसंदेह उनकी इस व्यावहारिक सोच के पीछे जीवन के सत्य और उद्देश्य के प्रति गहरी समझ खड़ी होती है। जिस संतान को हम बेहद लाड़-दुलार के साथ पालते-पोषते हैं, बचपन में उनकी जाने कितनी नादानियों पर खुशियों से झूम उठते हैं, यकायक उनकी युवावस्था में हम उन्हें घोड़ों की तरह नियंत्रित करना अपना अधिकार समझने लग जाते हैं। जबकि उनकी अनेकानेक भावनाओं के विकास के लिए कहीं न कही हम स्चयं भी जिम्मेवार होते हैं। नई पीढ़ी की भावनाओं को समझना और उनके साथ तालमेल की जिम्मेवारी वरिष्ठ पीढ़ी के कंधों पर कहीं अधिक होती है। बाल मनोविज्ञान और स्त्री विमर्श पर भी उनकी कई लघुकथाएँ गहरे तक प्रभावित करती हैं। बड़ी संख्या में उनकी लघुकथाओं को उनके पाठक लम्बे समय तक भुला नहीं सकेगें। अकादमिक स्तर भी उनकी लघुकथाएँ लम्बे समय तक चर्चा में रहेंगी।
डॉ. दुबे साहब के व्यापक लघुकथा संसार से अपनी पसन्द की करीब 99 श्रेष्ठ लघुकथाओं का चयन कर भाई सुरेश जांगिड़ ‘उदय’ ने प्रमुख लघुकथाकारों की श्रेष्ठ लघुकाथाओं की प्रस्तुति की अपनी योजना की प्रथम कड़ी के रूप में ‘डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ नाम से प्रस्तुत किया है। साहित्य की महत्वपूर्ण विधाओं के सापेक्ष लघुकथा के महत्व को भी रेखांकित करने के सन्दर्भ में उनकी सोच को सकारात्मक दृष्टि से देखा जा सकता है। निसंदेह आज कई लघुकथाकार हमारे बीच मौजूद हैं, जिन्हें हम समकालीन महान साहित्यकारों की श्रेणी में रख सकते हैं और लघुकथा पर कई आरोपों के बावजूद कई लघुकथाओं को हम कालजयी रचनाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। फिर इनका नोटिस लेने से पीछे क्यों रहा जाये? जिस सम्मान के वे हकदार हैं, उससे उन्हें क्यों वंचित रखा जाये?
इस पुस्तक में दुबे साहब की कई प्रसिद्ध और प्रभावशाली लघुकथाएँ शामिल हैं। इनमें प्रेम और अपनेपन की डोर से एक मनुष्य और जानवर (बन्दर) के बीच बने रिश्ते की अटूटता और निश्छलता को रेखांकित करती ‘रिश्ताई नेह बंध’ और इसी अटूटता व निश्छलता पर आघात होने पर एक पशु के विद्रोह को अभिव्यक्ति देती ‘प्रतिरोध’ जैसी लघुकथाएँ हैं। इसमें संग्रहीत उनकी सुप्रसिद्ध लघुकथा ‘वर्थ-डे गिफ्ट’ में एक पोती और उसके दादा जी के रिश्ते में व्यात ऊर्जा बाल मनोविज्ञान की सुखद व्याख्या करती है। लेकिन जब आयु के साथ बच्चों का अन्तर्मन स्वार्थ के पाग में पग जाता है तो ‘थके पाँवों का सफ़र’ के चाचाजी की सूखी आँखों के आँसू पाठक की आँखों तक पहुँच जाते हैं।
बाल मनोविज्ञान के विविधि पहलुओं को रेखांकित करती ’खेल वाली माँ’, ‘विनियोग’, ‘दिल का दायरा’, ‘पेड़ों की हँसी’, ‘बस एक कहानी और’ जैसी सशक्त लघुकथाएँ भी यहाँ संग्रहीत हैं। ‘प्रमुख अतिथि’ लघुकथा भी शामिल है, जिसमें हरदर्शन जैसा बड़ा आदमी बेटे की जन्मदिन पार्टी में अपने प्रमुख चालक शिवलाल को परिवार का हिस्सा और गुरु मानकर प्रमुख अतिथि बनाता है। इसमें यथार्थ के पटल से लुप्त जीवन-सरसवती को पाठक अपने अर्न्तमन के पटल पर खोजता महसूस करता है। इसी श्रेणी की ‘गबरू चरवाहा’, ‘बन्दगी’, ‘धरमभाई’, ‘रहनुमा’ जैसी लघुकथाएँ भी पाठकों के अन्तर्मन को आनन्दानुभूति से सराबोर करती हैं। प्रेम की गहन अनुभूति को अभिव्यक्त करती लघुकथा ‘प्रेम-ब्लॉग’ एक शैलीगत प्रयोग भी है। ‘पहचाना कि नहीं?’ एवं ‘सपनों का स्वेटर’ भी गहन प्रेम अनुभूति की रचनाएँ हैं। इसी पृष्ठभूमि से जुड़ी लघुकथा ‘पासा’ को शिल्पगत कसावट के लिए भी याद रखा जा सकता है। प्रतिकूल समय में बड़ों (अपनों) का साथ और सहानुभूति व्यक्ति को टूटने से बचा लेती है; ‘फीनिक्स’ में इसे प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है। ‘मर्द’ व ‘उत्स’ जैसी रचनाएँ निराशाजनक वातावरण में भी जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोंण की प्रेरणा बनती हैं। ‘बाबूजी’, ‘भीड़’, ‘अगला पड़ाव’, ‘फूल’ आदि रचनाओं में गहन मानवीय संवेदना के अलग-अलग रूप देखने को मिलते हैं।
हिन्दू-मुस्लिम परिवारों में पारस्परिक स्नेह के रिश्तों के अनेक उदाहरण हमारे समाज में दिखाई दे जाते हैं। इन रिश्तों की गर्माहट को उजागर करने का अपना महत्व है, क्योंकि दोनों समुदायों को अपनी प्रगति करनी है, जीवन को सिद्दत से जीना है तो अन्ततः एक साथ ही रहना होगा। मानवीय लोकतन्त्र में इसका कोई और विकल्प नहीं है। पाकिस्तान का अलग अस्तित्व भी नकारात्मक आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पाया है। ऐसे में विद्यमान वातावरण को बदलने के प्रयास साहित्य सृजन के स्तर पर रिश्तों की इसी गर्माहट को रेखांकित करके हो सकते हैं। ‘वादा’, ‘रिश्तों की सरहद’ जैसी लघुकथाएँ अन्तर्धर्मीय रिश्तों की इसी गर्माहट के संचरण का माध्यम बनती हैं। ‘अतिथि’ का संदेश भी इसी दिशा में देखा जाना चाहिए। ‘अंतिम सत्य’ का तो सीधा संदेश ही यही है।
भय और शोषण के खिलाफ साहस और संघर्ष की अभिव्यक्ति सकारात्मक सृजन का हिस्सा होती है। इस पृष्ठभूमि पर रचे गए कथ्यों को ‘प्रज्ज्वलितं श्रेयं’, ‘योद्धा’, ‘माँ का धर्म’, ‘दस्तूर’ जैसी लघकथाओं में प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित किया गया है। व्यवस्था की संवेदनहीनता पर ‘फैसला’, ‘भूत’, ‘हुकुम सरकार का’ तथा सामाजिक संवेदनहीनता को उजागर करती ‘कत्ल’, ‘शहर के बीच मौत’ जैसी कई महत्वपूर्ण लघुकथाओं का चयन इस संग्रह में शामिल है। राजनीति के विद्रूप चेहरे को बेनकाब करती ‘रीढ़’, ‘हरि इच्छा बलवान’, ‘मूर्ति’, ‘फरियाद’ तथा धार्मिक असहिष्णुता पर ‘विधर्मी’ जैसी पैनी लघुकथाएँ संग्रह में मौजूद हैं।
कुल मिलाकर संग्रह में सुरेश जांगिड़ जी ने डॉ. दुबे जी की कई अच्छी लघुकथाओं की पुनर्प्रस्तुति की है। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि डॉक्टर साहब की कुछ अन्य बेहतरीन लघुकथाएँ इस संग्रह में होनी चाहिए थीं, भले कुछ शामिल लघुकथाओं को छोड़ना पड़ता। पर इस तरह के निर्णय हमेशा व्यक्ति सापेक्ष होते हैं, उनमें मशीनी निरपेक्षता संभव नहीं है। पुस्तक का परिचय देते हुए संपादक सुरेश जी के दृष्टिकोंण और प्रयास- दोनों का स्वागत है। इस संग्रह से गुजरने का अर्थ एक बड़े लघुकथाकार की लघुकथाओं से रू-ब-रू होना है। जो नए रचनाकार-पाठक डॉ. सतीश दुबे जी जैसे अग्रणी लघुकथाकार के संग्रह नहीं पढ़ पाये हैं, निसंदेह इस संग्रह के माध्यम से उनकी अनेक श्रेष्ठ लघुकथाओं का आस्वाद ले सकेंगे।
डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएँ : लघुकथा संग्रह। संपादक : सुरेश जांगिड़ उदय। प्रकाशक : अक्षरधाम प्रकाशन, करनाल रोड, कैथल-136027 (हरियाणा)। मूल्य : (भारत में) रु.180/-, (विदेश में) $ 18 यू.एस.डालर। संस्करण : 2013।
प्रेमचंद के साथ लघुकथा की कसौटी के औजारों की तलाश
लघुकथा पर विमर्श और शोध कार्य अब तक काफी मात्रा में हो चुका है, तदापि लघुकथा की सामयिक समालोचना पर अभी उतना कार्य भी नहीं हुआ है, जितने न्यूनतम की अपेक्षा की जाती है। अधिकांश विमर्श और शोध लघुकथा के विधागत तत्वों के निर्धारण-परीक्षण तक सीमित रहा है। अधिकांशतः लघुकथा के लेखक ही सामान्यतः विमर्श के प्रणेता व भागीदार रहे हैं और कहीं न कहीं अधिकांश के अपने-अपने ‘रिजर्वेशन्स’ रहे हैं। इस संदर्भ में एक तथ्य यह है कि उदाहरण देने के लिए अधिकतर को अपनी ही लघुकथाएँ उपयुक्त लगती हैं तो दूसरा यह कि लघुकथा के सामान्यतः स्वीकृत निकषों के संदर्भ में अधिकांश लघुकथाकारों ने अपनी ही अनेक रचनाओं पर पुनर्विचार का प्रयास शायद ही किया हो। संग्रहों-संकलनों को प्रकाशित करने की होड़ में अनेक रचनाएं, जो लघुकथा की कसौटी पर खरी नहीं उतरती, खपा दी जाती रही हैं। भाई-चारे की समीक्षा-संस्कृति में उन पर बोलकर मतभिन्नताओं को मनभिन्नता या मनखिन्नता के दरवाजे पर ले जाकर कौन खड़ा करे? ऐसी ही स्थितियों के मध्य डॉ. बलराम अग्रवाल ने प्रेमचंद की लघ्वाकारीय कथा रचनाओं को आधार बनाकर लघुकथा-समालोचना के लिए कसौटी के औजार तलाशने के प्रयास में ‘समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद’ पुस्तक का संपादन किया है। इस कार्य के लिए सीधे ‘समकालीन लघुकथा’ रचनाओं को आधार क्यों नहीं बनाया गया, इसका स्पष्टीकरण उन्होंने भूमिका में दिया है। ‘‘...इस कार्य के लिए अभी तक न तो कोई मानक लघुकथा तय हो पाई है और न ही मानक लघुकथाकार।....’’ यह वस्तुस्थिति है (क्यों....?), तो शुरूआत कहां से की जाये? कहीं से तो करनी होगी। शायद जोखिमों से बचते हुए जोखिम वाले काम की शुरूआत करने का एक अच्छा विकल्प था किसी अमर कथाकार की लघ्वाकारीय कथा रचनाओं को आधार बनाना, जो समकालीनता के सर्वाधिक निकट हो। निसंदेह सर्वाधिक उपयुक्त ‘प्रेमचंद’ को आधार बनाकर लघुकथा की कसौटी के औजारों की तलाश के दो अतिरिक्त दूरगामी लाभ दृष्टिगोचर हो रहे हैं, एक- प्रेमचंद जैसे प्रतिष्ठित कथाकार की रचनाओं पर बोलने से लघुकथा के स्वतंत्र समीक्षक-समालोचक बनने के रास्ते में जो संकोच हैं, उनके दूर होने का आधार तैयार हुआ है; दूसरा- प्रेमचंद ‘समकालीन लघुकथा’ के ऐसे आधार बिन्दु बनकर उभरे हैं, जिसकी ओर हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ी के लघुकथाकार मुड़कर देख सकते हैं। और शायद लघुकथा में ही मानक रचनाएं और मानक रचनाकार तय (स्वीकार) करने में भी इस कार्य से कुछ अप्रत्यक्ष मदद मिल सके।
बलराम अग्रवाल जी ने इस पुस्तक को परिचर्चात्मक आलेखों के जरिये समालोचना का रूप दिया है। इसके लिए उन्होंने प्रेमचंद की 14 लघ्वाकारीय कथा रचनाओं (जिनमें लघुकथा के तत्वों की तलाश संभव थी) को अपने कुछ प्रश्नों के साथ लघुकथा से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे अनेक विद्वानों को उनकी समालोचनात्मक सम्मति के लिए भेजा था। सप्रयास प्रत्युत्तर में प्राप्त 25 विद्वानों के आलेखों के साथ तीन विद्वानों के अनूदित या मूल आलेख अन्य स्रोतों से लेकर एवं एक स्वयं के आलेख के साथ यानी कुल 29 विद्वानों के आलेख पुस्तक में शामिल हैं। इनमें कुछ प्रमुख विद्वान हैं- सर्वश्री कमल किशोर गोयनका, भगीरथ, सतीश दुबे, सूर्यकांत नागर, अशोक भाटिया, कृष्णानंद ‘कृष्ण’, पृथ्वीराज अरोड़ा, हरमहेन्द्र सिंह बेदी, वेदप्रकाश अमिताभ, रामेश्वर कांबोज ‘हिमांशु’, रूप सिंह चंदेल, रामयतन यादव, गौतम सान्याल, सुभाष नीरव, श्यामसुन्दर दीप्ति, श्यामसुन्दर अग्रवाल, व्यासमणि त्रिपाठी, सतीशराज पुष्करणा आदि। अधिकांश विद्वानों ने प्रेमचंद की विचारार्थ 14 लघ्वाकारीय कथा रचनाओं में से कुछ को स्पष्टतः समकालीन लघुकथा के सांचे में स्वीकार किया है, कुछ को पूरी तरह अस्वीकार। कुछ रचनाओं पर मतभिन्नता है। लेकिन खास बात यह है कि सभी ने स्वीकार-अस्वीकार के कारणों पर रोशनी डालकर समालोचना की जमीन तैयार करने में योगदान किया है। यह बेहद महत्वपूर्ण है। दूसरे, यह समालोचना भले प्रेमचंद की रचनाओं पर केन्द्रित है पर अप्रत्यक्षतः अनेक समकालीन लघुकथाकारों को आइना दिखाने जैसी है। हमारे समकलीन लघुकथाकार इस पूरी पुस्तक को पढ़ें तो निश्चय ही वे अपने लेखन और समग्रतः लघुकथा के उन्नयन के लिए काफी कुछ कर पाएंगे। यह कहना कि शोधार्थियों और समालोचना में काम करने वालों के लिए पुस्तक बेहद उपयोगी होगी, महज रस्म अदायगी जैसा होगा, वास्तविकता यह है कि सृजनरत लघुकथाकारों, विशेषतः नवांकुरों के लिए भी यह बेहद उपयोगी है।
समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद : समालोचना । संपादक : बलराम अग्रवाल। प्रकाशक: ग्रंथ सदन, 27/109ए/3,भूतल, पांडव रोड, शंकरगली के सामने, ज्वालानगर, शाहदरा, दिल्ली-32। संस्करण: 2012। मूल्य: रु.280/- मात्र।
- एफ-488/2, गली सं.11, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
डॉ. रामकुमार घोटड़
एक गधे का प्रमोशन : आधुनिक समाज का हकीकती दस्तावेज
साहित्यिक उत्तराधिकार की परंपरा का निर्वाह करने वाले ललित नारायण जी जीवन के सातवें दशक में भी लेखन की निरंतरता बनाये हुए हैं। इस अवस्था में लेखन की सक्रियता को अगर हम संस्कारों की देन न कहे तो क्या कहें? अपने रचनाधर्मिता के पांच दशकों में ललित जी ने बहुत लिखा, अपनी लेखन सामग्री में वर्तमान तक साठ पुस्तकें प्रकाशित व लगभग अस्सी पांडुलिपियाँ प्रकाशन के इन्तजार में हैं। इनका लेखन व्यंग्य विधा में रहा है। गद्य एवं पद्य, दोनों में बराबर लिखा है लेकिन लेखन का मुखर व्यंग्य भरा अधिक सामने आया है। गद्य की अन्य विधाओं के साथ-साथ लघुकथा विधा में भी सफलता पूर्वक रचनाधर्म को निभाया है। इसका उदाहरण है ‘व्यथारोग’ (2005) तथा ‘एक गधे का प्रमोशन’ (2012) लघुकथा पुस्तकें व विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ।
समीक्ष्य कृति ‘एक गधे का प्रमोशन’ एक एकल व्यंग्य लघुकथा संग्रह है। सभी लघुकथाएं व्यंग्यात्मक शैली की हैं। इस पुस्तक के पठनोपरान्त ‘रागदरबारी’ और ‘एक गधे की आत्मकथा’ की बरबस ही याद हो आती है। परिवेश का यथार्थमयी प्रस्तुतीकरण दिया है श्रीमान ललित नारायण जी ने। आम आदमी के जीवन में प्रतिदिन घटित क्षण, आपाधापी, संवेदनहीन, स्वार्थपूर्ण मतलबी रिश्ते, मर्यादाओं से परे दोगली राजनीति के चरित्र को उजागर करती हुई इस पुस्तक की लघुकथाएं हमें अपने आप में झांकने को मजबूर करती हैं और यह जानने की ओर इशारा करती हैं कि अपने को तलाश करो कि तुम इन्सानी चोले में हो या बाहर। ललित जी के ये व्यंग्य ही नहीं हैं बल्कि आधुनिक समाज का हकीकती दस्तावेज के पन्ने हैं, जिनमें प्रत्येक पल की तस्वीरें अंकित हैं।
यूं तो इस संग्रह की लगभग सभी लघुकथाएं पठनीय हैं, फिर भी आदमी के घर जाने पर सजा, शुद्ध भैंस, मेहनतकसों के बीच, गमी, महाभोज, तम्बोला, दारू की बोतल, आदमी का अ-आदमीपना, खरगोश और कछुआ, राम की वापसी, रिश्वत का सहारा, भागीरथ प्रयास, बराबर के हो गये, समय का सत्य, स्वार्थ लघुकथाएं बेजोड़ हैं।
लघुकथाओं के साथ कुछ व्यंग्य रचनाएं भी इस पुस्तक में हैं, जिनमें पुस्तक शीर्षक वाली व्यंग्य रचना ‘एक गधे का प्रमोशन’ के साथ ‘तू आती क्या राजनीति में’, ‘नमक मैं और मेरा देश’, सड़क ढूँढ़ो प्रतियोगिता’ आदि रचनाएं व्यंग्य लेखन का बेहतरीन नमूना हैं।
पुस्तक में कुछ लघुकथाओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद भी प्रकाशित किया गया है, जिससे लेखक के प्रचार-प्रसार और लोकप्रियता का अहसास होता है।
ललितनारायण जी एक सिद्धहस्त साहित्यकार एवं यायावर कलम के धनी हैं। उन्होंने विरासत में मिले रचनाधर्मी संस्कारों को अपनी लेखनी के माध्यम से फलने-फूलने दिया है। व्यंग्यप्रधान लघुकथाएं अपने आप में लघुकथा की एक विशिष्ट शैली है। शैली विशेष की इतनी सारी लघुकथाएं एक साथ पढ़कर पाठक आनन्दानुभूति के साथ संतुष्टि महसूस करेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है।
एक गधे का प्रमोशन : व्यंग लघुकथाओं एवं व्यंग्यालेखों का संग्रह। लेखक : ललित नारायण उपाध्याय। प्रकाशक : साहित्य संगम, सुदामानगर, इन्दौर, म.प्र.। मूल्य : रु. 50/- मात्र। पृष्ठ : 116। संस्करण : 2012।
- सादुलपुर, चूरू, राजस्थान।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें